क्लारा ज़ेटकिन – फासीवाद (अगस्त 1923)


मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट)

[जर्मनी की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी क्लारा ज़ेटकिन (1857-1933) ने जून 1923 में कॉमिन्टर्न की कार्यकारिणी समिति के तीसरे अभिवर्धित प्लेनम में एक  रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। यह रिपोर्ट अंग्रेजी में ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की मासिक पत्रिका, लेबर मंथली, में अगस्त 1923 में संक्षेप में छपी थी, जिसका यहाँ हम हिन्दी अनुवाद दे रहे हैं। इससे पहले नवंबर 1922 में इतालवी मार्क्सवादी अमादेओ बोर्दीगा ने भी फासीवाद पर एक रिपोर्ट कॉमिन्टर्न में पेश की थी, परंतु ज़ेटकिन की रिपोर्ट ने ही फासीवाद पर बाद  की कम्युनिस्ट समूहों की चर्चाओं के लिए प्रथम व्यवहारात्मक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण तैयार किया था।  

इस रिपोर्ट में ज़ेटकिन फासीवाद के उत्थान को पूंजीवाद के आर्थिक संकट और उसके संस्थाओं के पतन से जोड़ती हैं। मजदूर वर्ग पर बढ़ता आक्रमण और अन्य वर्गों का सर्वहाराकरण इस संकट के प्रमुख नतीजे हैं। ज़ेटकिन का मानना है कि सत्तासीन होकर समाज को पुनर्गठित कर पूंजीवाद के सामाजिक संकट का निवारण करने में सर्वहारा वर्ग की असफलता फासीवाद को जन्म देती है। पूंजीवाद के संकट से व्याकुल हो रहे विभिन्न निम्न-पूंजीवादी तबकों को आकर्षित करने की क्षमता फासीवाद को जन-चरित्र देती है। फासीवादी विचारधारा राष्ट्र और राजसत्ता को वर्गीय अंतर्विरोधों और हितों से ऊपर रख अंध-राष्ट्रवाद फैला कर सैन्यवाद और युद्धवाद के लिए माहौल तैयार करती है। पूंजीपति वर्ग  के कई महत्वपूर्ण तबके पूंजीवाद के सामान्य संकट और जनता के लगातार सर्वहाराकरण के कारण अपनी  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्वता पर खतरे से बचने के लिए फासीवाद का समर्थन और वित्तीय पोषण आरंभ कर देते हैं।   

ज़ेटकिन फासीवाद पर ओटो बावर (जो कि ऑस्ट्रीया के सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रमुख नेता और सिद्धांतकार थे) जैसे सुधारवादियों की समझ की तीव्र आलोचना करती हैं, ओटो बावर के अनुसार फासीवाद महज कम्युनिस्टों द्वारा संगठित सर्वहारा लड़ाकूपन और कानूनेतर गतिविधियों का नतीजा था। ज़ेटकिन फासीवाद के खिलाफ शोषित जनता के अपने रक्षा पहलों पर जोर देती हैं। उनके अनुसार सर्वहारा वर्गीय संयुक्त मोर्चे का निर्माण ही फासीवाद को चुनौती दे सकता है।  परंतु यह संघर्ष राजनीतिक और वैचारिक भी है इनके द्वारा श्रमिक वर्ग को मध्यम वर्गीय तबकों तक अपनी पहुँच बनानी होगी चूंकि इनके ऊपर पूंजीवादी संकट और सर्वहाराकरण का असर पड़ता है। ज़ेटकिन के अनुसार मजदूरों और किसानों की संयुक्त सरकार ही सामाजिक-आर्थिक संकट का निवारण कर फासीवाद का विनाश कर सकती है।

हमारी दृष्टि में क्लारा ज़ेटकिन की यह रिपोर्ट केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती है। जहां तक फ़ासिज़्म के खिलाफ तात्कालिक रणनीतियों का सवाल है वह तो स्थान और समय के मुताबिक तब्दील होती रहती हैं। परंतु इस रिपोर्ट में निहित  मार्क्सवादी व्याख्यात्मक अंतर्दृष्टि आज भी हमें बहुत कुछ सिखा सकती है। फासीवाद को महज सत्ता के औजार के बने बनाए रूप में न देख उसको सामाजिक प्रक्रियाओं और वर्ग सघर्षों की अवस्थाओं के अंदर से पनपता हुआ देखने की जरूरत है। आज पिछले पाँच दशकों से वैश्विक पूंजीवादी राजनीतिक अर्थतन्त्र स्थायी-संकट से ग्रस्त है। इस संकट से निज़ात पाने के लिए भूमंडलीय वित्तीयकरण की प्रक्रिया लगातार बृहत्तर और तीव्रतम होती जा रही। विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया ने आर्थिक-सामाजिक संकट को और अधिक व्यापक और तीव्र कर दिया है, यहां तक कि विश्व की तमाम राजसत्ताएँ इसके कारण निरंतर वैधता के संकट में डूबती जा रही हैं — इनकी आक्रामकता इनकी बढ़ती असंगतता और कमज़ोरियों के लक्षण हैं।  इसी संकटावस्था को सकारात्मक भाषा में नवोदरवाद भी कहते हैं। यह तथ्य इस रिपोर्ट की अंतर्दृष्टि को और महत्व दे देता है क्योंकि फासीकरण इस अवस्था में समूचे सामाजिक-राजनीतिक संरचना में गुत्थ गई है, और इसके खिलाफ संघर्ष को तात्कालिकवाद में सीमित नहीं रखा जा सकता । ]

फासीवाद के रूप में, सर्वहारा वर्ग का सामना एक असाधारण खतरनाक शत्रु से होता है। फासीवाद सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध विश्व पूंजीपति वर्ग द्वारा किये गये व्यापक आक्रमण की घनीभूत अभिव्यक्ति है। इसलिए इसे उखाड़ फेंकना नितांत आवश्यक ही नहीं, बल्कि यह हर साधारण श्रमिक की रोजमर्रा की ज़िंदगी और रोजी-रोटी का सवाल भी है। इन्हीं आधारों पर समूचे सर्वहारा वर्ग को फासीवाद के खिलाफ लड़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि हम स्पष्टता और गहनता से इसकी प्रकृति का अध्ययन करें तो फासीवाद को हराना हमारे लिए बहुत आसान होगा। अब तक इस विषय पर न केवल श्रमिकों के विशाल जनसमूह के बीच, बल्कि सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी अग्रदूतों और कम्युनिस्टों के बीच भी बेहद अस्पष्ट विचार रहे हैं। अब तक फासीवाद को हंगरी में होर्थी (Horthy) के श्वेत आतंक के समकक्ष समझा गया है। हालाँकि दोनों की पद्धतियाँ समान हैं, लेकिन मूलतः वे अलग-अलग हैं। होर्थी आतंक सर्वहारा वर्ग की विजयी, अपितु अल्पकालिक, क्रांति को दबा दिए जाने के उपरांत स्थापित हुआ था, और यह पूंजीपति वर्ग के प्रतिशोध की अभिव्यक्ति थी। श्वेत आतंक का सरगना पूर्व अधिकारियों का एक छोटा सा गुट था। इसके विपरीत, वस्तुपरक रूप से देखा जाए तो फासीवाद, पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा आक्रामकता के प्रतिशोध में पूंजीपति वर्ग का बदला नहीं है, बल्कि वह रूस में शुरू हुई क्रांति को जारी रखने में विफल रहने के लिए सर्वहारा वर्ग की सजा है। फासीवादी नेताओं की कोई छोटी और विशिष्ट जाति नहीं है; वे जनसंख्या के व्यापक हिस्सों में गहराई से फैले हुए हैं।

केवल सैन्य रूप से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी हमें फासीवाद पर काबू पाना होगा। आज भी सुधारवादियों के लिए फासीवाद नग्न हिंसा — सर्वहारा वर्ग द्वारा शुरू की गई हिंसा के विरुद्ध प्रतिक्रिया — के अलावा कुछ भी नहीं है। सुधारवादियों के लिए रूसी क्रांति अदन की वाटिका में हव्वा के सेब चखने [यानि महापाप] के समान है। सुधारवादी फासीवाद को रूसी क्रांति और उसके परिणामों से जोड़ते हैं। हामबुर्ग के एकता सम्मेलन में ओटो बावर का इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं था, जब उन्होंने फासीवाद के लिए बहुत हद तक दोषी कम्युनिस्टों को ठहराया, जिन्होंने, उनके अनुसार, लगातार विभाजन से सर्वहारा वर्ग की ताकत को कमजोर कर दिया था। यह कहते हुए उन्होंने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि रूसी क्रांति के इस मनोबल गिराने वाले उदाहरण से बहुत पहले जर्मनी के स्वतंत्र [सामाजिक-जनवादियों] ने विभाजन को अंजाम दिया था। खुद के विचारों के विपरीत, बावर को हामबुर्ग में इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि फासीवाद की संगठित हिंसा का मुकाबला सर्वहारा वर्ग के रक्षा संगठनों के निर्माण से किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रत्यक्ष हिंसा के खिलाफ लोकतंत्र की कोई भी अपील काम नहीं कर सकती। अवश्य ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनका मतलब विद्रोह या आम हड़ताल जैसे हथियारों से नहीं था जिनसे हमेशा सफलता नहीं मिली है। उनका अभिप्राय जन कार्रवाई के साथ संसदीय कार्रवाई के सामंजस्य से था। ओटो बावर ने यह नहीं बताया कि इन कार्रवाइयों की प्रकृति क्या होगी, जबकि प्रश्न का मूल बिंदु यही है। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए एकमात्र हथियार जिसकी सिफारिश बावर ने की वह विश्व प्रतिक्रियावाद पर अंतर्राष्ट्रीय सूचना ब्यूरो की स्थापना थी। इस नए-पुराने इंटरनेशनल का विशिष्ट लक्षण पूंजीवादी वर्चस्व की शक्ति और स्थायित्व में उसका विश्वास और विश्व क्रांति के सबसे मजबूत कारक के रूप में सर्वहारा वर्ग के प्रति उसका अविश्वास और बुज़दिली है। उसका मानना है कि सर्वहारा पूंजीपति वर्ग की अजेय ताकत के खिलाफ संयम से काम लेने और पूंजीपति वर्ग के बाघ को छेड़ने से परहेज करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। 

वास्तव में, अपने हिंसक कृत्यों के अभियोजन में अपनी पूरी ताकत के साथ, फासीवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विघटन और क्षय की अभिव्यक्ति और बुर्जुआ राजसत्ता के भंग होने के लक्षण के अलावा और कुछ नहीं है। यही उसके आधारों में से एक है। पूंजीवाद के इस पतन के लक्षण युद्ध से पहले ही दिखाई देने लगे थे। युद्ध ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उसकी नींव समेत तहस-नहस कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप न केवल सर्वहारा वर्ग में भारी दरिद्रता आई है, बल्कि निम्न पूंजीवादी वर्ग, छोटे किसानों और बुद्धिजीवियों की भी बड़ी दुर्गति हुई है। इन सभी समूहों से वादा किया गया था कि युद्ध से उनकी भौतिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरीत —  बड़ी संख्या में पहले का मध्यम वर्ग अपनी आर्थिक सुरक्षा को पूरी तरह से खोकर सर्वहारा बन गया है। इस कतार में बड़ी संख्या में पूर्व अधिकारी भी शामिल हो गए, जो अब बेरोजगार हैं। इन्हीं तत्वों में से फासीवाद को अपने लिए पर्याप्त रंगरूट मिले। फासीवाद की ऐसी संरचना कई देशों में उसके मुखर राजशाहीवादी चरित्र का कारण है। 

फासीवाद की दूसरी जड़ सुधारवादी नेताओं के विश्वासघाती रवैये द्वारा विश्व क्रांति की गति को धीमा करने में निहित है। सुधारवादी समाजवाद के प्रति निश्चित सहानुभूति की वजह से और इस आशा में कि वह लोकतांत्रिक तर्ज पर समाज में सुधार लाएगा बड़ी संख्या में निम्न पूंजीपति वर्ग ने, यहां तक कि माध्यम वर्ग ने भी, युद्ध काल की अपनी मनोवृत्ति को त्याग दिया था। वे निराश थे। उन्हें दिख रहा है कि सुधारवादी नेता पूंजीपति वर्ग के साथ एक परोपकारी समझौते में हैं। इससे भी बुरा यह है कि इस जनता ने अब न केवल सुधारवादी नेताओं में, बल्कि समग्र रूप से समाजवाद में भी अपना विश्वास खो दिया है। समाजवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों की इस निराश भीड़ में सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा भी शामिल हो गया है – उन श्रमिकों का, जिन्होंने न केवल समाजवाद में, बल्कि अपने वर्ग में भी अपना विश्वास छोड़ दिया है। फासीवाद राजनीतिक रूप से आश्रयहीन लोगों के लिए एक प्रकार की शरणस्थली बन गया है। निष्पक्षता में यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि कम्युनिस्ट भी – रूसियों को छोड़कर – फासीवादी कतारों में इन तत्वों के पलायन के लिए कुछ हद तक दोषी हैं, क्योंकि कई बार हमारी कार्रवाइयाँ जनता को गहराई से आंदोलित करने में विफल रही हैं। समाज के विभिन्न तत्वों के बीच समर्थन प्राप्त करते समय फासीवादियों का स्पष्ट उद्देश्य, निश्चित रूप से, अपने अनुयायियों के बीच वर्ग विरोध को पाटने का प्रयास करना रहा होगा और तथाकथित आधिकारिक राज्य को इस उद्देश्य के लिए एक साधन के रूप में काम करना था। फासीवाद अब ऐसे तत्वों को गले लगाता है जो पूंजीवादी व्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक हो सकते हैं। फिर भी, अब तक इन तत्वों पर प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने लगातार विजय प्राप्त की है।

पूंजीपति वर्ग ने शुरू से ही स्थिति को स्पष्ट रूप से देख लिया था। वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करना चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों में पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व का पुनर्निर्माण पूंजीपति वर्ग द्वारा केवल सर्वहारा वर्ग के बढ़ते शोषण की कीमत पर ही किया जा सकता है। पूंजीपति वर्ग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि मृदुभाषी सुधारवादी समाजवादी सर्वहारा वर्ग पर अपनी पकड़ तेजी से खो रहे हैं, और पूंजीपति वर्ग के लिए सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हिंसा का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। लेकिन पूंजीवादी राज्यों के हिंसा के साधन विफल होने लगे हैं। इसलिए उन्हें हिंसा के नए संगठन की आवश्यकता है, और यह उन्हें फासीवाद का खिचड़ी समूह मुहैया कराता है। इस कारण से पूंजीपति वर्ग फासीवाद की सेवा में अपनी सारी ताकत लगा देता है। 

विभिन्न देशों में फासीवाद की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। फिर भी इसकी दो विशिष्टताएं सभी देशों में समान रूप से मौजूद होती हैं —  एक, क्रांतिकारी कार्यक्रम का दिखावा, जिसे चतुराई से बड़े पैमाने पर जनता के हितों और मांगों के लिए अनुकूलित किया जाता है, और दूसरी ओर, सबसे क्रूर हिंसा का प्रयोग। इसका उत्कृष्ट उदाहरण इतालवी फासीवाद है। इटली में औद्योगिक पूंजी इतनी मजबूत नहीं थी कि बर्बाद अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा कर सके। यह उम्मीद नहीं थी कि राजसत्ता उत्तरी इटली की औद्योगिक राजधानी की शक्ति और भौतिक संभावनाओं के विस्तार के लिए हस्तक्षेप करेगी। राज्य अपना सारा ध्यान कृषि पूंजी और छोटी वित्तीय पूंजी पर दे रहा था। भारी उद्योग, जिन्हें युद्ध के दौरान कृत्रिम रूप से बढ़ावा दिया गया था, युद्ध समाप्त होने पर ध्वस्त हो गए और अभूतपूर्व बेरोजगारी की लहर चल पड़ी। सैनिकों को दिए गए वादे पूरे नहीं किए जा सके। इन सभी परिस्थितियों ने अत्यंत क्रांतिकारी माहौल को जन्म दिया। इस क्रांतिकारी माहौल के परिणामस्वरूप, 1920 की गर्मियों में, कारखानों पर कब्ज़ा हो गया। उस अवसर पर क्रांति की परिपक्वता सर्वहारा वर्ग के एक छोटे से अल्पसंख्यक हिस्से के बीच पहली बार प्रकट होती हुई दिखी। इसलिए फ़ैक्टरियों पर कब्ज़ा क्रांतिकारी विकास का शुरुआती बिंदु बनने के बजाय एक ज़बरदस्त हार के साथ ख़त्म होना तय था। ट्रेड यूनियनों के सुधारवादी नेताओं ने घृणित गद्दारों की भूमिका निभाई, लेकिन साथ ही यह भी दिखा कि सर्वहारा वर्ग के पास क्रांति की ओर बढ़ने की न तो इच्छा थी और न ही शक्ति। 

