सच्चाई लिखने में पाँच कठिनाइयाँ 


बर्तोल्त ब्रेख्त

मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट) 

आजकल, जो कोई भी झूठ और अज्ञानता का मुकाबला करना चाहता है और सच लिखना चाहता है उसे कम से कम पांच कठिनाइयों को पार करना होगा। जब सत्य का हर जगह विरोध हो रहा हो, उसमें सत्य लिखने का साहस होना चाहिए; हालांकि सच्चाई हर जगह छिपी हुई है, उसे पहचानने का चातुर्य होना चाहिए; उसे एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल होना चाहिए; जिनके हाथ में यह प्रभावी होगा उनका चुनाव करने का विवेक होना चाहिए; और ऐसे लोगों के बीच सच्चाई फैलाने की चालाकी होनी चाहिए। ये फ़ासीवाद के तहत जीने वाले लेखकों के लिए विकट समस्याएँ हैं, लेकिन ये उन लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जो भाग गए हैं या निर्वासित हो गए हैं; वे उन देशों में काम करने वाले लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जहां नागरिक स्वतंत्रता विद्यमान है।

1 सच लिखने का साहस

यह बात स्वाभाविक ही लगती है कि जो भी लिखता है उसे सत्य को इस अर्थ में लिखना चाहिए कि वह सत्य को न दबाए या छिपाए या जानबूझकर असत्य न लिखे। उसे बलवानों के सामने झुकना नही चाहिए और न ही कमजोरों के साथ विश्वासघात करना चाहिए। बेशक, शक्तिशाली के सामने न झुकना बहुत कठिन है, और कमजोर को धोखा देना बहुत फायदेमंद है। कब्जा करने वालों को अप्रसन्न करने का अर्थ है वंचितों में से एक हो जाना। काम के लिए भुगतान का त्याग करना काम छोड़ने के बराबर हो सकता है, और शक्तिशाली द्वारा प्रसिद्धि की पेशकश को अस्वीकार करने का मतलब हमेशा के लिए इसे अस्वीकार करना हो सकता है। यह साहस लेता है।

चरम उत्पीड़न के समय आमतौर पर ऐसे समय होते हैं जब महानता और बुलंदी के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। ऐसे समय में श्रमिकों के लिए भोजन और आश्रय जैसी निम्न और नीच बातें लिखने के लिए साहस की आवश्यकता होती है; जब बाकी हर कोई बलिदान की महत्ता के बारे में शेखी बघार रहा हो तो साहस की आवश्यकता होती है। जब किसानों पर सभी प्रकार के सम्मानों की बौछार की जाती है, तो मशीनों और अच्छे पशु चारा की बात करने में साहस की जरूरत होती है, जो उनके सम्मानजनक श्रम को हल्का कर देगा। जब हर रेडियो स्टेशन यह कह रहा हो कि ज्ञान या शिक्षा के बिना एक आदमी पढ़े-लिखे व्यक्ति से बेहतर है, तो यह पूछने का साहस चाहिए: किसके लिए बेहतर है? जब सारी बातें उत्तम और सदोष जातियों की होती हैं, तो यह पूछने के लिए साहस की आवश्यकता होती है कि क्या यह भूख और अज्ञानता और युद्ध नहीं है जो विकृतियाँ पैदा करते हैं।

और अपने बारे में, अपनी हार के बारे में सच बोलने के लिए भी साहस चाहिए। कई सताए हुए लोग अपनी गलतियों को देखने की क्षमता खो देते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि अत्याचार ही सबसे बड़ा अन्याय है। उत्पीड़क केवल इसलिए दुष्ट हैं क्योंकि वे सताते हैं; सताए हुए लोग अपनी भलाई के कारण पीड़ित होते हैं। लेकिन यह अच्छाई पिट गई, हार गई, दबा दी गई; इसलिए यह एक कमजोर अच्छाई थी, एक बुरी, असमर्थनीय, अविश्वसनीय अच्छाई। क्योंकि यह मान लेने से काम नहीं चलेगा कि अच्छाई कमजोर होनी चाहिए क्योंकि बारिश गीली होनी चाहिए। यह कहने के लिए साहस चाहिए कि अच्छे इसलिए नहीं हारे कि वे अच्छे थे, बल्कि इसलिए हारे कि वे कमजोर थे।

स्वाभाविक रूप से, असत्य के साथ संघर्ष में हमें सत्य लिखना चाहिए, और यह सत्य उदात्त और अस्पष्ट सामान्यता (generality) नहीं होनी चाहिए। जब किसी के बारे में कहा जाता है, “उसने सच बोला,” तो इसका तात्पर्य है कि कुछ लोगों ने या बहुत से लोगों ने या कम से कम एक व्यक्ति ने सत्य के विपरीत – झूठ या सामान्य – कुछ कहा, लेकिन उसने सच कहा, उसने कुछ व्यावहारिक, तथ्यात्मक कहा, निर्विवाद, बेटूक बात कही।

दुनिया के उस हिस्से में जहां अभी भी शिकायत की अनुमति है, दुनिया की दुष्टता और बर्बरता की जीत के बारे में एक सामान्य शिकायत को बुदबुदाने या मानव आत्मा की जीत सुनिश्चित होने के बारे में निर्भीक चीत्कार करने के लिए बहुत कम साहस की जरूरत होती है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो दिखावा करते हैं कि तोपों का लक्ष्य उन पर है जबकि वास्तव में वे केवल थिएटर के दूरबीनों के लक्ष्य हैं। वे दोस्तों और हानिरहित व्यक्तियों की दुनिया में अपनी सामान्यीकृत मांगों को चिल्लाते हैं। वे एक सामान्यीकृत न्याय पर जोर देते हैं जिसके लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया; वे सामान्यीकृत स्वतंत्रता की मांग करते हैं और उस लूट का हिस्सा मांगते हैं जिसका उन्होंने लंबे समय से आनंद उठाया है। वे सोचते हैं कि सत्य वही है जो सुनने में अच्छा लगता है। यदि सत्य कुछ सांख्यिकीय, शुष्क, या तथ्यात्मक हो, जिसे खोजना मुश्किल हो और उसके लिए अध्ययन की आवश्यकता हो, तो वे उसे सत्य के रूप में नहीं पहचानते; वह उन्हें नशा नहीं देता। उनके पास केवल सत्य बताने वालों का बाहरी आचरण है। उनके साथ कठिनाई यह है कि वे सत्य को नहीं जानते।

