असली सनातन धर्म क्या है?


ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28।
अर्थ
मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।
मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥

असली सनातन धर्म क्या है?

जो सनातन है वह कर्म, स्थान और काल से बंधा नहीं हो सकता। जीवन चक्र से निकलने का साधन है वह — सनातन धर्म को जो इन्द्रीयता और कर्मकांड में बांधते हैं वह नहीं जानते कि वे सारे शास्त्रों का उल्लंघन कर रहे हैं। सनातन तो नेति नेति की उद्घोषणा में ही पाया जा सकता है। नाम और जड़-संज्ञा में सनातन अपने आप को व्यक्त जरूर करता है परंतु वह उन संसारियों पर हंसता है जो उसकी स्थानकालिक अभिव्यक्तियों के मोह में फंस उनपर कब्जे के लिए लड़ते रहते हैं। धम्मपद ने असली सनातन धर्म की ओर इस प्रकार इंगित किया है।

अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे ।
ये च तं उपनय्हन्ति वेरं तेसं न सम्मति ॥3॥

‘मुझे गाली दी’, ‘मुझे मारा’, ‘मुझे हराया’, ‘मुझे लुट लिया’, जो ऎसी बातें सोचते रहते हैं, मन में बांधे रहते हैं, उनका वैर कभी शान्त नही होता ।

अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे ।
ये तं नुपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति ॥4॥

‘मुझे गाली दी’, ‘मुझे मारा’, ‘मुझे हराया’, ‘मुझे लुट लिया’, जो ऎसी बातें मन में नही सोचते , उनका वैर शान्त हो जाता है।

न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ॥5॥

वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अवैर से ही वैर शान्त होता है, यही संसार का सनातन धर्म है ।

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श्रीलंका का संकट और “जनता अरगलय”  


“हम नहीं जानते और न ही जान सकते हैं कि संसारव्यापी आर्थिक और राजनीतिक संकट के परिणामस्वरूप सभी देशों में उड़ने वाली असंख्य चिंगारियों में से कौन सी चिंगारी आग को भड़काएगी, यानी जनता को उठा खड़ा कर देगी।” — लेनिन (1920)

I

श्रीलंका की हाल की घटनाएँ आशा और निराशा दोनों ही पैदा करती हैं — अगर एक तरफ पिछले कई महीनों से दिखती जन-क्रियाओं की दृढ़ता, निरंतरता और  बहुआयामिता को देख कर आशा पैदा होती है, तो दूसरी तरफ इन घटनाओं के तात्कालिक नतीजे निराश करते हैं। यह बात सही है कि जिस फुर्ती से आंदोलन के नतीजतन राजसत्ता के चिह्नित मोहरे अप्रैल से जुलाई के अंतराल में एक एक कर लुढ़क रहे थे — मंत्रियों की कैबिनेट,  केन्द्रीय बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री, और अंत में राष्ट्रपति गोताबया का देश से भागना और बाहर से इस्तीफा देना — उतनी ही तेजी से नए मोहरे जुलाई के मध्य से सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ते गए। श्रीलंका में जहाँ तमाम राजनीतिक आभिजात्य संकर नस्ल के हैं — यानी उनके बीच आंतरिक और आपसी प्रजनन (केवल वैचारिक नहीं) की एक मजबूत परंपरा रही है, वहाँ महान इतालवी लेखक ज्यूसेप्पे तोमासी दी लांपेदूजा के उपन्यास “इल गात्तोपार्दो” (तेंदुआ) का व्यवस्थापरक कूटनीतिक निचोड़ — Cambiare tutto perché niente cambi (सब कुछ बदलो ताकि कुछ न बदले) पूरी तरह से लागू होता है। और कई दशकों से यही होता रहा है। 

परंतु इस बार कुछ तो अलग हुआ  —  श्रीलंका में वैश्विक सत्ताओं को भी श्रीलंका के इस आभिजात्य वर्ग की क्षमता पर शक होने लगा। यही वजह थी कि अमरीकी राजदूत जुली चुँग भूतपूर्व-“क्रांतिकारी आतंकवादी” जनता विमुक्ति पेरामुन (जेवीपी) के नेतृत्व को भी एक विकल्प के रूप में पेश करने लगीं। इन पिटे हुए नेताओं से मिलकर चुँग ने कहा कि “मुझे पता है कि अतीत में बहुत सारी बयानबाजी हुई थी”, परंतु आज “मेरे लिए जेवीपी एक महत्वपूर्ण पार्टी है। उसकी मौजूदगी बढ़ रही है। आज की जनता पर उसकी पकड़ मजबूत है।” सचमुच सब कुछ बदलना पड़ता है ताकि कुछ न बदले। परंतु विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति पद पर काबिज होने और भूतपूर्व त्रात्स्कीपंथी दिनेश गुणवर्देन के प्रधानमंत्री पद को संभालने से जेवीपी की बढ़ती महत्वाकांक्षा को एक हास्यास्पद अंत मिला, और फिलहाल सब कुछ बदलने की जरूरत नहीं पड़ी।

जो श्रीलंका की घटनाओं में निश्चित यथेष्ट “क्रांतिकारी” बदलाव देखना चाहते थे उनको अवश्य ही यह नतीजा उदासीन करता है। मगर तात्कालिक  राजनीतिक बदलावों से आंदोलन की महत्ता तय नहीं होती। ऐसे बदलावों में क्रांति को ढूँढ़ने वाले यह  भूलते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति ने पूंजीवाद को पैदा नहीं किया, पूंजीवाद ने फ्रांसीसी क्रांति को जन्म दिया; या फिर, रूसी क्रांति बोलशेविकों के दिमाग की उपज नहीं थी, सोवियतों और अन्य सामाजिक सरोकारों में होते बदलावों ने रूसी क्रांति को जन्म दिया। नतीजों के आधार पर अगर जन उभारों और क्रांतियों के औचित्य को तय करेंगे तो निराशा हाथ लगनी ही है। यदि हम इन आंदोलनों को  जन-क्रिया के संघटन और अवस्थाओं के रूप में न देखकर कर्मफलहेतु समझते रहेंगे हमें ये आंदोलन विफल क्या निरर्थक भी लगेंगे — और तब तो बीसवीं सदी की महान क्रांतियों और प्रतिक्रांतियों के सौ साल को हम एक जगह पर घूमने वाले चक्र की तरह देखेंगे और हम नहीं समझ पाएंगे कि किस प्रकार सर्वहारा जन की क्रियाओं और उनके सामूहिक आत्मनिर्णय ने पूंजीवाद के तमाम अवतारों को संकटग्रस्त रखा, उनको भी जो सर्वहारा क्रांतियों में जनित सत्ता के अलगाव के मूर्तरूप थे और जिन्हें समाजवाद का नाम दिया गया था। 

श्रीलंका को लेकर तमाम व्याख्याओं में जन-संघर्ष (जनता अरगलय) को जीवन-स्तरों में गिरावट को लेकर श्रमिक वर्ग (खास तौर पर उसके मध्य-वित्तीय तबके — इन्हें ही मध्यम वर्ग आजकल कहते हैं) की प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया है। इनकी दृष्टि में जनता क्रियाशील नहीं प्रतिक्रियाशील है। वर्चस्वकारी शक्तियों के बौद्धिक सिपाही इसमें कुछ विपक्षीय दलों और राष्ट्रविरोधी तत्वों का षड्यंत्र देखते हैं तो प्रगतिशील लोग आशातीत होते हैं परंतु वांछित नतीजा न देखकर आंदोलन के अंदर राजनीति और राजनीतिज्ञों की कमी का रोना रोते हैं। श्रीलंका के संदर्भ में तो कुछ लोग इसे चीन के खिलाफ अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी खेमे की चालबाज़ी देखते हैं। इन सभी व्याख्याकारों के लिए जन-क्रिया की कोई स्वायत्तता नहीं है — व्यवस्था के व्याकरण में जनता औसत व्यक्तियों अथवा नागरिकों की भीड़ है जो केवल अपनी प्रतिक्रिया दे सकती है, कोई पहल नहीं कर सकती।  

II

पूंजीवादी संकटों को महज आर्थिक प्रबंधन की कमजोरियों और गलत नीतियों के नतीजे के तौर पर देखना तो अवश्य ही गलत है, परंतु इन संकटों की वस्तुनिष्ठता को सामाजिक व्यवहार और संघर्षों के दायरे से परे समझना शायद उससे भी बड़ी गलती है। कम से कम मार्क्सवादियों का यह वैचारिक-कार्यक्रमात्मक दायित्व है कि वे जन-संघर्षों में इस तरह की द्वैतवादी अपरिष्कृतता की आलोचना करें ताकि ये संघर्ष व्यवस्था-बद्ध वर्चस्वकारी माँगवादी राजनीति के आगे अग्रसर हो अपने ही अंदर मौजूद सामूहिक तत्वों के आधार पर नए समाज के प्रारूप पेश कर सकें। 

राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना पूंजीवाद की संरचना, राजनीतिक अर्थशास्त्रीय अवधारणाओं और उपस्थित बाह्यरूपों के तह में सामाजिक संबंधों के प्रक्रियात्मक सत्य और उनके आंतरिक अंतर्विरोधों को उजागर करती है। उसके अनुसार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संकटों को वर्गीय संबंधों — पूंजी और श्रम के अंतर्द्वंद्व — द्वारा समझने की जरूरत है। ऐसा न करने से हम मेहनतकश जनता को महज आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के भुक्तभोगी की तरह देखते रहेंगे और उनके नायकत्व के चरित्र से अनभिज्ञ हम भी उसके अलगाव के जरिया बन अधिनायकों और राजसत्ता के पूजक बने रहेंगे। यह बात सही है कि मानव-जन अपना इतिहास मनचाहे ढंग से नहीं बनाते और वे उसे अपनी मनचाही परिस्थितियों में भी नहीं बनाते, पर तब भी वे उसे स्वयं बनाते हैं।

श्रीलंका के जनता अरगलय का तात्कालिक संदर्भ एक प्रकार का आर्थिक संकट है जिसके कारण को बहुत आसानी से स्थानीय अव्यवस्थाओं पर मढ़ा जा सकता है। वैसे भी संकटों के सारे स्वरूपों को अर्थशास्त्री आमतौर पर तकनीकी चरों और अचरों के असंतुलन  के रूप में पेश करते हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार चूंकि ये संतुलन पूंजीवादी प्रक्रियाओं में स्वभावतः मौजूद होता है, असंतुलन बाह्य कारकों के हस्तक्षेप का नतीजा है। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार राजकीय व्यवस्था का मुख्य काम अपने और अन्य “बाह्य” कारकों के हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है। अन्य अर्थशास्त्रियों के लिए पूंजीवादी प्रक्रियाएँ अपने आप में असंतुलित हैं इसलिए राज्य व्यवस्था का हस्तक्षेप जरूरी है। मामला दोनों के लिए प्रबंधन का है। दोनों ही पूंजीवादी प्रक्रियाओं को स्वतःस्फूर्त मानते हैं — बस अंतर उनके नैसर्गिक संतुलनता के सवाल पर है। 