सुधारवादी प्रभाव के बावजूद, सर्वहारा वर्ग के बीच ऐसी ताकतें काम कर रही थीं जो पूंजीपति वर्ग के लिए असुविधाजनक हो सकती थीं। नगरपालिका चुनाव, जिसमें सामाजिक जनवादियों ने तमाम परिषदों में से एक तिहाई जीत हासिल की, पूंजीपति वर्ग के लिए खतरे का संकेत था, जिन्होंने तुरंत एक ऐसी ताकत की तलाश शुरू कर दी जो क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का मुकाबला कर सके। यह वही समय था जब मुसोलिनी के फाशीस्मो (fascismo) को कुछ महत्व प्राप्त हुआ था। फ़ैक्टरियों पर कब्जे में सर्वहारा वर्ग की हार के बाद फासीवादियों (fascisti) की संख्या 1,000 से अधिक हो गई और उसका एक बड़ा हिस्सा मुसोलिनी के संगठन में शामिल हो गया। दूसरी ओर, सर्वहारा वर्ग का विशाल जनसमूह उदासीनता की चपेट में आ गया था। फासिस्टों की पहली सफलता का कारण यह था कि उन्होंने अपनी शुरुआत क्रांतिकारी हावभाव से की थी। उनका दिखावटी उद्देश्य क्रांतिकारी युद्ध की क्रांतिकारी विजय को बरकरार रखने के लिए लड़ना था, और इस कारण से उन्होंने एक मजबूत राज्य की मांग की जो समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिरोधी हितों के खिलाफ, जिनका प्रतिनिधित्व “पुराना राज्य” करता था, जीत के इन क्रांतिकारी फलों की रक्षा करने में सक्षम होगा। इनका नारा सभी शोषकों के खिलाफ था, और इसलिए पूंजीपति वर्ग के खिलाफ भी था। उस समय फासीवाद इतना कट्टरपंथी था कि उसने जियोलित्ती को फांसी देने और इतालवी राजवंश को गद्दी से हटाने की भी मांग की। लेकिन जियोलित्ती ने सावधानीपूर्वक फासीवाद, जिसे वह कम बुरा मानता था, के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करने से परहेज किया। इन फासीवादी दावों को संतुष्ट करने के लिए उसने संसद को भंग कर दिया। उस समय मुसोलिनी अभी भी रिपब्लिकन होने का दिखावा कर रहा था, और एक साक्षात्कार में उसने घोषणा की कि फासीवादी गुट इतालवी संसद के उद्घाटन में भाग नहीं ले सकता क्योंकि वह राजशाही समारोह के साथ होना था। इन कथनों ने फासीवादी आंदोलन में संकट पैदा कर दिया, जिसे  मुसोलिनी के अनुयायियों और राजशाही संगठन के प्रतिनिधियों के विलय के बाद पार्टी के रूप में स्थापित किया गया था, और नई पार्टी की कार्यकारिणी दोनों गुटों के बराबर प्रतिनिधित्व से बनी थी। फासीवादी पार्टी ने मजदूर वर्ग को भ्रष्ट और आतंकित करने का दोधारी हथियार निर्मित किया। श्रमिक वर्ग को भ्रष्ट करने के लिए फासीवादी ट्रेड यूनियनें, तथाकथित निगम जिनमें श्रमिक और नियोक्ता एकजुट थे, बनाई गईं। मजदूर वर्ग को आतंकित करने के लिए फासीवादी पार्टी ने उग्रवादी दस्ते बनाए जो दंड देने के अभियानों से विकसित हुए थे। यहां इस बात पर फिर से जोर दिया जाना चाहिए कि आम हड़ताल के दौरान इतालवी सुधारवादियों की जबरदस्त दगाबाजी, जो इतालवी सर्वहारा वर्ग की भयानक हार का कारण बनी, ने फासीवादियों को राजसत्ता पर कब्जा करने के लिए सीधा प्रोत्साहन दिया था। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट पार्टी की गलतियों का आधार फासीवाद को बिना किसी गहन सामाजिक आधार के महज एक सैन्यवादी और आतंकवादी आंदोलन मानना था।

आइए अब देखें कि फासीवाद ने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद से अपने इच्छित क्रांतिकारी कार्यक्रम को पूरा करने के लिए, वर्ग रहित राज्य बनाने के अपने वादे को साकार करने के लिए क्या किया है। फासीवाद ने एक नए और बेहतर चुनावी कानून और महिलाओं के लिए समान मताधिकार का वादा किया। मुसोलिनी का नया मताधिकार कानून वास्तव में फासीवादी आंदोलन के पक्ष में मताधिकार कानून का निकृष्टतम अवरोधक है। इस कानून के अनुसार, सभी सीटों में से दो-तिहाई सीटें सबसे मजबूत पार्टी को दी जानी चाहिए, और अन्य सभी दलों के पास कुल मिलाकर केवल एक-तिहाई सीटें होंगी। महिलाओं का मताधिकार लगभग पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया है। वोट देने का अधिकार केवल धनी महिलाओं और तथाकथित “युद्ध-प्रतिष्ठित” महिलाओं के एक छोटे समूह को दिया गया है। आर्थिक संसद और नेशनल असेंबली के वादे का अब कोई उल्लेख नहीं होता है, न ही सीनेट के उन्मूलन का, जिसकी फासीवादियों ने इतनी गंभीरता से प्रतिज्ञा की थी।

सामाजिक क्षेत्र में की गई संकल्पों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। फासिस्टों ने अपने कार्यक्रम में आठ-घंटे कार्यदिवस की घोषणा की थी, लेकिन उनके द्वारा पेश किये गये विधेयक में इतने सारे अपवादों का प्रावधान है कि इटली में आठ घंटे कार्यदिवस नहीं होना तय है। मजदूरी की गारंटी के वादे का भी कुछ नहीं हुआ। ट्रेड यूनियनों के विनाश ने नियोक्ताओं को 20 से 30 प्रतिशत और कुछ मामलों में 50 से 60 प्रतिशत तक वेतन कटौती करने का अधिकार दे दिया है। फासीवाद ने वृद्धावस्था और विकलांग बीमा का वादा किया था। व्यवहार में, फासीवादी सरकार ने, अर्थव्यवस्था की खातिर, बजट में इस उद्देश्य के लिए अलग रखे गए 50,000,000 लीरे की तुच्छ राशि को भी हटा दिया है। श्रमिकों को कारखानों के प्रशासन में तकनीकी भागीदारी के अधिकार का वादा किया गया था। आज इटली में एक कानून है जो फ़ैक्टरी कौंसिलों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाता है। राजकीय उद्यम निजी पूंजी के हाथों में खेल रहे हैं। फासीवादी कार्यक्रम में पूंजी पर प्रगतिशील आयकर का प्रावधान था, जो कुछ हद तक पूंजीवादी स्वामित्व को कमजोर करने का काम करता। वास्तव में जो हुआ वह लेकिन इसके विपरीत था। विलासिता की वस्तुओं पर विभिन्न करों को, जैसे ऑटोमोबाइल कर, समाप्त कर दिया गया, दलील दी गई कि यह राष्ट्रीय उत्पादन को अवरुद्ध करेगा। अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि इस कारण से की गई थी कि इससे घरेलू खपत में कमी आएगी और इस प्रकार निर्यात की संभावनाओं में सुधार होगा। फासीवादी सरकार ने प्रतिभूतियों के हस्तांतरण (transfer of securities) के अनिवार्य पंजीकरण के कानून को भी निरस्त कर दिया, इस प्रकार बियरर-बांड की प्रणाली को फिर से शुरू किया और कर चोरी करने वालों के लिए दरवाजा खोल दिया। स्कूलों को पादरी वर्ग को सौंप दिया गया। राजसत्ता पर कब्जा करने से पहले, मुसोलिनी ने एक आयोग की मांग की थी जो युद्ध से हुए मुनाफे (war profits) की जांच करेगा और उसमें  से 85 प्रतिशत राज्य को सौंप दिया जाएगा। जब यह आयोग मुसोलिनी के वित्तीय सरपरस्तों, भारी उद्योगपतियों के लिए असहज हो गया, तो उसने आदेश दिया कि आयोग केवल उसे ही रिपोर्ट सौंपे, और जो कोई भी उस आयोग में घटित कोई भी बात को प्रकाशित करेगा, उसे छह महीने की कैद की सजा दी जाएगी। सैन्य मामलों में भी फासीवाद अपने वादे निभाने में विफल रहा। सेना को क्षेत्रीय रक्षा तक सीमित रखने का वादा किया गया था। वास्तव में, स्थायी सेना के लिए सेवा की अवधि आठ महीने से बढ़ाकर अठारह कर दी गई, जिसका मतलब था कि सशस्त्र बलों की संख्या 250,000 से बढ़कर 350,000 हो गई। रॉयल गार्ड्स को समाप्त कर दिया गया क्योंकि वे मुसोलिनी के लिए बहुत लोकतांत्रिक थे। दूसरी ओर, काराबेनियरी (अर्धसैनिक पुलिस फोर्स) को 65,000 से बढ़ाकर 90,000 कर दिया गया और सभी पुलिस टुकड़ियों को दोगुना कर दिया गया। फासीवादी संगठन राष्ट्रीय मिलिशिया के रूप में तब्दील हो गए, जिनकी संख्या नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अब 500,000 तक पहुंच गई है। लेकिन सामाजिक मतभेदों ने मिलिशिया में राजनीतिक विरोधाभास का बीज बो दिया है, जो अंततः फासीवाद के पतन का कारण बनेगा।

जब हम फासीवादी कार्यक्रम की तुलना उसके पालन से करते हैं तो हम आज ही इटली में फासीवाद के पूर्ण वैचारिक पतन का अनुमान लगा सकते हैं। इस वैचारिक दिवालियेपन के बाद राजनीतिक दिवालियापन अनिवार्य रूप से सामने आता है। फासीवाद उन ताकतों को एक साथ रखने में असमर्थ है जिन्होंने उसे सत्ता में आने में मदद की। कई रूपों में हितों का टकराव पहले से ही महसूस किया जा रहा है। फासीवाद पुरानी नौकरशाही को अपने अधीन बनाने में अभी तक सफल नहीं हुआ है। सेना में पुराने अधिकारियों और नये फासीवादी नेताओं के बीच भी मनमुटाव है। विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे हैं। पूरे देश में फासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। वर्ग विरोध फासिस्टों की कतारों में भी व्याप्त होना शुरू हो गया है। फासीवादी उन वादों को पूरा करने में असमर्थ हैं जो उन्होंने श्रमिकों और फासीवादी ट्रेड यूनियनों से किये थे। मज़दूरों की मज़दूरी में कटौती और बर्खास्तगी आजकल आम बात हो गई है। इसीलिए फासीवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन के खिलाफ पहला विरोध स्वयं फासीवादियों की कतार से आया था। मजदूर शीघ्र ही अपने वर्गीय हित एवं वर्गीय दायित्व पर वापस आयेंगे। हमें फासीवाद को एकजुट शक्ति के रूप में नहीं देखना चाहिए जो हमारे हमले को विफल करने में सक्षम हो। बल्कि वह ऐसा गठन है, जिसमें कई विरोधी तत्व शामिल हैं, और वह भीतर से विघटित हो जाएगा। लेकिन यह मानना ​​खतरनाक होगा कि इटली में फासीवाद के वैचारिक और राजनीतिक विघटन के तुरंत बाद सैन्य विघटन होगा। इसके विपरीत, आतंकवादी तरीकों से फासीवाद द्वारा जीवित रहने के प्रयास के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसलिए, क्रांतिकारी इतालवी श्रमिकों को आगे के गंभीर संघर्षों के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि हम विघटन की इस प्रक्रिया के महज दर्शक बन संतुष्ट रहे तो यह बहुत बड़ी विपत्ति होगी। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने उपलब्ध सभी साधनों के साथ इस प्रक्रिया को तेज करें। यह न केवल इतालवी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है, बल्कि जर्मन फासीवाद के सामने जर्मन सर्वहारा वर्ग का भी कर्तव्य है।

इटली के बाद जर्मनी में फासीवाद सबसे मजबूत है। युद्ध के परिणाम और क्रांति की विफलता के नतीजतन, जर्मनी की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कमजोर है, और किसी अन्य देश में क्रांति के लिए वस्तुनिष्ठ परिपक्वता और श्रमिक वर्ग की आत्मपरक तैयारी के बीच इतना बड़ा अंतर नहीं है जितना कि अभी जर्मनी में। किसी भी अन्य देश में सुधारवादी इतनी बुरी तरह असफल नहीं हुए जितना कि जर्मनी में। उनकी विफलता पुराने इंटरनेशनल में किसी भी अन्य पार्टी की विफलता से अधिक आपराधिक है, क्योंकि उन्हें ही उस देश में, जहां मजदूर वर्ग के संगठन पुराने और अन्यत्र की तुलना में  बेहतर व्यवस्थित हैं, सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए बिल्कुल अलग तरीकों से संघर्ष करना चाहिए था। 

मुझे पूरा यकीन है कि न तो शांति संधियों और न ही रूर (Ruhr) के कब्जे से जर्मनी में फासीवाद को वैसा बढ़ावा मिला है जितना कि मुसोलिनी द्वारा सत्ता हथियाने से । इससे जर्मन फासिस्ट प्रोत्साहित हुए हैं। इटली में फासीवाद का खात्मा जर्मनी में फासीवादियों का हौसला पस्त करेगा । हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए: विदेशों में फासीवाद को उखाड़ फेंकने की शर्त हर एक देश में इन देशों के सर्वहारा द्वारा फासीवाद को उखाड़ फेंकना है। हमारा दायित्व है कि हम वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर विजय प्राप्त करें। यह हम पर भारी कार्यभार थोपता है। हमें समझना होगा कि फासीवाद निराश लोगों का और उन लोगों का आंदोलन है जिनका अस्तित्व नष्ट हो गया है। इसलिए, हमें उस व्यापक जनसमूह को जीतने या बेअसर करने का प्रयास करना चाहिए जो अभी भी फासीवादी खेमे में हैं। मैं अपने इस एहसास के महत्व पर जोर देना चाहती हूं कि हमें इस जनता की आत्मा पर कब्ज़ा करने के लिए वैचारिक रूप से संघर्ष करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि वे न केवल अपने वर्तमान कष्टों से भागने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वे एक नए दर्शन के लिए लालायित हैं। हमें अपनी वर्तमान गतिविधि की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आना होगा। तीसरा इंटरनेशनल, पुराने इंटरनेशनल के विपरीत, बिना किसी भेदभाव के सभी नस्लों का इंटरनेशनल है। कम्युनिस्ट पार्टियों को न केवल शारीरिक सर्वहारा श्रमिकों का अगुआ होना चाहिए, बल्कि दिमागी श्रमिकों के हितों का ऊर्जावान रक्षक भी होना चाहिए। उन्हें समाज के उन सभी वर्गों का नेता होना चाहिए जो अपने हितों और भविष्य की अपेक्षाओं के कारण बुर्जुआ वर्चस्व के विरोध में हैं। इसलिए, मैंने  (इस साल जून में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की विस्तारित कार्यकारी समिति के एक सत्र में बोलते हुए) मजदूरों और किसानों की सरकार के लिए संघर्ष शुरू करने के लिए कॉमरेड ज़िनोविएव के प्रस्ताव का स्वागत किया। जब मैंने इसके बारे में पढ़ा तो मैं बहुत खुश हुई। यह नया नारा सभी देशों के लिए बहुत मायने रखता है। फासीवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में हम इससे दूर नहीं रह सकते। इसका अर्थ है कि छोटे किसानों की व्यापक जनता का उद्धार साम्यवाद के माध्यम से होगा। हमें अपने आप को केवल अपने राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। हमें साथ ही एक दर्शन के रूप में साम्यवाद के आदर्शों से जनता को परिचित कराना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम उन सभी तत्वों को एक नए दर्शन का मार्ग दिखाएंगे, जिन्होंने हाल के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में अपना असर खो दिया है। इसके लिए आवश्यक शर्त यह है कि, जैसे-जैसे हम इन जनता के पास पहुंचते हैं, हम संगठनात्मक रूप से, एक पार्टी के रूप में, एक मजबूती से जुड़ी हुई इकाई बन जाते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हम अवसरवादिता में फंसने और दिवालिया हो जाने का जोखिम उठाते हैं। हमें अपने काम के तरीकों को अपने नये कार्यों के अनुरूप ढालना होगा। हमें जनता से ऐसी भाषा में बात करनी चाहिए जिसे वो, हमारे विचारों पर पूर्वाग्रह के बिना, समझ सके। इस प्रकार, फासीवाद के खिलाफ संघर्ष कई नए कार्यभारों को सामने लाता है।

यह सभी पार्टियों का दायित्व है कि वे इस कार्यभार को ऊर्जावान ढंग से और अपने-अपने देश की स्थिति के अनुरूप पूरा करें। हालाँकि, हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर काबू पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। फासीवाद से उसके मुकाबले में सर्वहारा वर्ग की स्थिति वर्तमान में आत्मरक्षा की है। सर्वहारा वर्ग की इस आत्मरक्षा को उसके अस्तित्व और उसके संगठन के लिए संघर्ष का रूप लेना होगा।

सर्वहारा वर्ग के पास आत्मरक्षा का सुव्यवस्थित तंत्र होना चाहिए। जब भी फासीवाद हिंसा का प्रयोग करता है, तो उसका सामना सर्वहारा हिंसा से ही करना पड़ता है। मेरा तात्पर्य व्यक्तिगत आतंकवादी कृत्यों से नहीं, बल्कि सर्वहारा वर्ग के संगठित क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की हिंसा से है। जर्मनी ने “सर्वहारा सौ” (proletarische hundertschaften —  श्रमिक मिलिशिया) संगठित करके एक शुरुआत की है। यह संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब सर्वहारा संयुक्त मोर्चा हो। श्रमिकों को पार्टी से ऊपर उठकर इस संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा। सर्वहारा वर्ग की आत्मरक्षा सर्वहारा संयुक्त मोर्चे की स्थापना के लिए सबसे बड़े प्रोत्साहनों में से एक है। प्रत्येक श्रमिक की आत्मा में वर्ग-चेतना पैदा करके ही हम फासीवाद को सैन्य रूप से उखाड़ फेंकने के लिए भी तैयारी करने में सफल होंगे, जो इस समय नितांत आवश्यक है। यदि हम इसमें सफल होते हैं, तो हम यकीन कर सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग के खिलाफ पूंजीपति वर्ग के आम आक्रमण की सफलताओं के बावजूद, जल्द ही पूंजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ शक्ति का काम तमाम हो जाएगा। विघटन के चिन्ह, जो हमारी आंखों के सामने स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं, हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि महाकाय सर्वहारा फिर से क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल होगा, और तब पूंजीवादी दुनिया के लिए उसका आह्वान होगा: मैं शक्ति हूं, मैं संकल्प हूं, मुझमें तुम भविष्य देखते हो!