2 सत्य को पहचानने का चातुर्य

चूँकि सत्य को हर जगह दबाये जाने के कारण लिखना कठिन होता है, इसलिए अधिकांश लोग सोचते हैं कि सत्य का लिखा या न लिखा जाना महज विश्वास पर निर्भर करता है। उनका मानना है कि इसके लिए केवल साहस ही काफी है। वे दूसरी बाधा भूल जाते हैं: सत्य को खोजने की कठिनाई। यह दावा करना असंभव है कि सच्चाई आसानी से पता चल जाती है।

सबसे पहले हम यह निर्धारित करने में परेशानी का सामना करते हैं कि कौन सा सच कहने लायक है। उदाहरण के लिए, पूरी दुनिया की आंखों के सामने एक के बाद एक महान सभ्य राष्ट्र बर्बरता की गिरफ्त में आ रहे हैं। इसके अलावा, हर कोई जानता है कि सर्वाधिक खतरनाक तरीकों से छेड़ा जा रहा घरेलू युद्ध किसी भी समय एक विदेशी युद्ध में परिवर्तित हो सकता है जो हमारे महाद्वीप को खंडहरों का ढेर बना सकता है। यह, निस्संदेह, एक सच्चाई है, लेकिन अन्य भी हैं। उदाहरण के लिए, यह असत्य नहीं है कि कुर्सियों में सीटें होती हैं और बारिश नीचे की ओर गिरती है। कई कवि इस तरह की सच्चाई लिखते हैं। वे एक डूबते जहाज की दीवारों को अचल जीवन के साथ सजाने वाले चित्रकार की तरह हैं। हमारी पहली कठिनाई उन्हें परेशान नहीं करती और उनका विवेक स्पष्ट है। जो सत्ता में हैं वे उन्हें भ्रष्ट नहीं कर सकते, लेकिन न ही वे उत्पीड़ितों की कराहों से परेशान हैं; वे चित्र बनाते चले जाते हैं। उनके व्यवहार की संवेदनहीनता उनमें एक “गहरा” निराशावाद पैदा करती है जिसे वे अच्छी कीमतों पर बेचते हैं; फिर भी ऐसा निराशावाद उसके लिए अधिक उपयुक्त होगा जो इन उस्तादों और उनकी बिक्री को गौर से देखता है। साथ ही यह महसूस करना आसान नहीं है कि उनकी सच्चाई कुर्सियों या बारिश के बारे में सच्चाई है; वे आम तौर पर महत्वपूर्ण चीजों के बारे में सच्चाई की तरह लगते हैं। लेकिन करीब से जांच करने पर यह देखना संभव है कि वे बस यही कहते हैं: एक कुर्सी एक कुर्सी है; और: बारिश को गिरने से कोई नहीं रोक सकता।

वे उन सच्चाइयों की खोज नहीं करते जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। दूसरी ओर, कुछ ऐसे हैं जो केवल अति आवश्यक कार्यों से निपटते हैं, जो गरीबी को गले लगाते हैं और शासकों से नहीं डरते, और जो फिर भी सत्य को नहीं खोज पाते। इनमें ज्ञान का अभाव है। वे कुख्यात पूर्वाग्रहों के साथ, जिन्हें बीते दिनों में अक्सर सुंदर शब्दों में पिरोया जाता था, प्राचीन अंधविश्वासों से भरे हुए हैं। दुनिया उनके लिए बहुत जटिल है; वे तथ्यों को नहीं जानते; वे संबंधों को नहीं समझते। स्वभाव के अतिरिक्त, ज्ञान, जिसे प्राप्त किया जा सकता है, और विधियाँ, जो सीखी जा सकती हैं, की आवश्यकता है। उलझन और कौंधियाते परिवर्तन के इस युग में सभी लेखकों के लिए अर्थव्यवस्था और इतिहास की भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान पुस्तकों से और व्यावहारिक शिक्षा से प्राप्त किया जा सकता है, यदि यथोचित परिश्रम किया जाए। बहुत से सत्यों को सरल तरीके से खोजा जा सकता है — या कम से कम सत्यों के अंशों को, या ऐसे तथ्यों को जो सत्य की खोज की ओर ले जाते हैं। यदि कोई सत्य की खोज करना चाहता है, तो खोज की विधि होना अच्छा है, लेकिन कोई विधि के बिना भी खोज सकता है, वास्तव में, बिना खोजे भी उसे पा सकता है।  लेकिन इस बेतरतीब तरीके से शायद ही कोई सच्चाई की ऐसी प्रस्तुति हासिल हो पाएगी जिसके आधार पर लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए उसका पता जल जाए। जो लोग केवल छोटे-छोटे तथ्य दर्ज करते हैं वे इस दुनिया की चीजों को व्यवस्थित करने की स्थिति में नहीं हैं। मगर सत्य का तो प्रयोजन यही होता है, दूसरा कोई नहीं। ये लोग सच लिखने की चुनौती स्वीकारने के काबिल नहीं हैं।

यदि कोई व्यक्ति सत्य को लिखने के लिए तैयार है और उसे पहचानने में समर्थ है, तो तीन कठिनाइयाँ और रह जाती हैं।

3 सत्य को हथियार के रूप में बदलने का कौशल

सत्य को इस दृष्टि से बोलना चाहिए कि क्रिया के क्षेत्र में असर पैदा हो सके। एक उदाहरण जो हमें उस प्रकार के सत्य को दिखाता है जिससे कोई परिणाम क्या, गलत परिणाम भी नहीं निकाला जा सकता, वो है वह व्यापक धारणा जिसके अनुसार कुछ देशों में भयानक परिस्थितियाँ कायम हैं, जिसका कारण बर्बरता है। इस दृष्टि से, फासीवाद बर्बरता की एक लहर है जो प्राकृतिक आपदा के बल पर कई देशों में उतरी है।

इस दृष्टिकोण के अनुसार, फासीवाद पूंजीवाद और समाजवाद के बाद (और ऊपर) एक नई, तीसरी शक्ति है; न केवल समाजवादी आंदोलन बल्कि पूंजीवाद भी फासीवाद के हस्तक्षेप के बिना जीवित रह सकता था। बेशक, यह फासीवादी दावा है; इसे स्वीकार करना फासीवाद के प्रति समर्पण है। फासीवाद एक ऐतिहासिक चरण है जिसमें पूंजीवाद प्रवेश कर चुका है, और इस अर्थ में यह नया भी है और साथ ही पुराना भी। फासीवादी देशों में पूंजीवाद का अस्तित्व बना हुआ है, लेकिन केवल फासीवाद के रूप में; और फासीवाद का मुकाबला केवल पूंजीवाद के तौर पर, पूंजीवाद के सबसे नग्न, सबसे बेशर्म, सबसे दमनकारी और सबसे विश्वासघाती रूप के तौर पर किया जा सकता है।

लेकिन फासीवाद के बारे में कोई सच कैसे बोल सकता है, जब तक कि वह पूंजीवाद के खिलाफ बोलने को तैयार नहीं है, जो उसे पैदा करता है? ऐसे सत्य के व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?