दोनों पक्षों के लिए सरकार और राजनीतिक शक्तियों की स्वायत्त सत्ता है जो मन चाहे ढंग से आर्थिक प्रबंधन कर सकती है। ये दृष्टिकोण पूंजी, आर्थिक प्रक्रियायों और यहाँ तक कि बाजार की भी जिंसीकृत समझ रखते हैं — इनको सामाजिक संबंधों के रूप में नहीं देखते। इसी कारण से वे समझ नहीं पाते कि किस प्रकार राजसत्ता, सरकार, राजनीति और आर्थिक-वैधानिक नीतियाँ इन संबंधों के गतिकी में जड़ित हैं — उनकी सापेक्ष स्वायत्तता की प्रतीति इस गतिकी के अन्तर्विरोधात्मक चरित्र का नतीजा है। इस अन्तर्विरोधात्मकता के जड़ में पूंजी-श्रम संबंध का द्वंद्ववाद है। यही अंतर्विरोध समयासमय संकट को जन्म देता है जो विभिन्न रूप ले सकता है, परंतु इतना तो साफ है कि पूंजी अथवा उसके तंत्र पूंजीवाद का संकट अंततः पूंजी-श्रम के संबंध का संकट है।

मार्क्सवाद ने पूंजीवादी संकट के विभिन्न अभिव्यक्तियों को पूंजीवादी संचय के गूढ़तम प्रक्रियाओं से जोड़ कर विभिन्न संकट सिद्धांतों की पेशकश की है। ज्यादातर मार्क्सवादी “अर्थशास्त्री” (पेशेवर और शौकिया दोनों) भी इन सिद्धांतों को महज पूंजी और पूँजीपतियों के विकास के सिद्धांत के रूप में देखते हैं जिसका वर्ग-संघर्ष से सीधा कोई वास्ता नहीं है। यदि उसमें प्रतिस्पर्धा की बात आती भी है तो उसे पूंजी की विभिन्न इकाइयों के बीच रिश्ते का पर्याय समझा जाता है। सामान्य तौर पर संकट को उत्पादन और संचरण की एकता में विच्छेद के रूप में देखा जाता है — बहस महज उत्पादन या संचरण के केन्द्रीयता को लेकर होती है। इस विच्छेद में निस्संदेह तथाकथित “उत्पादन शक्तियों” की निर्णायक भूमिका समझी जाती है, परंतु इन शक्तियों की गणना में जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, यानी मानवीय श्रम, उसे ही निष्कासित कर इन्हें टेक्नोलॉजी का पर्याय मान लिया जाता है। इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना की विशिष्टता गायब हो जाती है और उसकी अवधारणाएं जड़ता का शिकार हो जाती हैं। निष्कर्षतः मार्क्सवादियों के बीच भी पूंजीवादी संकट के तमाम सिद्धांत निवेश चरित्र और यांत्रिक ब्रेकडाउन के सिद्धांत बन जाते हैं। (बेल 1977; बेल और क्लीवर 1982) इस प्रकार पूंजीवादी संकट के मार्क्सवादी सिद्धांतों के अन्तर्सम्बन्ध और अखंडता  का संप्रत्ययात्मक (conceptual) आधार ओझल हो जाता है और ये सिद्धांत अलग-अलग, यहाँ तक कि विरोधास्पद प्रतीत होते हैं। इन सब के केंद्र में श्रम और वर्ग संघर्ष के सवाल जो इन तमाम सिद्धान्तों को बांधते थे, उनके ओझल हो जाने से पूंजीवादी संकट की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ विकेन्द्रित होकर अपनी-अपनी कहानियाँ गढ़ती हैं। 

इस तरह जो कारण है वह महज कार्य में तब्दील हो जाता है, वह कुंठित प्रतिक्रियात्मकता का द्योतक हो जाता है, और कई टुकड़ों में संगठित हो राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का मोहरा बन कर रह जाता है। अर्थशास्त्रीय मार्क्सवादियों से तो यही उम्मीद की जाती है परंतु राजनीतिक मार्क्सवादी भी पूंजी की जिंसीकृत ही नहीं व्यक्तिकृत समझ रखते हैं और उसे सामाजिक संबंध और निर्वैयक्तिक सत्ता के रूप में नहीं देख पाते। तथाकथित मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों के अनुसार पूंजी कोई वस्तु है जिस पर पूँजीपतियों का आधिपत्य है और अगर मजदूर उस पर कब्जा कर लें तो सब ठीक हो जाएगा।

जबकि मार्क्स के लिए पूंजी वह सामाजिक संबंध है जिसके तहत पूंजीपति पूंजीपति होते हैं, और मजदूर मजदूर होते हैं। पूंजीवादी संकट के विभिन्न स्वरूप इस संबंध के आंतरिक संकट की अभिव्यक्तियाँ हैं। वर्ग-संघर्ष केवल फैक्ट्री या फैक्ट्रियों के अंदर अथवा मजदूरों-पूंजीपतियों के बीच के सीधे टकराव से ही नहीं शुरू होता। वह तो आदिम संचय द्वारा श्रम को दोहरी आजादी मिलने से लेकर श्रम बाजार की धक्कम-धुक्की से होता हुआ वर्कशॉपों, फैक्ट्रियों, जमीनों, या कहें उत्पादन/श्रम संबंधों के तमाम स्वरूपों को समेटता हुआ, उपभोग की सीमाओं में घुस श्रम-शक्ति और बेशी आबादी के पुनरुत्पादन के सवाल से जूझता है। या कहें आज पूरा समाज ही सामाजिक फैक्ट्री के रूप में वर्ग संघर्ष का रणक्षेत्र है। इन तमाम सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में वर्ग-संघर्ष मौजूद है, पूंजी की समस्याएँ इन सारे क्षेत्रों में श्रम को नियंत्रित करने की हैं, और इसी में असफलताएँ संकट के विभिन्न स्वरूपों को पैदा करती हैं।

III

अंतर्राष्ट्रीय कर्ज के संकट को लेकर अर्थशास्त्रीय अटकलें कर्ज की तह में छुपे सामाजिक-राजनीतिक तत्वों को सामने नहीं आने देतीं। 1982 के मेक्सिको संकट से लेकर आज तक कई प्रकार के कर्ज संकट हमारे सामने आए हैं। ये कर्ज मुख्यतः सरकारी और बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा दिए जाते हैं, परंतु हाल के वर्षों में निजी संस्थानों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है। ये कर्ज साधारणतः आधारिक संरचना और बाजार के विकास के नाम पर  लिया जाता है, परंतु ये मासूम लगने वाले कारक सामाजिक-भौगोलिक दिक्काल का कायापलट कर स्थानीय सामाजिकता को पूरी तरह से झकझोर देते हैं। इनका काम उन सामाजिक संबंधों और क्रियाओं को इस प्रकार पुनर्संयोजित करना है ताकि नई स्थितियों के विकास में वे बाधक न हों और उनके अधीन रह वे उत्पादक बन सकें। मार्क्सवादी भाषा में यही आदिम संचय की प्रक्रिया है जो संसाधन को आबादी के नियंत्रण से और आबादी के श्रम को पुराने सामाजिक संबंधों से आजाद करती है, ताकि वे पूंजीवादी संचय और बाजार के विकास के आधार बन सकें। 

इसके अलावे कर्ज की वे शर्तें हैं जिन्हे संरचनात्मक अनुकूलन कार्यक्रम अथवा संरचनात्मक सुधार कहते हैं और जिनके तहत स्थानीय अर्थव्यवस्था, संस्थाओं और सामाजिक संबंधों को वैश्विक पूंजी संचय की जरूरतों के अनुकूल विकसित करने की कोशिश होती है। निजीकरण, श्रम बाजार का युक्तिकरण, मौद्रिकरण का विस्तार, मितव्ययिता इत्यादि ऐसे औजार हैं जो स्थानीय श्रमिकों की आबादी को लाचार बना उन्हें इन जरूरतों के अनुसार अनुशासित करने की कोशिश करते हैं। पूंजी के स्थानीय प्रशासक उधार ली गई धनराशि का उपयोग मुख्यतः एक तरफ अगर स्थानीय औद्योगिकीकरण के साथ-साथ इसकी सभी परिचर लागतों को वित्तपोषित करने के लिए करते हैं जिसमें ठोस निवेश के लिए बुनियादी ढांचे पर खर्च शामिल है, तो दूसरी तरफ स्थानीय संघर्षों के जवाब में, विशेष रूप से, मजदूर वर्ग पर सैन्य/पुलिसिया नियंत्रण स्थापित करने के लिए करते हैं। (क्लीवर 1989; बेल और क्लीवर 1982)

यदि हम अंतर्राष्ट्रीय कर्ज के अर्थशास्त्रीय दलीलों और उसके शर्तों के औपचारिक व्याकरण को बिना इन व्यावहारिक पक्षों को ध्यान में रख पढ़ेंगे तो पूंजीवाद द्वारा फैलाए वैचारिक मायाजाल में फँस हम वर्ग-संघर्ष के बहुरूपिए पक्ष से अनभिज्ञ ही रहेंगे। सर्वहारा के खिलाफ पूंजी के विशिष्ट हमले को हम सर्वहाराकरण के खिलाफ सर्वहारा होती आबादी के संघर्ष के विभिन्न स्तरों को समझे बिना कभी नहीं ग्रहण कर सकते। कर्ज का संकट इसी वर्ग संघर्ष का नतीजा है — जिसे पूंजी के हित में जीतने के लिए सरकारों को और कर्ज लेना पड़ता है। 

यह बहुस्तरीय वर्ग संघर्ष सामाजिकता के विभिन्न दायरे की विशिष्ट भाषा को लिए होते हैं, उन्हें एक स्वरूप में बांधना नामुमकिन ही नहीं प्रतिक्रियावादी भी है, क्योंकि वह मजदूर वर्ग की अपनी अभिव्यक्तियों का दमन है जो कि अंततः पूंजी को ही सुरक्षित करता है। कहीं पर यह संघर्ष अगर औद्योगिक संघर्षो के रूप में मिलते हैं तो कहीं राष्ट्रीयताओं और अस्मिताओं की भाषा में ये मौजूद रहते हैं। मार्क्स की “क्रांतिकारी सामान्यीकरण” की अवधारणा इन संघर्षो की स्व-अभिव्यक्तियों में पूंजी विरोधी क्रांतिकारी सूत्र को पहचानना है।