मज़हब और उसकी आलोचना: मतलब और मक़सद (Marx on the meaning of religion and its criticism)


गैर-मज़हबी आलोचना का आधार है: मनुष्य मज़हब को बनाता है, मज़हब मनुष्य को नहीं बनाता।  मज़हब, वास्तव में, उस मनुष्य की आत्म-चेतना और आत्म-सम्मान है जिसने या तो अभी तक खुद को नहीं जीता है, या खुद को फिर से खो दिया है। लेकिन मनुष्य कोई अमूर्त प्राणी नहीं है जो संसार से बाहर बैठा हुआ है। मनुष्य मनुष्य की दुनिया है —  राज्य, समाज। यह राज्य और यह समाज  मज़हब का निर्माण करते हैं, जो दुनिया की एक उलटी चेतना है, क्योंकि वे एक उलटी दुनिया हैं।  मज़हब इस संसार का सामान्य सिद्धांत है, इसका विश्वकोश है, इसका लोकप्रिय रूप में तर्क है, इसका आध्यात्मिक प्रतिष्ठा बिंदु है, इसका उत्साह है, इसका नैतिक अनुमोदन है, इसका गंभीर पूरक है, और सांत्वना और औचित्य का सार्वभौमिक आधार है। यह मानव सार का तरंगी अहसास है क्योंकि मानव सार ने कोई सच्ची वास्तविकता हासिल नहीं की है। इसलिए, मज़हब के विरुद्ध संघर्ष अप्रत्यक्ष रूप से उस दुनिया के विरुद्ध संघर्ष है जिसकी आध्यात्मिक सुगंध  मज़हब है।

मज़हबी पीड़ा, एक ही समय में, वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति और वास्तविक पीड़ा के प्रति विरोध है।  मज़हब उत्पीड़ित प्राणी की आह है, हृदयहीन संसार का हृदय है और निष्प्राण स्थितियों की आत्मा है। यह लोगों की अफ़ीम है। 

लोगों की भ्रामक खुशी के रूप में मज़हब का उन्मूलन उनकी वास्तविक खुशी की मांग है। उनसे अपनी स्थिति के बारे में भ्रम त्यागने का आह्वान करना, उनसे उस स्थिति को त्यागने का आह्वान करना है जिसमें भ्रम की आवश्यकता होती है। इसलिए, मज़हब की आलोचना, भ्रूण रूप में, आंसुओं की उस घाटी की आलोचना है जिसका आभामंडल  मज़हब है।

आलोचना ने ज़ंजीर पर लगे काल्पनिक फूलों को इसलिए नहीं तोड़ा है कि मनुष्य बिना किसी कल्पना या सांत्वना के उस ज़ंजीर को झेलता रहेगा, बल्कि इसलिए कि वह ज़ंजीर को उतार फेंकेगा और जीवित फूल को तोड़ेगा।  मज़हब की आलोचना मनुष्य का मोहभंग करती है, ताकि वह उस व्यक्ति की तरह सोचे, कार्य करे और अपनी वास्तविकता को गढ़े, जिसने अपने भ्रम को त्याग दिया है और अपनी इंद्रियों को पुनः प्राप्त कर लिया है, ताकि वह अपने स्वयं के सच्चे सूर्य के रूप में अपने चारों ओर घूम सके।  मज़हब केवल वह मायावी सूर्य है जो मनुष्य के चारों ओर तब तक घूमता रहता है जब तक वह अपने चारों ओर नहीं घूमता।

इसलिए, जब एक बार सत्य का पर-लोक लुप्त हो जाता है, तो इह-लोक की सच्चाई को स्थापित करना इतिहास का कार्य है। मानवीय आत्म-अलगाव के पवित्र रूप को एक बार बेनकाब करने के बाद उसके अपवित्र रूपों में आत्म-अलगाव को उजागर करना इतिहास की सेवा में दर्शन का तात्कालिक कार्य है। इस प्रकार, स्वर्ग की आलोचना पृथ्वी की आलोचना में बदल जाती है,  मज़हब की आलोचना कानून की आलोचना में और  मज़हबी-शास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना में बदल जाती है।

(from Karl Marx. A Contribution to the Critique of Hegel’s Philosophy of Right [1843-44])

Two versions of the Eleventh Thesis


It is perfectly true, as philosophers say, that life must be understood backwards. But they forget the other proposition, that it must be lived forwards. (Søren Kierkegaard, 1843)

The philosophers have only interpreted the world, in various ways. The point, however, is to change it. (Karl Marx, 1845)

The Civil War in Sudan and People’s Resistance (Video)


कानून और आज की व्यवस्था (Video)


सच्चाई लिखने में पाँच कठिनाइयाँ 


बर्तोल्त ब्रेख्त

मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट) 

आजकल, जो कोई भी झूठ और अज्ञानता का मुकाबला करना चाहता है और सच लिखना चाहता है उसे कम से कम पांच कठिनाइयों को पार करना होगा। जब सत्य का हर जगह विरोध हो रहा हो, उसमें सत्य लिखने का साहस होना चाहिए; हालांकि सच्चाई हर जगह छिपी हुई है, उसे पहचानने का चातुर्य होना चाहिए; उसे एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल होना चाहिए; जिनके हाथ में यह प्रभावी होगा उनका चुनाव करने का विवेक होना चाहिए; और ऐसे लोगों के बीच सच्चाई फैलाने की चालाकी होनी चाहिए। ये फ़ासीवाद के तहत जीने वाले लेखकों के लिए विकट समस्याएँ हैं, लेकिन ये उन लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जो भाग गए हैं या निर्वासित हो गए हैं; वे उन देशों में काम करने वाले लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जहां नागरिक स्वतंत्रता विद्यमान है।

1 सच लिखने का साहस

यह बात स्वाभाविक ही लगती है कि जो भी लिखता है उसे सत्य को इस अर्थ में लिखना चाहिए कि वह सत्य को न दबाए या छिपाए या जानबूझकर असत्य न लिखे। उसे बलवानों के सामने झुकना नही चाहिए और न ही कमजोरों के साथ विश्वासघात करना चाहिए। बेशक, शक्तिशाली के सामने न झुकना बहुत कठिन है, और कमजोर को धोखा देना बहुत फायदेमंद है। कब्जा करने वालों को अप्रसन्न करने का अर्थ है वंचितों में से एक हो जाना। काम के लिए भुगतान का त्याग करना काम छोड़ने के बराबर हो सकता है, और शक्तिशाली द्वारा प्रसिद्धि की पेशकश को अस्वीकार करने का मतलब हमेशा के लिए इसे अस्वीकार करना हो सकता है। यह साहस लेता है।

चरम उत्पीड़न के समय आमतौर पर ऐसे समय होते हैं जब महानता और बुलंदी के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। ऐसे समय में श्रमिकों के लिए भोजन और आश्रय जैसी निम्न और नीच बातें लिखने के लिए साहस की आवश्यकता होती है; जब बाकी हर कोई बलिदान की महत्ता के बारे में शेखी बघार रहा हो तो साहस की आवश्यकता होती है। जब किसानों पर सभी प्रकार के सम्मानों की बौछार की जाती है, तो मशीनों और अच्छे पशु चारा की बात करने में साहस की जरूरत होती है, जो उनके सम्मानजनक श्रम को हल्का कर देगा। जब हर रेडियो स्टेशन यह कह रहा हो कि ज्ञान या शिक्षा के बिना एक आदमी पढ़े-लिखे व्यक्ति से बेहतर है, तो यह पूछने का साहस चाहिए: किसके लिए बेहतर है? जब सारी बातें उत्तम और सदोष जातियों की होती हैं, तो यह पूछने के लिए साहस की आवश्यकता होती है कि क्या यह भूख और अज्ञानता और युद्ध नहीं है जो विकृतियाँ पैदा करते हैं।

और अपने बारे में, अपनी हार के बारे में सच बोलने के लिए भी साहस चाहिए। कई सताए हुए लोग अपनी गलतियों को देखने की क्षमता खो देते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि अत्याचार ही सबसे बड़ा अन्याय है। उत्पीड़क केवल इसलिए दुष्ट हैं क्योंकि वे सताते हैं; सताए हुए लोग अपनी भलाई के कारण पीड़ित होते हैं। लेकिन यह अच्छाई पिट गई, हार गई, दबा दी गई; इसलिए यह एक कमजोर अच्छाई थी, एक बुरी, असमर्थनीय, अविश्वसनीय अच्छाई। क्योंकि यह मान लेने से काम नहीं चलेगा कि अच्छाई कमजोर होनी चाहिए क्योंकि बारिश गीली होनी चाहिए। यह कहने के लिए साहस चाहिए कि अच्छे इसलिए नहीं हारे कि वे अच्छे थे, बल्कि इसलिए हारे कि वे कमजोर थे।

स्वाभाविक रूप से, असत्य के साथ संघर्ष में हमें सत्य लिखना चाहिए, और यह सत्य उदात्त और अस्पष्ट सामान्यता (generality) नहीं होनी चाहिए। जब किसी के बारे में कहा जाता है, “उसने सच बोला,” तो इसका तात्पर्य है कि कुछ लोगों ने या बहुत से लोगों ने या कम से कम एक व्यक्ति ने सत्य के विपरीत – झूठ या सामान्य – कुछ कहा, लेकिन उसने सच कहा, उसने कुछ व्यावहारिक, तथ्यात्मक कहा, निर्विवाद, बेटूक बात कही।

दुनिया के उस हिस्से में जहां अभी भी शिकायत की अनुमति है, दुनिया की दुष्टता और बर्बरता की जीत के बारे में एक सामान्य शिकायत को बुदबुदाने या मानव आत्मा की जीत सुनिश्चित होने के बारे में निर्भीक चीत्कार करने के लिए बहुत कम साहस की जरूरत होती है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो दिखावा करते हैं कि तोपों का लक्ष्य उन पर है जबकि वास्तव में वे केवल थिएटर के दूरबीनों के लक्ष्य हैं। वे दोस्तों और हानिरहित व्यक्तियों की दुनिया में अपनी सामान्यीकृत मांगों को चिल्लाते हैं। वे एक सामान्यीकृत न्याय पर जोर देते हैं जिसके लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया; वे सामान्यीकृत स्वतंत्रता की मांग करते हैं और उस लूट का हिस्सा मांगते हैं जिसका उन्होंने लंबे समय से आनंद उठाया है। वे सोचते हैं कि सत्य वही है जो सुनने में अच्छा लगता है। यदि सत्य कुछ सांख्यिकीय, शुष्क, या तथ्यात्मक हो, जिसे खोजना मुश्किल हो और उसके लिए अध्ययन की आवश्यकता हो, तो वे उसे सत्य के रूप में नहीं पहचानते; वह उन्हें नशा नहीं देता। उनके पास केवल सत्य बताने वालों का बाहरी आचरण है। उनके साथ कठिनाई यह है कि वे सत्य को नहीं जानते।

2 सत्य को पहचानने का चातुर्य

चूँकि सत्य को हर जगह दबाये जाने के कारण लिखना कठिन होता है, इसलिए अधिकांश लोग सोचते हैं कि सत्य का लिखा या न लिखा जाना महज विश्वास पर निर्भर करता है। उनका मानना है कि इसके लिए केवल साहस ही काफी है। वे दूसरी बाधा भूल जाते हैं: सत्य को खोजने की कठिनाई। यह दावा करना असंभव है कि सच्चाई आसानी से पता चल जाती है।

सबसे पहले हम यह निर्धारित करने में परेशानी का सामना करते हैं कि कौन सा सच कहने लायक है। उदाहरण के लिए, पूरी दुनिया की आंखों के सामने एक के बाद एक महान सभ्य राष्ट्र बर्बरता की गिरफ्त में आ रहे हैं। इसके अलावा, हर कोई जानता है कि सर्वाधिक खतरनाक तरीकों से छेड़ा जा रहा घरेलू युद्ध किसी भी समय एक विदेशी युद्ध में परिवर्तित हो सकता है जो हमारे महाद्वीप को खंडहरों का ढेर बना सकता है। यह, निस्संदेह, एक सच्चाई है, लेकिन अन्य भी हैं। उदाहरण के लिए, यह असत्य नहीं है कि कुर्सियों में सीटें होती हैं और बारिश नीचे की ओर गिरती है। कई कवि इस तरह की सच्चाई लिखते हैं। वे एक डूबते जहाज की दीवारों को अचल जीवन के साथ सजाने वाले चित्रकार की तरह हैं। हमारी पहली कठिनाई उन्हें परेशान नहीं करती और उनका विवेक स्पष्ट है। जो सत्ता में हैं वे उन्हें भ्रष्ट नहीं कर सकते, लेकिन न ही वे उत्पीड़ितों की कराहों से परेशान हैं; वे चित्र बनाते चले जाते हैं। उनके व्यवहार की संवेदनहीनता उनमें एक “गहरा” निराशावाद पैदा करती है जिसे वे अच्छी कीमतों पर बेचते हैं; फिर भी ऐसा निराशावाद उसके लिए अधिक उपयुक्त होगा जो इन उस्तादों और उनकी बिक्री को गौर से देखता है। साथ ही यह महसूस करना आसान नहीं है कि उनकी सच्चाई कुर्सियों या बारिश के बारे में सच्चाई है; वे आम तौर पर महत्वपूर्ण चीजों के बारे में सच्चाई की तरह लगते हैं। लेकिन करीब से जांच करने पर यह देखना संभव है कि वे बस यही कहते हैं: एक कुर्सी एक कुर्सी है; और: बारिश को गिरने से कोई नहीं रोक सकता।

वे उन सच्चाइयों की खोज नहीं करते जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। दूसरी ओर, कुछ ऐसे हैं जो केवल अति आवश्यक कार्यों से निपटते हैं, जो गरीबी को गले लगाते हैं और शासकों से नहीं डरते, और जो फिर भी सत्य को नहीं खोज पाते। इनमें ज्ञान का अभाव है। वे कुख्यात पूर्वाग्रहों के साथ, जिन्हें बीते दिनों में अक्सर सुंदर शब्दों में पिरोया जाता था, प्राचीन अंधविश्वासों से भरे हुए हैं। दुनिया उनके लिए बहुत जटिल है; वे तथ्यों को नहीं जानते; वे संबंधों को नहीं समझते। स्वभाव के अतिरिक्त, ज्ञान, जिसे प्राप्त किया जा सकता है, और विधियाँ, जो सीखी जा सकती हैं, की आवश्यकता है। उलझन और कौंधियाते परिवर्तन के इस युग में सभी लेखकों के लिए अर्थव्यवस्था और इतिहास की भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान पुस्तकों से और व्यावहारिक शिक्षा से प्राप्त किया जा सकता है, यदि यथोचित परिश्रम किया जाए। बहुत से सत्यों को सरल तरीके से खोजा जा सकता है — या कम से कम सत्यों के अंशों को, या ऐसे तथ्यों को जो सत्य की खोज की ओर ले जाते हैं। यदि कोई सत्य की खोज करना चाहता है, तो खोज की विधि होना अच्छा है, लेकिन कोई विधि के बिना भी खोज सकता है, वास्तव में, बिना खोजे भी उसे पा सकता है।  लेकिन इस बेतरतीब तरीके से शायद ही कोई सच्चाई की ऐसी प्रस्तुति हासिल हो पाएगी जिसके आधार पर लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए उसका पता जल जाए। जो लोग केवल छोटे-छोटे तथ्य दर्ज करते हैं वे इस दुनिया की चीजों को व्यवस्थित करने की स्थिति में नहीं हैं। मगर सत्य का तो प्रयोजन यही होता है, दूसरा कोई नहीं। ये लोग सच लिखने की चुनौती स्वीकारने के काबिल नहीं हैं।

