क्लारा ज़ेटकिन – फासीवाद (अगस्त 1923)


मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट)

[जर्मनी की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी क्लारा ज़ेटकिन (1857-1933) ने जून 1923 में कॉमिन्टर्न की कार्यकारिणी समिति के तीसरे अभिवर्धित प्लेनम में एक  रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। यह रिपोर्ट अंग्रेजी में ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की मासिक पत्रिका, लेबर मंथली, में अगस्त 1923 में संक्षेप में छपी थी, जिसका यहाँ हम हिन्दी अनुवाद दे रहे हैं। इससे पहले नवंबर 1922 में इतालवी मार्क्सवादी अमादेओ बोर्दीगा ने भी फासीवाद पर एक रिपोर्ट कॉमिन्टर्न में पेश की थी, परंतु ज़ेटकिन की रिपोर्ट ने ही फासीवाद पर बाद  की कम्युनिस्ट समूहों की चर्चाओं के लिए प्रथम व्यवहारात्मक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण तैयार किया था।  

इस रिपोर्ट में ज़ेटकिन फासीवाद के उत्थान को पूंजीवाद के आर्थिक संकट और उसके संस्थाओं के पतन से जोड़ती हैं। मजदूर वर्ग पर बढ़ता आक्रमण और अन्य वर्गों का सर्वहाराकरण इस संकट के प्रमुख नतीजे हैं। ज़ेटकिन का मानना है कि सत्तासीन होकर समाज को पुनर्गठित कर पूंजीवाद के सामाजिक संकट का निवारण करने में सर्वहारा वर्ग की असफलता फासीवाद को जन्म देती है। पूंजीवाद के संकट से व्याकुल हो रहे विभिन्न निम्न-पूंजीवादी तबकों को आकर्षित करने की क्षमता फासीवाद को जन-चरित्र देती है। फासीवादी विचारधारा राष्ट्र और राजसत्ता को वर्गीय अंतर्विरोधों और हितों से ऊपर रख अंध-राष्ट्रवाद फैला कर सैन्यवाद और युद्धवाद के लिए माहौल तैयार करती है। पूंजीपति वर्ग  के कई महत्वपूर्ण तबके पूंजीवाद के सामान्य संकट और जनता के लगातार सर्वहाराकरण के कारण अपनी  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्वता पर खतरे से बचने के लिए फासीवाद का समर्थन और वित्तीय पोषण आरंभ कर देते हैं।   

ज़ेटकिन फासीवाद पर ओटो बावर (जो कि ऑस्ट्रीया के सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रमुख नेता और सिद्धांतकार थे) जैसे सुधारवादियों की समझ की तीव्र आलोचना करती हैं, ओटो बावर के अनुसार फासीवाद महज कम्युनिस्टों द्वारा संगठित सर्वहारा लड़ाकूपन और कानूनेतर गतिविधियों का नतीजा था। ज़ेटकिन फासीवाद के खिलाफ शोषित जनता के अपने रक्षा पहलों पर जोर देती हैं। उनके अनुसार सर्वहारा वर्गीय संयुक्त मोर्चे का निर्माण ही फासीवाद को चुनौती दे सकता है।  परंतु यह संघर्ष राजनीतिक और वैचारिक भी है इनके द्वारा श्रमिक वर्ग को मध्यम वर्गीय तबकों तक अपनी पहुँच बनानी होगी चूंकि इनके ऊपर पूंजीवादी संकट और सर्वहाराकरण का असर पड़ता है। ज़ेटकिन के अनुसार मजदूरों और किसानों की संयुक्त सरकार ही सामाजिक-आर्थिक संकट का निवारण कर फासीवाद का विनाश कर सकती है।

हमारी दृष्टि में क्लारा ज़ेटकिन की यह रिपोर्ट केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती है। जहां तक फ़ासिज़्म के खिलाफ तात्कालिक रणनीतियों का सवाल है वह तो स्थान और समय के मुताबिक तब्दील होती रहती हैं। परंतु इस रिपोर्ट में निहित  मार्क्सवादी व्याख्यात्मक अंतर्दृष्टि आज भी हमें बहुत कुछ सिखा सकती है। फासीवाद को महज सत्ता के औजार के बने बनाए रूप में न देख उसको सामाजिक प्रक्रियाओं और वर्ग सघर्षों की अवस्थाओं के अंदर से पनपता हुआ देखने की जरूरत है। आज पिछले पाँच दशकों से वैश्विक पूंजीवादी राजनीतिक अर्थतन्त्र स्थायी-संकट से ग्रस्त है। इस संकट से निज़ात पाने के लिए भूमंडलीय वित्तीयकरण की प्रक्रिया लगातार बृहत्तर और तीव्रतम होती जा रही। विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया ने आर्थिक-सामाजिक संकट को और अधिक व्यापक और तीव्र कर दिया है, यहां तक कि विश्व की तमाम राजसत्ताएँ इसके कारण निरंतर वैधता के संकट में डूबती जा रही हैं — इनकी आक्रामकता इनकी बढ़ती असंगतता और कमज़ोरियों के लक्षण हैं।  इसी संकटावस्था को सकारात्मक भाषा में नवोदरवाद भी कहते हैं। यह तथ्य इस रिपोर्ट की अंतर्दृष्टि को और महत्व दे देता है क्योंकि फासीकरण इस अवस्था में समूचे सामाजिक-राजनीतिक संरचना में गुत्थ गई है, और इसके खिलाफ संघर्ष को तात्कालिकवाद में सीमित नहीं रखा जा सकता । ]

फासीवाद के रूप में, सर्वहारा वर्ग का सामना एक असाधारण खतरनाक शत्रु से होता है। फासीवाद सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध विश्व पूंजीपति वर्ग द्वारा किये गये व्यापक आक्रमण की घनीभूत अभिव्यक्ति है। इसलिए इसे उखाड़ फेंकना नितांत आवश्यक ही नहीं, बल्कि यह हर साधारण श्रमिक की रोजमर्रा की ज़िंदगी और रोजी-रोटी का सवाल भी है। इन्हीं आधारों पर समूचे सर्वहारा वर्ग को फासीवाद के खिलाफ लड़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि हम स्पष्टता और गहनता से इसकी प्रकृति का अध्ययन करें तो फासीवाद को हराना हमारे लिए बहुत आसान होगा। अब तक इस विषय पर न केवल श्रमिकों के विशाल जनसमूह के बीच, बल्कि सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी अग्रदूतों और कम्युनिस्टों के बीच भी बेहद अस्पष्ट विचार रहे हैं। अब तक फासीवाद को हंगरी में होर्थी (Horthy) के श्वेत आतंक के समकक्ष समझा गया है। हालाँकि दोनों की पद्धतियाँ समान हैं, लेकिन मूलतः वे अलग-अलग हैं। होर्थी आतंक सर्वहारा वर्ग की विजयी, अपितु अल्पकालिक, क्रांति को दबा दिए जाने के उपरांत स्थापित हुआ था, और यह पूंजीपति वर्ग के प्रतिशोध की अभिव्यक्ति थी। श्वेत आतंक का सरगना पूर्व अधिकारियों का एक छोटा सा गुट था। इसके विपरीत, वस्तुपरक रूप से देखा जाए तो फासीवाद, पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा आक्रामकता के प्रतिशोध में पूंजीपति वर्ग का बदला नहीं है, बल्कि वह रूस में शुरू हुई क्रांति को जारी रखने में विफल रहने के लिए सर्वहारा वर्ग की सजा है। फासीवादी नेताओं की कोई छोटी और विशिष्ट जाति नहीं है; वे जनसंख्या के व्यापक हिस्सों में गहराई से फैले हुए हैं।

केवल सैन्य रूप से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी हमें फासीवाद पर काबू पाना होगा। आज भी सुधारवादियों के लिए फासीवाद नग्न हिंसा — सर्वहारा वर्ग द्वारा शुरू की गई हिंसा के विरुद्ध प्रतिक्रिया — के अलावा कुछ भी नहीं है। सुधारवादियों के लिए रूसी क्रांति अदन की वाटिका में हव्वा के सेब चखने [यानि महापाप] के समान है। सुधारवादी फासीवाद को रूसी क्रांति और उसके परिणामों से जोड़ते हैं। हामबुर्ग के एकता सम्मेलन में ओटो बावर का इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं था, जब उन्होंने फासीवाद के लिए बहुत हद तक दोषी कम्युनिस्टों को ठहराया, जिन्होंने, उनके अनुसार, लगातार विभाजन से सर्वहारा वर्ग की ताकत को कमजोर कर दिया था। यह कहते हुए उन्होंने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि रूसी क्रांति के इस मनोबल गिराने वाले उदाहरण से बहुत पहले जर्मनी के स्वतंत्र [सामाजिक-जनवादियों] ने विभाजन को अंजाम दिया था। खुद के विचारों के विपरीत, बावर को हामबुर्ग में इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि फासीवाद की संगठित हिंसा का मुकाबला सर्वहारा वर्ग के रक्षा संगठनों के निर्माण से किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रत्यक्ष हिंसा के खिलाफ लोकतंत्र की कोई भी अपील काम नहीं कर सकती। अवश्य ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनका मतलब विद्रोह या आम हड़ताल जैसे हथियारों से नहीं था जिनसे हमेशा सफलता नहीं मिली है। उनका अभिप्राय जन कार्रवाई के साथ संसदीय कार्रवाई के सामंजस्य से था। ओटो बावर ने यह नहीं बताया कि इन कार्रवाइयों की प्रकृति क्या होगी, जबकि प्रश्न का मूल बिंदु यही है। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए एकमात्र हथियार जिसकी सिफारिश बावर ने की वह विश्व प्रतिक्रियावाद पर अंतर्राष्ट्रीय सूचना ब्यूरो की स्थापना थी। इस नए-पुराने इंटरनेशनल का विशिष्ट लक्षण पूंजीवादी वर्चस्व की शक्ति और स्थायित्व में उसका विश्वास और विश्व क्रांति के सबसे मजबूत कारक के रूप में सर्वहारा वर्ग के प्रति उसका अविश्वास और बुज़दिली है। उसका मानना है कि सर्वहारा पूंजीपति वर्ग की अजेय ताकत के खिलाफ संयम से काम लेने और पूंजीपति वर्ग के बाघ को छेड़ने से परहेज करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। 

वास्तव में, अपने हिंसक कृत्यों के अभियोजन में अपनी पूरी ताकत के साथ, फासीवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विघटन और क्षय की अभिव्यक्ति और बुर्जुआ राजसत्ता के भंग होने के लक्षण के अलावा और कुछ नहीं है। यही उसके आधारों में से एक है। पूंजीवाद के इस पतन के लक्षण युद्ध से पहले ही दिखाई देने लगे थे। युद्ध ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उसकी नींव समेत तहस-नहस कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप न केवल सर्वहारा वर्ग में भारी दरिद्रता आई है, बल्कि निम्न पूंजीवादी वर्ग, छोटे किसानों और बुद्धिजीवियों की भी बड़ी दुर्गति हुई है। इन सभी समूहों से वादा किया गया था कि युद्ध से उनकी भौतिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरीत —  बड़ी संख्या में पहले का मध्यम वर्ग अपनी आर्थिक सुरक्षा को पूरी तरह से खोकर सर्वहारा बन गया है। इस कतार में बड़ी संख्या में पूर्व अधिकारी भी शामिल हो गए, जो अब बेरोजगार हैं। इन्हीं तत्वों में से फासीवाद को अपने लिए पर्याप्त रंगरूट मिले। फासीवाद की ऐसी संरचना कई देशों में उसके मुखर राजशाहीवादी चरित्र का कारण है। 

फासीवाद की दूसरी जड़ सुधारवादी नेताओं के विश्वासघाती रवैये द्वारा विश्व क्रांति की गति को धीमा करने में निहित है। सुधारवादी समाजवाद के प्रति निश्चित सहानुभूति की वजह से और इस आशा में कि वह लोकतांत्रिक तर्ज पर समाज में सुधार लाएगा बड़ी संख्या में निम्न पूंजीपति वर्ग ने, यहां तक कि माध्यम वर्ग ने भी, युद्ध काल की अपनी मनोवृत्ति को त्याग दिया था। वे निराश थे। उन्हें दिख रहा है कि सुधारवादी नेता पूंजीपति वर्ग के साथ एक परोपकारी समझौते में हैं। इससे भी बुरा यह है कि इस जनता ने अब न केवल सुधारवादी नेताओं में, बल्कि समग्र रूप से समाजवाद में भी अपना विश्वास खो दिया है। समाजवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों की इस निराश भीड़ में सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा भी शामिल हो गया है – उन श्रमिकों का, जिन्होंने न केवल समाजवाद में, बल्कि अपने वर्ग में भी अपना विश्वास छोड़ दिया है। फासीवाद राजनीतिक रूप से आश्रयहीन लोगों के लिए एक प्रकार की शरणस्थली बन गया है। निष्पक्षता में यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि कम्युनिस्ट भी – रूसियों को छोड़कर – फासीवादी कतारों में इन तत्वों के पलायन के लिए कुछ हद तक दोषी हैं, क्योंकि कई बार हमारी कार्रवाइयाँ जनता को गहराई से आंदोलित करने में विफल रही हैं। समाज के विभिन्न तत्वों के बीच समर्थन प्राप्त करते समय फासीवादियों का स्पष्ट उद्देश्य, निश्चित रूप से, अपने अनुयायियों के बीच वर्ग विरोध को पाटने का प्रयास करना रहा होगा और तथाकथित आधिकारिक राज्य को इस उद्देश्य के लिए एक साधन के रूप में काम करना था। फासीवाद अब ऐसे तत्वों को गले लगाता है जो पूंजीवादी व्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक हो सकते हैं। फिर भी, अब तक इन तत्वों पर प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने लगातार विजय प्राप्त की है।