IV

श्रीलंका की कर्ज की जरूरत को और आज के उसके कर्ज संकट को उसके पीछे काम कर रही सामाजिक प्रक्रियाओं और संघर्षों को पहचाने बगैर समझा नहीं जा सकता। इस पुस्तिका में हमारे साथियों ने इस संदर्भ को समझने के लिए जरूरी तथ्यों को बखूबी पेश किया है। इसलिए मैं बस दो तथ्यों को यहाँ गिनूंगा। पहला कि श्रीलंका की राजसत्ता लातिन-अमरिका में पिनोचेत की दमनकारी सरकार के बाद दूसरी थी जिसने वाशिंगटन कंसेंसस के नवोदारवादी मुहिम को जगह दी। दूसरा, आज से पहले श्रीलंका सोलह बार आईएमएफ के आर्थिक स्थायीकरण कार्यक्रमों को कार्यान्वित कर चुका है। उसके बाद भी वैश्विक और स्थानीय पूंजीवादी सत्ताएँ श्रीलंकाई जनता और संसाधनों को अपने गिरफ्त में नहीं कर पाई हैं। गृह युद्ध में जीत और सिंहली राष्ट्रवाद के  सशक्तिकरण ने श्रीलंकाई राजसत्ता को जो वैधानिकता प्रदान की थी वह पूरी तरह से श्रीलंका की जनता ने मटियामेट कर दिया। वर्ग संघर्ष की भाषा वह कुंजी है जो हमें श्रीलंका में कर्ज की राजनीति, गृह युद्ध, अस्मिताओं/राष्ट्रीयताओं के खूनी संघर्ष और आज के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट को एक दूसरे से बांध के समझने में मदद करती है।

अंत में कुछ घरेलू बातें।

कुछेक संगठनों को छोड़कर हिंदुस्तानी वामपंथियों में श्रीलंका की घटनाओं को लेकर आम अलगाव बहुत ही निराशाजनक है, जबकि हिंदुस्तानी राजसत्ता और शासक वर्ग ने लगातार अपने हित को साधने में और विश्व-पूंजीवाद के क्षेत्रीय नायकत्व के नाते हस्तक्षेप करने में कोई कसर नही छोड़ा। हालांकि दक्षिण एशिया में नेपाल के लोकतंत्र आंदोलन के बाद श्रींलंका का जनता अरगलय पहला ऐसा जन उभार है  जिसने शासन-व्यवस्था और क्षेत्रीय संतुलन को संकट में डाल दिया, मगर दोनों आंदोलनों में अंतर काफी साफ है। जहां एक तरफ नेपाली आंदोलन का लक्ष्य, उसका राजनीतिक स्वरूप और नेतृत्व साफ दिखता था, तो दूसरी तरफ श्रीलंका के जनता अरगलय में न कोई निश्चित लक्ष्य है, न कोई निश्चित राजनीतिक स्वरूप है और ना ही कोई निश्चित नेतृत्व है।  निश्चित्तता प्रतिक्रियाओं के दायरे को भी निश्चित करती है — आंदोलन के विरोधियों और समर्थकों दोनों की प्रतिक्रियाओं को व्याकृत करती है। इसी कारण से भारत की विभिन्न राजनीतिक शक्तियाँ अपनी-अपनी राजनीति के अनुसार नेपाल की राजनीति के साथ जुड़ती रहीं है, उस पर टिप्पणी देती रहीं और असर भी डालती रही हैं। परंतु इस निश्चितता का आडम्बर उसके पीछे की अनिश्चित संभावनाओं की अपारता को नापने नहीं देता जबकि इसी अनिश्चितता में क्रांतिकारी परिवर्तन की गुंजाइश होती है। निश्चितता के दायरे में  राजनीति केवल निश्चित संभावनाओं का इंतज़ार है, उसमें आशा की कोई गुंजाइश नहीं होती — जो होना है उसकी आशा नहीं की जाती, उसका इंतजार होता है।

श्रीलंका को लेकर हिंदुस्तानी वामपंथ की उदासीनता और निष्क्रियता के पीछे एक कारण तो अवश्य ही प्रत्यक्ष रूप से श्रीलंका के आंदोलन में  “राजनीति की कमी” और अनिश्चितता थी। परंतु यह पर्याप्त या मुख्य कारण नहीं है। इसका सबसे प्रमुख कारण भारतीय वामपंथ का निम्न-पूंजीवादी राष्ट्रवादी विचलन है जो उसे भारतीय राजसत्ता और क्षेत्रीय पूंजीवादी प्रक्रियाओं में भारत की वर्चस्वकारी भूमिका की सटीक अंतर्राष्ट्रीयवादी आलोचना करने से रोकता है। जो धाराएँ आज भी भारत में “पूंजीवादी-जनवादी” कर्तव्यों को क्रांति द्वारा पूरा करने की बात करती हैं उनके लिए भारतीय पूंजीवाद और उसकी राजसत्ता का विश्व साम्राज्यवादी नेटवर्क के अंतर्गत एक वर्चस्वकारी शक्ति होने की बात कैसे स्वीकार होगी? वे छुटपुट धाराएँ भी जो भारत में समाजवादी क्रांति का सपना देखती हैं, वे भी पेड़ गिनने में लगी रहती हैं, जंगल की संश्लिष्ट समझ विकसित नहीं कर पातीं। (वे बहुत मायने में भारतीय राजनीतिक अर्थतंत्र की विश्लेषणात्मक स्तर पर सटीक और विस्तृत आलोचना पेश करती हैं, परंतु पूंजीवादी संरचना की संश्लिष्टता अथवा समग्रता को ग्रहण करने में चूक जाती हैं)। इसीलिए, भारतीय पूंजीवाद और राजसत्ता की (उप)साम्राज्यवादी रणनीतियाँ, पड़ोसी और अन्य देशों में भारत के दाँव-पेंच, जिनका निश्चित आर्थिक चरित्र है — ये सब इनके कूपमंडूक चिंतन प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं। और यही कूपमंडूकता हमें हमारे घर के दरवाजे पर हो रहे संघर्षो से सीख और प्रेरणा लेने से रोकती है।

पता नहीं लेनिन (1920) की निम्नलिखित बात का इस भूमिका में कही बातों से पाठकों को कोई सीधा रिश्ता दिखता है या नहीं, परंतु मेरी समझ में वामपंथी रूपवाद जिसको तोड़ने में हिन्दुस्तानी वामपंथियों को बहुत समय लग रहा है, और जो उन्हें नए संघर्षों को उन संघर्षों के अपने रूप में अपनाने से रोकता है, उसको यह उद्धरण चुनौती देता है:       

“सबसे अधिक प्रगतिशील वर्ग की अच्छी से अच्छी पार्टियाँ और अधिक से अधिक वर्ग -सजग हिरावल जिस बात की कल्पना कर सकते हैं, इतिहास आम तौर पर, और क्रांतियों का इतिहास खास तौर पर, उससे कहीं अधिक सामग्री-समृद्ध,अधिक विविध, अधिक अनेकरूपीय, अधिक सजीव और प्रतिभा-सम्पन्न होता है। यह बात समझ में आनी चाहिए, क्योंकि अच्छे से अच्छे हिरावल भी केवल हजारों आदमियों की वर्ग-चेतना, निश्चय, उत्साह और कल्पना को ही व्यक्त कर सकते है, जब कि क्रांतियाँ वर्गों के तीव्रतम संघर्ष से प्रेरित करोड़ों आदमियों की वर्ग-चेतना, निश्चय, उत्साह और कल्पना से ओतप्रोत सभी मानव क्षमताओं के विशेष उभार और उठान की घड़ी में होती हैं। इससे दो महत्वपूर्ण अमली नतीजे निकलते हैं: पहला, यह कि क्रांतिकारी वर्ग को अपना काम पूरा करने के लिए, बिना किसी अपवाद के सामाजिक गतिविधि के सभी रूपों में, सभी पहलुओं में पारंगत होना चाहिए (इस विषय में जो कुछ वह राजसत्ता पर अधिकार करने के पहले पूरा नहीं कर पाता, उसे सत्ता पर अधिकार करने के बाद — कभी-कभी बड़े जोखिम उठाते हुए और बड़े खतरों के साथ — पूरा करना पड़ता है); दूसरा, यह कि क्रांतिकारी वर्ग को बहुत ही जल्दी के साथ और बड़े अप्रत्याशित ढंग से एक रूप को छोड़कर दूसरा रूप अपनाने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए।”

और वैसे भी, बाबा वाक्यं प्रमाणम्!!!

संदर्भ सूची:

हैरी क्लीवर (1989), “Close the IMF, Abolish Debt and End Development: a Class Analysis of the International Debt Crisis,” Capital & Class (39), Winter 1989

पीटर बेल (1977), “Marxist Theory, Class Struggle and the Crisis of Capitalism” in Jesse Schwartz (ed.), The Subtle Anatomy of Capitalism. Santa Monica: Goodyear

पीटर बेल और हैरी क्लीवर (1982),” Marx’s Theory of Crisis as a Theory of Class Struggle,” Research in Political Economy (Vol. 5) 

व्लादिमीर लेनिन (1920),  वामपंथी कम्युनिज्म – एक बचकाना मर्ज

A book on The Sri Lankan Crisis: Analysis and Lessons (श्रीलंका का संकट — विश्लेषण और सबक)


कम्युनिज़्म का अव्याकरण (The Ungrammaticality of Communism)


इस लेख का विस्तृत पाठ जॉन होल्वे की किताब “क्रैक कैपिटलिज्म” के बंगला अनुवाद की भूमिका के लिए लिखा गया और प्रकाशित हुआ है। साथी मार्तंड प्रगल्भ के साथ लिखा वह लेख अनुगूँज के ब्लॉग पर उपलब्ध है ।

आज एक तरफ प्रगतिशील राज्यवादी धाराएँ फासीवाद से संघर्ष के नाम पर उदारवाद और कल्याणकारी संस्थाओं की पहरेदारी करने में लगी हैं, तो दूसरी तरफ व्यवस्था लगातार अपनी दरारों को छुपाने के लिए आपातकालिक उपायों पर निर्भर रह रही है। संकट को अवसर बनाने के फेर में बड़े संकट पैदा कर रही है। हम यह भी कह सकते हैं कि व्यवस्था अपने एक संकट का निवारण दूसरे संकट द्वारा ही कर पा रही है। 

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परंतु संकट आखिर क्या है? शायद इसको समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक पहलू उस मौलिक मार्क्सवादी शिक्षा पर जोर है जिसके अनुसार पूंजीवाद का आधार मानवीय गतिविधियों का सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम काल के साथ ताल-मेल होता है। सारे संकटों की जड़ हमारा बेताल होना है। तभी तो, संकट के कारण हम हैं, पूंजीपति नहीं। आर्थिक, राजनीतिक और अन्य प्रकार के प्रबंधनात्मक विकास इसी ताल-मेल को बनाए रखने के लिए होते हैं। परंतु बेताल हो जाने की और व्यवस्थाई असन्तुलन की समस्या पूंजीवाद पर हमेशा मंडराती रहती है। व्यवस्था के दीवारों की लगातार मरम्मत होने के बावजूद हमारे करने से ही छोटी बड़ी दरारें लगातार बनती और फैलती रहती हैं “जहां से मसीह प्रवेश कर सकता है” (वाल्टर बेंजामिन, ऑन द कॉन्सेप्ट ऑफ हिस्ट्री)।