यदि कोई व्यक्ति सत्य को लिखने के लिए तैयार है और उसे पहचानने में समर्थ है, तो तीन कठिनाइयाँ और रह जाती हैं।

3 सत्य को हथियार के रूप में बदलने का कौशल

सत्य को इस दृष्टि से बोलना चाहिए कि क्रिया के क्षेत्र में असर पैदा हो सके। एक उदाहरण जो हमें उस प्रकार के सत्य को दिखाता है जिससे कोई परिणाम क्या, गलत परिणाम भी नहीं निकाला जा सकता, वो है वह व्यापक धारणा जिसके अनुसार कुछ देशों में भयानक परिस्थितियाँ कायम हैं, जिसका कारण बर्बरता है। इस दृष्टि से, फासीवाद बर्बरता की एक लहर है जो प्राकृतिक आपदा के बल पर कई देशों में उतरी है।

इस दृष्टिकोण के अनुसार, फासीवाद पूंजीवाद और समाजवाद के बाद (और ऊपर) एक नई, तीसरी शक्ति है; न केवल समाजवादी आंदोलन बल्कि पूंजीवाद भी फासीवाद के हस्तक्षेप के बिना जीवित रह सकता था। बेशक, यह फासीवादी दावा है; इसे स्वीकार करना फासीवाद के प्रति समर्पण है। फासीवाद एक ऐतिहासिक चरण है जिसमें पूंजीवाद प्रवेश कर चुका है, और इस अर्थ में यह नया भी है और साथ ही पुराना भी। फासीवादी देशों में पूंजीवाद का अस्तित्व बना हुआ है, लेकिन केवल फासीवाद के रूप में; और फासीवाद का मुकाबला केवल पूंजीवाद के तौर पर, पूंजीवाद के सबसे नग्न, सबसे बेशर्म, सबसे दमनकारी और सबसे विश्वासघाती रूप के तौर पर किया जा सकता है।

लेकिन फासीवाद के बारे में कोई सच कैसे बोल सकता है, जब तक कि वह पूंजीवाद के खिलाफ बोलने को तैयार नहीं है, जो उसे पैदा करता है? ऐसे सत्य के व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?

जो लोग पूँजीवाद के विरुद्ध न होकर फ़ासीवाद के विरुद्ध हैं, जो बर्बरता से उत्पन्न बर्बरता पर विलाप करते हैं, वे उन लोगों के समान हैं जो बछड़े का वध किए बिना अपना बछड़ा खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाना तो चाहते हैं, परन्तु लहू को देखना उन्हें पसन्द नहीं। यदि मांस तौलने से पहले कसाई अपने हाथ धोता है तो वे आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं। वे संपत्ति संबंधों के खिलाफ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं; वे केवल बर्बरता के ही खिलाफ हैं। वे बर्बरता के खिलाफ आवाज उठाते हैं, और वे ऐसा उन देशों में करते हैं जहां वास्तव में वैसा ही संपत्ति संबंध प्रचलित है, लेकिन जहां कसाई मांस का वजन करने से पहले अपने हाथ धोते हैं।

बर्बर उपायों के खिलाफ आक्रोश तब तक प्रभावी रह सकता है जब तक श्रोताओं का मानना है कि ऐसे उपायों की उनके अपने देशों में कोई गुंजाइश नहीं है। कुछ देश अभी भी अपने संपत्ति संबंधों को उन तरीकों से बनाए रखने में सक्षम हैं जो अन्य देशों में उपयोग किए जाने वाले तरीकों की तुलना में कम हिंसक दिखाई देते हैं। लोकतंत्र अभी भी इन देशों में उन परिणामों को प्राप्त करने के लिए कार्य करता है जिनके लिए दूसरों में हिंसा की आवश्यकता होती है, अर्थात् उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की गारंटी देने के लिए। कारखानों, खानों और भूमि का निजी एकाधिकार हर जगह बर्बर स्थिति पैदा करता है, लेकिन कुछ जगहों पर ये स्थितियाँ तात्कालिक रूप में दृश्यमान नहीं हैं। बर्बरता तभी नजर आती है जब केवल खुली हिंसा से ही इस एकाधिकार की रक्षा की जा सकती है।

जिन्हें अभी तक, बर्बर एकाधिकार के लिए, कानून के शासन की औपचारिक गारंटी या कला, दर्शन और साहित्य जैसी सुख-सुविधाओं का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, वे देश विशेषतः उन मेहमानों को सुनने का आनंद लेते हैं जब वे अपनी मातृभूमि पर ऐसी सुख-सुविधाओं का परित्याग करने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि ये देश अपेक्षित युद्धों में इन बयानों से लाभान्वित होने की उम्मीद करते हैं। क्या हम कह सकते हैं कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है, जो, उदाहरण के लिए, जोर-शोर से जर्मनी के खिलाफ एक पुरजोर संघर्ष की मांग करते हैं “क्योंकि वह देश अब हमारे दिनों में अनिष्टता का सच्चा घर है, नरक का साथी, शैतान (antichrist) का निवास है”? बल्कि हमें यह कहना चाहिए कि ये मूर्ख और खतरनाक लोग हैं। इस बकवास से निकाला जाने वाला निष्कर्ष यही है कि चूंकि जहरीली गैस और बम दोषियों को नहीं चुनते हैं, इसलिए जर्मनी को खत्म कर देना चाहिए – पूरे देश और उसके सभी लोगों को।

विचारहीन मनुष्य, जो सत्य को नहीं जानता, अपने को सामान्यीकरणों (generalisations) में, ऊँची-ऊँची और अस्पष्ट भाषा में अभिव्यक्त करता है। वह ‘जर्मनों’ के बारे में निंदा करता है, वह दुष्टता के बारे में चिल्लाता है, और बहुत कोशिश करने के बाद भी उसका श्रोता नहीं जान पाता कि करना क्या है। क्या वह जर्मन नहीं होने का फैसला करेगा? यदि वह स्वयं अच्छा है तो क्या नरक मिट जाएगा? बर्बरता से आने वाली बर्बरता की बात भी इसी तरह की है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, बर्बरता बर्बरता से आती है, और सभ्य व्यवहार के माध्यम से समाप्त होती है, जो शिक्षा से आती है। ये सब बिल्कुल ही ऊपरी बातें हैं; ये कार्रवाई के हित में नहीं कही गईं है और वास्तव में किसी को संबोधित भी नहीं है।

इस तरह के विवरण कारणों की श्रृंखला में केवल कुछ कड़ियों की ओर इशारा करते हैं और कुछ प्रेरक बल को बेकाबू ताकतों के रूप में दर्शाते हैं । इन विवरणों में बहुत अधिक अस्पष्टता होती है, जो तबाही के कारक ताकतों को छुपाती है। मामले पर बस थोड़ा सा प्रकाश डालें, और अचानक विपत्तियों के पीछे मनुष्यों के दोष प्रकट हो जाते हैं! आखिर हम ऐसे युग में रहते हैं जहां मनुष्य की नियति मनुष्य ही है। 

फासीवाद कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है जिसे महज मानवीय “प्रकृति” के संदर्भ में समझा जा सकता है। लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के मामले में भी चित्रण के ऐसे तरीके हैं जो मनुष्यों के योग्य हैं क्योंकि वे प्रतिरोध करने की उनकी क्षमता को अपील करते हैं।

योकोहामा को नष्ट करने वाले एक बड़े भूकंप के बाद, कई अमेरिकी पत्रिकाओं ने खंडहरों का ढेर दिखाते हुए तस्वीरें प्रकाशित कीं। नीचे कैप्शन था ‘स्टील स्टूड’ (इस्पात खड़ा रहा), और वास्तव में, जिन्होंने भी, वे भी जिन्होंने पहले केवल खंडहर पर ध्यान दिया था, अब कैप्शन के कारण जब नजरें दौड़ाई तो उन्हें कई ऊंची इमारतों की बुलंदी दिखी। भूकंप के सभी संभव चित्रणों में अद्वितीय महत्व वाले वे हैं जो निर्माण इंजीनियरों के द्वारा तैयार किये गए हैं, जो जमीन के खिसकन, झटकों की तीव्रता, चढ़ती गर्मी आदि पर ध्यान देते हैं और जो भविष्य के निर्माण की ओर ले जाते हैं जो भूकंप का सामना करने के काबिल हैं। यदि कोई फासीवाद और युद्ध का, उन महान आपदाओं का जो प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं वर्णन करना चाहता है, तो उन्हें सत्य का एक व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करना चाहिए। उन्हें यह दिखाना होगा कि ये आपदाएँ संपत्ति रखने वाले वर्गों द्वारा उन श्रमिकों की विशाल संख्या को नियंत्रित करने के लिए शुरू की गई हैं जिनके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं। 

यदि बुरी परिस्थितियों के बारे में सत्य को सफलतापूर्वक लिखना है, तो उसे इस तरह लिखना होगा कि इन स्थितियों के परिहार्य कारणों को पहचाना जा सके। एक बार जब परिहार्य कारणों की पहचान हो जाती है, तो बुरी परिस्थितियों से लड़ा जा सकता है।

4 उन लोगों को चुनने का विवेक जिनके हाथों में सच्चाई प्रभावी होगी

विचारों और विवरणों के बाजार में लिखित वस्तुओं के व्यापार के सदियों पुराने रीति-रिवाजों के कारण, लेखक को लिखित पाठ के साथ क्या करना है, इस चिंता से राहत मिली; लेखक को यह विश्वास हुआ कि उसके ग्राहक या संरक्षक, बिचौलिये, उसके लेखन को सभी तक पहुँचा रहे हैं। लेखक ने सोचा: मैंने बोल दिया है और जो सुनना चाहते हैं वे मुझे सुनेंगे। सच तो यह है कि उसने बोला है और जो भुगतान करने में सक्षम हैं वे उसे सुनते हैं। उसने जो कहा वह सब ने नहीं सुना, और जिसने उसे सुना वह सब कुछ सुनना नहीं चाहता था। इस विषय पर पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है, हालाँकि यह अभी भी बहुत कम है; यहाँ मैं केवल इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि ‘किसी के लिए लिखना’ महज ‘लेखन’ में बदल गया है। लेकिन सत्य को केवल लिखा नहीं जा सकता, आपको इसे किसी व्यक्ति के लिए लिखना होगा, ऐसे व्यक्ति के लिए जो इसका उपयोग करने में सक्षम हो। सत्य को पहचानने की प्रक्रिया में लेखक और पाठक साझेदार हैं। अच्छी बातें कहने के लिए सुनने की क्षमता अच्छी होनी चाहिए और अच्छी बातें सुननी चाहिए। सत्य को हिसाब-किताब से बोलना चाहिए और हिसाब-किताब से सुनना चाहिए। और हम लेखकों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम किसे सच बताते हैं और कौन उसे हमें बताता है।

हमें भयानक परिस्थितियों के बारे में सच्चाई उन्हें बतानी चाहिए जिनके लिए हालात सबसे खराब हैं, और हमें उनसे सच्चाई सीखनी चाहिए। हमें न केवल उन लोगों से बात करने की आवश्यकता है जिनके पास विशेष विश्वास है, बल्कि उन लोगों से भी बात करने की आवश्यकता है जो अपनी स्थिति के कारण इन विश्वासों को साझा करते हैं। और आपके श्रोता लगातार बदलते रहते हैं! यहां तक ​​कि जल्लादों से भी बात की जा सकती है, जब फांसी के लिए भुगतान आना बंद हो जाता है, या जब खतरा बहुत बढ़ जाता है। बवेरिया के किसान हर तरह की क्रांति के खिलाफ थे, लेकिन जब युद्ध बहुत लंबा चला और घर आए बेटों को उनके खेतों में जगह नहीं मिली, तो उन्हें क्रांति के लिए जीतना संभव हो गया।

लेखक के लिए सत्य का सही तान पकड़ना महत्वपूर्ण है। आमतौर पर आप एक बहुत ही कोमल, उदास स्वर सुनते हैं, ऐसे लोगों का स्वर जो एक मक्खी को भी चोट नहीं पहुँचा सकते। इसको सुनकर, अभागे और भी अभागे हो जाते हैं। जो लोग इस तरह की बातें करते हैं वे आपके दुश्मन नहीं हो सकते, लेकिन वे निश्चित रूप से सहयोगी नहीं हैं। सत्य जुझारू है; यह न केवल झूठ के खिलाफ है, बल्कि झूठ फैलाने वाले खास लोगों के खिलाफ भी है।

5 बहुतों के बीच सच्चाई फैलाने में चालाकी 

बहुत से लोग गर्व करते हैं कि उनके पास सच बोलने का साहस है, वे खुश हैं कि उन्हें इसे खोजने में सफलता मिली है, वे शायद इसे व्यावहारिक रूप देने में लगी मेहनत से थक गए हैं और बेसब्री से उन लोगों द्वारा उस सत्य को ग्रहण करने का इंतजार कर रहे हैं, जिनके हितों की वे रक्षा करते आए हैं, वे सत्य का प्रसार करते समय विशेष चालाकी का उपयोग करना आवश्यक नहीं समझते हैं। इस प्रकार उनके काम का पूरा प्रभाव अक्सर शून्य हो जाता है। हर युग में जब भी सत्य को दबाया और छिपाया गया, तो उसे फैलाने के लिए चालाकी का सहारा लेना पड़ा है। कन्फ्यूशियस ने पुराने देशभक्तिपूर्ण पंचांग को पूरा नया रूप दे दिया था। उसने बस कुछ शब्दों को ही बदला। जहां उस पंचांग में लिखा था  “हुन के शासक ने दार्शनिक वान को मरवा डाला क्योंकि उसने ऐसा और वैसा कहा था,” कन्फ्यूशियस ने “मरवा डालने” की जगह पर “हत्या” शब्द लिख दिया।  जहां पंचांग में  लिखा था अमुक अत्याचारी की हत्या हुई, वहाँ हत्या की जगह पर उसने प्राणदंड लिख दिया। इस तरह कन्फ्यूशियस ने इतिहास की एक नई व्याख्या का रास्ता खोल दिया।

हमारे समय में जो कोई भी जनता/लोक (Volk) के स्थान पर जनसंख्या और मिट्टी अथवा भूमि के स्थान पर भू-स्वामित्व कहता है, वह इस सरल कार्य द्वारा बहुत सारे झूठों से अपना समर्थन वापस ले लेता है। वह इन शब्दों से उनके सड़े हुए, रहस्यमय निहितार्थ को निष्कासित कर देता है। जनता/लोक (Volk) शब्द का तात्पर्य निश्चित एकता और विशेष सामान्य हितों से है; इसलिए इसका उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब हम बहुत से लोकसमूहों की बात कर रहे हों, क्योंकि केवल तभी समुदाय के हित की कल्पना की जा सकती है। किसी दिए गए क्षेत्र की आबादी के कई अलग-अलग और यहां तक कि विरोधी हित भी हो सकते हैं- और यह एक सच्चाई है जिसे दबाया जा रहा है। इसी प्रकार जो भी मिट्टी की बात करता है और जुताई से नाक और आंखों पर पड़ने वाले प्रभाव का सजीव वर्णन करता है, मिट्टी की गंध और रंग पर जोर देता है, वह शासकों के झूठ का समर्थन कर रहा है। मिट्टी की उर्वरता का सवाल नहीं है, न ही मिट्टी के लिए लोगों के प्यार का, न ही उनके उद्यम का; सबसे महत्वपूर्ण बात अनाज की कीमत और श्रम की कीमत है। जो लोग मिट्टी से मुनाफा निकालते हैं, वे वही लोग नहीं हैं जो इससे अनाज निकालते हैं, और सट्टा-बाजारों में मिट्टी के ढेलों की गंध नहीं आती। वहाँ तो किसी और चीज की बू है। इसके विपरीत, ‘भूस्वामित्व’ सही शब्द है; यह कम भ्रामक है।

जहां दमन मौजूद है, वहां ‘अनुशासन’ के बजाय ‘आज्ञाकारिता’ शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि शासकों के बिना भी अनुशासन संभव है और इसलिए वह आज्ञाकारिता से अधिक महान गुण है। ‘सम्मान’ शब्द से उत्तम ‘मानवीय गरिमा’ है; इसमें हमारी दृष्टि के दायरे से व्यक्ति इतनी आसानी से गायब नहीं होता। हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों के सम्मान की रक्षा के लिए चिल्लाते हुए किस तरह के बदमाश खुद को आगे बढ़ाते हैं। और कितनी उदारता से वे उन भूखे लोगों को सम्मान बांटते हैं जो उन्हें खिलाते हैं। कन्फ्यूशियस की चालाकी आज भी कारगर हो सकती है। 