पूंजीपति वर्ग ने शुरू से ही स्थिति को स्पष्ट रूप से देख लिया था। वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करना चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों में पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व का पुनर्निर्माण पूंजीपति वर्ग द्वारा केवल सर्वहारा वर्ग के बढ़ते शोषण की कीमत पर ही किया जा सकता है। पूंजीपति वर्ग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि मृदुभाषी सुधारवादी समाजवादी सर्वहारा वर्ग पर अपनी पकड़ तेजी से खो रहे हैं, और पूंजीपति वर्ग के लिए सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हिंसा का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। लेकिन पूंजीवादी राज्यों के हिंसा के साधन विफल होने लगे हैं। इसलिए उन्हें हिंसा के नए संगठन की आवश्यकता है, और यह उन्हें फासीवाद का खिचड़ी समूह मुहैया कराता है। इस कारण से पूंजीपति वर्ग फासीवाद की सेवा में अपनी सारी ताकत लगा देता है। 

विभिन्न देशों में फासीवाद की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। फिर भी इसकी दो विशिष्टताएं सभी देशों में समान रूप से मौजूद होती हैं —  एक, क्रांतिकारी कार्यक्रम का दिखावा, जिसे चतुराई से बड़े पैमाने पर जनता के हितों और मांगों के लिए अनुकूलित किया जाता है, और दूसरी ओर, सबसे क्रूर हिंसा का प्रयोग। इसका उत्कृष्ट उदाहरण इतालवी फासीवाद है। इटली में औद्योगिक पूंजी इतनी मजबूत नहीं थी कि बर्बाद अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा कर सके। यह उम्मीद नहीं थी कि राजसत्ता उत्तरी इटली की औद्योगिक राजधानी की शक्ति और भौतिक संभावनाओं के विस्तार के लिए हस्तक्षेप करेगी। राज्य अपना सारा ध्यान कृषि पूंजी और छोटी वित्तीय पूंजी पर दे रहा था। भारी उद्योग, जिन्हें युद्ध के दौरान कृत्रिम रूप से बढ़ावा दिया गया था, युद्ध समाप्त होने पर ध्वस्त हो गए और अभूतपूर्व बेरोजगारी की लहर चल पड़ी। सैनिकों को दिए गए वादे पूरे नहीं किए जा सके। इन सभी परिस्थितियों ने अत्यंत क्रांतिकारी माहौल को जन्म दिया। इस क्रांतिकारी माहौल के परिणामस्वरूप, 1920 की गर्मियों में, कारखानों पर कब्ज़ा हो गया। उस अवसर पर क्रांति की परिपक्वता सर्वहारा वर्ग के एक छोटे से अल्पसंख्यक हिस्से के बीच पहली बार प्रकट होती हुई दिखी। इसलिए फ़ैक्टरियों पर कब्ज़ा क्रांतिकारी विकास का शुरुआती बिंदु बनने के बजाय एक ज़बरदस्त हार के साथ ख़त्म होना तय था। ट्रेड यूनियनों के सुधारवादी नेताओं ने घृणित गद्दारों की भूमिका निभाई, लेकिन साथ ही यह भी दिखा कि सर्वहारा वर्ग के पास क्रांति की ओर बढ़ने की न तो इच्छा थी और न ही शक्ति। 

सुधारवादी प्रभाव के बावजूद, सर्वहारा वर्ग के बीच ऐसी ताकतें काम कर रही थीं जो पूंजीपति वर्ग के लिए असुविधाजनक हो सकती थीं। नगरपालिका चुनाव, जिसमें सामाजिक जनवादियों ने तमाम परिषदों में से एक तिहाई जीत हासिल की, पूंजीपति वर्ग के लिए खतरे का संकेत था, जिन्होंने तुरंत एक ऐसी ताकत की तलाश शुरू कर दी जो क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का मुकाबला कर सके। यह वही समय था जब मुसोलिनी के फाशीस्मो (fascismo) को कुछ महत्व प्राप्त हुआ था। फ़ैक्टरियों पर कब्जे में सर्वहारा वर्ग की हार के बाद फासीवादियों (fascisti) की संख्या 1,000 से अधिक हो गई और उसका एक बड़ा हिस्सा मुसोलिनी के संगठन में शामिल हो गया। दूसरी ओर, सर्वहारा वर्ग का विशाल जनसमूह उदासीनता की चपेट में आ गया था। फासिस्टों की पहली सफलता का कारण यह था कि उन्होंने अपनी शुरुआत क्रांतिकारी हावभाव से की थी। उनका दिखावटी उद्देश्य क्रांतिकारी युद्ध की क्रांतिकारी विजय को बरकरार रखने के लिए लड़ना था, और इस कारण से उन्होंने एक मजबूत राज्य की मांग की जो समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिरोधी हितों के खिलाफ, जिनका प्रतिनिधित्व “पुराना राज्य” करता था, जीत के इन क्रांतिकारी फलों की रक्षा करने में सक्षम होगा। इनका नारा सभी शोषकों के खिलाफ था, और इसलिए पूंजीपति वर्ग के खिलाफ भी था। उस समय फासीवाद इतना कट्टरपंथी था कि उसने जियोलित्ती को फांसी देने और इतालवी राजवंश को गद्दी से हटाने की भी मांग की। लेकिन जियोलित्ती ने सावधानीपूर्वक फासीवाद, जिसे वह कम बुरा मानता था, के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करने से परहेज किया। इन फासीवादी दावों को संतुष्ट करने के लिए उसने संसद को भंग कर दिया। उस समय मुसोलिनी अभी भी रिपब्लिकन होने का दिखावा कर रहा था, और एक साक्षात्कार में उसने घोषणा की कि फासीवादी गुट इतालवी संसद के उद्घाटन में भाग नहीं ले सकता क्योंकि वह राजशाही समारोह के साथ होना था। इन कथनों ने फासीवादी आंदोलन में संकट पैदा कर दिया, जिसे  मुसोलिनी के अनुयायियों और राजशाही संगठन के प्रतिनिधियों के विलय के बाद पार्टी के रूप में स्थापित किया गया था, और नई पार्टी की कार्यकारिणी दोनों गुटों के बराबर प्रतिनिधित्व से बनी थी। फासीवादी पार्टी ने मजदूर वर्ग को भ्रष्ट और आतंकित करने का दोधारी हथियार निर्मित किया। श्रमिक वर्ग को भ्रष्ट करने के लिए फासीवादी ट्रेड यूनियनें, तथाकथित निगम जिनमें श्रमिक और नियोक्ता एकजुट थे, बनाई गईं। मजदूर वर्ग को आतंकित करने के लिए फासीवादी पार्टी ने उग्रवादी दस्ते बनाए जो दंड देने के अभियानों से विकसित हुए थे। यहां इस बात पर फिर से जोर दिया जाना चाहिए कि आम हड़ताल के दौरान इतालवी सुधारवादियों की जबरदस्त दगाबाजी, जो इतालवी सर्वहारा वर्ग की भयानक हार का कारण बनी, ने फासीवादियों को राजसत्ता पर कब्जा करने के लिए सीधा प्रोत्साहन दिया था। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट पार्टी की गलतियों का आधार फासीवाद को बिना किसी गहन सामाजिक आधार के महज एक सैन्यवादी और आतंकवादी आंदोलन मानना था।

आइए अब देखें कि फासीवाद ने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद से अपने इच्छित क्रांतिकारी कार्यक्रम को पूरा करने के लिए, वर्ग रहित राज्य बनाने के अपने वादे को साकार करने के लिए क्या किया है। फासीवाद ने एक नए और बेहतर चुनावी कानून और महिलाओं के लिए समान मताधिकार का वादा किया। मुसोलिनी का नया मताधिकार कानून वास्तव में फासीवादी आंदोलन के पक्ष में मताधिकार कानून का निकृष्टतम अवरोधक है। इस कानून के अनुसार, सभी सीटों में से दो-तिहाई सीटें सबसे मजबूत पार्टी को दी जानी चाहिए, और अन्य सभी दलों के पास कुल मिलाकर केवल एक-तिहाई सीटें होंगी। महिलाओं का मताधिकार लगभग पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया है। वोट देने का अधिकार केवल धनी महिलाओं और तथाकथित “युद्ध-प्रतिष्ठित” महिलाओं के एक छोटे समूह को दिया गया है। आर्थिक संसद और नेशनल असेंबली के वादे का अब कोई उल्लेख नहीं होता है, न ही सीनेट के उन्मूलन का, जिसकी फासीवादियों ने इतनी गंभीरता से प्रतिज्ञा की थी।

सामाजिक क्षेत्र में की गई संकल्पों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। फासिस्टों ने अपने कार्यक्रम में आठ-घंटे कार्यदिवस की घोषणा की थी, लेकिन उनके द्वारा पेश किये गये विधेयक में इतने सारे अपवादों का प्रावधान है कि इटली में आठ घंटे कार्यदिवस नहीं होना तय है। मजदूरी की गारंटी के वादे का भी कुछ नहीं हुआ। ट्रेड यूनियनों के विनाश ने नियोक्ताओं को 20 से 30 प्रतिशत और कुछ मामलों में 50 से 60 प्रतिशत तक वेतन कटौती करने का अधिकार दे दिया है। फासीवाद ने वृद्धावस्था और विकलांग बीमा का वादा किया था। व्यवहार में, फासीवादी सरकार ने, अर्थव्यवस्था की खातिर, बजट में इस उद्देश्य के लिए अलग रखे गए 50,000,000 लीरे की तुच्छ राशि को भी हटा दिया है। श्रमिकों को कारखानों के प्रशासन में तकनीकी भागीदारी के अधिकार का वादा किया गया था। आज इटली में एक कानून है जो फ़ैक्टरी कौंसिलों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाता है। राजकीय उद्यम निजी पूंजी के हाथों में खेल रहे हैं। फासीवादी कार्यक्रम में पूंजी पर प्रगतिशील आयकर का प्रावधान था, जो कुछ हद तक पूंजीवादी स्वामित्व को कमजोर करने का काम करता। वास्तव में जो हुआ वह लेकिन इसके विपरीत था। विलासिता की वस्तुओं पर विभिन्न करों को, जैसे ऑटोमोबाइल कर, समाप्त कर दिया गया, दलील दी गई कि यह राष्ट्रीय उत्पादन को अवरुद्ध करेगा। अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि इस कारण से की गई थी कि इससे घरेलू खपत में कमी आएगी और इस प्रकार निर्यात की संभावनाओं में सुधार होगा। फासीवादी सरकार ने प्रतिभूतियों के हस्तांतरण (transfer of securities) के अनिवार्य पंजीकरण के कानून को भी निरस्त कर दिया, इस प्रकार बियरर-बांड की प्रणाली को फिर से शुरू किया और कर चोरी करने वालों के लिए दरवाजा खोल दिया। स्कूलों को पादरी वर्ग को सौंप दिया गया। राजसत्ता पर कब्जा करने से पहले, मुसोलिनी ने एक आयोग की मांग की थी जो युद्ध से हुए मुनाफे (war profits) की जांच करेगा और उसमें  से 85 प्रतिशत राज्य को सौंप दिया जाएगा। जब यह आयोग मुसोलिनी के वित्तीय सरपरस्तों, भारी उद्योगपतियों के लिए असहज हो गया, तो उसने आदेश दिया कि आयोग केवल उसे ही रिपोर्ट सौंपे, और जो कोई भी उस आयोग में घटित कोई भी बात को प्रकाशित करेगा, उसे छह महीने की कैद की सजा दी जाएगी। सैन्य मामलों में भी फासीवाद अपने वादे निभाने में विफल रहा। सेना को क्षेत्रीय रक्षा तक सीमित रखने का वादा किया गया था। वास्तव में, स्थायी सेना के लिए सेवा की अवधि आठ महीने से बढ़ाकर अठारह कर दी गई, जिसका मतलब था कि सशस्त्र बलों की संख्या 250,000 से बढ़कर 350,000 हो गई। रॉयल गार्ड्स को समाप्त कर दिया गया क्योंकि वे मुसोलिनी के लिए बहुत लोकतांत्रिक थे। दूसरी ओर, काराबेनियरी (अर्धसैनिक पुलिस फोर्स) को 65,000 से बढ़ाकर 90,000 कर दिया गया और सभी पुलिस टुकड़ियों को दोगुना कर दिया गया। फासीवादी संगठन राष्ट्रीय मिलिशिया के रूप में तब्दील हो गए, जिनकी संख्या नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अब 500,000 तक पहुंच गई है। लेकिन सामाजिक मतभेदों ने मिलिशिया में राजनीतिक विरोधाभास का बीज बो दिया है, जो अंततः फासीवाद के पतन का कारण बनेगा।