जो लोग पूँजीवाद के विरुद्ध न होकर फ़ासीवाद के विरुद्ध हैं, जो बर्बरता से उत्पन्न बर्बरता पर विलाप करते हैं, वे उन लोगों के समान हैं जो बछड़े का वध किए बिना अपना बछड़ा खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाना तो चाहते हैं, परन्तु लहू को देखना उन्हें पसन्द नहीं। यदि मांस तौलने से पहले कसाई अपने हाथ धोता है तो वे आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं। वे संपत्ति संबंधों के खिलाफ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं; वे केवल बर्बरता के ही खिलाफ हैं। वे बर्बरता के खिलाफ आवाज उठाते हैं, और वे ऐसा उन देशों में करते हैं जहां वास्तव में वैसा ही संपत्ति संबंध प्रचलित है, लेकिन जहां कसाई मांस का वजन करने से पहले अपने हाथ धोते हैं।

बर्बर उपायों के खिलाफ आक्रोश तब तक प्रभावी रह सकता है जब तक श्रोताओं का मानना है कि ऐसे उपायों की उनके अपने देशों में कोई गुंजाइश नहीं है। कुछ देश अभी भी अपने संपत्ति संबंधों को उन तरीकों से बनाए रखने में सक्षम हैं जो अन्य देशों में उपयोग किए जाने वाले तरीकों की तुलना में कम हिंसक दिखाई देते हैं। लोकतंत्र अभी भी इन देशों में उन परिणामों को प्राप्त करने के लिए कार्य करता है जिनके लिए दूसरों में हिंसा की आवश्यकता होती है, अर्थात् उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की गारंटी देने के लिए। कारखानों, खानों और भूमि का निजी एकाधिकार हर जगह बर्बर स्थिति पैदा करता है, लेकिन कुछ जगहों पर ये स्थितियाँ तात्कालिक रूप में दृश्यमान नहीं हैं। बर्बरता तभी नजर आती है जब केवल खुली हिंसा से ही इस एकाधिकार की रक्षा की जा सकती है।

जिन्हें अभी तक, बर्बर एकाधिकार के लिए, कानून के शासन की औपचारिक गारंटी या कला, दर्शन और साहित्य जैसी सुख-सुविधाओं का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, वे देश विशेषतः उन मेहमानों को सुनने का आनंद लेते हैं जब वे अपनी मातृभूमि पर ऐसी सुख-सुविधाओं का परित्याग करने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि ये देश अपेक्षित युद्धों में इन बयानों से लाभान्वित होने की उम्मीद करते हैं। क्या हम कह सकते हैं कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है, जो, उदाहरण के लिए, जोर-शोर से जर्मनी के खिलाफ एक पुरजोर संघर्ष की मांग करते हैं “क्योंकि वह देश अब हमारे दिनों में अनिष्टता का सच्चा घर है, नरक का साथी, शैतान (antichrist) का निवास है”? बल्कि हमें यह कहना चाहिए कि ये मूर्ख और खतरनाक लोग हैं। इस बकवास से निकाला जाने वाला निष्कर्ष यही है कि चूंकि जहरीली गैस और बम दोषियों को नहीं चुनते हैं, इसलिए जर्मनी को खत्म कर देना चाहिए – पूरे देश और उसके सभी लोगों को।

विचारहीन मनुष्य, जो सत्य को नहीं जानता, अपने को सामान्यीकरणों (generalisations) में, ऊँची-ऊँची और अस्पष्ट भाषा में अभिव्यक्त करता है। वह ‘जर्मनों’ के बारे में निंदा करता है, वह दुष्टता के बारे में चिल्लाता है, और बहुत कोशिश करने के बाद भी उसका श्रोता नहीं जान पाता कि करना क्या है। क्या वह जर्मन नहीं होने का फैसला करेगा? यदि वह स्वयं अच्छा है तो क्या नरक मिट जाएगा? बर्बरता से आने वाली बर्बरता की बात भी इसी तरह की है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, बर्बरता बर्बरता से आती है, और सभ्य व्यवहार के माध्यम से समाप्त होती है, जो शिक्षा से आती है। ये सब बिल्कुल ही ऊपरी बातें हैं; ये कार्रवाई के हित में नहीं कही गईं है और वास्तव में किसी को संबोधित भी नहीं है।

इस तरह के विवरण कारणों की श्रृंखला में केवल कुछ कड़ियों की ओर इशारा करते हैं और कुछ प्रेरक बल को बेकाबू ताकतों के रूप में दर्शाते हैं । इन विवरणों में बहुत अधिक अस्पष्टता होती है, जो तबाही के कारक ताकतों को छुपाती है। मामले पर बस थोड़ा सा प्रकाश डालें, और अचानक विपत्तियों के पीछे मनुष्यों के दोष प्रकट हो जाते हैं! आखिर हम ऐसे युग में रहते हैं जहां मनुष्य की नियति मनुष्य ही है। 

फासीवाद कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है जिसे महज मानवीय “प्रकृति” के संदर्भ में समझा जा सकता है। लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के मामले में भी चित्रण के ऐसे तरीके हैं जो मनुष्यों के योग्य हैं क्योंकि वे प्रतिरोध करने की उनकी क्षमता को अपील करते हैं।