कन्फ्यूशियस ने राष्ट्रीय घटनाओं के अनुचित आकलनों को उचित आकलनों से बदल दिया। थॉमस मूर ने अपने ‘यूटोपिया’ में एक ऐसे देश का वर्णन किया है जिसमें न्यायपूर्ण परिस्थितियाँ थीं। यह उस इंग्लैंड से बहुत अलग देश था जिसमें वह रहते थे, लेकिन जीवन की परिस्थितियों को छोड़कर, यह उस इंग्लैंड से बहुत मिलता जुलता था।

लेनिन  रूसी पूंजीपति वर्ग के सखालिन द्वीप के शोषण और उत्पीड़न का वर्णन करना चाहते थे, लेकिन उनके लिए जारवादी पुलिस से सावधान रहना आवश्यक था। उन्होंने रूस को जापान और सखालिन को कोरिया से बदल दिया। जापानी पूंजीपतियों के तरीकों ने सभी पाठकों को सखालिन में रूसी पूंजीपति वर्ग के तरीकों की याद दिला दी, लेकिन उनके पर्चे पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा, क्योंकि जापान और रूस दुश्मन थे। बहुत सी बातें जो जर्मनी में जर्मनी के बारे में नहीं कही जा सकतीं, ऑस्ट्रिया के बारे में कही जा सकती हैं।

ऐसे कई प्रकार की चालाकी हो सकती है जिनके द्वारा एक शंकालु राज्य को चकमा दिया जा सकता है।

वॉल्तैर ने ऑर्लियन्स की कन्या  के बारे में वीरतापूर्ण कविता लिखकर चमत्कारों पर चर्च के विश्वास को चुनौती दी। उन्होंने उस चमत्कार का वर्णन किया जो निस्संदेह घटित हुई होगी तभी तो जोन ऑफ आर्क पुरुषों की सेना, अभिजात वर्ग के दरबार और भिक्षुओं के समूह के मध्य भी कुंवारी बनी रही। अपनी शैली की भव्यता से, और कामुक कारनामों का वर्णन करके, जो शासकों के विलासितापूर्ण जीवन की विशेषता थी, वॉल्तैर ने उस धर्म का पर्दाफाश किया जिसने उनकी लंपट जीवन शैली को संभव बनाया। वॉलतेर ने अवैध तरीकों द्वारा उन तक अपने कृतियों को पहुंचाना भी संभव बनाया जिनके लिए उन्हें लिखा था। पाठकों में सत्तासीन भी थे जिन्होंने इन लेखन के प्रसार को प्रोत्साहित या सहन किया। इस प्रकार उन्होंने पुलिस को बेनकाब कर दिया, जो उनकी ओर से उनके सुखों का बचाव करते थे। और महान ल्यूक्रेटियस ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि उनके छंदों की सुंदरता एपिक्यूरियन नास्तिकता के प्रसार में सहायता करेगी।

यह बात सच ही है कि उच्च साहित्यिक स्तर संदेश को सुरक्षा प्रदान कर सकता है। हालांकि कई बार यह शक भी पैदा करता है। ऐसे में जानबूझकर इसे थोड़ा हल्का करना भी जरूरी हो सकता है। उदाहरण के लिए, जासूसी उपन्यासों की तिरस्कृत शैली में सामाजिक दुष्परिस्थितियों के विवरणों को गुप्त रूप से तस्करी कर लाया जाता है। इस तरह के विवरण एक जासूसी उपन्यास को पूरी तरह से सही ठहरा सकते हैं। महान शेक्सपियर  ने तो गैर-जरूरी कारणों से कोरिओलेनस  की माँ के भाषण को, जिसमें वो अपने शहर के खिलाफ अपने बेटे के कूच का विरोध करती है, नरम कर दिया। शेक्सपियर ने भाषण को जानबूझकर कमजोर बनाया – वो  चाहते थे कि कोरिओलेनस  अपने इरादे छोड़ दे परंतु अच्छे कारणों से अथवा भावावेश में नहीं, बल्कि आलस्य की पुरानी आदत से। 

शेक्सपियर में हमें  सीज़र के लाश के सामने ऐन्टोनी के भाषण के रूप में सत्य का चालाकी से प्रसार करने का एक मॉडेल मिलता है। ऐन्टोनी लगातार सीज़र के हत्यारे ब्रूटस को एक इज़्ज़तदार आदमी बताता है, परंतु साथ ही उसके कारनामे का विवरण देता है, और उस कारनामे का विवरण, उसे अंजाम देने वाले के बारे मे बखान से ज्यादा प्रभावशाली है। इस तरह भाषणकर्ता तथ्यों द्वारा अपने आपको परास्त होने देता है, वो उन तथ्यों को “अपने आप” से ज्यादा बलशाली बना देता है।

मिस्र का एक कवि, जो चार हजार साल पहले रहता था, ने इसी तरह की पद्धति का इस्तेमाल किया। वह तीव्र वर्ग संघर्षों का समय था। जिस वर्ग ने अब तक शासन किया था वह बहुत मुश्किल से अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी – आबादी का वह हिस्सा जिसने अब तक उसकी सेवा की थी – के खिलाफ अपना बचाव कर रहा था। कविता में एक बुद्धिमान व्यक्ति शासक के दरबार में आता है और आंतरिक शत्रु के खिलाफ संघर्ष करने का आह्वान करता है। वह निम्न वर्गों के विद्रोह से उत्पन्न अव्यवस्थाओं का एक लंबा और प्रभावशाली वर्णन प्रस्तुत करता है। यह विवरण इस प्रकार है:

स्थिति यह है: रईस शिकायतों से भरे हैं और गरीब आनंद विभोर हैं। 

हर शहर कहता है: आओ हम अपने बीच से ताक़तवरों को भगाएँ। 

स्थिति यह है: कार्यालयों को तोड़ा गया और दस्तावेजों को हटा दिया गया। गुलाम मालिक बनते जा रहे हैं।

स्थिति यह है: सम्मानित आदमी के बेटे को अब  पहचाना नहीं जाता। मालकिन का बच्चा  उसकी गुलाम का बेटा बन जाता है।

स्थिति यह है: नगरवासियों को चक्की पीसने को मजबूर कर दिया गया है। जिन्होंने कभी दिन नहीं देखा वे उजाले में चले गए हैं।

स्थिति यह है: बलिदान के आबनूस बक्से तोड़े जा रहे हैं; महंगे सेवान की लकड़ी को काटकर बिस्तर बनाया जाता है।

देख,महल एक घंटे में ढह गया है।

देख, देश के निर्धन धनी हो गए हैं।

देख, जिसके पास रोटी न थी, उसका अब खलिहान हो गया है; उसका अन्नभण्डार दूसरे की सम्पत्ति से भरा है।

देख, मनुष्य के लिये भोजन करना अच्छा है। 

देख, जिसके पास अनाज न था,अब उसके पास खलिहान हैं; जो अनाज की भीख पर जीते थे, वे अब इसे वितरित करते हैं।

देख, जिसके पास बैलों का एक जोड़ा न था, उसके पास अब झुंड हैं; जो हल खींचने के लिए  जानवर नहीं पा सका था, अब उसके पास मवेशियों के झुंड हैं।

देख, जो अपने लिये झोंपड़ी न बना सका, उसके पास अब चहरदीवारें हो गई हैं।

देख, मंत्री खलिहान में शरण लेते हैं, और जिसे मुश्किल से दीवारों के सिरहाने सोने की अनुमति दी गई थी, उसके पास अब बिस्तर है।

देख, जो अपने लिये नाव नहीं बना सकता था, उसके पास अब जहाज हैं; जब उनका मालिक जहाजों को खोजने आता है, तो वह पाता है कि वे अब उसके नहीं हैं।

देख, जिनके पास कपड़े थे, वे अब चिथड़ों में हैं, और जो अपने लिए कुछ नहीं बुनते थे, उनके पास अब उत्तम से उत्तम मलमल है। 

अमीर आदमी बिस्तर पर प्यासा तड़प रहा है, और जो कभी उससे भीख मांगता था, उसके पास अब तेज बीयर है।

देख, जिसे संगीत की कोई समझ नहीं थी, अब उसके पास वीणा है; वह जिसके लिए कोई नहीं गाता था अब संगीत की प्रशंसा करता है।

देख, जिसे गरीबी के कारण अविवाहित सोना पड़ता था, उसके पास अब स्त्रियां हैं; जो पानी में अपना चेहरा देखते थे, उनके पास अब आईना है।

देख, देश के सब से बड़े लोग बिना रोजगार के फिरते हैं। महान लोगों को कोई संदेश नहीं मिलता। वह जो कभी संदेशवाहक था, अब दूसरों को अपना संदेश ले जाने के लिए भेजता है…  

देख, पाँच लोग जिनको उनके स्वामी ने भेजा है। वे कहते हैं: अपने आप जाओ; हम पहुँच चुके हैं।

यह बिल्कुल साफ है कि यह ऐसे प्रकार की अव्यवस्था का वर्णन है जो अवश्य ही उत्पीड़ितों को बहुत ही वांछनीय प्रतीत होगा। और फिर भी कवि की मंशा को समझना मुश्किल है। वह स्पष्ट रूप से इन स्थितियों की निंदा करता है, हालांकि वह उनकी खराब निंदा करता है…

जोनाथन स्विफ्ट ने अपने एक पर्चे में सुझाव दिया कि देश को सम्पन्नता हासिल करने के लिए गरीबों के बच्चों को मसाले में डालकर मांस के रूप में बेच देना चाहिए। उन्होंने सटीक हिसाब किया जिससे साबित होता है कि आप बहुत बचत कर सकते हैं अगर उसके लिए आप किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हों । 

स्विफ्ट ने मासूमियत का नाटक किया। उन्होंने सोचने के एक ऐसे तरीके का बचाव किया, जिससे वे पुरजोर रूप में और पूरी तरह से घृणा करते थे, उन्होंने विषय के रूप में एक ऐसे प्रश्न को लिया, जो स्पष्ट रूप से ऐसे सोचने के तरीके की क्रूरता को उजागर करता है। कोई भी स्विफ्ट से अधिक चतुर हो सकता था, या किसी भी दर पर अधिक मानवीय हो सकता था – विशेष रूप से वे जो तब तक इस बात पर सोचने के लिए परेशान नहीं थे कि उनके विचारों के तार्किक निष्कर्ष क्या हो सकते थे।

विचार के लिए प्रचार, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है। इस तरह के प्रचार की बहुत जरूरत है। शोषण को बढ़ावा देने वाली शासन व्यवस्थाओं के तहत विचार को क्षुद्र माना जाता है।

जो कुछ भी उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है उसे क्षुद्र ही माना जाता है। पेट भरने की लगातार चिंता को क्षुद्र समझा जाता है; क्षुद्र है किसी देश के रक्षकों को दिए जाने वाले सम्मान को अस्वीकार करना जिसमें वे रक्षक भूखे रहते हैं; क्षुद्र है नेता पर संदेह करना जब उसका नेतृत्व आपदा की ओर ले जाता हो; क्षुद्र है उस काम के प्रति अनिच्छुक होना जो मजदूर को पोषण नहीं देता; क्षुद्र है बेतुकी हरकतें करने की मजबूरी के खिलाफ विद्रोह करना; क्षुद्र है ऐसे परिवार के प्रति उदासीन होना जिसे अब किसी भी तरह की चिंता से मदद नहीं मिल सकती। भूखों को लालची कह धिक्कारा जाता है, जिनको बचाने के लिए कुछ भी नही हैं उन्हें कायर कहा जाता है, जो लोग अपने उत्पीड़कों पर संदेह करते हैं उन पर अपनी ताकत पर संदेह करने का आरोप लगाया जाता है; जो लोग अपने श्रम के लिए भुगतान की मांग करते हैं उन्हें आलसी कहा जाता है। ऐसी सरकारों के तहत सामान्य रूप से सोच को नीचा समझा जाता है और उसकी बदनामी होती है। सोचना अब कहीं सिखाया नहीं जाता, और जहां कहीं उभर आता है, उसे सताया जाता है।

फिर भी, कुछ क्षेत्र हमेशा मौजूद होते हैं जिनमें सजा के डर के बिना विचार के सफल होने को देखा जा सकता है। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें तानाशाही को विचार की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, सैन्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विचार की सफलता का उल्लेख करना संभव है। अधिक कुशल संगठन द्वारा और ऊन के विकल्प के आविष्कार से ऊन की आपूर्ति को बढ़ाने जैसे मामलों में भी सोच की आवश्यकता होती है। खाद्य पदार्थों में मिलावट, युवकों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करना — ऐसी सभी बातों के संदर्भ में भी सोच आवश्यक है; और ऐसे मामलों में सोचने की प्रक्रिया का वर्णन भी किया जा सकता है। युद्ध की स्तुति यानी इस तरह के विचार के अनसोचे उद्देश्य से चालाकी से बचा जा सकता है; इस प्रकार युद्ध को सबसे अच्छे तरीके से कैसे छेड़ा जाए के प्रश्न से जो विचार निकलता है वह युद्ध के औचित्य पर प्रश्न उठा सकता है और फिर इस सवाल को भी उठाने में योगदान कर सकता है कि एक संवेदनहीन युद्ध को कैसे टाला जाए। 

बेशक, इन सवालों को सार्वजनिक रूप से उठाना मुश्किल है। तो क्या उस सोच का फायदा उठाना संभव नहीं है जिसे हमने प्रेरित किया है, यानी क्या हस्तक्षेप के उद्देश्य से इस सोच को आकार नहीं दिया जा सकता? अवश्य संभव है। 

हमारे समय में, आबादी के एक (बड़े) हिस्से का दूसरे (छोटे) हिस्से द्वारा दमन जारी रखने के लिए, जनता का एक निश्चित रवैया आवश्यक होता है, और यह रवैया सभी क्षेत्रों में व्याप्त होना जरूरी है। जीव विज्ञान के क्षेत्र में खोज, जैसे डार्विन की खोज, अचानक शोषण के लिए खतरा बन गया। फिर भी, कुछ समय के लिए यह केवल चर्च की ही चिंता थी, चूंकि पुलिस को अब तक कोई भनक नहीं थी। हाल के वर्षों में भौतिकविदों के शोधों ने तर्क के क्षेत्र में जो असर पैदा किया है उससे उत्पीड़न को बनाए रखने वाले कई सिद्धांतों को खतरा हो सकता है। तर्क के क्षेत्र में जटिल खोजबीन करने वाले प्रशिया राज्य के दार्शनिक हीगेल ने सर्वहारा क्रांति के श्रेष्ठ प्रतिपादकों, मार्क्स और लेनिन को बहुमूल्य विचार-पद्धतियों से लैश किया । विभिन्न विज्ञान के क्षेत्रों के विकास आपस में जुड़े हुए हैं, लेकिन समकालिक नहीं हैं, और राज्य कभी भी हर चीज पर अपनी नजर नहीं रख पाता। सत्य का अग्रिम रक्षक अपने लिए रणक्षेत्र का चयन कर सकता है जो अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष हैं। सोच के सही तरीके सीखने पर सबकुछ निर्भर है, वह सोच जो सभी चीजों और सभी प्रक्रियाओं पर प्रश्न खड़ा करता है और उनकी क्षणभंगुर और परिवर्तनशील प्रकृति की जांच करने की इच्छा रखता है।

महत्वपूर्ण परिवर्तनों से शासकों को बहुत घृणा होती है। वे चाहते हैं कि सब कुछ वैसा ही बना रहे —  यदि संभव हो तो एक हजार सालों तक। सबसे अच्छा होता यदि चाँद स्थिर रहता और सूरज अपने मार्ग पर कहीं रुक जाता! फिर कोई भूखा नहीं रहता, कोई इन शासकों का भोजन नहीं खाना चाहता। जब वे गोली चला चुके होते हैं, तो वे नहीं चाहते कि दुश्मन गोली चला सके; आखिरी निशाना उनका ही होना चाहिए। सोचने का तरीका जो अनित्य पर बल देता हो, उत्पीड़ितों को प्रोत्साहित करने का बेहतर साधन है।