जब हम फासीवादी कार्यक्रम की तुलना उसके पालन से करते हैं तो हम आज ही इटली में फासीवाद के पूर्ण वैचारिक पतन का अनुमान लगा सकते हैं। इस वैचारिक दिवालियेपन के बाद राजनीतिक दिवालियापन अनिवार्य रूप से सामने आता है। फासीवाद उन ताकतों को एक साथ रखने में असमर्थ है जिन्होंने उसे सत्ता में आने में मदद की। कई रूपों में हितों का टकराव पहले से ही महसूस किया जा रहा है। फासीवाद पुरानी नौकरशाही को अपने अधीन बनाने में अभी तक सफल नहीं हुआ है। सेना में पुराने अधिकारियों और नये फासीवादी नेताओं के बीच भी मनमुटाव है। विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे हैं। पूरे देश में फासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। वर्ग विरोध फासिस्टों की कतारों में भी व्याप्त होना शुरू हो गया है। फासीवादी उन वादों को पूरा करने में असमर्थ हैं जो उन्होंने श्रमिकों और फासीवादी ट्रेड यूनियनों से किये थे। मज़दूरों की मज़दूरी में कटौती और बर्खास्तगी आजकल आम बात हो गई है। इसीलिए फासीवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन के खिलाफ पहला विरोध स्वयं फासीवादियों की कतार से आया था। मजदूर शीघ्र ही अपने वर्गीय हित एवं वर्गीय दायित्व पर वापस आयेंगे। हमें फासीवाद को एकजुट शक्ति के रूप में नहीं देखना चाहिए जो हमारे हमले को विफल करने में सक्षम हो। बल्कि वह ऐसा गठन है, जिसमें कई विरोधी तत्व शामिल हैं, और वह भीतर से विघटित हो जाएगा। लेकिन यह मानना ​​खतरनाक होगा कि इटली में फासीवाद के वैचारिक और राजनीतिक विघटन के तुरंत बाद सैन्य विघटन होगा। इसके विपरीत, आतंकवादी तरीकों से फासीवाद द्वारा जीवित रहने के प्रयास के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसलिए, क्रांतिकारी इतालवी श्रमिकों को आगे के गंभीर संघर्षों के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि हम विघटन की इस प्रक्रिया के महज दर्शक बन संतुष्ट रहे तो यह बहुत बड़ी विपत्ति होगी। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने उपलब्ध सभी साधनों के साथ इस प्रक्रिया को तेज करें। यह न केवल इतालवी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है, बल्कि जर्मन फासीवाद के सामने जर्मन सर्वहारा वर्ग का भी कर्तव्य है।

इटली के बाद जर्मनी में फासीवाद सबसे मजबूत है। युद्ध के परिणाम और क्रांति की विफलता के नतीजतन, जर्मनी की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कमजोर है, और किसी अन्य देश में क्रांति के लिए वस्तुनिष्ठ परिपक्वता और श्रमिक वर्ग की आत्मपरक तैयारी के बीच इतना बड़ा अंतर नहीं है जितना कि अभी जर्मनी में। किसी भी अन्य देश में सुधारवादी इतनी बुरी तरह असफल नहीं हुए जितना कि जर्मनी में। उनकी विफलता पुराने इंटरनेशनल में किसी भी अन्य पार्टी की विफलता से अधिक आपराधिक है, क्योंकि उन्हें ही उस देश में, जहां मजदूर वर्ग के संगठन पुराने और अन्यत्र की तुलना में  बेहतर व्यवस्थित हैं, सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए बिल्कुल अलग तरीकों से संघर्ष करना चाहिए था। 

मुझे पूरा यकीन है कि न तो शांति संधियों और न ही रूर (Ruhr) के कब्जे से जर्मनी में फासीवाद को वैसा बढ़ावा मिला है जितना कि मुसोलिनी द्वारा सत्ता हथियाने से । इससे जर्मन फासिस्ट प्रोत्साहित हुए हैं। इटली में फासीवाद का खात्मा जर्मनी में फासीवादियों का हौसला पस्त करेगा । हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए: विदेशों में फासीवाद को उखाड़ फेंकने की शर्त हर एक देश में इन देशों के सर्वहारा द्वारा फासीवाद को उखाड़ फेंकना है। हमारा दायित्व है कि हम वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर विजय प्राप्त करें। यह हम पर भारी कार्यभार थोपता है। हमें समझना होगा कि फासीवाद निराश लोगों का और उन लोगों का आंदोलन है जिनका अस्तित्व नष्ट हो गया है। इसलिए, हमें उस व्यापक जनसमूह को जीतने या बेअसर करने का प्रयास करना चाहिए जो अभी भी फासीवादी खेमे में हैं। मैं अपने इस एहसास के महत्व पर जोर देना चाहती हूं कि हमें इस जनता की आत्मा पर कब्ज़ा करने के लिए वैचारिक रूप से संघर्ष करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि वे न केवल अपने वर्तमान कष्टों से भागने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वे एक नए दर्शन के लिए लालायित हैं। हमें अपनी वर्तमान गतिविधि की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आना होगा। तीसरा इंटरनेशनल, पुराने इंटरनेशनल के विपरीत, बिना किसी भेदभाव के सभी नस्लों का इंटरनेशनल है। कम्युनिस्ट पार्टियों को न केवल शारीरिक सर्वहारा श्रमिकों का अगुआ होना चाहिए, बल्कि दिमागी श्रमिकों के हितों का ऊर्जावान रक्षक भी होना चाहिए। उन्हें समाज के उन सभी वर्गों का नेता होना चाहिए जो अपने हितों और भविष्य की अपेक्षाओं के कारण बुर्जुआ वर्चस्व के विरोध में हैं। इसलिए, मैंने  (इस साल जून में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की विस्तारित कार्यकारी समिति के एक सत्र में बोलते हुए) मजदूरों और किसानों की सरकार के लिए संघर्ष शुरू करने के लिए कॉमरेड ज़िनोविएव के प्रस्ताव का स्वागत किया। जब मैंने इसके बारे में पढ़ा तो मैं बहुत खुश हुई। यह नया नारा सभी देशों के लिए बहुत मायने रखता है। फासीवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में हम इससे दूर नहीं रह सकते। इसका अर्थ है कि छोटे किसानों की व्यापक जनता का उद्धार साम्यवाद के माध्यम से होगा। हमें अपने आप को केवल अपने राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। हमें साथ ही एक दर्शन के रूप में साम्यवाद के आदर्शों से जनता को परिचित कराना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम उन सभी तत्वों को एक नए दर्शन का मार्ग दिखाएंगे, जिन्होंने हाल के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में अपना असर खो दिया है। इसके लिए आवश्यक शर्त यह है कि, जैसे-जैसे हम इन जनता के पास पहुंचते हैं, हम संगठनात्मक रूप से, एक पार्टी के रूप में, एक मजबूती से जुड़ी हुई इकाई बन जाते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हम अवसरवादिता में फंसने और दिवालिया हो जाने का जोखिम उठाते हैं। हमें अपने काम के तरीकों को अपने नये कार्यों के अनुरूप ढालना होगा। हमें जनता से ऐसी भाषा में बात करनी चाहिए जिसे वो, हमारे विचारों पर पूर्वाग्रह के बिना, समझ सके। इस प्रकार, फासीवाद के खिलाफ संघर्ष कई नए कार्यभारों को सामने लाता है।

यह सभी पार्टियों का दायित्व है कि वे इस कार्यभार को ऊर्जावान ढंग से और अपने-अपने देश की स्थिति के अनुरूप पूरा करें। हालाँकि, हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर काबू पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। फासीवाद से उसके मुकाबले में सर्वहारा वर्ग की स्थिति वर्तमान में आत्मरक्षा की है। सर्वहारा वर्ग की इस आत्मरक्षा को उसके अस्तित्व और उसके संगठन के लिए संघर्ष का रूप लेना होगा।

सर्वहारा वर्ग के पास आत्मरक्षा का सुव्यवस्थित तंत्र होना चाहिए। जब भी फासीवाद हिंसा का प्रयोग करता है, तो उसका सामना सर्वहारा हिंसा से ही करना पड़ता है। मेरा तात्पर्य व्यक्तिगत आतंकवादी कृत्यों से नहीं, बल्कि सर्वहारा वर्ग के संगठित क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की हिंसा से है। जर्मनी ने “सर्वहारा सौ” (proletarische hundertschaften —  श्रमिक मिलिशिया) संगठित करके एक शुरुआत की है। यह संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब सर्वहारा संयुक्त मोर्चा हो। श्रमिकों को पार्टी से ऊपर उठकर इस संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा। सर्वहारा वर्ग की आत्मरक्षा सर्वहारा संयुक्त मोर्चे की स्थापना के लिए सबसे बड़े प्रोत्साहनों में से एक है। प्रत्येक श्रमिक की आत्मा में वर्ग-चेतना पैदा करके ही हम फासीवाद को सैन्य रूप से उखाड़ फेंकने के लिए भी तैयारी करने में सफल होंगे, जो इस समय नितांत आवश्यक है। यदि हम इसमें सफल होते हैं, तो हम यकीन कर सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग के खिलाफ पूंजीपति वर्ग के आम आक्रमण की सफलताओं के बावजूद, जल्द ही पूंजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ शक्ति का काम तमाम हो जाएगा। विघटन के चिन्ह, जो हमारी आंखों के सामने स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं, हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि महाकाय सर्वहारा फिर से क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल होगा, और तब पूंजीवादी दुनिया के लिए उसका आह्वान होगा: मैं शक्ति हूं, मैं संकल्प हूं, मुझमें तुम भविष्य देखते हो!

सच्चाई लिखने में पाँच कठिनाइयाँ 


बर्तोल्त ब्रेख्त

मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट) 

आजकल, जो कोई भी झूठ और अज्ञानता का मुकाबला करना चाहता है और सच लिखना चाहता है उसे कम से कम पांच कठिनाइयों को पार करना होगा। जब सत्य का हर जगह विरोध हो रहा हो, उसमें सत्य लिखने का साहस होना चाहिए; हालांकि सच्चाई हर जगह छिपी हुई है, उसे पहचानने का चातुर्य होना चाहिए; उसे एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल होना चाहिए; जिनके हाथ में यह प्रभावी होगा उनका चुनाव करने का विवेक होना चाहिए; और ऐसे लोगों के बीच सच्चाई फैलाने की चालाकी होनी चाहिए। ये फ़ासीवाद के तहत जीने वाले लेखकों के लिए विकट समस्याएँ हैं, लेकिन ये उन लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जो भाग गए हैं या निर्वासित हो गए हैं; वे उन देशों में काम करने वाले लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जहां नागरिक स्वतंत्रता विद्यमान है।

1 सच लिखने का साहस

यह बात स्वाभाविक ही लगती है कि जो भी लिखता है उसे सत्य को इस अर्थ में लिखना चाहिए कि वह सत्य को न दबाए या छिपाए या जानबूझकर असत्य न लिखे। उसे बलवानों के सामने झुकना नही चाहिए और न ही कमजोरों के साथ विश्वासघात करना चाहिए। बेशक, शक्तिशाली के सामने न झुकना बहुत कठिन है, और कमजोर को धोखा देना बहुत फायदेमंद है। कब्जा करने वालों को अप्रसन्न करने का अर्थ है वंचितों में से एक हो जाना। काम के लिए भुगतान का त्याग करना काम छोड़ने के बराबर हो सकता है, और शक्तिशाली द्वारा प्रसिद्धि की पेशकश को अस्वीकार करने का मतलब हमेशा के लिए इसे अस्वीकार करना हो सकता है। यह साहस लेता है।

चरम उत्पीड़न के समय आमतौर पर ऐसे समय होते हैं जब महानता और बुलंदी के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। ऐसे समय में श्रमिकों के लिए भोजन और आश्रय जैसी निम्न और नीच बातें लिखने के लिए साहस की आवश्यकता होती है; जब बाकी हर कोई बलिदान की महत्ता के बारे में शेखी बघार रहा हो तो साहस की आवश्यकता होती है। जब किसानों पर सभी प्रकार के सम्मानों की बौछार की जाती है, तो मशीनों और अच्छे पशु चारा की बात करने में साहस की जरूरत होती है, जो उनके सम्मानजनक श्रम को हल्का कर देगा। जब हर रेडियो स्टेशन यह कह रहा हो कि ज्ञान या शिक्षा के बिना एक आदमी पढ़े-लिखे व्यक्ति से बेहतर है, तो यह पूछने का साहस चाहिए: किसके लिए बेहतर है? जब सारी बातें उत्तम और सदोष जातियों की होती हैं, तो यह पूछने के लिए साहस की आवश्यकता होती है कि क्या यह भूख और अज्ञानता और युद्ध नहीं है जो विकृतियाँ पैदा करते हैं।