पूंजीवादी सामाजिक संश्लेषण आज निरंतर खतरे में है। उसका व्याकरण आज गहरे संकट में है। इस व्याकरण के तहत क्रियाओं और कृत्यों की स्वच्छंदता और बहुआयामीता पर एक ही क्रिया, अस्ति (होना) का वर्चस्व स्थापित होता है। यही अस्तित्व अथवा सत्त्व संज्ञाओं और क्रियाओं के बीच पदक्रमात्मक सम्बन्ध पैदा करते हैं। केवल इसी रूप में पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन संभव है। परंतु ये विभिन्न प्र-क्रियाएँ संकट ले कर आती हैं। ये संज्ञाएँ तो बनाती हैं – पण्यों, द्रव्यों, इत्यादि सभी का तो राज यही हैं –  परंतु उनकी सत्ता को कभी स्थिर नहीं रहने देतीं। जैसे ही पण्यों को हम पण्यीकरण, द्रव्यों को द्रव्यीकरण समझते हैं तो हमे इन संज्ञाओं की अस्थिरता साफ दिखती है। जैसाकि अर्न्स्ट ब्लॉक ने कभी कहा था कि अस्तित्व की बंद, गतिहीन अवधारणा की तिलांजलि से ही उम्मीद का अस्ल आयाम खुलता है (अर्न्स्ट ब्लॉक, द प्रिंसिपल ऑफ होप, भाग 1)। मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिज़्म के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही कहा था। 

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“कम्युनिज़्म हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को कम्युनिज़्म का नाम देते हैं जो मौजूदा अवस्था को मिटाता है। इस आंदोलन की स्थितियां उन पूर्वाधारों से उत्पन्न होती हैं जो अभी विद्यमान हैं।” (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, द जर्मन आइडियोलॉजी)

बहुतों को कम्युनिज़्म की यह परिभाषा अधूरी लगती है, क्योंकि इसमें कम्युनिज़्म का विस्तृत रूपात्मक विवरण नहीं दिया गया है। पर हम समझते है कि इसमें सब कुछ है जिसके आधार पर ऐसे विवरण तैयार किए जा सकते हैं। परंतु विवरण तो परिभाषा नहीं है, वे केवल ऐतिहासिक स्वरूपों की कहानियां बता सकता है।

पहली बात तो यह है कि कम्युनिज़्म शब्द अपने आप में एक सूत्र है जो कि वर्गीय-विभाजित सामाजिकता के खिलाफ कम्यून अथवा वर्ग-विहीन सामूहिकता पर आधारित सामाजिकता की पेशकश करता है। पर वह कोई भविष्य में आने वाली अवस्था नहीं है, जिसे स्थापित होना अथवा करना है। वह आदर्श भी नहीं है जिसे कार्यक्रम-बद्ध कर यथार्थ को वहां तक पहुंचाना है। 

यानी कम्युनिज़्म को आना-लाना नहीं है, वह तो यहीं है। “मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में”। मौजूदा अवस्था को मिटाने के हमारे संघर्ष में, वास्तविक आंदोलन में वह मौजूद है। “खोजी होय तुरत मिलिहों, पल भर की ही तलास में।” वह तो “सब सांसों की स्वांस में” मौजूद है। (कबीरदास)

कम्युनिज़्म की स्थितियों क़े पूर्वाधार उसी अस्तित्व का हिस्सा हैं जिसका विद्यमान स्वरूप पूंजीवाद है। और शायद इसीलिए ऊपर उद्धृत कथन में कम्युनिज़्म को वास्तविक आंदोलन कहा गया है जो कि मौजूदा अवस्था को नकारता, “मिटाता” है। कम्युनिज़्म की विशिष्टता इसी में है कि “वह उत्पादन तथा संसर्ग के तमाम पूर्ववर्ती संबंधों के आधार को पलट देता है।” वह सामाजिक पूर्वाधारों को “ऐक्यबद्ध व्यक्तियों” की सत्ता के अधीन लाता है, पूंजीवादी समाज में व्यक्तिकृत व्यक्तियों की भ्रामक सामूहिकता के जगह पर वास्तविक एकता को उजागर करता है। कम्युनिज़्म मौजूद सामाजिक पूर्वाधारों को एकता के आधारों में बदल डालता है। (द जर्मन आइडियोलॉजी) वह व्यवस्थित अवस्थाओं की नकार है।

यही सतत नकार वर्ग संघर्ष की निरंतरता है। यह नकार सामाजिक संसर्ग के उन स्वरूपों के खिलाफ उत्पादक शक्तियों की बगावत है जो जीवंत मूर्त और उपयोगी श्रम को पूँजीकृत मृत श्रम के अधीनस्थ रखते हैं – जो क्रिया पर कृत की सत्ता स्थापित करते हैं। हम ज्यादा समय भूल जाते हैं कि मनुष्य और उसके पूर्ववर्ती श्रम के नतीजे ही तो उत्पादक शक्तियाँ हैं। नतीजों की स्वायत्तता, और मानवीय श्रम के अमूर्तिकरण के साथ उसका महज उन नतीजों के उपांग के रूप में सीमित हो जाना, यही पूंजीवादी सामाजिक स्वरूप की विशेषता है। और इस स्वरूप की आलोचना और नकार कम्युनिज़्म है। 

तमाम विवरणों की तरह कम्युनिज़्म का विवरण भी दिक्कालिक (स्पेसटाइम से सम्बंधित) होता है। दिक्काल के अनुसार कम्युनिज़्म अव्यक्त (अपने न होने में) रहता है अथवा व्यक्त होता है। उसी के अनुसार यह भी तय होता है कि क्या “कम्युनिज़्म मात्र स्थानीय घटना के रूप में ही जीवित रह पाता” है (परंतु “संसर्ग का प्रत्येक विस्तार स्थानीय कम्युनिज़्म को मिटा देगा”), या फिर वह “विश्व-ऐतिहासिक” पटल पर बदलती परिस्थितियों में क्रियान्वित होता है (द जर्मन आइडियोलॉजी)। इसी बदलती दिक्कालिकता के कारण कम्युनिज़्म को किसी एक प्रकार के विवरण में बांधना नामुमकिन है। जब वह कोई अवस्था है ही नहीं तो उसका स्थापित विवरण क्या होगा। 

नकार सतत क्रिया है। तभी तो मार्क्स ने कम्युनिज़्म को “कार्यवाही” और “क्रियाकलाप” के रूप में चिह्नित किया। कई मार्क्सवादी कम्युनिज़्म के इसी प्र-क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने के लिए कम्युनिजेशन शब्द का इस्तेमाल करते हैं। 

दूसरी तरफ, कम्युनिज़्म को अवस्था अथवा सामाजिक चरण मानने वाले उसको एक भिन्न सम्पूर्ण सामाजिक सत्त्व के रूप में समझते हैं जो पूंजीवाद के बाद स्थापित होगा। उनके लिए कम्युनिज़्म सामाजिक संसर्गों का भविष्यकालिक स्थापित नियोजन है। वह कितना ही कल्याणकारी क्यों न हो, उसे सामाजिक क्रियाशीलता और रचनात्मकता के मुक्त प्रवाह को नई सम्पूर्णता की पुनरुत्पादन-प्रक्रिया के वृत्तीय लूप में बांधना होगा। 

यही वजह है कि व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों में चरणवादी कम्युनिस्टों का वर्चस्व श्रमिकों के तमाम तबकों की स्वगतिविधियों पर आधारित मानवीय आत्ममुक्ति के मार्गों को उजागर नहीं होने देता और उन्हें राजकीय जड़वाद के घेरे में बांध कर (गरमपंथी) सुधारवाद की ओर मोड़ देता है। सामाजिक अलगाव, आर्थिक और राजनीतिक के पार्थक्य (the separation between the economic and the political) पर टिकी व्यवस्था को एक नया स्वरूप मिल जाता है। इस पार्थक्य से उत्पन्न राजसत्ता को नई वैधानिकता मिल जाती है। और कम्युनिज़्म भूमिगत ही रहता है। 

कम्युनिज़्म नाम नहीं है वह क्रिया है, सामाजिक एकता, सहयोग और सहकारिता की प्रक्रिया है, जबकि पूंजीवाद उस सहयोग के अलगाव, उत्पादीकरण और तकनीकीकरण पर आधारित है। इस व्यवस्था के तहत मानवीय क्रियाशीलता महज “पण्यों के विशाल संचय” का साधन हो जाती है। आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया में सामाजीकरण सतत बढ़ता जाता है परंतु उत्पादन सम्बन्ध और विनिमय प्रणाली इस सामाजिक क्रिया को कृत, पण्य, उसके स्वामित्व और उसके दाम, जो कि “किसी पण्य में मूर्त होनेवाले श्रम का द्रव्य-नाम होता है” (कार्ल मार्क्स पूंजी भाग 1), के प्रश्नों में ओझल कर देते हैं। सामाजीकरण और “मूर्तिकरण” (फेटिशाइज़ेशन) के इसी अन्तर्विरोध को वर्ग संघर्ष के रूप में एंगेल्स सूत्रबद्ध करते हैं, जब वह कहते हैं कि “सामाजीकृत उत्पादन तथा पूँजीवादी हस्तगतकरण-व्यवस्था की असंगति सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के विरोध के रूप में हुई।” (एंगेल्स, समाजवाद: काल्पनिक तथा वैज्ञानिक)

कम्युनिज़्म इस सामाजिक क्रियाशीलता के पूंजीवादी हस्तगतकरण से मुक्ति के लिए होती सतत दैनिक संघर्ष की क्रिया है। वह नामों, पण्यों और कृतों के जड़-बंधन से मुक्त होने की लड़ाई है। अगर कम्युनिज़्म सामूहिक सामाजिक प्र-क्रिया है और पूँजीवाद उस ऊर्जा का उत्पादिकरण कर उसे पण्य, द्रव्य, मूल्य और राज्य के स्वरूपों में बाँधता है, तो कम्युनिज़्म का विस्तार पूँजीवाद के अंदर, उसके विरुद्ध, और उसके आगे निकलने का संघर्ष है — उसकी नकार है। 