योकोहामा को नष्ट करने वाले एक बड़े भूकंप के बाद, कई अमेरिकी पत्रिकाओं ने खंडहरों का ढेर दिखाते हुए तस्वीरें प्रकाशित कीं। नीचे कैप्शन था ‘स्टील स्टूड’ (इस्पात खड़ा रहा), और वास्तव में, जिन्होंने भी, वे भी जिन्होंने पहले केवल खंडहर पर ध्यान दिया था, अब कैप्शन के कारण जब नजरें दौड़ाई तो उन्हें कई ऊंची इमारतों की बुलंदी दिखी। भूकंप के सभी संभव चित्रणों में अद्वितीय महत्व वाले वे हैं जो निर्माण इंजीनियरों के द्वारा तैयार किये गए हैं, जो जमीन के खिसकन, झटकों की तीव्रता, चढ़ती गर्मी आदि पर ध्यान देते हैं और जो भविष्य के निर्माण की ओर ले जाते हैं जो भूकंप का सामना करने के काबिल हैं। यदि कोई फासीवाद और युद्ध का, उन महान आपदाओं का जो प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं वर्णन करना चाहता है, तो उन्हें सत्य का एक व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करना चाहिए। उन्हें यह दिखाना होगा कि ये आपदाएँ संपत्ति रखने वाले वर्गों द्वारा उन श्रमिकों की विशाल संख्या को नियंत्रित करने के लिए शुरू की गई हैं जिनके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं। 

यदि बुरी परिस्थितियों के बारे में सत्य को सफलतापूर्वक लिखना है, तो उसे इस तरह लिखना होगा कि इन स्थितियों के परिहार्य कारणों को पहचाना जा सके। एक बार जब परिहार्य कारणों की पहचान हो जाती है, तो बुरी परिस्थितियों से लड़ा जा सकता है।

4 उन लोगों को चुनने का विवेक जिनके हाथों में सच्चाई प्रभावी होगी

विचारों और विवरणों के बाजार में लिखित वस्तुओं के व्यापार के सदियों पुराने रीति-रिवाजों के कारण, लेखक को लिखित पाठ के साथ क्या करना है, इस चिंता से राहत मिली; लेखक को यह विश्वास हुआ कि उसके ग्राहक या संरक्षक, बिचौलिये, उसके लेखन को सभी तक पहुँचा रहे हैं। लेखक ने सोचा: मैंने बोल दिया है और जो सुनना चाहते हैं वे मुझे सुनेंगे। सच तो यह है कि उसने बोला है और जो भुगतान करने में सक्षम हैं वे उसे सुनते हैं। उसने जो कहा वह सब ने नहीं सुना, और जिसने उसे सुना वह सब कुछ सुनना नहीं चाहता था। इस विषय पर पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है, हालाँकि यह अभी भी बहुत कम है; यहाँ मैं केवल इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि ‘किसी के लिए लिखना’ महज ‘लेखन’ में बदल गया है। लेकिन सत्य को केवल लिखा नहीं जा सकता, आपको इसे किसी व्यक्ति के लिए लिखना होगा, ऐसे व्यक्ति के लिए जो इसका उपयोग करने में सक्षम हो। सत्य को पहचानने की प्रक्रिया में लेखक और पाठक साझेदार हैं। अच्छी बातें कहने के लिए सुनने की क्षमता अच्छी होनी चाहिए और अच्छी बातें सुननी चाहिए। सत्य को हिसाब-किताब से बोलना चाहिए और हिसाब-किताब से सुनना चाहिए। और हम लेखकों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम किसे सच बताते हैं और कौन उसे हमें बताता है।

हमें भयानक परिस्थितियों के बारे में सच्चाई उन्हें बतानी चाहिए जिनके लिए हालात सबसे खराब हैं, और हमें उनसे सच्चाई सीखनी चाहिए। हमें न केवल उन लोगों से बात करने की आवश्यकता है जिनके पास विशेष विश्वास है, बल्कि उन लोगों से भी बात करने की आवश्यकता है जो अपनी स्थिति के कारण इन विश्वासों को साझा करते हैं। और आपके श्रोता लगातार बदलते रहते हैं! यहां तक ​​कि जल्लादों से भी बात की जा सकती है, जब फांसी के लिए भुगतान आना बंद हो जाता है, या जब खतरा बहुत बढ़ जाता है। बवेरिया के किसान हर तरह की क्रांति के खिलाफ थे, लेकिन जब युद्ध बहुत लंबा चला और घर आए बेटों को उनके खेतों में जगह नहीं मिली, तो उन्हें क्रांति के लिए जीतना संभव हो गया।

लेखक के लिए सत्य का सही तान पकड़ना महत्वपूर्ण है। आमतौर पर आप एक बहुत ही कोमल, उदास स्वर सुनते हैं, ऐसे लोगों का स्वर जो एक मक्खी को भी चोट नहीं पहुँचा सकते। इसको सुनकर, अभागे और भी अभागे हो जाते हैं। जो लोग इस तरह की बातें करते हैं वे आपके दुश्मन नहीं हो सकते, लेकिन वे निश्चित रूप से सहयोगी नहीं हैं। सत्य जुझारू है; यह न केवल झूठ के खिलाफ है, बल्कि झूठ फैलाने वाले खास लोगों के खिलाफ भी है।

5 बहुतों के बीच सच्चाई फैलाने में चालाकी 

बहुत से लोग गर्व करते हैं कि उनके पास सच बोलने का साहस है, वे खुश हैं कि उन्हें इसे खोजने में सफलता मिली है, वे शायद इसे व्यावहारिक रूप देने में लगी मेहनत से थक गए हैं और बेसब्री से उन लोगों द्वारा उस सत्य को ग्रहण करने का इंतजार कर रहे हैं, जिनके हितों की वे रक्षा करते आए हैं, वे सत्य का प्रसार करते समय विशेष चालाकी का उपयोग करना आवश्यक नहीं समझते हैं। इस प्रकार उनके काम का पूरा प्रभाव अक्सर शून्य हो जाता है। हर युग में जब भी सत्य को दबाया और छिपाया गया, तो उसे फैलाने के लिए चालाकी का सहारा लेना पड़ा है। कन्फ्यूशियस ने पुराने देशभक्तिपूर्ण पंचांग को पूरा नया रूप दे दिया था। उसने बस कुछ शब्दों को ही बदला। जहां उस पंचांग में लिखा था  “हुन के शासक ने दार्शनिक वान को मरवा डाला क्योंकि उसने ऐसा और वैसा कहा था,” कन्फ्यूशियस ने “मरवा डालने” की जगह पर “हत्या” शब्द लिख दिया।  जहां पंचांग में  लिखा था अमुक अत्याचारी की हत्या हुई, वहाँ हत्या की जगह पर उसने प्राणदंड लिख दिया। इस तरह कन्फ्यूशियस ने इतिहास की एक नई व्याख्या का रास्ता खोल दिया।