और अपने बारे में, अपनी हार के बारे में सच बोलने के लिए भी साहस चाहिए। कई सताए हुए लोग अपनी गलतियों को देखने की क्षमता खो देते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि अत्याचार ही सबसे बड़ा अन्याय है। उत्पीड़क केवल इसलिए दुष्ट हैं क्योंकि वे सताते हैं; सताए हुए लोग अपनी भलाई के कारण पीड़ित होते हैं। लेकिन यह अच्छाई पिट गई, हार गई, दबा दी गई; इसलिए यह एक कमजोर अच्छाई थी, एक बुरी, असमर्थनीय, अविश्वसनीय अच्छाई। क्योंकि यह मान लेने से काम नहीं चलेगा कि अच्छाई कमजोर होनी चाहिए क्योंकि बारिश गीली होनी चाहिए। यह कहने के लिए साहस चाहिए कि अच्छे इसलिए नहीं हारे कि वे अच्छे थे, बल्कि इसलिए हारे कि वे कमजोर थे।

स्वाभाविक रूप से, असत्य के साथ संघर्ष में हमें सत्य लिखना चाहिए, और यह सत्य उदात्त और अस्पष्ट सामान्यता (generality) नहीं होनी चाहिए। जब किसी के बारे में कहा जाता है, “उसने सच बोला,” तो इसका तात्पर्य है कि कुछ लोगों ने या बहुत से लोगों ने या कम से कम एक व्यक्ति ने सत्य के विपरीत – झूठ या सामान्य – कुछ कहा, लेकिन उसने सच कहा, उसने कुछ व्यावहारिक, तथ्यात्मक कहा, निर्विवाद, बेटूक बात कही।

दुनिया के उस हिस्से में जहां अभी भी शिकायत की अनुमति है, दुनिया की दुष्टता और बर्बरता की जीत के बारे में एक सामान्य शिकायत को बुदबुदाने या मानव आत्मा की जीत सुनिश्चित होने के बारे में निर्भीक चीत्कार करने के लिए बहुत कम साहस की जरूरत होती है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो दिखावा करते हैं कि तोपों का लक्ष्य उन पर है जबकि वास्तव में वे केवल थिएटर के दूरबीनों के लक्ष्य हैं। वे दोस्तों और हानिरहित व्यक्तियों की दुनिया में अपनी सामान्यीकृत मांगों को चिल्लाते हैं। वे एक सामान्यीकृत न्याय पर जोर देते हैं जिसके लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया; वे सामान्यीकृत स्वतंत्रता की मांग करते हैं और उस लूट का हिस्सा मांगते हैं जिसका उन्होंने लंबे समय से आनंद उठाया है। वे सोचते हैं कि सत्य वही है जो सुनने में अच्छा लगता है। यदि सत्य कुछ सांख्यिकीय, शुष्क, या तथ्यात्मक हो, जिसे खोजना मुश्किल हो और उसके लिए अध्ययन की आवश्यकता हो, तो वे उसे सत्य के रूप में नहीं पहचानते; वह उन्हें नशा नहीं देता। उनके पास केवल सत्य बताने वालों का बाहरी आचरण है। उनके साथ कठिनाई यह है कि वे सत्य को नहीं जानते।

2 सत्य को पहचानने का चातुर्य

चूँकि सत्य को हर जगह दबाये जाने के कारण लिखना कठिन होता है, इसलिए अधिकांश लोग सोचते हैं कि सत्य का लिखा या न लिखा जाना महज विश्वास पर निर्भर करता है। उनका मानना है कि इसके लिए केवल साहस ही काफी है। वे दूसरी बाधा भूल जाते हैं: सत्य को खोजने की कठिनाई। यह दावा करना असंभव है कि सच्चाई आसानी से पता चल जाती है।

सबसे पहले हम यह निर्धारित करने में परेशानी का सामना करते हैं कि कौन सा सच कहने लायक है। उदाहरण के लिए, पूरी दुनिया की आंखों के सामने एक के बाद एक महान सभ्य राष्ट्र बर्बरता की गिरफ्त में आ रहे हैं। इसके अलावा, हर कोई जानता है कि सर्वाधिक खतरनाक तरीकों से छेड़ा जा रहा घरेलू युद्ध किसी भी समय एक विदेशी युद्ध में परिवर्तित हो सकता है जो हमारे महाद्वीप को खंडहरों का ढेर बना सकता है। यह, निस्संदेह, एक सच्चाई है, लेकिन अन्य भी हैं। उदाहरण के लिए, यह असत्य नहीं है कि कुर्सियों में सीटें होती हैं और बारिश नीचे की ओर गिरती है। कई कवि इस तरह की सच्चाई लिखते हैं। वे एक डूबते जहाज की दीवारों को अचल जीवन के साथ सजाने वाले चित्रकार की तरह हैं। हमारी पहली कठिनाई उन्हें परेशान नहीं करती और उनका विवेक स्पष्ट है। जो सत्ता में हैं वे उन्हें भ्रष्ट नहीं कर सकते, लेकिन न ही वे उत्पीड़ितों की कराहों से परेशान हैं; वे चित्र बनाते चले जाते हैं। उनके व्यवहार की संवेदनहीनता उनमें एक “गहरा” निराशावाद पैदा करती है जिसे वे अच्छी कीमतों पर बेचते हैं; फिर भी ऐसा निराशावाद उसके लिए अधिक उपयुक्त होगा जो इन उस्तादों और उनकी बिक्री को गौर से देखता है। साथ ही यह महसूस करना आसान नहीं है कि उनकी सच्चाई कुर्सियों या बारिश के बारे में सच्चाई है; वे आम तौर पर महत्वपूर्ण चीजों के बारे में सच्चाई की तरह लगते हैं। लेकिन करीब से जांच करने पर यह देखना संभव है कि वे बस यही कहते हैं: एक कुर्सी एक कुर्सी है; और: बारिश को गिरने से कोई नहीं रोक सकता।

वे उन सच्चाइयों की खोज नहीं करते जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। दूसरी ओर, कुछ ऐसे हैं जो केवल अति आवश्यक कार्यों से निपटते हैं, जो गरीबी को गले लगाते हैं और शासकों से नहीं डरते, और जो फिर भी सत्य को नहीं खोज पाते। इनमें ज्ञान का अभाव है। वे कुख्यात पूर्वाग्रहों के साथ, जिन्हें बीते दिनों में अक्सर सुंदर शब्दों में पिरोया जाता था, प्राचीन अंधविश्वासों से भरे हुए हैं। दुनिया उनके लिए बहुत जटिल है; वे तथ्यों को नहीं जानते; वे संबंधों को नहीं समझते। स्वभाव के अतिरिक्त, ज्ञान, जिसे प्राप्त किया जा सकता है, और विधियाँ, जो सीखी जा सकती हैं, की आवश्यकता है। उलझन और कौंधियाते परिवर्तन के इस युग में सभी लेखकों के लिए अर्थव्यवस्था और इतिहास की भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान पुस्तकों से और व्यावहारिक शिक्षा से प्राप्त किया जा सकता है, यदि यथोचित परिश्रम किया जाए। बहुत से सत्यों को सरल तरीके से खोजा जा सकता है — या कम से कम सत्यों के अंशों को, या ऐसे तथ्यों को जो सत्य की खोज की ओर ले जाते हैं। यदि कोई सत्य की खोज करना चाहता है, तो खोज की विधि होना अच्छा है, लेकिन कोई विधि के बिना भी खोज सकता है, वास्तव में, बिना खोजे भी उसे पा सकता है।  लेकिन इस बेतरतीब तरीके से शायद ही कोई सच्चाई की ऐसी प्रस्तुति हासिल हो पाएगी जिसके आधार पर लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए उसका पता जल जाए। जो लोग केवल छोटे-छोटे तथ्य दर्ज करते हैं वे इस दुनिया की चीजों को व्यवस्थित करने की स्थिति में नहीं हैं। मगर सत्य का तो प्रयोजन यही होता है, दूसरा कोई नहीं। ये लोग सच लिखने की चुनौती स्वीकारने के काबिल नहीं हैं।

यदि कोई व्यक्ति सत्य को लिखने के लिए तैयार है और उसे पहचानने में समर्थ है, तो तीन कठिनाइयाँ और रह जाती हैं।

3 सत्य को हथियार के रूप में बदलने का कौशल

सत्य को इस दृष्टि से बोलना चाहिए कि क्रिया के क्षेत्र में असर पैदा हो सके। एक उदाहरण जो हमें उस प्रकार के सत्य को दिखाता है जिससे कोई परिणाम क्या, गलत परिणाम भी नहीं निकाला जा सकता, वो है वह व्यापक धारणा जिसके अनुसार कुछ देशों में भयानक परिस्थितियाँ कायम हैं, जिसका कारण बर्बरता है। इस दृष्टि से, फासीवाद बर्बरता की एक लहर है जो प्राकृतिक आपदा के बल पर कई देशों में उतरी है।

इस दृष्टिकोण के अनुसार, फासीवाद पूंजीवाद और समाजवाद के बाद (और ऊपर) एक नई, तीसरी शक्ति है; न केवल समाजवादी आंदोलन बल्कि पूंजीवाद भी फासीवाद के हस्तक्षेप के बिना जीवित रह सकता था। बेशक, यह फासीवादी दावा है; इसे स्वीकार करना फासीवाद के प्रति समर्पण है। फासीवाद एक ऐतिहासिक चरण है जिसमें पूंजीवाद प्रवेश कर चुका है, और इस अर्थ में यह नया भी है और साथ ही पुराना भी। फासीवादी देशों में पूंजीवाद का अस्तित्व बना हुआ है, लेकिन केवल फासीवाद के रूप में; और फासीवाद का मुकाबला केवल पूंजीवाद के तौर पर, पूंजीवाद के सबसे नग्न, सबसे बेशर्म, सबसे दमनकारी और सबसे विश्वासघाती रूप के तौर पर किया जा सकता है।

लेकिन फासीवाद के बारे में कोई सच कैसे बोल सकता है, जब तक कि वह पूंजीवाद के खिलाफ बोलने को तैयार नहीं है, जो उसे पैदा करता है? ऐसे सत्य के व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?

जो लोग पूँजीवाद के विरुद्ध न होकर फ़ासीवाद के विरुद्ध हैं, जो बर्बरता से उत्पन्न बर्बरता पर विलाप करते हैं, वे उन लोगों के समान हैं जो बछड़े का वध किए बिना अपना बछड़ा खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाना तो चाहते हैं, परन्तु लहू को देखना उन्हें पसन्द नहीं। यदि मांस तौलने से पहले कसाई अपने हाथ धोता है तो वे आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं। वे संपत्ति संबंधों के खिलाफ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं; वे केवल बर्बरता के ही खिलाफ हैं। वे बर्बरता के खिलाफ आवाज उठाते हैं, और वे ऐसा उन देशों में करते हैं जहां वास्तव में वैसा ही संपत्ति संबंध प्रचलित है, लेकिन जहां कसाई मांस का वजन करने से पहले अपने हाथ धोते हैं।

बर्बर उपायों के खिलाफ आक्रोश तब तक प्रभावी रह सकता है जब तक श्रोताओं का मानना है कि ऐसे उपायों की उनके अपने देशों में कोई गुंजाइश नहीं है। कुछ देश अभी भी अपने संपत्ति संबंधों को उन तरीकों से बनाए रखने में सक्षम हैं जो अन्य देशों में उपयोग किए जाने वाले तरीकों की तुलना में कम हिंसक दिखाई देते हैं। लोकतंत्र अभी भी इन देशों में उन परिणामों को प्राप्त करने के लिए कार्य करता है जिनके लिए दूसरों में हिंसा की आवश्यकता होती है, अर्थात् उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की गारंटी देने के लिए। कारखानों, खानों और भूमि का निजी एकाधिकार हर जगह बर्बर स्थिति पैदा करता है, लेकिन कुछ जगहों पर ये स्थितियाँ तात्कालिक रूप में दृश्यमान नहीं हैं। बर्बरता तभी नजर आती है जब केवल खुली हिंसा से ही इस एकाधिकार की रक्षा की जा सकती है।

जिन्हें अभी तक, बर्बर एकाधिकार के लिए, कानून के शासन की औपचारिक गारंटी या कला, दर्शन और साहित्य जैसी सुख-सुविधाओं का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, वे देश विशेषतः उन मेहमानों को सुनने का आनंद लेते हैं जब वे अपनी मातृभूमि पर ऐसी सुख-सुविधाओं का परित्याग करने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि ये देश अपेक्षित युद्धों में इन बयानों से लाभान्वित होने की उम्मीद करते हैं। क्या हम कह सकते हैं कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है, जो, उदाहरण के लिए, जोर-शोर से जर्मनी के खिलाफ एक पुरजोर संघर्ष की मांग करते हैं “क्योंकि वह देश अब हमारे दिनों में अनिष्टता का सच्चा घर है, नरक का साथी, शैतान (antichrist) का निवास है”? बल्कि हमें यह कहना चाहिए कि ये मूर्ख और खतरनाक लोग हैं। इस बकवास से निकाला जाने वाला निष्कर्ष यही है कि चूंकि जहरीली गैस और बम दोषियों को नहीं चुनते हैं, इसलिए जर्मनी को खत्म कर देना चाहिए – पूरे देश और उसके सभी लोगों को।