कम्युनिज़्म पूँजीवादी स्वरुपों की सैद्धांतिक-व्यवहारिक आलोचना द्वारा मानवीय क्रिया को उन स्वरूपों से मुक्त कर उनका सत्य उजागर करता है। उन स्वरूपों की जड़ता को तोड़कर उन प्रक्रियाओं को सामने लाता है जिनसे वे निर्मित होते हैं। ये प्रक्रियाएँ अपने आप में अंतर्विरोध-पूर्ण होती हैं। यह अंतर्विरोध श्रम और पूँजी के बीच, मूर्त श्रम और उसके अमूर्तिकरण के बीच, जीवंत और मृत श्रम के बीच होता है। ये आंतरिक संघर्ष तमाम पूंजीवादी सत्त्वों के भावात्मक अथवा प्रक्रियात्मक स्वरूपों को सामने लाता है। जो व्यवस्था में स्थापित कर्ता, संज्ञा अथवा नामरूप हैं, उनके गुणों का ज्ञान उनके नाम से नहीं होता, उनके कर्म से भी नहीं होता, बल्कि जिन प्रक्रियाओं के द्वारा वे स्थापित होते हैं उनसे होता है। 

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लगभग ढाई हजार साल पहले शाकटायन और यास्काचार्य जैसे नैरुक्तों ने वैयाकरणों के साथ भाषा के उद्भव को लेकर बहस में, विशेषकर क्रियापद और नामपद के सम्बंध के संदर्भ में, इसी बात को अपने ढंग से रखा था। वे कहते हैं कि भावप्रधानमाख्यातम् सत्त्वप्रधानानि नामानि। तद्यत्रोभे भावप्रधाने भवत: पूर्वापरिभूतं भावमाख्यातेनाचश्टे। अर्थात, आख्यात (क्रियापद) में कृत्य प्रधान होता है, जबकि नाम या संज्ञा में कृत। गतिमान अथवा चल रहे कार्य (becoming) को यहां भाव कहा गया है, और सत्त्व का अर्थ है पूरा किया हुआ कार्य (being)। आगे, जब दोनों साथ आते हैं तब भी भाव ही प्रधान रहता है, और चल रहे कार्य में पौर्वापर्यं यानी कार्य के क्रमिक चरणों का ज्ञान होता है।

यास्काचार्य आगे यहां तक बोल देते हैं कि नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च —  अर्थात, शाकटायन और अन्य नैरुक्तों के अनुसार सभी नाम आख्यात (क्रियापद) से पैदा हुए हैं। वैयाकरणों ने इस मत का पुरजोर विरोध किया क्योंकि वह व्याकरण में अराजकता पैदा करता है, शब्दों और वाक्यों में अनियमितताओं और अर्थ के सिलसिले में अनिश्चितताओं को जन्म देता है। परंतु नैरुक्तों का जवाब निस्संदेह क्रांतिकारी था: “तुम्हारी चाहत कि सभी नाम नियमानुसार निर्मित हों और सुगम हों कभी पूर्ण नहीं होगी; हो ही सकता है उस भाषा को बोलने वालों की नासमझी अथवा सहूलियत या फिर सनक के ही कारण भाषा भ्रष्ट हो जाए, तब भी वैयाकरणों और नैरुक्तों का काम है उन भ्रष्टताओं का हिसाब करना।” (वैजनाथ काशीनाथ राजवाडे, यास्काचार्यप्रणितं निरुक्तम्, प्रथमो भाग:)

और उम्मीद भी तो यहीं है!

प्रत्यूष चंद्र 

जनवरी 2021 

Capitalism, law and surplus population – in the context of the Mundka incident


Industrial accidents are a necessary condition of the capitalist economy, that is, their possibility is an integral part of capitalist life. Their occurrence can be avoided to some extent by legal-administrative reforms and vigilance. There are limits to these reforms, however. The Mundka incident, on the one hand, exemplifies corruption and non-compliance of the law (which attracts the most attention of the well-wishers), and on the other, it is primarily a manifestation of the organic brutality of capitalist industrial life. This brutality reflects the dispensability of individuated workers in an environment of continuous surplusing.

राजनीति में “व्यावहारिक-आलोचनात्मक” दृष्टिकोण की जरूरत


IMHO नागपुर के साथियों की इजाजत से पोस्ट कर रहे हैं उनके द्वारा IMHO शिकागो कंवेंशन 2022 के लिए तैयार की गई प्रस्तुति

 १. “दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से दुनिया की केवल व्याख्या ही की है, लेकिन सवाल दुनिया को बदलने का है।“

तथाकथित वामपंथियों के बीच फायरबाख पर मार्क्स के ग्यारहवें थीसिस का खूब प्रचलन रहा है। परंतु इस गूढ़ सैद्धांतिक थीसिस को उन्होंने पूर्णतः सिद्धांत-विरोधी मतलब देकर अपनी व्यावहारिक अवसरवादिता के समर्थन में कुतर्क करने का साधन बना दिया है, जबकि यह थीसिस मूलतः व्यावहारिक-आलोचनात्मक अथवा क्रांतिकारी क्रियाशीलता को सूत्र-बद्ध करता है। यह थीसिस सिद्धांत और व्यवहार, समझ और गतिविधि के द्वन्द्वात्मक सामंजस्य की ओर इंगित करता है जिसके बगैर पूंजीवाद-विरोधी क्रांतिकारी गतिविधियों की कल्पना असंभव है। इस सामंजस्यता की कमी आज के वामपंथी आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी है जिसकी वजह से हम पूंजीवादी रिश्तों के नए नए स्वरूपों में पैदा होने के महज साधन हो गए हैं। पूंजी को लेकर व्यावहारिक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण न होने के कारण वामपंथी गतिविधियां महज पूंजीवादी विकल्पों के बाजार के ग्राहक हो गई हैं।

२. पूंजी की सत्ता ने आज बहुत ही विकराल रूप ले लिया है और परिस्थितियाँ भयानक हो गई हैं। वर्चस्वकारी शक्तियां वैश्विक और राष्ट्रीय स्तरों दोनों पर प्रतिस्पर्धा करती हुईं पूरी दुनिया को आज बारूद और विनाश की बलिवेदी तक पहुंचाने में लगी हुई हैं। व्यक्तिकरण, प्रतिस्पर्धा और अलगाव आज सामाजिकता के मौलिक मानवतावादी तत्वों को ही नष्ट करने पर उतारू हैं। यही कारण है कि मार्क्स के मौलिक व्यावहारिक-आलोचनात्मक नजरिए को एक बार फिर स्थापित कर हमारे दैनिक संघर्षों में अंतर्निहित पूंजी-विरोधी तत्वों को बारम्बार उभारते हुए साम्यवादी सामाजिकता की ओर अग्रसर होना हमारी तात्कालिक आवश्यकता हो गई है।

३. रूस-यूक्रेन युद्ध पूंजीवाद के इसी घिनौने स्वरूप का ही निष्कर्ष है। अधिवेशन के मसौदे में वाजिब ही इस युद्ध पर व्यापक और अच्छी चर्चा की गई है। हमारी समझ में इस युद्ध का उद्देश्य मूलतः सैन्य-औद्योगिक परिसर को वैश्विक आर्थिक पुनः प्रवर्तन के रणनीति के केंद्र में लाने की कोशिश है। इसमें अमरीका और रूस प्रतिद्वंद्वी के साथ-साथ सहयोगी भी है। इसके लिए विश्व पूंजीवाद के दो प्रमुख आर्थिक पावर-हाउस – चीन और जर्मनी, जो इस रणनीति के प्रति हमेशा ही उदासीन थे, की सम्मति की आवश्यकता है। रूस-यूक्रेन युद्ध बहुत हद तक ऐसा करने में कामयाब हो गया है। इसी प्रकार अमरीका अपनी वैश्विक नेतृत्व को सुरक्षित भी रख सकता है। भारत में भी इस युद्ध ने सैन्यवादी सर्वसम्मति को विकसित करने में मदद किया है। इस सिलसिले में रोजा लक्ज़ेम्बर्ग का एक कथन उद्धरणीय है — 

“जो चीज सेना की आपूर्ति को, उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक उद्देश्यों (स्कूलों, सड़कों, आदि) पर राज्य के व्यय की तुलना में, अधिक लाभदायक बनाती है, वह है सेना का निरंतर तकनीकी नवाचार और इसके खर्चों में लगातार वृद्धि।”

हम आशा करते हैं कि युद्ध के मामले पर सम्मेलन में और व्यापक चर्चा होगी।       

४. दक्षिण एशियाई देशों में आज पूंजीवादी व्यवस्था और राजसत्ता ने मानव-विरोधी, विनाशक और तानाशाह स्वरूप अख्तियार कर लिया है। अगर एक तरफ अफगानिस्तान में अमरीका-संरक्षित भ्रष्ट जनतंत्र को हटाकर तालिबान का शासन फिर से बहाल हुआ है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान में इमरान खान सरकार को हटाकर पारंपरिक दलों का गठजोड़ लौटा है जिसके पीछे अवश्यंभावी अंतर्राष्ट्रीय गठजोड़ों की राजनीति है। भारत में अति-राष्ट्रवादी सर्वसम्मति (जिसमे वामपंथ भी शामिल है) भारतीय राजसत्ता पर काबिज धुरदक्षिणपंथ नेतृत्व को वैश्विक साम्राज्यवाद के गठजोड़ में खुल के जगह बनाने में मदद कर रहा है, जो कि भारतीय उपमहाद्वीप में अपने उप-साम्राज्यवाद को पक्का करने के हिसाब से चीन के खिलाफ लगातार छोटे-मोटे दुस्साहसी कारनामों को अंजाम दे रहा है। वह अपने आप को दक्षिण एशिया में इसराएली शासन का प्रतिरूप बनाने की कोशिश कर रहा है। इस प्रक्रिया में भारतीय समाज में इस्लाम-विरोधी साम्प्रदायिकरण एक अहम हथियार है। हाँ, श्रीलंका के हाल के घटनाक्रम इस परिस्थिति में भय और उम्मीद दोनों जगा रहे हैं। भय क्योंकि वहाँ पूंजीवादी संकट ने लोगों के जीवन को पूर्णरूपेण अस्त-व्यस्त कर दिया है, मगर लोगों का संप्रदायों और राष्ट्रीयताओं के आपसी प्रतिस्पर्धाओं से आगे निकल कर व्यापक उभार उम्मीद जगाता है।         

५. यह बात सही है कि दक्षिण एशिया में अधिकांश देशों में जनतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था कायम है। परंतु इनका अनुभव पूंजीवादी जनतंत्र के जड़-स्वरूप को उद्घाटित करता है। एक तरफ वह जनतंत्र को महज कर्मकांड और अनुष्ठान में बदल देता है, तो दूसरी तरफ विकल्पों की आलोचनात्मक क्षमता को कुंद कर उन्हें व्यवस्थापरक और महज रूपात्मक बना देता है। तानाशाही और बहुसंख्यकवाद इस जनतंत्र के अंतर्गत बिना परेशानी के पनप पाते हैं। यही दक्षिण एशिया में तमाम जनतान्त्रिक राजसत्ताओं का अनुभव बताता है। पूंजीवाद के अंतर्गत जनतंत्र राजसत्ता को वैधानिकता प्रदान करने का जरिया है, उसकी अपनी कोई स्वायत्त दैनिकता नहीं होती। 