हमारे समय में जो कोई भी जनता/लोक (Volk) के स्थान पर जनसंख्या और मिट्टी अथवा भूमि के स्थान पर भू-स्वामित्व कहता है, वह इस सरल कार्य द्वारा बहुत सारे झूठों से अपना समर्थन वापस ले लेता है। वह इन शब्दों से उनके सड़े हुए, रहस्यमय निहितार्थ को निष्कासित कर देता है। जनता/लोक (Volk) शब्द का तात्पर्य निश्चित एकता और विशेष सामान्य हितों से है; इसलिए इसका उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब हम बहुत से लोकसमूहों की बात कर रहे हों, क्योंकि केवल तभी समुदाय के हित की कल्पना की जा सकती है। किसी दिए गए क्षेत्र की आबादी के कई अलग-अलग और यहां तक कि विरोधी हित भी हो सकते हैं- और यह एक सच्चाई है जिसे दबाया जा रहा है। इसी प्रकार जो भी मिट्टी की बात करता है और जुताई से नाक और आंखों पर पड़ने वाले प्रभाव का सजीव वर्णन करता है, मिट्टी की गंध और रंग पर जोर देता है, वह शासकों के झूठ का समर्थन कर रहा है। मिट्टी की उर्वरता का सवाल नहीं है, न ही मिट्टी के लिए लोगों के प्यार का, न ही उनके उद्यम का; सबसे महत्वपूर्ण बात अनाज की कीमत और श्रम की कीमत है। जो लोग मिट्टी से मुनाफा निकालते हैं, वे वही लोग नहीं हैं जो इससे अनाज निकालते हैं, और सट्टा-बाजारों में मिट्टी के ढेलों की गंध नहीं आती। वहाँ तो किसी और चीज की बू है। इसके विपरीत, ‘भूस्वामित्व’ सही शब्द है; यह कम भ्रामक है।

जहां दमन मौजूद है, वहां ‘अनुशासन’ के बजाय ‘आज्ञाकारिता’ शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि शासकों के बिना भी अनुशासन संभव है और इसलिए वह आज्ञाकारिता से अधिक महान गुण है। ‘सम्मान’ शब्द से उत्तम ‘मानवीय गरिमा’ है; इसमें हमारी दृष्टि के दायरे से व्यक्ति इतनी आसानी से गायब नहीं होता। हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों के सम्मान की रक्षा के लिए चिल्लाते हुए किस तरह के बदमाश खुद को आगे बढ़ाते हैं। और कितनी उदारता से वे उन भूखे लोगों को सम्मान बांटते हैं जो उन्हें खिलाते हैं। कन्फ्यूशियस की चालाकी आज भी कारगर हो सकती है। 

कन्फ्यूशियस ने राष्ट्रीय घटनाओं के अनुचित आकलनों को उचित आकलनों से बदल दिया। थॉमस मूर ने अपने ‘यूटोपिया’ में एक ऐसे देश का वर्णन किया है जिसमें न्यायपूर्ण परिस्थितियाँ थीं। यह उस इंग्लैंड से बहुत अलग देश था जिसमें वह रहते थे, लेकिन जीवन की परिस्थितियों को छोड़कर, यह उस इंग्लैंड से बहुत मिलता जुलता था।

लेनिन  रूसी पूंजीपति वर्ग के सखालिन द्वीप के शोषण और उत्पीड़न का वर्णन करना चाहते थे, लेकिन उनके लिए जारवादी पुलिस से सावधान रहना आवश्यक था। उन्होंने रूस को जापान और सखालिन को कोरिया से बदल दिया। जापानी पूंजीपतियों के तरीकों ने सभी पाठकों को सखालिन में रूसी पूंजीपति वर्ग के तरीकों की याद दिला दी, लेकिन उनके पर्चे पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा, क्योंकि जापान और रूस दुश्मन थे। बहुत सी बातें जो जर्मनी में जर्मनी के बारे में नहीं कही जा सकतीं, ऑस्ट्रिया के बारे में कही जा सकती हैं।

ऐसे कई प्रकार की चालाकी हो सकती है जिनके द्वारा एक शंकालु राज्य को चकमा दिया जा सकता है।

वॉल्तैर ने ऑर्लियन्स की कन्या  के बारे में वीरतापूर्ण कविता लिखकर चमत्कारों पर चर्च के विश्वास को चुनौती दी। उन्होंने उस चमत्कार का वर्णन किया जो निस्संदेह घटित हुई होगी तभी तो जोन ऑफ आर्क पुरुषों की सेना, अभिजात वर्ग के दरबार और भिक्षुओं के समूह के मध्य भी कुंवारी बनी रही। अपनी शैली की भव्यता से, और कामुक कारनामों का वर्णन करके, जो शासकों के विलासितापूर्ण जीवन की विशेषता थी, वॉल्तैर ने उस धर्म का पर्दाफाश किया जिसने उनकी लंपट जीवन शैली को संभव बनाया। वॉलतेर ने अवैध तरीकों द्वारा उन तक अपने कृतियों को पहुंचाना भी संभव बनाया जिनके लिए उन्हें लिखा था। पाठकों में सत्तासीन भी थे जिन्होंने इन लेखन के प्रसार को प्रोत्साहित या सहन किया। इस प्रकार उन्होंने पुलिस को बेनकाब कर दिया, जो उनकी ओर से उनके सुखों का बचाव करते थे। और महान ल्यूक्रेटियस ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि उनके छंदों की सुंदरता एपिक्यूरियन नास्तिकता के प्रसार में सहायता करेगी।