विचारहीन मनुष्य, जो सत्य को नहीं जानता, अपने को सामान्यीकरणों (generalisations) में, ऊँची-ऊँची और अस्पष्ट भाषा में अभिव्यक्त करता है। वह ‘जर्मनों’ के बारे में निंदा करता है, वह दुष्टता के बारे में चिल्लाता है, और बहुत कोशिश करने के बाद भी उसका श्रोता नहीं जान पाता कि करना क्या है। क्या वह जर्मन नहीं होने का फैसला करेगा? यदि वह स्वयं अच्छा है तो क्या नरक मिट जाएगा? बर्बरता से आने वाली बर्बरता की बात भी इसी तरह की है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, बर्बरता बर्बरता से आती है, और सभ्य व्यवहार के माध्यम से समाप्त होती है, जो शिक्षा से आती है। ये सब बिल्कुल ही ऊपरी बातें हैं; ये कार्रवाई के हित में नहीं कही गईं है और वास्तव में किसी को संबोधित भी नहीं है।

इस तरह के विवरण कारणों की श्रृंखला में केवल कुछ कड़ियों की ओर इशारा करते हैं और कुछ प्रेरक बल को बेकाबू ताकतों के रूप में दर्शाते हैं । इन विवरणों में बहुत अधिक अस्पष्टता होती है, जो तबाही के कारक ताकतों को छुपाती है। मामले पर बस थोड़ा सा प्रकाश डालें, और अचानक विपत्तियों के पीछे मनुष्यों के दोष प्रकट हो जाते हैं! आखिर हम ऐसे युग में रहते हैं जहां मनुष्य की नियति मनुष्य ही है। 

फासीवाद कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है जिसे महज मानवीय “प्रकृति” के संदर्भ में समझा जा सकता है। लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के मामले में भी चित्रण के ऐसे तरीके हैं जो मनुष्यों के योग्य हैं क्योंकि वे प्रतिरोध करने की उनकी क्षमता को अपील करते हैं।

योकोहामा को नष्ट करने वाले एक बड़े भूकंप के बाद, कई अमेरिकी पत्रिकाओं ने खंडहरों का ढेर दिखाते हुए तस्वीरें प्रकाशित कीं। नीचे कैप्शन था ‘स्टील स्टूड’ (इस्पात खड़ा रहा), और वास्तव में, जिन्होंने भी, वे भी जिन्होंने पहले केवल खंडहर पर ध्यान दिया था, अब कैप्शन के कारण जब नजरें दौड़ाई तो उन्हें कई ऊंची इमारतों की बुलंदी दिखी। भूकंप के सभी संभव चित्रणों में अद्वितीय महत्व वाले वे हैं जो निर्माण इंजीनियरों के द्वारा तैयार किये गए हैं, जो जमीन के खिसकन, झटकों की तीव्रता, चढ़ती गर्मी आदि पर ध्यान देते हैं और जो भविष्य के निर्माण की ओर ले जाते हैं जो भूकंप का सामना करने के काबिल हैं। यदि कोई फासीवाद और युद्ध का, उन महान आपदाओं का जो प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं वर्णन करना चाहता है, तो उन्हें सत्य का एक व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करना चाहिए। उन्हें यह दिखाना होगा कि ये आपदाएँ संपत्ति रखने वाले वर्गों द्वारा उन श्रमिकों की विशाल संख्या को नियंत्रित करने के लिए शुरू की गई हैं जिनके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं। 

यदि बुरी परिस्थितियों के बारे में सत्य को सफलतापूर्वक लिखना है, तो उसे इस तरह लिखना होगा कि इन स्थितियों के परिहार्य कारणों को पहचाना जा सके। एक बार जब परिहार्य कारणों की पहचान हो जाती है, तो बुरी परिस्थितियों से लड़ा जा सकता है।

4 उन लोगों को चुनने का विवेक जिनके हाथों में सच्चाई प्रभावी होगी

विचारों और विवरणों के बाजार में लिखित वस्तुओं के व्यापार के सदियों पुराने रीति-रिवाजों के कारण, लेखक को लिखित पाठ के साथ क्या करना है, इस चिंता से राहत मिली; लेखक को यह विश्वास हुआ कि उसके ग्राहक या संरक्षक, बिचौलिये, उसके लेखन को सभी तक पहुँचा रहे हैं। लेखक ने सोचा: मैंने बोल दिया है और जो सुनना चाहते हैं वे मुझे सुनेंगे। सच तो यह है कि उसने बोला है और जो भुगतान करने में सक्षम हैं वे उसे सुनते हैं। उसने जो कहा वह सब ने नहीं सुना, और जिसने उसे सुना वह सब कुछ सुनना नहीं चाहता था। इस विषय पर पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है, हालाँकि यह अभी भी बहुत कम है; यहाँ मैं केवल इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि ‘किसी के लिए लिखना’ महज ‘लेखन’ में बदल गया है। लेकिन सत्य को केवल लिखा नहीं जा सकता, आपको इसे किसी व्यक्ति के लिए लिखना होगा, ऐसे व्यक्ति के लिए जो इसका उपयोग करने में सक्षम हो। सत्य को पहचानने की प्रक्रिया में लेखक और पाठक साझेदार हैं। अच्छी बातें कहने के लिए सुनने की क्षमता अच्छी होनी चाहिए और अच्छी बातें सुननी चाहिए। सत्य को हिसाब-किताब से बोलना चाहिए और हिसाब-किताब से सुनना चाहिए। और हम लेखकों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम किसे सच बताते हैं और कौन उसे हमें बताता है।

हमें भयानक परिस्थितियों के बारे में सच्चाई उन्हें बतानी चाहिए जिनके लिए हालात सबसे खराब हैं, और हमें उनसे सच्चाई सीखनी चाहिए। हमें न केवल उन लोगों से बात करने की आवश्यकता है जिनके पास विशेष विश्वास है, बल्कि उन लोगों से भी बात करने की आवश्यकता है जो अपनी स्थिति के कारण इन विश्वासों को साझा करते हैं। और आपके श्रोता लगातार बदलते रहते हैं! यहां तक ​​कि जल्लादों से भी बात की जा सकती है, जब फांसी के लिए भुगतान आना बंद हो जाता है, या जब खतरा बहुत बढ़ जाता है। बवेरिया के किसान हर तरह की क्रांति के खिलाफ थे, लेकिन जब युद्ध बहुत लंबा चला और घर आए बेटों को उनके खेतों में जगह नहीं मिली, तो उन्हें क्रांति के लिए जीतना संभव हो गया।

लेखक के लिए सत्य का सही तान पकड़ना महत्वपूर्ण है। आमतौर पर आप एक बहुत ही कोमल, उदास स्वर सुनते हैं, ऐसे लोगों का स्वर जो एक मक्खी को भी चोट नहीं पहुँचा सकते। इसको सुनकर, अभागे और भी अभागे हो जाते हैं। जो लोग इस तरह की बातें करते हैं वे आपके दुश्मन नहीं हो सकते, लेकिन वे निश्चित रूप से सहयोगी नहीं हैं। सत्य जुझारू है; यह न केवल झूठ के खिलाफ है, बल्कि झूठ फैलाने वाले खास लोगों के खिलाफ भी है।

5 बहुतों के बीच सच्चाई फैलाने में चालाकी 

बहुत से लोग गर्व करते हैं कि उनके पास सच बोलने का साहस है, वे खुश हैं कि उन्हें इसे खोजने में सफलता मिली है, वे शायद इसे व्यावहारिक रूप देने में लगी मेहनत से थक गए हैं और बेसब्री से उन लोगों द्वारा उस सत्य को ग्रहण करने का इंतजार कर रहे हैं, जिनके हितों की वे रक्षा करते आए हैं, वे सत्य का प्रसार करते समय विशेष चालाकी का उपयोग करना आवश्यक नहीं समझते हैं। इस प्रकार उनके काम का पूरा प्रभाव अक्सर शून्य हो जाता है। हर युग में जब भी सत्य को दबाया और छिपाया गया, तो उसे फैलाने के लिए चालाकी का सहारा लेना पड़ा है। कन्फ्यूशियस ने पुराने देशभक्तिपूर्ण पंचांग को पूरा नया रूप दे दिया था। उसने बस कुछ शब्दों को ही बदला। जहां उस पंचांग में लिखा था  “हुन के शासक ने दार्शनिक वान को मरवा डाला क्योंकि उसने ऐसा और वैसा कहा था,” कन्फ्यूशियस ने “मरवा डालने” की जगह पर “हत्या” शब्द लिख दिया।  जहां पंचांग में  लिखा था अमुक अत्याचारी की हत्या हुई, वहाँ हत्या की जगह पर उसने प्राणदंड लिख दिया। इस तरह कन्फ्यूशियस ने इतिहास की एक नई व्याख्या का रास्ता खोल दिया।

हमारे समय में जो कोई भी जनता/लोक (Volk) के स्थान पर जनसंख्या और मिट्टी अथवा भूमि के स्थान पर भू-स्वामित्व कहता है, वह इस सरल कार्य द्वारा बहुत सारे झूठों से अपना समर्थन वापस ले लेता है। वह इन शब्दों से उनके सड़े हुए, रहस्यमय निहितार्थ को निष्कासित कर देता है। जनता/लोक (Volk) शब्द का तात्पर्य निश्चित एकता और विशेष सामान्य हितों से है; इसलिए इसका उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब हम बहुत से लोकसमूहों की बात कर रहे हों, क्योंकि केवल तभी समुदाय के हित की कल्पना की जा सकती है। किसी दिए गए क्षेत्र की आबादी के कई अलग-अलग और यहां तक कि विरोधी हित भी हो सकते हैं- और यह एक सच्चाई है जिसे दबाया जा रहा है। इसी प्रकार जो भी मिट्टी की बात करता है और जुताई से नाक और आंखों पर पड़ने वाले प्रभाव का सजीव वर्णन करता है, मिट्टी की गंध और रंग पर जोर देता है, वह शासकों के झूठ का समर्थन कर रहा है। मिट्टी की उर्वरता का सवाल नहीं है, न ही मिट्टी के लिए लोगों के प्यार का, न ही उनके उद्यम का; सबसे महत्वपूर्ण बात अनाज की कीमत और श्रम की कीमत है। जो लोग मिट्टी से मुनाफा निकालते हैं, वे वही लोग नहीं हैं जो इससे अनाज निकालते हैं, और सट्टा-बाजारों में मिट्टी के ढेलों की गंध नहीं आती। वहाँ तो किसी और चीज की बू है। इसके विपरीत, ‘भूस्वामित्व’ सही शब्द है; यह कम भ्रामक है।

जहां दमन मौजूद है, वहां ‘अनुशासन’ के बजाय ‘आज्ञाकारिता’ शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि शासकों के बिना भी अनुशासन संभव है और इसलिए वह आज्ञाकारिता से अधिक महान गुण है। ‘सम्मान’ शब्द से उत्तम ‘मानवीय गरिमा’ है; इसमें हमारी दृष्टि के दायरे से व्यक्ति इतनी आसानी से गायब नहीं होता। हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों के सम्मान की रक्षा के लिए चिल्लाते हुए किस तरह के बदमाश खुद को आगे बढ़ाते हैं। और कितनी उदारता से वे उन भूखे लोगों को सम्मान बांटते हैं जो उन्हें खिलाते हैं। कन्फ्यूशियस की चालाकी आज भी कारगर हो सकती है। 

कन्फ्यूशियस ने राष्ट्रीय घटनाओं के अनुचित आकलनों को उचित आकलनों से बदल दिया। थॉमस मूर ने अपने ‘यूटोपिया’ में एक ऐसे देश का वर्णन किया है जिसमें न्यायपूर्ण परिस्थितियाँ थीं। यह उस इंग्लैंड से बहुत अलग देश था जिसमें वह रहते थे, लेकिन जीवन की परिस्थितियों को छोड़कर, यह उस इंग्लैंड से बहुत मिलता जुलता था।

लेनिन  रूसी पूंजीपति वर्ग के सखालिन द्वीप के शोषण और उत्पीड़न का वर्णन करना चाहते थे, लेकिन उनके लिए जारवादी पुलिस से सावधान रहना आवश्यक था। उन्होंने रूस को जापान और सखालिन को कोरिया से बदल दिया। जापानी पूंजीपतियों के तरीकों ने सभी पाठकों को सखालिन में रूसी पूंजीपति वर्ग के तरीकों की याद दिला दी, लेकिन उनके पर्चे पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा, क्योंकि जापान और रूस दुश्मन थे। बहुत सी बातें जो जर्मनी में जर्मनी के बारे में नहीं कही जा सकतीं, ऑस्ट्रिया के बारे में कही जा सकती हैं।

ऐसे कई प्रकार की चालाकी हो सकती है जिनके द्वारा एक शंकालु राज्य को चकमा दिया जा सकता है।