६. यह अधिवेशन एक महत्वपूर्ण दौर में हो रहा है, जब पूंजी का संकट गहरा रहा है मगर पूंजीवाद विरोधी शक्तियों की शिथिलता इस संकट को अवसर बनाने में असफल साबित हो रही है। शायद इसी प्रकार के दौर को महान इतालवी मार्क्सवादी क्रांतिकारी अंतोनियो ग्राम्शी ने इस प्रकार सूत्रबद्ध किया था –- “संकट ठीक इस तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है और नया पैदा नहीं हो सकता; इस अंतराल में कई प्रकार के रुग्ण लक्षण प्रकट होते हैं।“ रुग्ण लक्षण हर जगह विदित हैं। दक्षिण एशिया में खास तौर पर मोदी शासन और फैलती फासीकरण की प्रक्रियाएँ इसी रुग्णता की ओर इंगित कर रही हैं। मगर रुग्णता का असर आंदोलन पर भी पड़ा है –- व्यवस्था हमें हमेशा कगार पर रख अपने आंतरिक और अवसरीय विकल्पों के कोलाहल में डुबो रही है। 

७. भारत में वामपंथी आंदोलन की अक्षमता की वजह उसकी प्रतिक्रियात्मक राजनीति रही है, जिसने उसके घटकों को तात्कालिकता के दायरे में बांध दिया है। वे अस्तित्व बचाने अथवा रक्षात्मक रणनीतियों से आगे नहीं निकल पा रहे हैं, और मुख्यधारा के बुर्जुआ पार्टियों के पिछलग्गू बनते जा रहे हैं। उनके तमाम जनसंगठन आज इसी तात्कालिकवाद के शिकार हैं। इस सिलसिले में, अधिवेशन के मसौदे में भारत में 28-29 मार्च को हुई दो दिवसीय ट्रेड यूनियन हड़ताल को सफल बताना हमारी समझ में अतिशयोक्ति ही नहीं, वह साथी-लेखकों की भारत की परिस्थितियों के बारे में अनभिज्ञता को दर्शाता है। ये हड़तालें आज महज अनुष्ठान बन गई हैं, जिनका मुख्य मकसद सरकारी क्षेत्र के संस्थाओं के स्थायी कर्मचारियों (जिनकी तादाद घटती जा रही है) के अधिकारों को निजीकरण और निगमीकरण की प्रक्रिया के दौरान संरक्षित रखना। वैसे भी इन संगठनों का सरोकार भारत के श्रमिक वर्ग के 5 प्रतिशत हिस्से से अधिक नहीं है। और इस संगठित हिस्से का सबसे बड़ा अंश आज दक्षिणपंथ के ट्रेडयूनियन, भारतीय मजदूर संघ के साथ है। एक और बड़ा राष्ट्रीय यूनियन है जो कांग्रेस पार्टी से सम्बद्ध है। इससे भी महत्वपूर्ण है कि भारत में ट्रेड यूनियन का फॉर्मैट कानून द्वारा तय होता है और नव-उदारवादी दौर में वे पूरी तरह मैनिज्मन्ट और मजदूरों के बीच बिचौलिए की तरह काम करते हैं। मजदूरों के दैनिक संघर्षों के तेवर से इन यूनियनों का कोई लेना देना नहीं है। इसीलिए हमारा मानना है कि भारत में मजदूर आंदोलन और मजदूर वर्ग के वेग और तेवर को समझने के लिए हम अपने आप को ट्रेड-यूनियनों की औपचारिक गतिविधियों तक सीमित नहीं रख सकते। दक्षिण एशिया में हाल के दिनों में जितने भी लड़ाकू और श्रमिक विभाजनों को तोड़ने वाले संघर्ष रहे हैं –- चाहे बांग्लादेश में गार्मन्ट उद्योगों में “वाइल्ड कैट” हड़तालें हों, भारत में मारुति-सुजुकी मजदूरों का संघर्ष अथवा अप्रैल 2016 में बैंगलोर में महिला श्रमिकों का विद्रोह हों, या हाल में गिग-वर्कस के बीच हलचल, ये सभी इन औपचारिक यूनियनों के परिधि से बाहर रही हैं। ऐसा नहीं है कि इन संघर्षों का कोई सांगठनिक स्वरूप नहीं है, मगर वे श्रमिकों के दैनिक सरोकार में पनपती सामूहिकता का गतिमान स्वरूप हैं, उन्हे कानून द्वारा नियोजित अथवा पूर्व-गठित संगठानिक फार्मूलों में नहीं फिट किया जा सकता। जब तक भारत के वामपंथी अपने अनुभवों और बदलते औद्योगिक संबंधों के प्रति “व्यावहारिक-आलोचनात्मक” दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे वे मजदूर-वर्ग के नए संगठानिक स्वरूपों और स्व-गतिविधियों को नहीं पहचान पाएंगे, और मजदूर-वर्ग का हर जन उभार उन्हें आकस्मिक और स्वतःस्फूर्त प्रतीत होगा।   

८. अंत में, कुछ बातें “दुनिया बदलने” के सवाल पर। बहुत दिनों से विकल्पों की बातचीत राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन तक सिमट कर रह गई है। फलां पार्टी और फलां नेतृत्व के सत्ता से हटने अथवा उसमें  जमने को ही विकल्प मान लिया गया है। सामाजिक व्यवस्था —  सामाजिक प्रणाली और संबंध —  के सवाल के जगह पर राजकीय नीतियों की ही बात होती है। 90 के दशक में नव-उदारवाद के खिलाफ जो “एक और दुनिया संभव है” का नारा बुलंद हुआ था वह अंततः विकास के प्रतिस्पर्धात्मक मॉडेलों की बातचीत तक सीमित रह गया। पूंजीवादी समाज और राजसत्ता के आंतरिक लक्षणों की आलोचना के बगैर कोई नीति आधारित राजनीति पूंजी की सत्ता को चुनौती देने के जगह पर महज उसके संकट के निवारण का साधन ही हो सकती है। मार्क्स ने जब साम्यवाद को “वास्तविक आंदोलन” कहा था तो उनका तात्पर्य “व्यावहारिक-आलोचनात्मक कार्यशीलता” से था जिसके तहत पूंजीवादी यथास्थिति का निषेध होता है। इसी निषेध में समस्तरीय सामूहिक सामाजिकता के प्रारूप का जन्म और विकास होता है और वही नए सामाजिक संबंध और प्रणाली की नींव है। बीसवीं सदी में क्रांतियों की जीत और हार का चक्र साम्यवाद के “वास्तविक” आंदोलनकारी चरित्र के पुनर्स्थापन की आवश्यकता पर बल दे रहा है। ये क्रांतियाँ श्रमिक-सत्ता की सामूहिक क्रियात्मकता की ओर इंगित जरूर करती हैं, परंतु शीघ्र ही श्रम की क्रिया से सत्ता का अलगाव होता है और सोवियत राजसत्ता का जन्म होता है, जहां सोवियत — क्रांतिकारी क्रियाओं का संगठन — महज विशेषण बन कर रह जाता है। अपनी बात को हम मार्क्स के इस उद्धरण से खत्म करते हैं:

“साम्यवाद हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को साम्यवाद का नाम देते हैं जो मौजूद अवस्था को मिटाता है।”          

मांगपत्र


मांग का एक लंबा सा चिट्ठा
तैयार किया यह सोचकर
कि जब नहीं मिलेगा तो वे समझ जाएंगे
कि मांगने से कुछ नहीं मिलता

वे तो समझ चुके हैं कि तुम नहीं समझे हो
कि वे जानते हैं
कि मांगने से कुछ नहीं मिलता

और तुमसे उम्मीद करते हैं
कि तुम मंगवाने की आदत छोड़कर
उनके साथ करोगे तैयार
विचार और हथियार
नया संसार

On the International Day of Yoga


First get the true meaning of [yoga]: not joining two things, the soul and the body – that’s all nonsense – but to observe, to perceive life as a whole, as a total unitary movement. Because you see it as a whole movement you act non-fragmentarily. Therefore your relationship is total. Not my wife, my husband, my family, my children and all the rest of it, but complete, as a whole human being.

How is that to come about? Therefore they say you must breathe properly, etc., and perhaps that will then give you that. And then we get caught up in asanas. You exercise and forget the other, becoming lazy, self-centred. I am not saying you shouldn’t stand on your head. I do it. But that is not going to lead to the other. So when you see the importance of a life which is non-fragmentary, you won’t get caught in the asanas. You will do them, but you won’t be caught in them. Because by itself, doing asanas you might be terribly selfish and egocentric and lazy. — Jiddu Krishnamurti

Beyond the yoga industry, and the yogic entrepreneurship that is flourishing today, one must not forget its philosophical and ethical genesis. The fundamental text of Yoga, Patanjali’s Yogasutra says that “the transparency of mind” which is the purpose of Yoga comes not from the exercises:


मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।।३३।।


Tr: “The transparency of the mind comes from the development of friendship, compassion, joy and neutrality regarding the spheres of pleasure, pain, virtue and vice respectively.”

The exercises (the expulsion or retention of breath) are optional measures or instruments, which can help in bringing the transparency of the mind only if they lead to the moral development mentioned above:


प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।।३४।।

The international day of yoga should be the day when we reflect if the competitive industry of yoga today has really led to the moral development of the new age Yogis and the society at large.

रूस-यूक्रेन युद्ध: फायदा किसका?