यह बात सच ही है कि उच्च साहित्यिक स्तर संदेश को सुरक्षा प्रदान कर सकता है। हालांकि कई बार यह शक भी पैदा करता है। ऐसे में जानबूझकर इसे थोड़ा हल्का करना भी जरूरी हो सकता है। उदाहरण के लिए, जासूसी उपन्यासों की तिरस्कृत शैली में सामाजिक दुष्परिस्थितियों के विवरणों को गुप्त रूप से तस्करी कर लाया जाता है। इस तरह के विवरण एक जासूसी उपन्यास को पूरी तरह से सही ठहरा सकते हैं। महान शेक्सपियर  ने तो गैर-जरूरी कारणों से कोरिओलेनस  की माँ के भाषण को, जिसमें वो अपने शहर के खिलाफ अपने बेटे के कूच का विरोध करती है, नरम कर दिया। शेक्सपियर ने भाषण को जानबूझकर कमजोर बनाया – वो  चाहते थे कि कोरिओलेनस  अपने इरादे छोड़ दे परंतु अच्छे कारणों से अथवा भावावेश में नहीं, बल्कि आलस्य की पुरानी आदत से। 

शेक्सपियर में हमें  सीज़र के लाश के सामने ऐन्टोनी के भाषण के रूप में सत्य का चालाकी से प्रसार करने का एक मॉडेल मिलता है। ऐन्टोनी लगातार सीज़र के हत्यारे ब्रूटस को एक इज़्ज़तदार आदमी बताता है, परंतु साथ ही उसके कारनामे का विवरण देता है, और उस कारनामे का विवरण, उसे अंजाम देने वाले के बारे मे बखान से ज्यादा प्रभावशाली है। इस तरह भाषणकर्ता तथ्यों द्वारा अपने आपको परास्त होने देता है, वो उन तथ्यों को “अपने आप” से ज्यादा बलशाली बना देता है।

मिस्र का एक कवि, जो चार हजार साल पहले रहता था, ने इसी तरह की पद्धति का इस्तेमाल किया। वह तीव्र वर्ग संघर्षों का समय था। जिस वर्ग ने अब तक शासन किया था वह बहुत मुश्किल से अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी – आबादी का वह हिस्सा जिसने अब तक उसकी सेवा की थी – के खिलाफ अपना बचाव कर रहा था। कविता में एक बुद्धिमान व्यक्ति शासक के दरबार में आता है और आंतरिक शत्रु के खिलाफ संघर्ष करने का आह्वान करता है। वह निम्न वर्गों के विद्रोह से उत्पन्न अव्यवस्थाओं का एक लंबा और प्रभावशाली वर्णन प्रस्तुत करता है। यह विवरण इस प्रकार है:

स्थिति यह है: रईस शिकायतों से भरे हैं और गरीब आनंद विभोर हैं। 

हर शहर कहता है: आओ हम अपने बीच से ताक़तवरों को भगाएँ। 

स्थिति यह है: कार्यालयों को तोड़ा गया और दस्तावेजों को हटा दिया गया। गुलाम मालिक बनते जा रहे हैं।

स्थिति यह है: सम्मानित आदमी के बेटे को अब  पहचाना नहीं जाता। मालकिन का बच्चा  उसकी गुलाम का बेटा बन जाता है।

स्थिति यह है: नगरवासियों को चक्की पीसने को मजबूर कर दिया गया है। जिन्होंने कभी दिन नहीं देखा वे उजाले में चले गए हैं।

स्थिति यह है: बलिदान के आबनूस बक्से तोड़े जा रहे हैं; महंगे सेवान की लकड़ी को काटकर बिस्तर बनाया जाता है।

देख,महल एक घंटे में ढह गया है।

देख, देश के निर्धन धनी हो गए हैं।

देख, जिसके पास रोटी न थी, उसका अब खलिहान हो गया है; उसका अन्नभण्डार दूसरे की सम्पत्ति से भरा है।

देख, मनुष्य के लिये भोजन करना अच्छा है। 

देख, जिसके पास अनाज न था,अब उसके पास खलिहान हैं; जो अनाज की भीख पर जीते थे, वे अब इसे वितरित करते हैं।

देख, जिसके पास बैलों का एक जोड़ा न था, उसके पास अब झुंड हैं; जो हल खींचने के लिए  जानवर नहीं पा सका था, अब उसके पास मवेशियों के झुंड हैं।

देख, जो अपने लिये झोंपड़ी न बना सका, उसके पास अब चहरदीवारें हो गई हैं।

देख, मंत्री खलिहान में शरण लेते हैं, और जिसे मुश्किल से दीवारों के सिरहाने सोने की अनुमति दी गई थी, उसके पास अब बिस्तर है।

देख, जो अपने लिये नाव नहीं बना सकता था, उसके पास अब जहाज हैं; जब उनका मालिक जहाजों को खोजने आता है, तो वह पाता है कि वे अब उसके नहीं हैं।

देख, जिनके पास कपड़े थे, वे अब चिथड़ों में हैं, और जो अपने लिए कुछ नहीं बुनते थे, उनके पास अब उत्तम से उत्तम मलमल है। 

अमीर आदमी बिस्तर पर प्यासा तड़प रहा है, और जो कभी उससे भीख मांगता था, उसके पास अब तेज बीयर है।

देख, जिसे संगीत की कोई समझ नहीं थी, अब उसके पास वीणा है; वह जिसके लिए कोई नहीं गाता था अब संगीत की प्रशंसा करता है।

देख, जिसे गरीबी के कारण अविवाहित सोना पड़ता था, उसके पास अब स्त्रियां हैं; जो पानी में अपना चेहरा देखते थे, उनके पास अब आईना है।

देख, देश के सब से बड़े लोग बिना रोजगार के फिरते हैं। महान लोगों को कोई संदेश नहीं मिलता। वह जो कभी संदेशवाहक था, अब दूसरों को अपना संदेश ले जाने के लिए भेजता है…  

देख, पाँच लोग जिनको उनके स्वामी ने भेजा है। वे कहते हैं: अपने आप जाओ; हम पहुँच चुके हैं।

यह बिल्कुल साफ है कि यह ऐसे प्रकार की अव्यवस्था का वर्णन है जो अवश्य ही उत्पीड़ितों को बहुत ही वांछनीय प्रतीत होगा। और फिर भी कवि की मंशा को समझना मुश्किल है। वह स्पष्ट रूप से इन स्थितियों की निंदा करता है, हालांकि वह उनकी खराब निंदा करता है…

जोनाथन स्विफ्ट ने अपने एक पर्चे में सुझाव दिया कि देश को सम्पन्नता हासिल करने के लिए गरीबों के बच्चों को मसाले में डालकर मांस के रूप में बेच देना चाहिए। उन्होंने सटीक हिसाब किया जिससे साबित होता है कि आप बहुत बचत कर सकते हैं अगर उसके लिए आप किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हों । 