इसके अलावे, यह तथ्य कि सभी चीजों में और सभी स्थितियों में विरोधात्मकता का आभास होता है और वह पनपता है, विजेताओं के खिलाफ निस्संदेह इस्तेमाल होना चाहिए। इस तरह का दृष्टिकोण (द्वंद्ववाद का, उस सिद्धांत का कि सबकुछ प्रवाहमान है) को उन विषयों की जांच में शामिल किया जा सकता है जो कुछ समय के लिए शासकों के ध्यान से बचे होते हैं। इसे जीव विज्ञान या रसायन विज्ञान में लागू किया जा सकता है। लेकिन बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किए बिना परिवार की नियति का वर्णन करने में भी इसे व्यवहार में लाया जा सकता है। लगातार बदलते रहने वाले कई कारकों पर हर चीज की निर्भरता तानाशाहों के लिए खतरनाक विचार है, और पुलिस को अपनी उंगली डालने का अवसर दिए बिना यह विचार कई रूपों में प्रकट हो सकता है। किसी व्यक्ति द्वारा किसी तंबाकू विक्रेता की दुकान खोलने में शामिल सभी परिस्थितियों और प्रक्रियाओं का पूरा ब्यौरा तानाशाही के लिए एक भारी झटका हो सकता है। जो कोई भी इस पर थोड़ा भी विचार करेगा वह जल्द ही देखेगा कि ऐसा क्यों है। जनता को दुर्गति की ओर ले जाने वाली सरकारों को दुर्गति के दौरान सरकार के बारे में सोचे जाने से बचना चाहिए। ऐसी सरकारें नियति के बारे में बहुत बातें करती हैं। यह नियति है, वे नहीं, जो आपदाओं के लिए दोषी हैं। जो कोई भी आपदा के कारणों की जांच करता है, उसे सरकार के दोष के बारे में सोचने से बहुत पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। लेकिन नियति के बारे में इस सारी बकवास का सामान्य तौर पर विरोध करना संभव है; यह दिखाया जा सकता है कि मनुष्य का भाग्य मनुष्यों का ही कार्य है।

यह बात और भी तरीकों से की जा सकती है। उदाहरण के लिए, किसी खेत की कहानी बताई जा सकती है – जैसे आइसलैंड के किसी खेत की कहानी। पूरा गांव इस खेत को अभिशप्त मानता है। किसी किसान की पत्नी  ने कुएं में छलांग लगा दी; किसी किसान ने फांसी लगा ली। एक दिन किसान के बेटे और एक लड़की की शादी होती है और दहेज में कुछ खेत मिलते हैं। लगता है अभिशाप हट गया। घटनाओं के इस सुखद क्रम को लेकर गाँव एकमत नहीं है। कुछ इसका श्रेय किसान के युवा बेटे के सुहाने स्वभाव को देते हैं, बाकी नए खेतों को श्रेय देते हैं जो युवा पत्नी अपने साथ लाई थी और जिससे खेती व्यवहार्य बन गई।

लेकिन प्राकृतिक छटा का चित्रण करने वाली कविता में भी कुछ हासिल किया जा सकता है, यानी जब मनुष्य द्वारा बनाई गई चीजों को प्रकृति में शामिल कर लिया जाए ।

सत्य के प्रसार के लिए चालाकी जरूरी है।

सारांश

हमारे समय का महान सत्य (जिसे केवल पहचान लेना ही पर्याप्त नहीं है, लेकिन यदि इसे न पहचाना जाए तो कोई अन्य महत्वपूर्ण सत्य नहीं खोजा जा सकता) वह सत्य यह है कि हमारा महाद्वीप बर्बरता में डूब रहा है क्योंकि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व हिंसा द्वारा बनाए रखा जा रहा है। ऐसे साहसपूर्ण लेखन का क्या फायदा जो साबित करता है कि हम ऐसी स्थिति में डूब रहे हैं जो बर्बरता की है (जो सच है) परंतु यह नहीं स्पष्ट करता कि हम उस स्थिति में क्यों डूब रहे हैं? हमें कहना होगा कि यातनाएं इसलिए दी जा रहीं हैं क्योंकि स्वामित्व को बचाना है। बेशक, यदि हम ऐसा कहते हैं तो हम कई दोस्तों को खो देंगे जो यातनाओं के खिलाफ हैं क्योंकि उनका मानना है कि यातनाओं के बिना स्वामित्व को बनाए रखा जा सकता है (जो असत्य है)।

हमें अपने देश की बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई बतानी चाहिए ताकि वे उपाय किए जाएं जो उन्हें समाप्त कर दे यानी जो संपत्ति के संबंधों को बदल दे।

इसके अलावा, हमें यह सच्चाई उन लोगों को बतानी चाहिए जो मौजूदा संपत्ति संबंधों से सबसे अधिक पीड़ित हैं और जो इन्हें बदलने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं, यानी श्रमिकों को और जिन्हें हम उनके सहयोगी बनने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, क्योंकि वे भी उत्पादन के साधनों के मालिक नहीं हैं, भले ही वे मुनाफे में हिस्सेदारी करते हों।

और पाँचवा, हमें चालाकी का इस्तेमाल करना होगा।

और इन सभी पांच कठिनाइयों का हल हमें एक ही साथ निकालना होगा, क्योंकि हम बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई की खोज उनसे पीड़ित लोगों के बारे में सोचे बगैर नहीं कर सकते; और कायरता के हर निशान को लगातार झाड़ते हुए, हमें सही परिस्थितियों का जायजा लेना होगा उन लोगों को ध्यान में रखते हुए जो इस ज्ञान का इस्तेमाल करने में सक्षम हैं; हमे यह भी सोचना होगा इस ज्ञान को किस तरीके से दें ताकि उनके हाथ में यह हथियार की तरह हो और साथ ही साथ इतनी चालाकी से दें कि दुश्मन को पता न चले और वह रोक न सके। 

एक लेखक से यही अपेक्षा की जाती है, जब उसे सच लिखने के लिए कहा जाता है।

(जर्मन मूल और विभिन्न अंग्रेजी अनुवादों की मदद से अनूदित)

असली सनातन धर्म क्या है?


ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28।
अर्थ
मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।
मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥

असली सनातन धर्म क्या है?

जो सनातन है वह कर्म, स्थान और काल से बंधा नहीं हो सकता। जीवन चक्र से निकलने का साधन है वह — सनातन धर्म को जो इन्द्रीयता और कर्मकांड में बांधते हैं वह नहीं जानते कि वे सारे शास्त्रों का उल्लंघन कर रहे हैं। सनातन तो नेति नेति की उद्घोषणा में ही पाया जा सकता है। नाम और जड़-संज्ञा में सनातन अपने आप को व्यक्त जरूर करता है परंतु वह उन संसारियों पर हंसता है जो उसकी स्थानकालिक अभिव्यक्तियों के मोह में फंस उनपर कब्जे के लिए लड़ते रहते हैं। धम्मपद ने असली सनातन धर्म की ओर इस प्रकार इंगित किया है।

अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे ।
ये च तं उपनय्हन्ति वेरं तेसं न सम्मति ॥3॥

‘मुझे गाली दी’, ‘मुझे मारा’, ‘मुझे हराया’, ‘मुझे लुट लिया’, जो ऎसी बातें सोचते रहते हैं, मन में बांधे रहते हैं, उनका वैर कभी शान्त नही होता ।

अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे ।
ये तं नुपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति ॥4॥

‘मुझे गाली दी’, ‘मुझे मारा’, ‘मुझे हराया’, ‘मुझे लुट लिया’, जो ऎसी बातें मन में नही सोचते , उनका वैर शान्त हो जाता है।

न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ॥5॥

वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अवैर से ही वैर शान्त होता है, यही संसार का सनातन धर्म है ।

श्रीलंका का संकट और “जनता अरगलय”  


“हम नहीं जानते और न ही जान सकते हैं कि संसारव्यापी आर्थिक और राजनीतिक संकट के परिणामस्वरूप सभी देशों में उड़ने वाली असंख्य चिंगारियों में से कौन सी चिंगारी आग को भड़काएगी, यानी जनता को उठा खड़ा कर देगी।” — लेनिन (1920)

I

श्रीलंका की हाल की घटनाएँ आशा और निराशा दोनों ही पैदा करती हैं — अगर एक तरफ पिछले कई महीनों से दिखती जन-क्रियाओं की दृढ़ता, निरंतरता और  बहुआयामिता को देख कर आशा पैदा होती है, तो दूसरी तरफ इन घटनाओं के तात्कालिक नतीजे निराश करते हैं। यह बात सही है कि जिस फुर्ती से आंदोलन के नतीजतन राजसत्ता के चिह्नित मोहरे अप्रैल से जुलाई के अंतराल में एक एक कर लुढ़क रहे थे — मंत्रियों की कैबिनेट,  केन्द्रीय बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री, और अंत में राष्ट्रपति गोताबया का देश से भागना और बाहर से इस्तीफा देना — उतनी ही तेजी से नए मोहरे जुलाई के मध्य से सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ते गए। श्रीलंका में जहाँ तमाम राजनीतिक आभिजात्य संकर नस्ल के हैं — यानी उनके बीच आंतरिक और आपसी प्रजनन (केवल वैचारिक नहीं) की एक मजबूत परंपरा रही है, वहाँ महान इतालवी लेखक ज्यूसेप्पे तोमासी दी लांपेदूजा के उपन्यास “इल गात्तोपार्दो” (तेंदुआ) का व्यवस्थापरक कूटनीतिक निचोड़ — Cambiare tutto perché niente cambi (सब कुछ बदलो ताकि कुछ न बदले) पूरी तरह से लागू होता है। और कई दशकों से यही होता रहा है। 

परंतु इस बार कुछ तो अलग हुआ  —  श्रीलंका में वैश्विक सत्ताओं को भी श्रीलंका के इस आभिजात्य वर्ग की क्षमता पर शक होने लगा। यही वजह थी कि अमरीकी राजदूत जुली चुँग भूतपूर्व-“क्रांतिकारी आतंकवादी” जनता विमुक्ति पेरामुन (जेवीपी) के नेतृत्व को भी एक विकल्प के रूप में पेश करने लगीं। इन पिटे हुए नेताओं से मिलकर चुँग ने कहा कि “मुझे पता है कि अतीत में बहुत सारी बयानबाजी हुई थी”, परंतु आज “मेरे लिए जेवीपी एक महत्वपूर्ण पार्टी है। उसकी मौजूदगी बढ़ रही है। आज की जनता पर उसकी पकड़ मजबूत है।” सचमुच सब कुछ बदलना पड़ता है ताकि कुछ न बदले। परंतु विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति पद पर काबिज होने और भूतपूर्व त्रात्स्कीपंथी दिनेश गुणवर्देन के प्रधानमंत्री पद को संभालने से जेवीपी की बढ़ती महत्वाकांक्षा को एक हास्यास्पद अंत मिला, और फिलहाल सब कुछ बदलने की जरूरत नहीं पड़ी।

जो श्रीलंका की घटनाओं में निश्चित यथेष्ट “क्रांतिकारी” बदलाव देखना चाहते थे उनको अवश्य ही यह नतीजा उदासीन करता है। मगर तात्कालिक  राजनीतिक बदलावों से आंदोलन की महत्ता तय नहीं होती। ऐसे बदलावों में क्रांति को ढूँढ़ने वाले यह  भूलते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति ने पूंजीवाद को पैदा नहीं किया, पूंजीवाद ने फ्रांसीसी क्रांति को जन्म दिया; या फिर, रूसी क्रांति बोलशेविकों के दिमाग की उपज नहीं थी, सोवियतों और अन्य सामाजिक सरोकारों में होते बदलावों ने रूसी क्रांति को जन्म दिया। नतीजों के आधार पर अगर जन उभारों और क्रांतियों के औचित्य को तय करेंगे तो निराशा हाथ लगनी ही है। यदि हम इन आंदोलनों को  जन-क्रिया के संघटन और अवस्थाओं के रूप में न देखकर कर्मफलहेतु समझते रहेंगे हमें ये आंदोलन विफल क्या निरर्थक भी लगेंगे — और तब तो बीसवीं सदी की महान क्रांतियों और प्रतिक्रांतियों के सौ साल को हम एक जगह पर घूमने वाले चक्र की तरह देखेंगे और हम नहीं समझ पाएंगे कि किस प्रकार सर्वहारा जन की क्रियाओं और उनके सामूहिक आत्मनिर्णय ने पूंजीवाद के तमाम अवतारों को संकटग्रस्त रखा, उनको भी जो सर्वहारा क्रांतियों में जनित सत्ता के अलगाव के मूर्तरूप थे और जिन्हें समाजवाद का नाम दिया गया था। 

श्रीलंका को लेकर तमाम व्याख्याओं में जन-संघर्ष (जनता अरगलय) को जीवन-स्तरों में गिरावट को लेकर श्रमिक वर्ग (खास तौर पर उसके मध्य-वित्तीय तबके — इन्हें ही मध्यम वर्ग आजकल कहते हैं) की प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया है। इनकी दृष्टि में जनता क्रियाशील नहीं प्रतिक्रियाशील है। वर्चस्वकारी शक्तियों के बौद्धिक सिपाही इसमें कुछ विपक्षीय दलों और राष्ट्रविरोधी तत्वों का षड्यंत्र देखते हैं तो प्रगतिशील लोग आशातीत होते हैं परंतु वांछित नतीजा न देखकर आंदोलन के अंदर राजनीति और राजनीतिज्ञों की कमी का रोना रोते हैं। श्रीलंका के संदर्भ में तो कुछ लोग इसे चीन के खिलाफ अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी खेमे की चालबाज़ी देखते हैं। इन सभी व्याख्याकारों के लिए जन-क्रिया की कोई स्वायत्तता नहीं है — व्यवस्था के व्याकरण में जनता औसत व्यक्तियों अथवा नागरिकों की भीड़ है जो केवल अपनी प्रतिक्रिया दे सकती है, कोई पहल नहीं कर सकती।  

II

पूंजीवादी संकटों को महज आर्थिक प्रबंधन की कमजोरियों और गलत नीतियों के नतीजे के तौर पर देखना तो अवश्य ही गलत है, परंतु इन संकटों की वस्तुनिष्ठता को सामाजिक व्यवहार और संघर्षों के दायरे से परे समझना शायद उससे भी बड़ी गलती है। कम से कम मार्क्सवादियों का यह वैचारिक-कार्यक्रमात्मक दायित्व है कि वे जन-संघर्षों में इस तरह की द्वैतवादी अपरिष्कृतता की आलोचना करें ताकि ये संघर्ष व्यवस्था-बद्ध वर्चस्वकारी माँगवादी राजनीति के आगे अग्रसर हो अपने ही अंदर मौजूद सामूहिक तत्वों के आधार पर नए समाज के प्रारूप पेश कर सकें। 

राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना पूंजीवाद की संरचना, राजनीतिक अर्थशास्त्रीय अवधारणाओं और उपस्थित बाह्यरूपों के तह में सामाजिक संबंधों के प्रक्रियात्मक सत्य और उनके आंतरिक अंतर्विरोधों को उजागर करती है। उसके अनुसार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संकटों को वर्गीय संबंधों — पूंजी और श्रम के अंतर्द्वंद्व — द्वारा समझने की जरूरत है। ऐसा न करने से हम मेहनतकश जनता को महज आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के भुक्तभोगी की तरह देखते रहेंगे और उनके नायकत्व के चरित्र से अनभिज्ञ हम भी उसके अलगाव के जरिया बन अधिनायकों और राजसत्ता के पूजक बने रहेंगे। यह बात सही है कि मानव-जन अपना इतिहास मनचाहे ढंग से नहीं बनाते और वे उसे अपनी मनचाही परिस्थितियों में भी नहीं बनाते, पर तब भी वे उसे स्वयं बनाते हैं।

श्रीलंका के जनता अरगलय का तात्कालिक संदर्भ एक प्रकार का आर्थिक संकट है जिसके कारण को बहुत आसानी से स्थानीय अव्यवस्थाओं पर मढ़ा जा सकता है। वैसे भी संकटों के सारे स्वरूपों को अर्थशास्त्री आमतौर पर तकनीकी चरों और अचरों के असंतुलन  के रूप में पेश करते हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार चूंकि ये संतुलन पूंजीवादी प्रक्रियाओं में स्वभावतः मौजूद होता है, असंतुलन बाह्य कारकों के हस्तक्षेप का नतीजा है। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार राजकीय व्यवस्था का मुख्य काम अपने और अन्य “बाह्य” कारकों के हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है। अन्य अर्थशास्त्रियों के लिए पूंजीवादी प्रक्रियाएँ अपने आप में असंतुलित हैं इसलिए राज्य व्यवस्था का हस्तक्षेप जरूरी है। मामला दोनों के लिए प्रबंधन का है। दोनों ही पूंजीवादी प्रक्रियाओं को स्वतःस्फूर्त मानते हैं — बस अंतर उनके नैसर्गिक संतुलनता के सवाल पर है। 

दोनों पक्षों के लिए सरकार और राजनीतिक शक्तियों की स्वायत्त सत्ता है जो मन चाहे ढंग से आर्थिक प्रबंधन कर सकती है। ये दृष्टिकोण पूंजी, आर्थिक प्रक्रियायों और यहाँ तक कि बाजार की भी जिंसीकृत समझ रखते हैं — इनको सामाजिक संबंधों के रूप में नहीं देखते। इसी कारण से वे समझ नहीं पाते कि किस प्रकार राजसत्ता, सरकार, राजनीति और आर्थिक-वैधानिक नीतियाँ इन संबंधों के गतिकी में जड़ित हैं — उनकी सापेक्ष स्वायत्तता की प्रतीति इस गतिकी के अन्तर्विरोधात्मक चरित्र का नतीजा है। इस अन्तर्विरोधात्मकता के जड़ में पूंजी-श्रम संबंध का द्वंद्ववाद है। यही अंतर्विरोध समयासमय संकट को जन्म देता है जो विभिन्न रूप ले सकता है, परंतु इतना तो साफ है कि पूंजी अथवा उसके तंत्र पूंजीवाद का संकट अंततः पूंजी-श्रम के संबंध का संकट है।