मोर्चा, अप्रैल 2022

ड्राफ्ट

यूक्रेन पर रूस की चढ़ाई को लेकर कोई भी सारगर्भित टिप्पणी बिना भूमंडलीय पूंजी की प्रक्रियाओं और प्रवृत्तियों को नजर में रखे नहीं की जा सकती। इस तरह की घटनाएं नेताओं के बयानों, उनके तात्कालिक चालों और हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं के आधार पर नहीं समझी जा सकतीं। देशों की, विशेषकर उनकी जो इस युद्ध में निर्णायक भूमिका अदा कर रहे हैं, राजनीतिक-आर्थिक प्रकृति को समझना अत्यंत आवश्यक है, परंतु उसके बाद भी हमें इस बात को नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि सम्पूर्ण अपने भागों के योग से बड़ा होता है। एक तरफ, पूंजी की संपूर्णता, और दूसरी तरफ, उसका विभिन्न और विरोधाभासी आर्थिक, सामाजिक और राज्य सत्ताओं के रूप में प्रसार और उनके बीच द्वंद्व — इन दोनों के बीच के संबंध को हमेशा ध्यान में रखना आवश्यक है। इसी द्वन्द्वात्मकता को हम मार्क्स-एंगेल्स द्वारा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और घटनाओं पर लिखे लेखों में तथा लेनिन की साम्राज्यवाद पर लिखी पुस्तिका में देख सकते हैं। हमारी समझ है कि यूक्रेन-रूस युद्ध की व्याख्या के लिए इसी द्वन्द्वात्मक पद्धति को हमें अपना हथियार बनाना होगा।

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अमरीका के नेतृत्व में नाटो की विस्तारकारी और एकछत्रवादी चालबाज़ी, नए शीत युद्ध का आरंभ, रूस की आक्रामकता, पुतिन की साम्राज्यिक बृहत रूसी अंधराष्ट्रवादी बयानबाजी, यूक्रेन में फासीवादी समूहों का वर्चस्वकारी उभार — ये सब हो रही घटनाओं के विभिन्न विवरण हैं, परन्तु सत्य की पहचान केवल उसके इन सतही पहलुओं की व्याख्या द्वारा नहीं हो सकती। भविष्य की संभावनाओं की पहचान और उनके परिपेक्ष में सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण और गतिविधियों के लक्षणों की पहचान जिनके अनुसार क्रांतिकारी समूहों को अपनी भूमिका को तय करना होता है, सतही उपस्थितियों के चित्रण से नहीं हो सकती।

ऐसे चित्रण के आधार पर केवल प्रतिक्रियात्मक नारेबाजी ही हो सकती है और यही देखने को आज मिल रहा है। भारतीय वामपंथ में रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर कई तरह की समझ है। कई इस युद्ध को यूक्रेनी आत्मनिर्णय के नजरिए से देखते हैं, और रूस के आक्रमण में उन्हें पुरानी दकियानूसी रूसी साम्राज्यिक नास्टैल्जिया का प्रकटीकरण दिखता है। राष्ट्रपति पुतिन के बयानों में इसके लिए भरपूर सामग्री तैयार मिलती है। दूसरी ओर वे हैं जिन्हें इस युद्ध को उकसाने में अमरीकी षड्यंत्र दिखता है। उन्हें इस युद्ध में और इससे पहले भी यूक्रेन के समाज में फासीवादी तत्वों को भड़काकर रूस को उसके ही क्षेत्र में हाशिए पर डालने के अमरीकी नेतृत्व और नाटो के प्रयास दिखाई देते हैं। इसके लिए भी अमरीकी, उसके सहयोगी देशों के नेतृत्व और यूक्रेनी नेतृत्व के बयानों में और गतिविधियों में व्यापक सामग्री तैयार मिलती है। तो कौन सही है? शायद इसी तरह के माहौल में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यूरोप के क्रांतिकारियों ने क्रांतिकारी पराजयवाद के अस्थायी रणनीति को अपनाया। परंतु यह भी तब तक केवल अटकल ही है और महज़ नारा है, जब तक हम इस युद्ध के पीछे विद्यमान राजनीतिक आर्थिक प्रक्रियाओं और प्रवृत्तियों की व्याख्या नहीं कर लेते। “वास्तविक स्थिति की जांच किए बिना, वर्ग शक्तियों का आदर्शवादी मूल्यांकन और काम में आदर्शवादी मार्गदर्शन ही हो सकता है, जिसका नतीजा या तो अवसरवाद या तख्तापलटवाद होगा”। (माओ)

राष्ट्रीय आत्मनिर्णय कोई निरपेक्ष सिद्धांत नहीं है। लेनिन की तर्ज पर हम जरूर बोल सकते हैं कि रूसी जनता के लिए यूक्रेनी राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का सवाल महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह रूसी राजसत्ता की महत्वाकांक्षाओं को चुनौती देता है। परन्तु यूक्रेनी आत्मनिर्णय को सकारात्मक रूप में पेश करने वालों को यूक्रेनी कुलीन वर्गों द्वारा दक्षिणपंथी अंधराष्ट्रवादी लामबंदी को ध्यान में रखना होगा, जो यूक्रेन की अन्य उप-राष्ट्रीयताओं की आकांक्षाओं को दबाने का जरिया है। ऐसा तो नहीं कि यूक्रेनी राष्ट्रवाद महज़ वैश्विक नवउदारवादी नव-रूढ़िवाद का हथियार है?

आगे, जो रूसी राजसत्ता के नव-साम्राज्यिक राजनीतिक अर्थशास्त्र को नजरअंदाज़ करते हैं, वे ज्यादा बड़ी गलती करते हैं। शायद वे अभी भी अपने अवचेतन में पुराने फादरलैंड की रंगीनियत को संजोए हुए हैं। वे भूल जाते हैं कि विद्यमान रूसी राजसत्ता विश्व नवउदार पूंजीवादी दौर में पैदा हुई है, जिस दौर में राजसत्ता ने विश्व भर में दमनकारी चरित्र अख्तियार कर लिया है, कल्याणकारी मुखौटे को उतार फेंका है। रूसी राजसत्ता का प्रतिक्रियावादी चरित्र वहां के पूंजीवादी वर्ग के चरित्र पर निर्भर है। रूस और अन्य पूर्वी यूरोप के देशो में (जिसमें यूक्रेन भी शामिल है) पूँजीवादीकरण की प्रक्रिया मुख्यतः भूतपूर्व राजकीय समाजवादी व्यवस्था के तहत विकसित संसाधनों पर कुलीन वर्ग को काबिज कर विश्व पूंजी के साथ उन संसाधनों का दोहन कर मुनाफे में रॉयल्टी अथवा लगान के रूप में हिस्सेदारी करना रही है। इन देशों के बीच सहयोग और प्रतिस्पर्धा का रिश्ता भी इसी पूंजीवादी चरित्र द्वारा निर्धारित है।

वर्तमान युद्ध की व्याख्या के लिए सबसे प्रमुख तथ्य जिसे हमे ध्यान रखना चाहिए वह यही है कि रूस से यूरोप सप्लाई होती ऊर्जा का बड़ा हिस्सा यूक्रेन होकर गुजरता है, और इस व्यवस्था से यूक्रेन को अच्छा खासा फायदा भी है परंतु यूक्रेन के ट्रांजिट फ़ी के कारण ऊर्जा की यूरोप सप्लाई पर लागत बढ़ जाता है। इसी कारण से बाल्टिक सागर से ऊर्जा सीधे यूरोप पहुंचाने के लिए नॉर्द स्ट्रीम पाइपलाइनों का निर्माण चल रहा है जो इस लागत को काफी कम कर देगा, परंतु ट्रांसिट फी पाते यूक्रेन समेत कई केन्द्रीय और पूर्वी यूरोपीय देश इसका विरोध कर रहे हैं। (संयुक्त राज्य अमरीका इन पाइपलाइनों के बनने को शुरुआत से ही रोकने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसका मानना है कि इससे यूरोप पर रूसी प्रभाव अत्यधिक बढ़ जाएगा। चल रहे युद्ध के कारण पहली बार नॉर्द स्ट्रीम का निर्माण रुक गया है।) इस संदर्भ में यह तथ्य भी गौर करने योग्य है कि पिछले साल 2021 में रूस ने यूक्रेन से गुजरती ऊर्जा की मात्रा में अत्यधिक कटौती कर दी जिसकी वजह से यूक्रेन की राष्ट्रीय आय पर अच्छा खासा असर पड़ा है।

यूक्रेन नाटो और युरोपियन यूनियन में शामिल होने की धमकियों का लगातार इस्तेमाल इस सप्लाई चेन और ट्रांजिट फी की राजनीति में रूस के साथ मोल-भाव करने में करता रहा है। रूस भी लगातार यूक्रेन के अंदर अपने हितों के अनुकूल शासन व्यवस्था बनाने की कोशिश में लगा रहा है। 2014 में क्रिमिया पर कब्जा करने का भी कारण यही था। यूक्रेन के रूसी उप-राष्ट्रीयताओं के अपने वास्तविक संघर्षों को रूस अपने साम्राजयिक इरादों की पूर्ति में चारे की तरह इस्तेमाल करता रहा है। रूस-विरोधी यूक्रेनी शासक वर्ग को संयुक्त राज्य अमरीका और नाटो से भरपूर सहयोग मिलता रहा है।

पर इन सब तथ्यों और आपसी राजनीति के पीछे कुछ पूंजी की भूमंडलीय संरचनात्मक और ऐतिहासिक पहलू भी काम कर रहे हैं, जिनकी संक्षेप में चर्चा आवश्यक है।

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पिछली शताब्दी के अंत में सोवियत संघ और उसके आश्रित शासनों के विघटन ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की दिशा को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। इसने वैश्विक राजनीति की पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह से ढहा दिया। यह व्यवस्था द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फासीवादी एक्सिस शासनों की हार के बाद उभरी थी। इस व्यवस्था को शीत युद्ध प्रोटोकॉल और मानदंडों द्वारा नियंत्रित किया जाता था। इस व्यवस्था के तहत विभिन्न देशों में उनके विशिष्ट और विविध प्रकार के श्रम और अन्य संसाधनों के आधार पर पूंजीवादी संबंधों को विकसित और दृढ़ करने के विभिन्न विकासीय मॉडल तैयार हुए। इसने आयुध और रक्षा उद्योगों के विशाल और व्यवस्थित विकास में भी मदद की, और वैश्विक ध्रुवीकरण के तहत तमाम देशों को गोलबंद किया। वह सैन्य कींसियवाद का युग था, जब यह समझ थी कि “सरकारी खर्च के उच्च स्तर की नीति — भले ही कभी-कभी घाटे के माध्यम से वित्तपोषित हो — अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकती है”। सैन्य खर्च का उद्देश्य भी “बेरोजगारी की दर को कम करने, मजदूरी बढ़ाने और श्रमिकों की आर्थिक सुरक्षा में योगदान देना था” (जेम्स सी. साइफर) ताकि प्रभावी मांग में बढ़ोत्तरी हो सके, आर्थिक गतिविधियों में तेजी आए और पूंजीवाद-विरोधी सामाजिक वर्गीय जन-उभार की संभावना को खत्म किया जा सके।

पूंजीवाद के तथाकथित स्वर्ण युग के 1970 में पतन के साथ, सोने-डॉलर के रिश्ते के अंत और सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के कारण, जिसने श्रम प्रणालियों के सतत असततीकरण (infinite discretisation) को और उत्पादन प्रक्रियाओं के भूमंडलीय एकीकरण को संभव बना दिया, पूंजीवाद के वित्तीयकरण की प्रक्रिया शुरू हुई जिसने आर्थिक के घेरे से राजनीतिक प्रभाव को लगातार नदारद किया, और राष्ट्रीय सत्ताओं को महज पुलिस फोर्स बन सामाजिक असंतोष को प्रबंधित और उत्पादित करने का काम सौप दिया। इस बदलाव ने धीरे-धीरे शीत युद्ध युगीन स्थायित्व को नष्ट कर दिया और राष्ट्रीय विकास के प्रतिमानों को लगातार ध्वस्त कर वैश्विक वित्तीय बाजार और एकीकरण के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया। अब पूंजी के संकटग्रस्त प्रवृत्तियों से कोई भी अर्थतंत्र अपने आप को अछूता नहीं रख पाएगा।