स्विफ्ट ने मासूमियत का नाटक किया। उन्होंने सोचने के एक ऐसे तरीके का बचाव किया, जिससे वे पुरजोर रूप में और पूरी तरह से घृणा करते थे, उन्होंने विषय के रूप में एक ऐसे प्रश्न को लिया, जो स्पष्ट रूप से ऐसे सोचने के तरीके की क्रूरता को उजागर करता है। कोई भी स्विफ्ट से अधिक चतुर हो सकता था, या किसी भी दर पर अधिक मानवीय हो सकता था – विशेष रूप से वे जो तब तक इस बात पर सोचने के लिए परेशान नहीं थे कि उनके विचारों के तार्किक निष्कर्ष क्या हो सकते थे।

विचार के लिए प्रचार, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है। इस तरह के प्रचार की बहुत जरूरत है। शोषण को बढ़ावा देने वाली शासन व्यवस्थाओं के तहत विचार को क्षुद्र माना जाता है।

जो कुछ भी उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है उसे क्षुद्र ही माना जाता है। पेट भरने की लगातार चिंता को क्षुद्र समझा जाता है; क्षुद्र है किसी देश के रक्षकों को दिए जाने वाले सम्मान को अस्वीकार करना जिसमें वे रक्षक भूखे रहते हैं; क्षुद्र है नेता पर संदेह करना जब उसका नेतृत्व आपदा की ओर ले जाता हो; क्षुद्र है उस काम के प्रति अनिच्छुक होना जो मजदूर को पोषण नहीं देता; क्षुद्र है बेतुकी हरकतें करने की मजबूरी के खिलाफ विद्रोह करना; क्षुद्र है ऐसे परिवार के प्रति उदासीन होना जिसे अब किसी भी तरह की चिंता से मदद नहीं मिल सकती। भूखों को लालची कह धिक्कारा जाता है, जिनको बचाने के लिए कुछ भी नही हैं उन्हें कायर कहा जाता है, जो लोग अपने उत्पीड़कों पर संदेह करते हैं उन पर अपनी ताकत पर संदेह करने का आरोप लगाया जाता है; जो लोग अपने श्रम के लिए भुगतान की मांग करते हैं उन्हें आलसी कहा जाता है। ऐसी सरकारों के तहत सामान्य रूप से सोच को नीचा समझा जाता है और उसकी बदनामी होती है। सोचना अब कहीं सिखाया नहीं जाता, और जहां कहीं उभर आता है, उसे सताया जाता है।

फिर भी, कुछ क्षेत्र हमेशा मौजूद होते हैं जिनमें सजा के डर के बिना विचार के सफल होने को देखा जा सकता है। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें तानाशाही को विचार की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, सैन्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विचार की सफलता का उल्लेख करना संभव है। अधिक कुशल संगठन द्वारा और ऊन के विकल्प के आविष्कार से ऊन की आपूर्ति को बढ़ाने जैसे मामलों में भी सोच की आवश्यकता होती है। खाद्य पदार्थों में मिलावट, युवकों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करना — ऐसी सभी बातों के संदर्भ में भी सोच आवश्यक है; और ऐसे मामलों में सोचने की प्रक्रिया का वर्णन भी किया जा सकता है। युद्ध की स्तुति यानी इस तरह के विचार के अनसोचे उद्देश्य से चालाकी से बचा जा सकता है; इस प्रकार युद्ध को सबसे अच्छे तरीके से कैसे छेड़ा जाए के प्रश्न से जो विचार निकलता है वह युद्ध के औचित्य पर प्रश्न उठा सकता है और फिर इस सवाल को भी उठाने में योगदान कर सकता है कि एक संवेदनहीन युद्ध को कैसे टाला जाए। 

बेशक, इन सवालों को सार्वजनिक रूप से उठाना मुश्किल है। तो क्या उस सोच का फायदा उठाना संभव नहीं है जिसे हमने प्रेरित किया है, यानी क्या हस्तक्षेप के उद्देश्य से इस सोच को आकार नहीं दिया जा सकता? अवश्य संभव है। 

हमारे समय में, आबादी के एक (बड़े) हिस्से का दूसरे (छोटे) हिस्से द्वारा दमन जारी रखने के लिए, जनता का एक निश्चित रवैया आवश्यक होता है, और यह रवैया सभी क्षेत्रों में व्याप्त होना जरूरी है। जीव विज्ञान के क्षेत्र में खोज, जैसे डार्विन की खोज, अचानक शोषण के लिए खतरा बन गया। फिर भी, कुछ समय के लिए यह केवल चर्च की ही चिंता थी, चूंकि पुलिस को अब तक कोई भनक नहीं थी। हाल के वर्षों में भौतिकविदों के शोधों ने तर्क के क्षेत्र में जो असर पैदा किया है उससे उत्पीड़न को बनाए रखने वाले कई सिद्धांतों को खतरा हो सकता है। तर्क के क्षेत्र में जटिल खोजबीन करने वाले प्रशिया राज्य के दार्शनिक हीगेल ने सर्वहारा क्रांति के श्रेष्ठ प्रतिपादकों, मार्क्स और लेनिन को बहुमूल्य विचार-पद्धतियों से लैश किया । विभिन्न विज्ञान के क्षेत्रों के विकास आपस में जुड़े हुए हैं, लेकिन समकालिक नहीं हैं, और राज्य कभी भी हर चीज पर अपनी नजर नहीं रख पाता। सत्य का अग्रिम रक्षक अपने लिए रणक्षेत्र का चयन कर सकता है जो अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष हैं। सोच के सही तरीके सीखने पर सबकुछ निर्भर है, वह सोच जो सभी चीजों और सभी प्रक्रियाओं पर प्रश्न खड़ा करता है और उनकी क्षणभंगुर और परिवर्तनशील प्रकृति की जांच करने की इच्छा रखता है।

महत्वपूर्ण परिवर्तनों से शासकों को बहुत घृणा होती है। वे चाहते हैं कि सब कुछ वैसा ही बना रहे —  यदि संभव हो तो एक हजार सालों तक। सबसे अच्छा होता यदि चाँद स्थिर रहता और सूरज अपने मार्ग पर कहीं रुक जाता! फिर कोई भूखा नहीं रहता, कोई इन शासकों का भोजन नहीं खाना चाहता। जब वे गोली चला चुके होते हैं, तो वे नहीं चाहते कि दुश्मन गोली चला सके; आखिरी निशाना उनका ही होना चाहिए। सोचने का तरीका जो अनित्य पर बल देता हो, उत्पीड़ितों को प्रोत्साहित करने का बेहतर साधन है।