वॉल्तैर ने ऑर्लियन्स की कन्या  के बारे में वीरतापूर्ण कविता लिखकर चमत्कारों पर चर्च के विश्वास को चुनौती दी। उन्होंने उस चमत्कार का वर्णन किया जो निस्संदेह घटित हुई होगी तभी तो जोन ऑफ आर्क पुरुषों की सेना, अभिजात वर्ग के दरबार और भिक्षुओं के समूह के मध्य भी कुंवारी बनी रही। अपनी शैली की भव्यता से, और कामुक कारनामों का वर्णन करके, जो शासकों के विलासितापूर्ण जीवन की विशेषता थी, वॉल्तैर ने उस धर्म का पर्दाफाश किया जिसने उनकी लंपट जीवन शैली को संभव बनाया। वॉलतेर ने अवैध तरीकों द्वारा उन तक अपने कृतियों को पहुंचाना भी संभव बनाया जिनके लिए उन्हें लिखा था। पाठकों में सत्तासीन भी थे जिन्होंने इन लेखन के प्रसार को प्रोत्साहित या सहन किया। इस प्रकार उन्होंने पुलिस को बेनकाब कर दिया, जो उनकी ओर से उनके सुखों का बचाव करते थे। और महान ल्यूक्रेटियस ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि उनके छंदों की सुंदरता एपिक्यूरियन नास्तिकता के प्रसार में सहायता करेगी।

यह बात सच ही है कि उच्च साहित्यिक स्तर संदेश को सुरक्षा प्रदान कर सकता है। हालांकि कई बार यह शक भी पैदा करता है। ऐसे में जानबूझकर इसे थोड़ा हल्का करना भी जरूरी हो सकता है। उदाहरण के लिए, जासूसी उपन्यासों की तिरस्कृत शैली में सामाजिक दुष्परिस्थितियों के विवरणों को गुप्त रूप से तस्करी कर लाया जाता है। इस तरह के विवरण एक जासूसी उपन्यास को पूरी तरह से सही ठहरा सकते हैं। महान शेक्सपियर  ने तो गैर-जरूरी कारणों से कोरिओलेनस  की माँ के भाषण को, जिसमें वो अपने शहर के खिलाफ अपने बेटे के कूच का विरोध करती है, नरम कर दिया। शेक्सपियर ने भाषण को जानबूझकर कमजोर बनाया – वो  चाहते थे कि कोरिओलेनस  अपने इरादे छोड़ दे परंतु अच्छे कारणों से अथवा भावावेश में नहीं, बल्कि आलस्य की पुरानी आदत से। 

शेक्सपियर में हमें  सीज़र के लाश के सामने ऐन्टोनी के भाषण के रूप में सत्य का चालाकी से प्रसार करने का एक मॉडेल मिलता है। ऐन्टोनी लगातार सीज़र के हत्यारे ब्रूटस को एक इज़्ज़तदार आदमी बताता है, परंतु साथ ही उसके कारनामे का विवरण देता है, और उस कारनामे का विवरण, उसे अंजाम देने वाले के बारे मे बखान से ज्यादा प्रभावशाली है। इस तरह भाषणकर्ता तथ्यों द्वारा अपने आपको परास्त होने देता है, वो उन तथ्यों को “अपने आप” से ज्यादा बलशाली बना देता है।

मिस्र का एक कवि, जो चार हजार साल पहले रहता था, ने इसी तरह की पद्धति का इस्तेमाल किया। वह तीव्र वर्ग संघर्षों का समय था। जिस वर्ग ने अब तक शासन किया था वह बहुत मुश्किल से अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी – आबादी का वह हिस्सा जिसने अब तक उसकी सेवा की थी – के खिलाफ अपना बचाव कर रहा था। कविता में एक बुद्धिमान व्यक्ति शासक के दरबार में आता है और आंतरिक शत्रु के खिलाफ संघर्ष करने का आह्वान करता है। वह निम्न वर्गों के विद्रोह से उत्पन्न अव्यवस्थाओं का एक लंबा और प्रभावशाली वर्णन प्रस्तुत करता है। यह विवरण इस प्रकार है:

स्थिति यह है: रईस शिकायतों से भरे हैं और गरीब आनंद विभोर हैं। 

हर शहर कहता है: आओ हम अपने बीच से ताक़तवरों को भगाएँ। 

स्थिति यह है: कार्यालयों को तोड़ा गया और दस्तावेजों को हटा दिया गया। गुलाम मालिक बनते जा रहे हैं।

स्थिति यह है: सम्मानित आदमी के बेटे को अब  पहचाना नहीं जाता। मालकिन का बच्चा  उसकी गुलाम का बेटा बन जाता है।

स्थिति यह है: नगरवासियों को चक्की पीसने को मजबूर कर दिया गया है। जिन्होंने कभी दिन नहीं देखा वे उजाले में चले गए हैं।

स्थिति यह है: बलिदान के आबनूस बक्से तोड़े जा रहे हैं; महंगे सेवान की लकड़ी को काटकर बिस्तर बनाया जाता है।

देख,महल एक घंटे में ढह गया है।

देख, देश के निर्धन धनी हो गए हैं।

देख, जिसके पास रोटी न थी, उसका अब खलिहान हो गया है; उसका अन्नभण्डार दूसरे की सम्पत्ति से भरा है।

देख, मनुष्य के लिये भोजन करना अच्छा है। 

देख, जिसके पास अनाज न था,अब उसके पास खलिहान हैं; जो अनाज की भीख पर जीते थे, वे अब इसे वितरित करते हैं।

देख, जिसके पास बैलों का एक जोड़ा न था, उसके पास अब झुंड हैं; जो हल खींचने के लिए  जानवर नहीं पा सका था, अब उसके पास मवेशियों के झुंड हैं।

देख, जो अपने लिये झोंपड़ी न बना सका, उसके पास अब चहरदीवारें हो गई हैं।

देख, मंत्री खलिहान में शरण लेते हैं, और जिसे मुश्किल से दीवारों के सिरहाने सोने की अनुमति दी गई थी, उसके पास अब बिस्तर है।

देख, जो अपने लिये नाव नहीं बना सकता था, उसके पास अब जहाज हैं; जब उनका मालिक जहाजों को खोजने आता है, तो वह पाता है कि वे अब उसके नहीं हैं।

देख, जिनके पास कपड़े थे, वे अब चिथड़ों में हैं, और जो अपने लिए कुछ नहीं बुनते थे, उनके पास अब उत्तम से उत्तम मलमल है। 

अमीर आदमी बिस्तर पर प्यासा तड़प रहा है, और जो कभी उससे भीख मांगता था, उसके पास अब तेज बीयर है।

देख, जिसे संगीत की कोई समझ नहीं थी, अब उसके पास वीणा है; वह जिसके लिए कोई नहीं गाता था अब संगीत की प्रशंसा करता है।

देख, जिसे गरीबी के कारण अविवाहित सोना पड़ता था, उसके पास अब स्त्रियां हैं; जो पानी में अपना चेहरा देखते थे, उनके पास अब आईना है।

देख, देश के सब से बड़े लोग बिना रोजगार के फिरते हैं। महान लोगों को कोई संदेश नहीं मिलता। वह जो कभी संदेशवाहक था, अब दूसरों को अपना संदेश ले जाने के लिए भेजता है…  

देख, पाँच लोग जिनको उनके स्वामी ने भेजा है। वे कहते हैं: अपने आप जाओ; हम पहुँच चुके हैं।

यह बिल्कुल साफ है कि यह ऐसे प्रकार की अव्यवस्था का वर्णन है जो अवश्य ही उत्पीड़ितों को बहुत ही वांछनीय प्रतीत होगा। और फिर भी कवि की मंशा को समझना मुश्किल है। वह स्पष्ट रूप से इन स्थितियों की निंदा करता है, हालांकि वह उनकी खराब निंदा करता है…

जोनाथन स्विफ्ट ने अपने एक पर्चे में सुझाव दिया कि देश को सम्पन्नता हासिल करने के लिए गरीबों के बच्चों को मसाले में डालकर मांस के रूप में बेच देना चाहिए। उन्होंने सटीक हिसाब किया जिससे साबित होता है कि आप बहुत बचत कर सकते हैं अगर उसके लिए आप किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हों । 

स्विफ्ट ने मासूमियत का नाटक किया। उन्होंने सोचने के एक ऐसे तरीके का बचाव किया, जिससे वे पुरजोर रूप में और पूरी तरह से घृणा करते थे, उन्होंने विषय के रूप में एक ऐसे प्रश्न को लिया, जो स्पष्ट रूप से ऐसे सोचने के तरीके की क्रूरता को उजागर करता है। कोई भी स्विफ्ट से अधिक चतुर हो सकता था, या किसी भी दर पर अधिक मानवीय हो सकता था – विशेष रूप से वे जो तब तक इस बात पर सोचने के लिए परेशान नहीं थे कि उनके विचारों के तार्किक निष्कर्ष क्या हो सकते थे।

विचार के लिए प्रचार, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है। इस तरह के प्रचार की बहुत जरूरत है। शोषण को बढ़ावा देने वाली शासन व्यवस्थाओं के तहत विचार को क्षुद्र माना जाता है।

जो कुछ भी उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है उसे क्षुद्र ही माना जाता है। पेट भरने की लगातार चिंता को क्षुद्र समझा जाता है; क्षुद्र है किसी देश के रक्षकों को दिए जाने वाले सम्मान को अस्वीकार करना जिसमें वे रक्षक भूखे रहते हैं; क्षुद्र है नेता पर संदेह करना जब उसका नेतृत्व आपदा की ओर ले जाता हो; क्षुद्र है उस काम के प्रति अनिच्छुक होना जो मजदूर को पोषण नहीं देता; क्षुद्र है बेतुकी हरकतें करने की मजबूरी के खिलाफ विद्रोह करना; क्षुद्र है ऐसे परिवार के प्रति उदासीन होना जिसे अब किसी भी तरह की चिंता से मदद नहीं मिल सकती। भूखों को लालची कह धिक्कारा जाता है, जिनको बचाने के लिए कुछ भी नही हैं उन्हें कायर कहा जाता है, जो लोग अपने उत्पीड़कों पर संदेह करते हैं उन पर अपनी ताकत पर संदेह करने का आरोप लगाया जाता है; जो लोग अपने श्रम के लिए भुगतान की मांग करते हैं उन्हें आलसी कहा जाता है। ऐसी सरकारों के तहत सामान्य रूप से सोच को नीचा समझा जाता है और उसकी बदनामी होती है। सोचना अब कहीं सिखाया नहीं जाता, और जहां कहीं उभर आता है, उसे सताया जाता है।

फिर भी, कुछ क्षेत्र हमेशा मौजूद होते हैं जिनमें सजा के डर के बिना विचार के सफल होने को देखा जा सकता है। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें तानाशाही को विचार की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, सैन्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विचार की सफलता का उल्लेख करना संभव है। अधिक कुशल संगठन द्वारा और ऊन के विकल्प के आविष्कार से ऊन की आपूर्ति को बढ़ाने जैसे मामलों में भी सोच की आवश्यकता होती है। खाद्य पदार्थों में मिलावट, युवकों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करना — ऐसी सभी बातों के संदर्भ में भी सोच आवश्यक है; और ऐसे मामलों में सोचने की प्रक्रिया का वर्णन भी किया जा सकता है। युद्ध की स्तुति यानी इस तरह के विचार के अनसोचे उद्देश्य से चालाकी से बचा जा सकता है; इस प्रकार युद्ध को सबसे अच्छे तरीके से कैसे छेड़ा जाए के प्रश्न से जो विचार निकलता है वह युद्ध के औचित्य पर प्रश्न उठा सकता है और फिर इस सवाल को भी उठाने में योगदान कर सकता है कि एक संवेदनहीन युद्ध को कैसे टाला जाए। 

बेशक, इन सवालों को सार्वजनिक रूप से उठाना मुश्किल है। तो क्या उस सोच का फायदा उठाना संभव नहीं है जिसे हमने प्रेरित किया है, यानी क्या हस्तक्षेप के उद्देश्य से इस सोच को आकार नहीं दिया जा सकता? अवश्य संभव है। 

हमारे समय में, आबादी के एक (बड़े) हिस्से का दूसरे (छोटे) हिस्से द्वारा दमन जारी रखने के लिए, जनता का एक निश्चित रवैया आवश्यक होता है, और यह रवैया सभी क्षेत्रों में व्याप्त होना जरूरी है। जीव विज्ञान के क्षेत्र में खोज, जैसे डार्विन की खोज, अचानक शोषण के लिए खतरा बन गया। फिर भी, कुछ समय के लिए यह केवल चर्च की ही चिंता थी, चूंकि पुलिस को अब तक कोई भनक नहीं थी। हाल के वर्षों में भौतिकविदों के शोधों ने तर्क के क्षेत्र में जो असर पैदा किया है उससे उत्पीड़न को बनाए रखने वाले कई सिद्धांतों को खतरा हो सकता है। तर्क के क्षेत्र में जटिल खोजबीन करने वाले प्रशिया राज्य के दार्शनिक हीगेल ने सर्वहारा क्रांति के श्रेष्ठ प्रतिपादकों, मार्क्स और लेनिन को बहुमूल्य विचार-पद्धतियों से लैश किया । विभिन्न विज्ञान के क्षेत्रों के विकास आपस में जुड़े हुए हैं, लेकिन समकालिक नहीं हैं, और राज्य कभी भी हर चीज पर अपनी नजर नहीं रख पाता। सत्य का अग्रिम रक्षक अपने लिए रणक्षेत्र का चयन कर सकता है जो अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष हैं। सोच के सही तरीके सीखने पर सबकुछ निर्भर है, वह सोच जो सभी चीजों और सभी प्रक्रियाओं पर प्रश्न खड़ा करता है और उनकी क्षणभंगुर और परिवर्तनशील प्रकृति की जांच करने की इच्छा रखता है।