मार्क्सवाद ने पूंजीवादी संकट के विभिन्न अभिव्यक्तियों को पूंजीवादी संचय के गूढ़तम प्रक्रियाओं से जोड़ कर विभिन्न संकट सिद्धांतों की पेशकश की है। ज्यादातर मार्क्सवादी “अर्थशास्त्री” (पेशेवर और शौकिया दोनों) भी इन सिद्धांतों को महज पूंजी और पूँजीपतियों के विकास के सिद्धांत के रूप में देखते हैं जिसका वर्ग-संघर्ष से सीधा कोई वास्ता नहीं है। यदि उसमें प्रतिस्पर्धा की बात आती भी है तो उसे पूंजी की विभिन्न इकाइयों के बीच रिश्ते का पर्याय समझा जाता है। सामान्य तौर पर संकट को उत्पादन और संचरण की एकता में विच्छेद के रूप में देखा जाता है — बहस महज उत्पादन या संचरण के केन्द्रीयता को लेकर होती है। इस विच्छेद में निस्संदेह तथाकथित “उत्पादन शक्तियों” की निर्णायक भूमिका समझी जाती है, परंतु इन शक्तियों की गणना में जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, यानी मानवीय श्रम, उसे ही निष्कासित कर इन्हें टेक्नोलॉजी का पर्याय मान लिया जाता है। इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना की विशिष्टता गायब हो जाती है और उसकी अवधारणाएं जड़ता का शिकार हो जाती हैं। निष्कर्षतः मार्क्सवादियों के बीच भी पूंजीवादी संकट के तमाम सिद्धांत निवेश चरित्र और यांत्रिक ब्रेकडाउन के सिद्धांत बन जाते हैं। (बेल 1977; बेल और क्लीवर 1982) इस प्रकार पूंजीवादी संकट के मार्क्सवादी सिद्धांतों के अन्तर्सम्बन्ध और अखंडता  का संप्रत्ययात्मक (conceptual) आधार ओझल हो जाता है और ये सिद्धांत अलग-अलग, यहाँ तक कि विरोधास्पद प्रतीत होते हैं। इन सब के केंद्र में श्रम और वर्ग संघर्ष के सवाल जो इन तमाम सिद्धान्तों को बांधते थे, उनके ओझल हो जाने से पूंजीवादी संकट की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ विकेन्द्रित होकर अपनी-अपनी कहानियाँ गढ़ती हैं। 

इस तरह जो कारण है वह महज कार्य में तब्दील हो जाता है, वह कुंठित प्रतिक्रियात्मकता का द्योतक हो जाता है, और कई टुकड़ों में संगठित हो राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का मोहरा बन कर रह जाता है। अर्थशास्त्रीय मार्क्सवादियों से तो यही उम्मीद की जाती है परंतु राजनीतिक मार्क्सवादी भी पूंजी की जिंसीकृत ही नहीं व्यक्तिकृत समझ रखते हैं और उसे सामाजिक संबंध और निर्वैयक्तिक सत्ता के रूप में नहीं देख पाते। तथाकथित मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों के अनुसार पूंजी कोई वस्तु है जिस पर पूँजीपतियों का आधिपत्य है और अगर मजदूर उस पर कब्जा कर लें तो सब ठीक हो जाएगा।

जबकि मार्क्स के लिए पूंजी वह सामाजिक संबंध है जिसके तहत पूंजीपति पूंजीपति होते हैं, और मजदूर मजदूर होते हैं। पूंजीवादी संकट के विभिन्न स्वरूप इस संबंध के आंतरिक संकट की अभिव्यक्तियाँ हैं। वर्ग-संघर्ष केवल फैक्ट्री या फैक्ट्रियों के अंदर अथवा मजदूरों-पूंजीपतियों के बीच के सीधे टकराव से ही नहीं शुरू होता। वह तो आदिम संचय द्वारा श्रम को दोहरी आजादी मिलने से लेकर श्रम बाजार की धक्कम-धुक्की से होता हुआ वर्कशॉपों, फैक्ट्रियों, जमीनों, या कहें उत्पादन/श्रम संबंधों के तमाम स्वरूपों को समेटता हुआ, उपभोग की सीमाओं में घुस श्रम-शक्ति और बेशी आबादी के पुनरुत्पादन के सवाल से जूझता है। या कहें आज पूरा समाज ही सामाजिक फैक्ट्री के रूप में वर्ग संघर्ष का रणक्षेत्र है। इन तमाम सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में वर्ग-संघर्ष मौजूद है, पूंजी की समस्याएँ इन सारे क्षेत्रों में श्रम को नियंत्रित करने की हैं, और इसी में असफलताएँ संकट के विभिन्न स्वरूपों को पैदा करती हैं।

III

अंतर्राष्ट्रीय कर्ज के संकट को लेकर अर्थशास्त्रीय अटकलें कर्ज की तह में छुपे सामाजिक-राजनीतिक तत्वों को सामने नहीं आने देतीं। 1982 के मेक्सिको संकट से लेकर आज तक कई प्रकार के कर्ज संकट हमारे सामने आए हैं। ये कर्ज मुख्यतः सरकारी और बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा दिए जाते हैं, परंतु हाल के वर्षों में निजी संस्थानों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है। ये कर्ज साधारणतः आधारिक संरचना और बाजार के विकास के नाम पर  लिया जाता है, परंतु ये मासूम लगने वाले कारक सामाजिक-भौगोलिक दिक्काल का कायापलट कर स्थानीय सामाजिकता को पूरी तरह से झकझोर देते हैं। इनका काम उन सामाजिक संबंधों और क्रियाओं को इस प्रकार पुनर्संयोजित करना है ताकि नई स्थितियों के विकास में वे बाधक न हों और उनके अधीन रह वे उत्पादक बन सकें। मार्क्सवादी भाषा में यही आदिम संचय की प्रक्रिया है जो संसाधन को आबादी के नियंत्रण से और आबादी के श्रम को पुराने सामाजिक संबंधों से आजाद करती है, ताकि वे पूंजीवादी संचय और बाजार के विकास के आधार बन सकें। 

इसके अलावे कर्ज की वे शर्तें हैं जिन्हे संरचनात्मक अनुकूलन कार्यक्रम अथवा संरचनात्मक सुधार कहते हैं और जिनके तहत स्थानीय अर्थव्यवस्था, संस्थाओं और सामाजिक संबंधों को वैश्विक पूंजी संचय की जरूरतों के अनुकूल विकसित करने की कोशिश होती है। निजीकरण, श्रम बाजार का युक्तिकरण, मौद्रिकरण का विस्तार, मितव्ययिता इत्यादि ऐसे औजार हैं जो स्थानीय श्रमिकों की आबादी को लाचार बना उन्हें इन जरूरतों के अनुसार अनुशासित करने की कोशिश करते हैं। पूंजी के स्थानीय प्रशासक उधार ली गई धनराशि का उपयोग मुख्यतः एक तरफ अगर स्थानीय औद्योगिकीकरण के साथ-साथ इसकी सभी परिचर लागतों को वित्तपोषित करने के लिए करते हैं जिसमें ठोस निवेश के लिए बुनियादी ढांचे पर खर्च शामिल है, तो दूसरी तरफ स्थानीय संघर्षों के जवाब में, विशेष रूप से, मजदूर वर्ग पर सैन्य/पुलिसिया नियंत्रण स्थापित करने के लिए करते हैं। (क्लीवर 1989; बेल और क्लीवर 1982)

यदि हम अंतर्राष्ट्रीय कर्ज के अर्थशास्त्रीय दलीलों और उसके शर्तों के औपचारिक व्याकरण को बिना इन व्यावहारिक पक्षों को ध्यान में रख पढ़ेंगे तो पूंजीवाद द्वारा फैलाए वैचारिक मायाजाल में फँस हम वर्ग-संघर्ष के बहुरूपिए पक्ष से अनभिज्ञ ही रहेंगे। सर्वहारा के खिलाफ पूंजी के विशिष्ट हमले को हम सर्वहाराकरण के खिलाफ सर्वहारा होती आबादी के संघर्ष के विभिन्न स्तरों को समझे बिना कभी नहीं ग्रहण कर सकते। कर्ज का संकट इसी वर्ग संघर्ष का नतीजा है — जिसे पूंजी के हित में जीतने के लिए सरकारों को और कर्ज लेना पड़ता है। 

यह बहुस्तरीय वर्ग संघर्ष सामाजिकता के विभिन्न दायरे की विशिष्ट भाषा को लिए होते हैं, उन्हें एक स्वरूप में बांधना नामुमकिन ही नहीं प्रतिक्रियावादी भी है, क्योंकि वह मजदूर वर्ग की अपनी अभिव्यक्तियों का दमन है जो कि अंततः पूंजी को ही सुरक्षित करता है। कहीं पर यह संघर्ष अगर औद्योगिक संघर्षो के रूप में मिलते हैं तो कहीं राष्ट्रीयताओं और अस्मिताओं की भाषा में ये मौजूद रहते हैं। मार्क्स की “क्रांतिकारी सामान्यीकरण” की अवधारणा इन संघर्षो की स्व-अभिव्यक्तियों में पूंजी विरोधी क्रांतिकारी सूत्र को पहचानना है।

IV

श्रीलंका की कर्ज की जरूरत को और आज के उसके कर्ज संकट को उसके पीछे काम कर रही सामाजिक प्रक्रियाओं और संघर्षों को पहचाने बगैर समझा नहीं जा सकता। इस पुस्तिका में हमारे साथियों ने इस संदर्भ को समझने के लिए जरूरी तथ्यों को बखूबी पेश किया है। इसलिए मैं बस दो तथ्यों को यहाँ गिनूंगा। पहला कि श्रीलंका की राजसत्ता लातिन-अमरिका में पिनोचेत की दमनकारी सरकार के बाद दूसरी थी जिसने वाशिंगटन कंसेंसस के नवोदारवादी मुहिम को जगह दी। दूसरा, आज से पहले श्रीलंका सोलह बार आईएमएफ के आर्थिक स्थायीकरण कार्यक्रमों को कार्यान्वित कर चुका है। उसके बाद भी वैश्विक और स्थानीय पूंजीवादी सत्ताएँ श्रीलंकाई जनता और संसाधनों को अपने गिरफ्त में नहीं कर पाई हैं। गृह युद्ध में जीत और सिंहली राष्ट्रवाद के  सशक्तिकरण ने श्रीलंकाई राजसत्ता को जो वैधानिकता प्रदान की थी वह पूरी तरह से श्रीलंका की जनता ने मटियामेट कर दिया। वर्ग संघर्ष की भाषा वह कुंजी है जो हमें श्रीलंका में कर्ज की राजनीति, गृह युद्ध, अस्मिताओं/राष्ट्रीयताओं के खूनी संघर्ष और आज के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट को एक दूसरे से बांध के समझने में मदद करती है।

अंत में कुछ घरेलू बातें।

कुछेक संगठनों को छोड़कर हिंदुस्तानी वामपंथियों में श्रीलंका की घटनाओं को लेकर आम अलगाव बहुत ही निराशाजनक है, जबकि हिंदुस्तानी राजसत्ता और शासक वर्ग ने लगातार अपने हित को साधने में और विश्व-पूंजीवाद के क्षेत्रीय नायकत्व के नाते हस्तक्षेप करने में कोई कसर नही छोड़ा। हालांकि दक्षिण एशिया में नेपाल के लोकतंत्र आंदोलन के बाद श्रींलंका का जनता अरगलय पहला ऐसा जन उभार है  जिसने शासन-व्यवस्था और क्षेत्रीय संतुलन को संकट में डाल दिया, मगर दोनों आंदोलनों में अंतर काफी साफ है। जहां एक तरफ नेपाली आंदोलन का लक्ष्य, उसका राजनीतिक स्वरूप और नेतृत्व साफ दिखता था, तो दूसरी तरफ श्रीलंका के जनता अरगलय में न कोई निश्चित लक्ष्य है, न कोई निश्चित राजनीतिक स्वरूप है और ना ही कोई निश्चित नेतृत्व है।  निश्चित्तता प्रतिक्रियाओं के दायरे को भी निश्चित करती है — आंदोलन के विरोधियों और समर्थकों दोनों की प्रतिक्रियाओं को व्याकृत करती है। इसी कारण से भारत की विभिन्न राजनीतिक शक्तियाँ अपनी-अपनी राजनीति के अनुसार नेपाल की राजनीति के साथ जुड़ती रहीं है, उस पर टिप्पणी देती रहीं और असर भी डालती रही हैं। परंतु इस निश्चितता का आडम्बर उसके पीछे की अनिश्चित संभावनाओं की अपारता को नापने नहीं देता जबकि इसी अनिश्चितता में क्रांतिकारी परिवर्तन की गुंजाइश होती है। निश्चितता के दायरे में  राजनीति केवल निश्चित संभावनाओं का इंतज़ार है, उसमें आशा की कोई गुंजाइश नहीं होती — जो होना है उसकी आशा नहीं की जाती, उसका इंतजार होता है।

श्रीलंका को लेकर हिंदुस्तानी वामपंथ की उदासीनता और निष्क्रियता के पीछे एक कारण तो अवश्य ही प्रत्यक्ष रूप से श्रीलंका के आंदोलन में  “राजनीति की कमी” और अनिश्चितता थी। परंतु यह पर्याप्त या मुख्य कारण नहीं है। इसका सबसे प्रमुख कारण भारतीय वामपंथ का निम्न-पूंजीवादी राष्ट्रवादी विचलन है जो उसे भारतीय राजसत्ता और क्षेत्रीय पूंजीवादी प्रक्रियाओं में भारत की वर्चस्वकारी भूमिका की सटीक अंतर्राष्ट्रीयवादी आलोचना करने से रोकता है। जो धाराएँ आज भी भारत में “पूंजीवादी-जनवादी” कर्तव्यों को क्रांति द्वारा पूरा करने की बात करती हैं उनके लिए भारतीय पूंजीवाद और उसकी राजसत्ता का विश्व साम्राज्यवादी नेटवर्क के अंतर्गत एक वर्चस्वकारी शक्ति होने की बात कैसे स्वीकार होगी? वे छुटपुट धाराएँ भी जो भारत में समाजवादी क्रांति का सपना देखती हैं, वे भी पेड़ गिनने में लगी रहती हैं, जंगल की संश्लिष्ट समझ विकसित नहीं कर पातीं। (वे बहुत मायने में भारतीय राजनीतिक अर्थतंत्र की विश्लेषणात्मक स्तर पर सटीक और विस्तृत आलोचना पेश करती हैं, परंतु पूंजीवादी संरचना की संश्लिष्टता अथवा समग्रता को ग्रहण करने में चूक जाती हैं)। इसीलिए, भारतीय पूंजीवाद और राजसत्ता की (उप)साम्राज्यवादी रणनीतियाँ, पड़ोसी और अन्य देशों में भारत के दाँव-पेंच, जिनका निश्चित आर्थिक चरित्र है — ये सब इनके कूपमंडूक चिंतन प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं। और यही कूपमंडूकता हमें हमारे घर के दरवाजे पर हो रहे संघर्षो से सीख और प्रेरणा लेने से रोकती है।

पता नहीं लेनिन (1920) की निम्नलिखित बात का इस भूमिका में कही बातों से पाठकों को कोई सीधा रिश्ता दिखता है या नहीं, परंतु मेरी समझ में वामपंथी रूपवाद जिसको तोड़ने में हिन्दुस्तानी वामपंथियों को बहुत समय लग रहा है, और जो उन्हें नए संघर्षों को उन संघर्षों के अपने रूप में अपनाने से रोकता है, उसको यह उद्धरण चुनौती देता है:       

“सबसे अधिक प्रगतिशील वर्ग की अच्छी से अच्छी पार्टियाँ और अधिक से अधिक वर्ग -सजग हिरावल जिस बात की कल्पना कर सकते हैं, इतिहास आम तौर पर, और क्रांतियों का इतिहास खास तौर पर, उससे कहीं अधिक सामग्री-समृद्ध,अधिक विविध, अधिक अनेकरूपीय, अधिक सजीव और प्रतिभा-सम्पन्न होता है। यह बात समझ में आनी चाहिए, क्योंकि अच्छे से अच्छे हिरावल भी केवल हजारों आदमियों की वर्ग-चेतना, निश्चय, उत्साह और कल्पना को ही व्यक्त कर सकते है, जब कि क्रांतियाँ वर्गों के तीव्रतम संघर्ष से प्रेरित करोड़ों आदमियों की वर्ग-चेतना, निश्चय, उत्साह और कल्पना से ओतप्रोत सभी मानव क्षमताओं के विशेष उभार और उठान की घड़ी में होती हैं। इससे दो महत्वपूर्ण अमली नतीजे निकलते हैं: पहला, यह कि क्रांतिकारी वर्ग को अपना काम पूरा करने के लिए, बिना किसी अपवाद के सामाजिक गतिविधि के सभी रूपों में, सभी पहलुओं में पारंगत होना चाहिए (इस विषय में जो कुछ वह राजसत्ता पर अधिकार करने के पहले पूरा नहीं कर पाता, उसे सत्ता पर अधिकार करने के बाद — कभी-कभी बड़े जोखिम उठाते हुए और बड़े खतरों के साथ — पूरा करना पड़ता है); दूसरा, यह कि क्रांतिकारी वर्ग को बहुत ही जल्दी के साथ और बड़े अप्रत्याशित ढंग से एक रूप को छोड़कर दूसरा रूप अपनाने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए।”

और वैसे भी, बाबा वाक्यं प्रमाणम्!!!