इसके अलावे, यह तथ्य कि सभी चीजों में और सभी स्थितियों में विरोधात्मकता का आभास होता है और वह पनपता है, विजेताओं के खिलाफ निस्संदेह इस्तेमाल होना चाहिए। इस तरह का दृष्टिकोण (द्वंद्ववाद का, उस सिद्धांत का कि सबकुछ प्रवाहमान है) को उन विषयों की जांच में शामिल किया जा सकता है जो कुछ समय के लिए शासकों के ध्यान से बचे होते हैं। इसे जीव विज्ञान या रसायन विज्ञान में लागू किया जा सकता है। लेकिन बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किए बिना परिवार की नियति का वर्णन करने में भी इसे व्यवहार में लाया जा सकता है। लगातार बदलते रहने वाले कई कारकों पर हर चीज की निर्भरता तानाशाहों के लिए खतरनाक विचार है, और पुलिस को अपनी उंगली डालने का अवसर दिए बिना यह विचार कई रूपों में प्रकट हो सकता है। किसी व्यक्ति द्वारा किसी तंबाकू विक्रेता की दुकान खोलने में शामिल सभी परिस्थितियों और प्रक्रियाओं का पूरा ब्यौरा तानाशाही के लिए एक भारी झटका हो सकता है। जो कोई भी इस पर थोड़ा भी विचार करेगा वह जल्द ही देखेगा कि ऐसा क्यों है। जनता को दुर्गति की ओर ले जाने वाली सरकारों को दुर्गति के दौरान सरकार के बारे में सोचे जाने से बचना चाहिए। ऐसी सरकारें नियति के बारे में बहुत बातें करती हैं। यह नियति है, वे नहीं, जो आपदाओं के लिए दोषी हैं। जो कोई भी आपदा के कारणों की जांच करता है, उसे सरकार के दोष के बारे में सोचने से बहुत पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। लेकिन नियति के बारे में इस सारी बकवास का सामान्य तौर पर विरोध करना संभव है; यह दिखाया जा सकता है कि मनुष्य का भाग्य मनुष्यों का ही कार्य है।

यह बात और भी तरीकों से की जा सकती है। उदाहरण के लिए, किसी खेत की कहानी बताई जा सकती है – जैसे आइसलैंड के किसी खेत की कहानी। पूरा गांव इस खेत को अभिशप्त मानता है। किसी किसान की पत्नी  ने कुएं में छलांग लगा दी; किसी किसान ने फांसी लगा ली। एक दिन किसान के बेटे और एक लड़की की शादी होती है और दहेज में कुछ खेत मिलते हैं। लगता है अभिशाप हट गया। घटनाओं के इस सुखद क्रम को लेकर गाँव एकमत नहीं है। कुछ इसका श्रेय किसान के युवा बेटे के सुहाने स्वभाव को देते हैं, बाकी नए खेतों को श्रेय देते हैं जो युवा पत्नी अपने साथ लाई थी और जिससे खेती व्यवहार्य बन गई।

लेकिन प्राकृतिक छटा का चित्रण करने वाली कविता में भी कुछ हासिल किया जा सकता है, यानी जब मनुष्य द्वारा बनाई गई चीजों को प्रकृति में शामिल कर लिया जाए ।

सत्य के प्रसार के लिए चालाकी जरूरी है।

सारांश

हमारे समय का महान सत्य (जिसे केवल पहचान लेना ही पर्याप्त नहीं है, लेकिन यदि इसे न पहचाना जाए तो कोई अन्य महत्वपूर्ण सत्य नहीं खोजा जा सकता) वह सत्य यह है कि हमारा महाद्वीप बर्बरता में डूब रहा है क्योंकि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व हिंसा द्वारा बनाए रखा जा रहा है। ऐसे साहसपूर्ण लेखन का क्या फायदा जो साबित करता है कि हम ऐसी स्थिति में डूब रहे हैं जो बर्बरता की है (जो सच है) परंतु यह नहीं स्पष्ट करता कि हम उस स्थिति में क्यों डूब रहे हैं? हमें कहना होगा कि यातनाएं इसलिए दी जा रहीं हैं क्योंकि स्वामित्व को बचाना है। बेशक, यदि हम ऐसा कहते हैं तो हम कई दोस्तों को खो देंगे जो यातनाओं के खिलाफ हैं क्योंकि उनका मानना है कि यातनाओं के बिना स्वामित्व को बनाए रखा जा सकता है (जो असत्य है)।

हमें अपने देश की बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई बतानी चाहिए ताकि वे उपाय किए जाएं जो उन्हें समाप्त कर दे यानी जो संपत्ति के संबंधों को बदल दे।

इसके अलावा, हमें यह सच्चाई उन लोगों को बतानी चाहिए जो मौजूदा संपत्ति संबंधों से सबसे अधिक पीड़ित हैं और जो इन्हें बदलने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं, यानी श्रमिकों को और जिन्हें हम उनके सहयोगी बनने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, क्योंकि वे भी उत्पादन के साधनों के मालिक नहीं हैं, भले ही वे मुनाफे में हिस्सेदारी करते हों।

और पाँचवा, हमें चालाकी का इस्तेमाल करना होगा।

और इन सभी पांच कठिनाइयों का हल हमें एक ही साथ निकालना होगा, क्योंकि हम बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई की खोज उनसे पीड़ित लोगों के बारे में सोचे बगैर नहीं कर सकते; और कायरता के हर निशान को लगातार झाड़ते हुए, हमें सही परिस्थितियों का जायजा लेना होगा उन लोगों को ध्यान में रखते हुए जो इस ज्ञान का इस्तेमाल करने में सक्षम हैं; हमे यह भी सोचना होगा इस ज्ञान को किस तरीके से दें ताकि उनके हाथ में यह हथियार की तरह हो और साथ ही साथ इतनी चालाकी से दें कि दुश्मन को पता न चले और वह रोक न सके। 

एक लेखक से यही अपेक्षा की जाती है, जब उसे सच लिखने के लिए कहा जाता है।

(जर्मन मूल और विभिन्न अंग्रेजी अनुवादों की मदद से अनूदित)

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