महत्वपूर्ण परिवर्तनों से शासकों को बहुत घृणा होती है। वे चाहते हैं कि सब कुछ वैसा ही बना रहे —  यदि संभव हो तो एक हजार सालों तक। सबसे अच्छा होता यदि चाँद स्थिर रहता और सूरज अपने मार्ग पर कहीं रुक जाता! फिर कोई भूखा नहीं रहता, कोई इन शासकों का भोजन नहीं खाना चाहता। जब वे गोली चला चुके होते हैं, तो वे नहीं चाहते कि दुश्मन गोली चला सके; आखिरी निशाना उनका ही होना चाहिए। सोचने का तरीका जो अनित्य पर बल देता हो, उत्पीड़ितों को प्रोत्साहित करने का बेहतर साधन है।

इसके अलावे, यह तथ्य कि सभी चीजों में और सभी स्थितियों में विरोधात्मकता का आभास होता है और वह पनपता है, विजेताओं के खिलाफ निस्संदेह इस्तेमाल होना चाहिए। इस तरह का दृष्टिकोण (द्वंद्ववाद का, उस सिद्धांत का कि सबकुछ प्रवाहमान है) को उन विषयों की जांच में शामिल किया जा सकता है जो कुछ समय के लिए शासकों के ध्यान से बचे होते हैं। इसे जीव विज्ञान या रसायन विज्ञान में लागू किया जा सकता है। लेकिन बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किए बिना परिवार की नियति का वर्णन करने में भी इसे व्यवहार में लाया जा सकता है। लगातार बदलते रहने वाले कई कारकों पर हर चीज की निर्भरता तानाशाहों के लिए खतरनाक विचार है, और पुलिस को अपनी उंगली डालने का अवसर दिए बिना यह विचार कई रूपों में प्रकट हो सकता है। किसी व्यक्ति द्वारा किसी तंबाकू विक्रेता की दुकान खोलने में शामिल सभी परिस्थितियों और प्रक्रियाओं का पूरा ब्यौरा तानाशाही के लिए एक भारी झटका हो सकता है। जो कोई भी इस पर थोड़ा भी विचार करेगा वह जल्द ही देखेगा कि ऐसा क्यों है। जनता को दुर्गति की ओर ले जाने वाली सरकारों को दुर्गति के दौरान सरकार के बारे में सोचे जाने से बचना चाहिए। ऐसी सरकारें नियति के बारे में बहुत बातें करती हैं। यह नियति है, वे नहीं, जो आपदाओं के लिए दोषी हैं। जो कोई भी आपदा के कारणों की जांच करता है, उसे सरकार के दोष के बारे में सोचने से बहुत पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। लेकिन नियति के बारे में इस सारी बकवास का सामान्य तौर पर विरोध करना संभव है; यह दिखाया जा सकता है कि मनुष्य का भाग्य मनुष्यों का ही कार्य है।

यह बात और भी तरीकों से की जा सकती है। उदाहरण के लिए, किसी खेत की कहानी बताई जा सकती है – जैसे आइसलैंड के किसी खेत की कहानी। पूरा गांव इस खेत को अभिशप्त मानता है। किसी किसान की पत्नी  ने कुएं में छलांग लगा दी; किसी किसान ने फांसी लगा ली। एक दिन किसान के बेटे और एक लड़की की शादी होती है और दहेज में कुछ खेत मिलते हैं। लगता है अभिशाप हट गया। घटनाओं के इस सुखद क्रम को लेकर गाँव एकमत नहीं है। कुछ इसका श्रेय किसान के युवा बेटे के सुहाने स्वभाव को देते हैं, बाकी नए खेतों को श्रेय देते हैं जो युवा पत्नी अपने साथ लाई थी और जिससे खेती व्यवहार्य बन गई।

लेकिन प्राकृतिक छटा का चित्रण करने वाली कविता में भी कुछ हासिल किया जा सकता है, यानी जब मनुष्य द्वारा बनाई गई चीजों को प्रकृति में शामिल कर लिया जाए ।

सत्य के प्रसार के लिए चालाकी जरूरी है।

सारांश

हमारे समय का महान सत्य (जिसे केवल पहचान लेना ही पर्याप्त नहीं है, लेकिन यदि इसे न पहचाना जाए तो कोई अन्य महत्वपूर्ण सत्य नहीं खोजा जा सकता) वह सत्य यह है कि हमारा महाद्वीप बर्बरता में डूब रहा है क्योंकि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व हिंसा द्वारा बनाए रखा जा रहा है। ऐसे साहसपूर्ण लेखन का क्या फायदा जो साबित करता है कि हम ऐसी स्थिति में डूब रहे हैं जो बर्बरता की है (जो सच है) परंतु यह नहीं स्पष्ट करता कि हम उस स्थिति में क्यों डूब रहे हैं? हमें कहना होगा कि यातनाएं इसलिए दी जा रहीं हैं क्योंकि स्वामित्व को बचाना है। बेशक, यदि हम ऐसा कहते हैं तो हम कई दोस्तों को खो देंगे जो यातनाओं के खिलाफ हैं क्योंकि उनका मानना है कि यातनाओं के बिना स्वामित्व को बनाए रखा जा सकता है (जो असत्य है)।

हमें अपने देश की बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई बतानी चाहिए ताकि वे उपाय किए जाएं जो उन्हें समाप्त कर दे यानी जो संपत्ति के संबंधों को बदल दे।

इसके अलावा, हमें यह सच्चाई उन लोगों को बतानी चाहिए जो मौजूदा संपत्ति संबंधों से सबसे अधिक पीड़ित हैं और जो इन्हें बदलने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं, यानी श्रमिकों को और जिन्हें हम उनके सहयोगी बनने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, क्योंकि वे भी उत्पादन के साधनों के मालिक नहीं हैं, भले ही वे मुनाफे में हिस्सेदारी करते हों।

और पाँचवा, हमें चालाकी का इस्तेमाल करना होगा।

और इन सभी पांच कठिनाइयों का हल हमें एक ही साथ निकालना होगा, क्योंकि हम बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई की खोज उनसे पीड़ित लोगों के बारे में सोचे बगैर नहीं कर सकते; और कायरता के हर निशान को लगातार झाड़ते हुए, हमें सही परिस्थितियों का जायजा लेना होगा उन लोगों को ध्यान में रखते हुए जो इस ज्ञान का इस्तेमाल करने में सक्षम हैं; हमे यह भी सोचना होगा इस ज्ञान को किस तरीके से दें ताकि उनके हाथ में यह हथियार की तरह हो और साथ ही साथ इतनी चालाकी से दें कि दुश्मन को पता न चले और वह रोक न सके। 

एक लेखक से यही अपेक्षा की जाती है, जब उसे सच लिखने के लिए कहा जाता है।

(जर्मन मूल और विभिन्न अंग्रेजी अनुवादों की मदद से अनूदित)

फासीवाद का कम्युनिटी ट्रांसमिशन


सर्वहाराकरण की तेज होती प्रक्रिया के कारण उभरतीं दमित उत्कंठाओं को फासीवाद इस रूप में अभिव्यक्ति देकर संघटित करता है कि वे उन सामाजिक-आर्थिक और संपत्ति संबंधों के लिए खतरा न बन पाएँ जो उस प्रक्रिया और उसकी उत्कंठाओं को जन्म देते हैं । फासीवाद उन उत्कंठाओं को उनके तात्कालिक प्रतिक्रियात्मक स्तर और रूप में ही व्यक्त करने का साधन प्रदान करता है, ताकि राजनीतिकता और आर्थिकता के पार्थक्य से जो राजसत्ता पैदा होती है उसक़े पुनरुत्पादन में आम रोष के कारण रोध पैदा न हो सके। नवउदारवादी अर्थतन्त्रीय अवस्था – पूंजी के वित्तीयकरण, उत्पादन के सूचनाकरण और श्रम के अनौपचारीकरण – ने फासीवाद के इस गुण को अलग स्तर पर पहुँचा दिया है, उसको तीव्रता और व्यापकता दे दी है। अब फासीकरण (fascisation) के साधन के लिए खुली राजनीतिक तानाशाही केवल एक आपातकालिक विकल्प है। फासीवाद आज सामाजिक प्रक्रिया का रूप धारण कर पूंजीवाद की वर्तमान अवस्था की दैनिक सामाजिकता और प्रतिनिधत्ववादी औपचारिक जनतंत्र की आंतरिकता में समाहित हो गई है। और इस प्रक्रिया के चलन और संचालन के लिए अब फासीवादियों की ज़रूरत नहीं है। कोरोना के वक्त की भाषा में बोलें तो फासीवाद का आज कम्युनिटी ट्रांसमिशन हो गया है।

The Taming of the Shrew: India’s Left in the 2019 Elections


“…the people
Had forfeited the confidence of the government
And could win it back only
By redoubled efforts. Would it not be easier
In that case for the government
To dissolve the people
And elect another?”

– Bertolt Brecht

“Procrustes, or the Stretcher …had an iron bedstead, on which he used to tie all travellers who fell into his hands. If they were shorter than the bed, he stretched their limbs to make them fit it; if they were longer than the bed, he lopped off a portion. Theseus served him as he had served others.”
– Bulfinch’s Mythology

1. Elections are procrustean rituals in an institutionalised democracy to contain and channel the social (over)flow and productivise it to manufacture a government and its legitimacy. By recursive re-discretisation of the social flow into manageable units, the citizenry is recomposed. In these elections, it is not the public that elects the government but the state that reassembles the public to produce the government. This reconstituted public gets the government that it deserves.

2. In the elections of 2019, against the right wing politics of communal polarisation, the left liberals in India have been seeking to pose a different sort of polarisation. Either you are on this side or that side. It doesn’t matter even if some who are on this side, earlier they were on the other and next time again they may fall there, whenever the juggling of elections happens and post-electoral alliances are made. For them, the poles are poles, stuck to the ground.

3. Hence, there is more to the 2019 elections for our nationalist left liberals. As they themselves say, it is a historic moment. And it is indeed something historic that liberal manichaeism seeks to achieve. If BJP is, what they say, a fascist party, then the liberals are imagining something unique in these elections – of defeating fascists in the elections. The fascist regimes, classically, might have come through elections, but have never been eliminated in them.

4. Now, the only strategy that seems to achieve this is by ensuring that votes are not divided (for which a Manichean binary is necessary). Marx’s dictum that all such phrases of not splitting votes and that the reactionaries might win because of the split are meant to dupe the proletariat seems outdated for the doomsday New Left. They want to defeat neoliberal authoritarianism through the procrusteanism of liberal democracy, while the right seeks to synchronise them.

5. However, by posing and making these elections as a two party contest, our marginalised left liberals are binding themselves to the dangerous game of attracting the median voter. In a bipolar contest the result is a more and more identity of opposites. And when much of the opposition is already centred on non-oppositional disagreements rather than based on any principled opposition, the difference is internal. You are but an image of your opponent.

6. They identify the hindutva brigade as a fascist pole, against which they want to see everyone else together. However, this ideal has never been realised, perhaps fortunately for the benefit of the left liberals themselves. The divided regional forces whether in NDA or outside are the only respite against homogenised authoritarianism in the country. From within liberal democracy, the intensification of regionalist localism, along with institutionalised parliamentarianism are the only safeguards left against the hindutva brigade. This is what left liberals don’t realise when they indulge in their anti-fascist rhetoric. Anyway, with this rhetoric they don’t impress anyone but themselves. The major regional forces whenever they take up this rhetoric seriously, they use it merely as a bargaining chip against centrism.

7. The right wing forces have been the main agencies to recompose the relationship between state and civil society across the globe – of combining authoritarianism with liberal democracy. Only by a complete profanation of institutions that emerged in earlier regimes of accumulation that capital can reproduce the state in the neoliberal conjuncture. The barriers must be broken time and again to refinancialise the social factory – the neat divisions between different socio-economic spheres, between productive and reproductive regimes are obsolete and costly. These barriers that managed the surplus/ superfluous population through much-acclaimed welfarism are not required now – they must integrate to form a continuous reserve army. The desacralisation of liberal social-administrative spheres is part of this process. In recent years the right wing attack that directly concerned the left liberals has been in academia. The academia is increasingly made market friendly, not allowing any section of population to take perpetual “study leave”. It is not the quality that matters but quantity – production for production’s sake. Ultimately all of us produce data, and are data ourselves.

8. The left in the name of defending the “gains” is caught up in a contradictory position of defending the status quo. The right-wing forces, on the other, by attacking those gains show far more clear understanding of the contradictions that they expose. They defend the status quo by eliminating those contradictions and expose the brutal structure in its naked form. But this naked coercion would need a new regime of legitimation, because a long-term overexposure of its coercive apparatus can be a doom for the whole system. One of the gains of the right wing onslaught is to regiment the progressive forces and make them complicit in preserving the status quo, by bringing legitimation back to the structure. The cover-up of gains and incremental progress provides the structure a long life. ‘Defending the gains’ doesn’t always need to be a defence of the socio-administrative structure that provisioned those gains. They can be a ground to recognise, expand and generate more cracks in the structure, and create more crises for its reproduction. And in this negation develops a new grammar of social relations. But for left liberals there is no alternative (TINA) – Liberal democracy or Fascism!