संदर्भ सूची:

हैरी क्लीवर (1989), “Close the IMF, Abolish Debt and End Development: a Class Analysis of the International Debt Crisis,” Capital & Class (39), Winter 1989

पीटर बेल (1977), “Marxist Theory, Class Struggle and the Crisis of Capitalism” in Jesse Schwartz (ed.), The Subtle Anatomy of Capitalism. Santa Monica: Goodyear

पीटर बेल और हैरी क्लीवर (1982),” Marx’s Theory of Crisis as a Theory of Class Struggle,” Research in Political Economy (Vol. 5) 

व्लादिमीर लेनिन (1920),  वामपंथी कम्युनिज्म – एक बचकाना मर्ज

A book on The Sri Lankan Crisis: Analysis and Lessons (श्रीलंका का संकट — विश्लेषण और सबक)


कम्युनिज़्म का अव्याकरण (The Ungrammaticality of Communism)


इस लेख का विस्तृत पाठ जॉन होल्वे की किताब “क्रैक कैपिटलिज्म” के बंगला अनुवाद की भूमिका के लिए लिखा गया और प्रकाशित हुआ है। साथी मार्तंड प्रगल्भ के साथ लिखा वह लेख अनुगूँज के ब्लॉग पर उपलब्ध है ।

आज एक तरफ प्रगतिशील राज्यवादी धाराएँ फासीवाद से संघर्ष के नाम पर उदारवाद और कल्याणकारी संस्थाओं की पहरेदारी करने में लगी हैं, तो दूसरी तरफ व्यवस्था लगातार अपनी दरारों को छुपाने के लिए आपातकालिक उपायों पर निर्भर रह रही है। संकट को अवसर बनाने के फेर में बड़े संकट पैदा कर रही है। हम यह भी कह सकते हैं कि व्यवस्था अपने एक संकट का निवारण दूसरे संकट द्वारा ही कर पा रही है। 

1

परंतु संकट आखिर क्या है? शायद इसको समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक पहलू उस मौलिक मार्क्सवादी शिक्षा पर जोर है जिसके अनुसार पूंजीवाद का आधार मानवीय गतिविधियों का सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम काल के साथ ताल-मेल होता है। सारे संकटों की जड़ हमारा बेताल होना है। तभी तो, संकट के कारण हम हैं, पूंजीपति नहीं। आर्थिक, राजनीतिक और अन्य प्रकार के प्रबंधनात्मक विकास इसी ताल-मेल को बनाए रखने के लिए होते हैं। परंतु बेताल हो जाने की और व्यवस्थाई असन्तुलन की समस्या पूंजीवाद पर हमेशा मंडराती रहती है। व्यवस्था के दीवारों की लगातार मरम्मत होने के बावजूद हमारे करने से ही छोटी बड़ी दरारें लगातार बनती और फैलती रहती हैं “जहां से मसीह प्रवेश कर सकता है” (वाल्टर बेंजामिन, ऑन द कॉन्सेप्ट ऑफ हिस्ट्री)।

पूंजीवादी सामाजिक संश्लेषण आज निरंतर खतरे में है। उसका व्याकरण आज गहरे संकट में है। इस व्याकरण के तहत क्रियाओं और कृत्यों की स्वच्छंदता और बहुआयामीता पर एक ही क्रिया, अस्ति (होना) का वर्चस्व स्थापित होता है। यही अस्तित्व अथवा सत्त्व संज्ञाओं और क्रियाओं के बीच पदक्रमात्मक सम्बन्ध पैदा करते हैं। केवल इसी रूप में पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन संभव है। परंतु ये विभिन्न प्र-क्रियाएँ संकट ले कर आती हैं। ये संज्ञाएँ तो बनाती हैं – पण्यों, द्रव्यों, इत्यादि सभी का तो राज यही हैं –  परंतु उनकी सत्ता को कभी स्थिर नहीं रहने देतीं। जैसे ही पण्यों को हम पण्यीकरण, द्रव्यों को द्रव्यीकरण समझते हैं तो हमे इन संज्ञाओं की अस्थिरता साफ दिखती है। जैसाकि अर्न्स्ट ब्लॉक ने कभी कहा था कि अस्तित्व की बंद, गतिहीन अवधारणा की तिलांजलि से ही उम्मीद का अस्ल आयाम खुलता है (अर्न्स्ट ब्लॉक, द प्रिंसिपल ऑफ होप, भाग 1)। मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिज़्म के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही कहा था। 

2

“कम्युनिज़्म हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को कम्युनिज़्म का नाम देते हैं जो मौजूदा अवस्था को मिटाता है। इस आंदोलन की स्थितियां उन पूर्वाधारों से उत्पन्न होती हैं जो अभी विद्यमान हैं।” (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, द जर्मन आइडियोलॉजी)

बहुतों को कम्युनिज़्म की यह परिभाषा अधूरी लगती है, क्योंकि इसमें कम्युनिज़्म का विस्तृत रूपात्मक विवरण नहीं दिया गया है। पर हम समझते है कि इसमें सब कुछ है जिसके आधार पर ऐसे विवरण तैयार किए जा सकते हैं। परंतु विवरण तो परिभाषा नहीं है, वे केवल ऐतिहासिक स्वरूपों की कहानियां बता सकता है।

पहली बात तो यह है कि कम्युनिज़्म शब्द अपने आप में एक सूत्र है जो कि वर्गीय-विभाजित सामाजिकता के खिलाफ कम्यून अथवा वर्ग-विहीन सामूहिकता पर आधारित सामाजिकता की पेशकश करता है। पर वह कोई भविष्य में आने वाली अवस्था नहीं है, जिसे स्थापित होना अथवा करना है। वह आदर्श भी नहीं है जिसे कार्यक्रम-बद्ध कर यथार्थ को वहां तक पहुंचाना है। 

यानी कम्युनिज़्म को आना-लाना नहीं है, वह तो यहीं है। “मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में”। मौजूदा अवस्था को मिटाने के हमारे संघर्ष में, वास्तविक आंदोलन में वह मौजूद है। “खोजी होय तुरत मिलिहों, पल भर की ही तलास में।” वह तो “सब सांसों की स्वांस में” मौजूद है। (कबीरदास)

कम्युनिज़्म की स्थितियों क़े पूर्वाधार उसी अस्तित्व का हिस्सा हैं जिसका विद्यमान स्वरूप पूंजीवाद है। और शायद इसीलिए ऊपर उद्धृत कथन में कम्युनिज़्म को वास्तविक आंदोलन कहा गया है जो कि मौजूदा अवस्था को नकारता, “मिटाता” है। कम्युनिज़्म की विशिष्टता इसी में है कि “वह उत्पादन तथा संसर्ग के तमाम पूर्ववर्ती संबंधों के आधार को पलट देता है।” वह सामाजिक पूर्वाधारों को “ऐक्यबद्ध व्यक्तियों” की सत्ता के अधीन लाता है, पूंजीवादी समाज में व्यक्तिकृत व्यक्तियों की भ्रामक सामूहिकता के जगह पर वास्तविक एकता को उजागर करता है। कम्युनिज़्म मौजूद सामाजिक पूर्वाधारों को एकता के आधारों में बदल डालता है। (द जर्मन आइडियोलॉजी) वह व्यवस्थित अवस्थाओं की नकार है।

यही सतत नकार वर्ग संघर्ष की निरंतरता है। यह नकार सामाजिक संसर्ग के उन स्वरूपों के खिलाफ उत्पादक शक्तियों की बगावत है जो जीवंत मूर्त और उपयोगी श्रम को पूँजीकृत मृत श्रम के अधीनस्थ रखते हैं – जो क्रिया पर कृत की सत्ता स्थापित करते हैं। हम ज्यादा समय भूल जाते हैं कि मनुष्य और उसके पूर्ववर्ती श्रम के नतीजे ही तो उत्पादक शक्तियाँ हैं। नतीजों की स्वायत्तता, और मानवीय श्रम के अमूर्तिकरण के साथ उसका महज उन नतीजों के उपांग के रूप में सीमित हो जाना, यही पूंजीवादी सामाजिक स्वरूप की विशेषता है। और इस स्वरूप की आलोचना और नकार कम्युनिज़्म है। 

तमाम विवरणों की तरह कम्युनिज़्म का विवरण भी दिक्कालिक (स्पेसटाइम से सम्बंधित) होता है। दिक्काल के अनुसार कम्युनिज़्म अव्यक्त (अपने न होने में) रहता है अथवा व्यक्त होता है। उसी के अनुसार यह भी तय होता है कि क्या “कम्युनिज़्म मात्र स्थानीय घटना के रूप में ही जीवित रह पाता” है (परंतु “संसर्ग का प्रत्येक विस्तार स्थानीय कम्युनिज़्म को मिटा देगा”), या फिर वह “विश्व-ऐतिहासिक” पटल पर बदलती परिस्थितियों में क्रियान्वित होता है (द जर्मन आइडियोलॉजी)। इसी बदलती दिक्कालिकता के कारण कम्युनिज़्म को किसी एक प्रकार के विवरण में बांधना नामुमकिन है। जब वह कोई अवस्था है ही नहीं तो उसका स्थापित विवरण क्या होगा। 

नकार सतत क्रिया है। तभी तो मार्क्स ने कम्युनिज़्म को “कार्यवाही” और “क्रियाकलाप” के रूप में चिह्नित किया। कई मार्क्सवादी कम्युनिज़्म के इसी प्र-क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने के लिए कम्युनिजेशन शब्द का इस्तेमाल करते हैं। 

दूसरी तरफ, कम्युनिज़्म को अवस्था अथवा सामाजिक चरण मानने वाले उसको एक भिन्न सम्पूर्ण सामाजिक सत्त्व के रूप में समझते हैं जो पूंजीवाद के बाद स्थापित होगा। उनके लिए कम्युनिज़्म सामाजिक संसर्गों का भविष्यकालिक स्थापित नियोजन है। वह कितना ही कल्याणकारी क्यों न हो, उसे सामाजिक क्रियाशीलता और रचनात्मकता के मुक्त प्रवाह को नई सम्पूर्णता की पुनरुत्पादन-प्रक्रिया के वृत्तीय लूप में बांधना होगा। 

यही वजह है कि व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों में चरणवादी कम्युनिस्टों का वर्चस्व श्रमिकों के तमाम तबकों की स्वगतिविधियों पर आधारित मानवीय आत्ममुक्ति के मार्गों को उजागर नहीं होने देता और उन्हें राजकीय जड़वाद के घेरे में बांध कर (गरमपंथी) सुधारवाद की ओर मोड़ देता है। सामाजिक अलगाव, आर्थिक और राजनीतिक के पार्थक्य (the separation between the economic and the political) पर टिकी व्यवस्था को एक नया स्वरूप मिल जाता है। इस पार्थक्य से उत्पन्न राजसत्ता को नई वैधानिकता मिल जाती है। और कम्युनिज़्म भूमिगत ही रहता है। 

कम्युनिज़्म नाम नहीं है वह क्रिया है, सामाजिक एकता, सहयोग और सहकारिता की प्रक्रिया है, जबकि पूंजीवाद उस सहयोग के अलगाव, उत्पादीकरण और तकनीकीकरण पर आधारित है। इस व्यवस्था के तहत मानवीय क्रियाशीलता महज “पण्यों के विशाल संचय” का साधन हो जाती है। आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया में सामाजीकरण सतत बढ़ता जाता है परंतु उत्पादन सम्बन्ध और विनिमय प्रणाली इस सामाजिक क्रिया को कृत, पण्य, उसके स्वामित्व और उसके दाम, जो कि “किसी पण्य में मूर्त होनेवाले श्रम का द्रव्य-नाम होता है” (कार्ल मार्क्स पूंजी भाग 1), के प्रश्नों में ओझल कर देते हैं। सामाजीकरण और “मूर्तिकरण” (फेटिशाइज़ेशन) के इसी अन्तर्विरोध को वर्ग संघर्ष के रूप में एंगेल्स सूत्रबद्ध करते हैं, जब वह कहते हैं कि “सामाजीकृत उत्पादन तथा पूँजीवादी हस्तगतकरण-व्यवस्था की असंगति सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के विरोध के रूप में हुई।” (एंगेल्स, समाजवाद: काल्पनिक तथा वैज्ञानिक)

कम्युनिज़्म इस सामाजिक क्रियाशीलता के पूंजीवादी हस्तगतकरण से मुक्ति के लिए होती सतत दैनिक संघर्ष की क्रिया है। वह नामों, पण्यों और कृतों के जड़-बंधन से मुक्त होने की लड़ाई है। अगर कम्युनिज़्म सामूहिक सामाजिक प्र-क्रिया है और पूँजीवाद उस ऊर्जा का उत्पादिकरण कर उसे पण्य, द्रव्य, मूल्य और राज्य के स्वरूपों में बाँधता है, तो कम्युनिज़्म का विस्तार पूँजीवाद के अंदर, उसके विरुद्ध, और उसके आगे निकलने का संघर्ष है — उसकी नकार है। 

कम्युनिज़्म पूँजीवादी स्वरुपों की सैद्धांतिक-व्यवहारिक आलोचना द्वारा मानवीय क्रिया को उन स्वरूपों से मुक्त कर उनका सत्य उजागर करता है। उन स्वरूपों की जड़ता को तोड़कर उन प्रक्रियाओं को सामने लाता है जिनसे वे निर्मित होते हैं। ये प्रक्रियाएँ अपने आप में अंतर्विरोध-पूर्ण होती हैं। यह अंतर्विरोध श्रम और पूँजी के बीच, मूर्त श्रम और उसके अमूर्तिकरण के बीच, जीवंत और मृत श्रम के बीच होता है। ये आंतरिक संघर्ष तमाम पूंजीवादी सत्त्वों के भावात्मक अथवा प्रक्रियात्मक स्वरूपों को सामने लाता है। जो व्यवस्था में स्थापित कर्ता, संज्ञा अथवा नामरूप हैं, उनके गुणों का ज्ञान उनके नाम से नहीं होता, उनके कर्म से भी नहीं होता, बल्कि जिन प्रक्रियाओं के द्वारा वे स्थापित होते हैं उनसे होता है। 

3

लगभग ढाई हजार साल पहले शाकटायन और यास्काचार्य जैसे नैरुक्तों ने वैयाकरणों के साथ भाषा के उद्भव को लेकर बहस में, विशेषकर क्रियापद और नामपद के सम्बंध के संदर्भ में, इसी बात को अपने ढंग से रखा था। वे कहते हैं कि भावप्रधानमाख्यातम् सत्त्वप्रधानानि नामानि। तद्यत्रोभे भावप्रधाने भवत: पूर्वापरिभूतं भावमाख्यातेनाचश्टे। अर्थात, आख्यात (क्रियापद) में कृत्य प्रधान होता है, जबकि नाम या संज्ञा में कृत। गतिमान अथवा चल रहे कार्य (becoming) को यहां भाव कहा गया है, और सत्त्व का अर्थ है पूरा किया हुआ कार्य (being)। आगे, जब दोनों साथ आते हैं तब भी भाव ही प्रधान रहता है, और चल रहे कार्य में पौर्वापर्यं यानी कार्य के क्रमिक चरणों का ज्ञान होता है।

यास्काचार्य आगे यहां तक बोल देते हैं कि नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च —  अर्थात, शाकटायन और अन्य नैरुक्तों के अनुसार सभी नाम आख्यात (क्रियापद) से पैदा हुए हैं। वैयाकरणों ने इस मत का पुरजोर विरोध किया क्योंकि वह व्याकरण में अराजकता पैदा करता है, शब्दों और वाक्यों में अनियमितताओं और अर्थ के सिलसिले में अनिश्चितताओं को जन्म देता है। परंतु नैरुक्तों का जवाब निस्संदेह क्रांतिकारी था: “तुम्हारी चाहत कि सभी नाम नियमानुसार निर्मित हों और सुगम हों कभी पूर्ण नहीं होगी; हो ही सकता है उस भाषा को बोलने वालों की नासमझी अथवा सहूलियत या फिर सनक के ही कारण भाषा भ्रष्ट हो जाए, तब भी वैयाकरणों और नैरुक्तों का काम है उन भ्रष्टताओं का हिसाब करना।” (वैजनाथ काशीनाथ राजवाडे, यास्काचार्यप्रणितं निरुक्तम्, प्रथमो भाग:)

और उम्मीद भी तो यहीं है!

प्रत्यूष चंद्र 

जनवरी 2021