9. In an interview to New Left Review in 1975, Communist thinker and leader K Damodaran lamented the failure of Indian left to differentiate between state and government, and hence, their inability to understand their relationship too. There are some who confuse between state and government to pose the impossibility of immediate political actions and there are others who find this confusion very productive, when haloed as the relative autonomy of the state and the political, to justify indulgence in bourgeois polity.

10. In fact, this confusion is one of the means through which the state avoids an overexposure. It is how it camouflages itself in the everydayness of governmentality. The state’s mood fluctuations, given a constant reshuffling in the relationship between the political and the economic, emerge as multiple political fetish-forms, as political forces, and even regimes. You can worship the state in whichever form you like – if nothing suits you, you pronounce it, you will get what you need – a new form! The spirit of state is fathomless and boundless – all political forms, their enthronement, dethronement or re-enthronement combine to constitute “the rhythm of the spirit”. The magic of capitalist state works on only one principle, which Prince Tancredi Falconeri pronounced –

“Se vogliamo che tutto rimanga com’è bisogna che tutto cambi” (“If we want things to stay as they are, things will have to change.”) – Giuseppe Tomasi di Lampedusa, The Leopard (Il Gattopardo)

Makarand Paranjape – A Re-Brahminised Brahmin?


It seems Prof Makarand Paranjape has taken upon himself the task of eliminating the rightist intellectual vacuum of which left-liberal scholars have recently been talking about. He is actively posing himself both as a rightwing liberal and a genuine scholar, especially with his recently published work on Gandhi’s murder, The Death & Afterlife of Mahatma Gandhi. Here, he succeeds as a rightwing intellectual, both in his omissions and commissions.

In this book, Paranjape undoubtedly demonstrates a credible scholarship. However, like any right-winger, he unabashedly displays his inability to comprehend the structure of an event, a conjuncture or a catastrophe – conflating facts and fiction (literary facts), reality and virtuality. The conceptual asyndesis that the right wing discourse suffers from flattens the structure of reality. The analytics of the destructed reality are reinforced at the immediate level of discourse, oblivious of the fact that they are differentially located in the composed structure of the event. In his endeavour to come to terms with Gandhi’s murder, Paranjape literally makes everybody responsible for it, even future generations. He absolutises relative responsibilities and makes the regenerated Oedipal guilt of the empowered Hindutva forces a collective absolute of the history of independent India . Ultimately, Godse emerges merely as an executor.

In the epilogue for the Indian edition of the book, Paranjape has clearly indicated his choice against “hypocritical and cynical” “Congress-style secularism” “pandering to and appeasing minorities”. He is not at all dismissive against the “majoritarian political formation. Of course, he wants some actions to see if “Hindutva-Hinduism [is] a better guarantor of religious and cultural pluralism than pseudo-secularism.” He asks, “will the new realism of pragmatic majoritarianism succeed better?” It seems he got his answers very soon.

Similarly, in his video-graphed “lecture” on nationalism in JNU  before an “openminded” left-liberal audience desperately looking for their own variety of Indian nationalism at the time of neoliberal “post(modern) fascism”, Paranjape, like any right-wing street-fighter, goes on poking the left to make their choice among binaries – constitution or revolution, etc, demonstrating once again his ignorance of the complexity of the question of legitimation.

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Paranjape continues to display the rashness of anti-left tirade in a recent article in Indian Express too, where he blunders on both levels – of arguments and of facts. However, here, he is engaging in manipulations typical of a conservative intellectual and poltician, to defend his recent activism. He starts with some commonsensical utterances to justify adding his name to a petition against one of the best Sanskritists of our times, Sheldon Pollock.

Paranjape jealously questions the exorbitance of the investment by a ‘Swadeshi’ investor in a project to create Murty Classical Library under the editorship of Pollock. As he admits, he doesn’t seem to know more than home economics, and thinks investment in scholarship as similar to buying underpants and vegetables.

In this era of global capitalism, when Indian rulers are busy playing beggar-beggar with other late capitalist economies to make Make-in-India campaign legible to investors, Paranjape and his herd are trying to contribute in it by selling their cheap intellectual labour. But they don’t know that the economic considerations for big industries in modern capitalism are not those of village sahukars – where buying cheap and selling dear are immediately interlinked, immaterial of the nature of products in consideration. Stooping down to the level of Prof Paranjape’s home economic sensibility, we can merely plead that he should have some sense to know that the long term credibility of the investor also matters at least in the field of academic production.

Reasonably, Paranjape tries to win the argument by complementing his home economics with inciting a nationalist inferiority rage. Here he is in a quite good company, as this provoking of bruised nationalist consciousness has always been a hallmark of jingoists and has once again become rampant – Trump, Berlusconi, Le Pen & c, and of course not to forget our own Modi. It effectively generalises, mobilises and instrumentalises anxieties and precarities produced by dispersed Fordism leading to the emergence of post(modern) fascism.

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Now, coming to what Paranjape calls “the more controversial demand to sack Pollock”, we find him deliberately misinterpreting Pollock for his academic-political ambitions.

Pollock’s essay which Paranjape and his coterie are misquoting to discredit him and to project him as any Orientalist is one of the finest works on traditional Indian intellectual practices, where he displays his knowledge of not just the hegemonic Shastric tradition but also of oppositional scientific and secular voices, who had to regiment themselves by indulging in ritual nodding to the Shastric authority.

To the extent that Pollock demonstrates the intransigent and transcendent nature of the Shastric tradition in prioritising theory, along with its attempt to homogenise and hegemonise practice, his originality is only in the extent of his scholarship, not in his idea. There have been alternative traditions right from the Upanishadic times that have been questioning such ritualisation, many times in shrill voices, and in recent centuries quite openly as by many late Medieval poets and numerous anti-caste fighters like Phule and Ambedkar. 

Moreover, in the very initial paragraphs of the essay, Pollock declares his thesis, “everywhere civilisation as a whole – and this is especially true of art-making – is constrained by rules of varying strictness, and indeed, may be accurately described by an accounting of such rules.” And then he goes on to compare Manusmriti and Amy Vanderbilt’s Everyday Etiquette (definitely, an outrageous comparision from the perspective of a refounded Brahminism of Hindutva), and concludes, “such cultural grammars exist in every society; they are the code defining a given culture as such.” Of course, he credits Shastras for their unique expanse and influence.

Paranjape must remember if he wants to (though it is difficult given his allegiance to particular political projects in recent days), that orientalism happens not simply when whites exorcise brownies, it is also when whites and brownies combine to exoticise and eternalise the orient. Let me remind Paranjape of his own remorse at the “politics of misreading” in 1991 (Economic & Political Weekly), when he was troubled by what he saw the “tendency to indulge in the commonest argumentative fallacy of irrelevance: ad hominem or name-calling,” At that time, he was accused of having represented himself as a “de-brahminised brahmin” by, as he claimed, his student (it is clear that this fact hurt him the most). That “student” today is himself a well-known literary scholar and activist, K Satyanarayana.

However, in recent days Paranjape himself, along with his less-sophisticated ilk, has mastered this politics and is indulging in “the commonest argumentative fallacy” of name calling. He clearly dislikes them with whom he disagrees. Whether he had actually de-brahminised himself earlier or not is debatable, but it is clear, at least for the time being, he has re-brahminised himself, and he feels empowered.

Affirming poverty, or, how to radically break with fascistic underconsumptionism


“To deny poverty is to deny the absence of the Kingdom in the present system. It is to affirm the existing system as the Kingdom of this world. To affirm the poor, on the other hand, and to serve their eventual liberation, in the structures and in history, is to witness the presence of the Kingdom in the satisfying of the poor and to the absence of the Kingdom in the imperfection of society. The poor are the epiphany of the Kingdom or the infinite exteriority of God.
“It remains to distinguish between the inorganic multitude and the people as the emerging subject of history (Gen. 41:40), and the People of God as Church (Acts 15:14) called to a special role in history:
Come out of her (Babylon), my people, lest you take part in her sins (Revelation 18:4)”
–Enrique Dussel, ‘The Kingdom of God and the Poor’ (Beyond Philosophy: Ethics, History, Marxism, and Liberation Theology)

It must be stated quite explicitly here that the bleeding-heart, underconsumptionist politics of poverty alleviation — something that is preponderant among South Asian radicals, Marxists included — is precisely what we ought to, pace Dussel, characterise as denial of poverty. Such ‘Marxian’ underconsumptionism, and its concomitant ideology and politics of philanthropy and reformism respectively, is no more than the obverse of neoliberalism, which denies poverty in as many words. From a position that is rigorously Marxian, and is thus conceptually premised on overproduction/overaccumulation, poverty must be affirmed; neither denied, nor, for that matter, alleviated. Affirmation of poverty would be constitutive of politics proper — politics as the excess of all that which exists and which will come to exist — because such affirmation would amount to the affirmation of the condition of being unmeasured.

For, what else is poverty other than the condition of being unmeasured in the face of a system of quasi-objective measure (or value). This condition of being unmeasured, thanks to it being the condition of the absence of measure, and thus the condition of the limit of measure, makes measure possible. Hence, it is the limit of measure that is nevertheless constitutive of it. In that context, affirmation of poverty as politics would amount to affirmation of the limit of this system of quasi-objective measure or valorisation so that the latter is destroyed even as the former abolishes itself as the constitutive limit of that system of measure to emerge on its own terms as the immeasurable. In more clear strategic terms, such unsentimental affirmation of poverty would be, in Pasolini’s immortal words, unrelenting antagonism, without a shred of dialectical respite or reconciliation, towards the subsumptive value-relational system of quasi-objective measure in its concrete appearances.

Underconsumptionist ‘radicalism’, on the other hand, seeks to alleviate and thus deny poverty. The denial of poverty and suffering implicit in the apparent radicalism of struggling precisely for the alleviation of poverty and suffering stems from its underconsumptionist theoretical presupposition, wherein poverty and suffering are made sense of not as a crisis of the system of measure, which is precisely produced by this system in order to keep itself going, but as a curse of not being measured; or, not being fully subsumed by the system of measure. Such politics of alleviating poverty and suffering, needless to say, reinforces the system of quasi-objective measure (or valorisation) that produces poverty and suffering — which is the condition of being unmeasured — precisely in mobilising this limit of measure to found and (re)found itself as that system. It is not surprising that Pasolini, who was unflinching and unsentimental in affirming poverty as a revolutionary virtue, would see such underconsumptionist ‘radicalism’ as an unforgiveable handmaiden and ally of “neo-capitalism”.

Pasolini, in his characteristically counter-intuitive manner, repeatedly criticised such politics for undermining the revolutionary project. Here is an excerpt from his Lutheran Letters:
“The sin of the fathers is not only the violence of power, Fascism. It is also this: the dismissal from our consciousness by us anti-Fascists of the old Fascism, the fact that we comfortably freed ourselves from our deep intimacy with it (the fact that we considered the Fascists ‘our idiot brothers’; secondly and above all, the acceptance (all the more guilty because unconscious) of the degrading violence, of the real, immense genocides of the new Fascism.
“Why is there such complicity with the old Fascism and why such an acceptance of the new Fascism? Because there is — and this is the point — a guiding principle common to both, sincerely or insincerely: that is the idea that the greatest ill in the world is poverty and that therefore the culture of the poorer classes must be replaced by the culture of the ruling class.
“In other words, our guilt as fathers could be said to consist in this: that we believe that history is not and cannot be other than bourgeois history.”

Clearly, such politics, if we follow the train of Pasolini’s reasoning and analysis, effects the subjective embourgeoisement of the proletariat even as it not only leaves intact, but also actually reinforces, the proletarian condition in its sheer objectivity. This is arguably what Pasolini sought to argue when he insisted that “neo-capitalism” was a form of fascism more pernicious than political fascism that Europe had already experienced. And that, according to Pasolini, was because the latter was (is) characterised by, among other things, the continuance of “economic class struggle” even as the antagonistic class struggle between bourgeois and proletarian cultures had lapsed and disappeared. Pasolini’s “neo-capitalist” fascism — which he acutely demonstrated as being more insidious and more dangerous than the political fascism of yore — is nothing but our conjuncture of neoliberalism. This conjuncture is characterised by the state of exception having become generalised. So much so that struggles claiming to be anti-fascist are, precisely in asserting those claims, rendered fascistic in their own right. Thanks to ineluctable objective conditions, fascistic politics today is easily – and, as a matter of fact, invariably– operationalised precisely in the very moment of liberal-democratic juridicality, and in its political register.

It is in this context that the following contention of Dussel’s becomes extremely pertinent from the point of view of thinking an effective revolutionary strategy by way of articulating a thorough critique of underconsumptionism:
“It remains to distinguish between the inorganic multitude and the people as the emerging subject of history (Gen. 41:40), and the People of God as Church (Acts 15:14) called to a special role in history:

Come out of her (Babylon), my people, lest you take part in her sins (Revelation 18:4)”