शीत युद्ध के अंत को जिसे बर्लिन दीवार के ढहने और पूर्वी यूरोप के देशों के विघटन से चिह्नित किया जाता है, अमरीकी नेतृत्व की जीत के रूप में देखा गया। लेकिन यह एकछत्रवादी उत्साह तुरंत ही फीका पड़ गया क्योंकि अमरीकी नेतृत्व वाले गठबंधन यानी नाटो ने अपना तात्कालिक औचित्य खो दिया। मास्त्रिख्त संधि (Maastricht Treaty) और अन्य नए क्षेत्रीय गठबंधनों के जन्म के साथ, अमरीका और डॉलर की वर्चस्वता सर्वमान्य नही रह गई। कुछ सुरक्षा विचारकों ने इस मौके को एकध्रुवीयता की असंभावना और बहुध्रुवीय दुनिया के उदय के आग़ाज़ के रूप में देखा, जिसे वे एक तरह से अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र का पर्याय मानते थे।

दूसरी ओर, अमरीकी-परस्त सुरक्षा विचारक पुराने गठबंधन के औचित्य को साबित करने के लिए कई तरह की अटकलों का इस्तेमाल करते रहे। सोवियत संघ के विघटन के बाद कई तरह के स्थानीय और आर्थिक-हितार्थी गठबंधनों का जन्म होता दिखाई देता है, जिसमें ग्लोबल साउथ अथवा तीसरी दुनिया के वे अवसरवादी और तानाशाही देश भी शामिल हो रहे थे जो अमरीकी खेमे में रहा करते थे। ये स्थानीकरण वित्त पूंजी के भूमंडलीकरण के लिए तात्कालिक चुनौती प्रतीत होते हैं। इसी चुनौती ने शीत युद्ध के बाद भी अमरीकी नेतृत्व में भूमंडलीय पुलिसशाही को आरंभिक दिनों में जिंदा रखा — कई यूरोपीय देशों को इस युद्ध में अनमने ढंग से ही सही मगर इस गठजोड़ को जिंदा रखना पड़ा। इसी परिपेक्ष में पिछली सदी के अंत के साथ, इस वैश्विक पुलिसिंग की रणनीतियों को मजबूत करने के लिए “आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध” के रूप में तात्कालिक कामचलाऊ सैन्य विचारधारा उभरी। यह विचारधारा अत्यधिक शक्तिशाली थी क्योंकि यह किसी भी हस्तक्षेप को सही ठहरा सकती थी। यह नवउदारवादी युग के लिए काफी उपयुक्त भी थी क्योंकि यह मरीचिकानुमी, गतिशील और सर्वव्यापी वित्तीय पूंजी के फैलाव का साधन बन सकती थी। जहां-जहां राजनीतिक को आर्थिक के तहत अधीनार्थ करने की आवश्यकता है यानी जहां-जहां स्थानीय संसाधनों और अर्थतंत्रो को पूंजी के खुले दोहन में राजनीतिक और सामाजिक अड़चनें पैदा हो रही हैं वहां आतंकवाद-विरोधी मुहिम चलाई जा सकती है। इस अंतहीन युद्ध के परिवेश ने न केवल सैन्य और सैन्य प्रौद्योगिकियों पर जारी सार्वजनिक खर्च के लिए, बल्कि विशेष रूप से सुरक्षा और निगरानी के ढांचे के सामान्यीकरण और निजीकरण के लिए भी औचित्य प्रदान किया, क्योंकि वित्त की तरह आतंकवाद कोई सीमा नहीं जानता — इसलिए आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जितना विदेशी भूमि पर होता है, उतना ही (शायद अधिक ही) घरेलू सीमाओं के भीतर छेड़ा जाता है।

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इस संदर्भ में, शायद प्रासंगिक है मार्क्सवादी इतिहासकार और चिंतक एलेन मेक्सिन्स वुड की “अधिशेष साम्राज्यवाद” की थीसिस — जो नव-उदारवादी दौर में साम्राज्यवादी प्रक्रियाओं को सैन्य उद्योग में अतिसंचय की अभिव्यक्ति के रूप में देखती है। मेक्सिन्स वुड तर्क देती हैं,

“यह पहला साम्राज्यवाद है जिसमें सैन्य शक्ति न तो क्षेत्र को जीतने के लिए और न ही प्रतिद्वंद्वियों को हराने के लिए निर्मित हुई है। यह ऐसा साम्राज्यवाद है जो न तो क्षेत्रीय विस्तार चाहता है और न ही व्यापार मार्गों पर भौतिक प्रभुत्व। फिर भी इसने इस विशाल और अनुपातहीन सैन्य क्षमता का विकास किया है जिसकी अभूतपूर्व वैश्विक पहुंच है। शायद इतने बड़े सैन्य बल की आवश्यकता इसी वजह से है क्योंकि नए साम्राज्यवाद का कोई स्पष्ट और सीमित उद्देश्य नहीं है। वैश्विक अर्थव्यवस्था और इसे संचालित करने वाले विभिन्न राज्यों पर असीम वर्चस्व के लिए अंतहीन, उद्देश्य अथवा समय के मामले में, सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता होती है।”

आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध निश्चित रूप से वैश्विक पुलिस व्यवस्था के विस्तार में शानदार रूप से उत्पादक है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है दुश्मन को वास्तव में पहचानने और नियंत्रित करने में असमर्थता। यह सहयोगियों से ज्यादा नाराजगी और दुश्मन पैदा करता है, और वे कहीं से भी उभर सकते हैं। मेक्सिन्स वुड आगे कहती हैं,

“हमें बताया गया है कि सीमाओं के बिना युद्ध सीमा-विहीन विश्व की अनुक्रिया है, एक ऐसी दुनिया की जिसमें राष्ट्र-राज्य अब प्रमुख खिलाड़ी नहीं हैं और गैर-राज्य विरोधी, या ‘आतंकवादी’ एक बड़ा खतरा बन गए हैं। इस तर्क में विशिष्ट संतुलन आकर्षक है, लेकिन यह जांच में खरा नहीं उतरता। आतंकवाद का खतरा, बल-प्रयोग के किसी भी अन्य खतरे से अधिक, भारी सैन्य विरोध का प्रतिरोधक है — राज्यविहीनता के बावजूद नहीं बल्कि उसके कारण; और, वैसे भी, ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ से आतंकवादी हमलों के रुकने से ज्यादा, उनको बढ़ावा मिलने की संभावना है। गैर-राजकीय दुश्मनों का खतरा सैन्य बल के अनुपातहीन जमावड़े, जिनका कोई अभिज्ञेय लक्ष्य नहीं है, की सफाई नहीं हो सकते। इसके विपरीत, ‘अधिशेष साम्राज्यवाद’, चाहे वह कितना भी विकृत और अंततः आत्म-पराजयशील क्यों न हो, तर्कसम्मत है, परंतु केवल वैश्विक राज्य प्रणाली और उसकी विरोधाभासी गतिकी की प्रतिक्रिया के रूप में।”

इसलिए, यह अंतहीन वैश्विक युद्ध कभी भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नियमन का कुशल साधन नहीं हो सका। इसके अलावा, घरेलू राजनीति पर इस वैश्विक युद्ध का प्रभाव अत्यंत विघटनकारी और अस्थिर होता है, जैसा कि अमरीकी राजनीति पर खाड़ी और अफगानिस्तान युद्धों के प्रभाव ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है। वर्तमान सदी के दूसरे दशक के दौरान अमरीका में विभिन्न सरकारें इन युद्धों से बाहर निकलने का उचित समय और रास्ता खोजने की कोशिश करती रहीं। हाल ही में अमरीका ने शर्मनाक ढंग से अफगानिस्तान से अपने आप को बाहर खींचा — अफगानिस्तान युद्ध तालिबान शासन को अपदस्थ करके शुरू हुआ और इसे पुनर्स्थापित करके समाप्त हुआ।

आतंकवाद के बहाने ने सामान्य निगरानी (surveillance) उद्योग के अंतर्गत सैन्य और आयुध उद्योग के विस्तार और एकीकरण में मदद की, जिसने सार्वजनिक/निजी विभाजन और शांति/युद्धकालीन जरूरतों के विभाजन को व्यर्थ करार दिया। इसने अस्थायी रूप से वैश्विक सैन्य-औद्योगिक परिसर पर अमरीकी आधिपत्य को जीवित रखा, लेकिन वर्तमान शताब्दी के पहले दशक में नाटो की गतिविधियों को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल किए गए ज़बरदस्त झूठ और छल ने एकछत्र अमरीकी नेतृत्व के प्रति सर्वसम्मति को खतरे में डाल दिया। आतंकवाद के खिलाफ युद्ध कभी भी वैश्विक राजनीतिक शक्तियों के आपसी गठजोड़ के लिए सुसंगत साधन प्रदान नहीं कर सका। शीत युद्ध की द्विध्रुवीयता के स्थायित्व और संतुलन की जगह लेने के लिए आज तक कोई नया समीकरण नहीं पैदा हो सका है।

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एक तरफ, पूंजीवाद के नव-उदारवादी चरण ने तमाम राजसत्ताओं को महज पुलिस-प्रशासन में तब्दील कर दिया है, परंतु उस कार्य को भी निभाने के लिए उनके बीच प्रतिस्पर्धा को अत्यधिक तेज कर दिया है। दूसरी ओर, अमरीका को यदि ग्लोबल पुलिसशाही के शीर्ष पर रहना है, तो उसे अपने ऐतिहासिक वर्चस्व को बचाना होगा, जिसके लिए आतंकवाद जैसा चेहराविहीन दुश्मन नहीं सोवियत संघ जैसे खतरे को सामने रखना होगा। मुख्यधारा के सुरक्षा विचारक और अमरीकी नेतृत्व अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रबंधन में इस संकट के बारे में जानते हैं और पिछले एक दशक से द्विध्रुवीयता के मिथक को फिर से बनाने में व्यस्त हैं — इस बार सोवियत संघ का जगह चीन को मिल रहा है। प्रारंभ में, यह केवल हॉलीवुड था जिसने इस कार्य को गंभीरता से लिया, लेकिन ट्रम्प शासन और भारत के मोदी जैसे उसके स्थायी सहयोगियों ने इसको मुख्य एजेंडा बना दिया। बाइडेन शासन डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा छोड़ी गई विरासत को बखूबी व्यवस्थित कर आगे ले जा रहा है। हालांकि, हाल तक चीनी नेतृत्व लगातार इस मिथक में पड़ने से बचता रहा है। चीन दूसरों के खेलने के लिए गैजेट्स और गिज़्मोस के आपूर्तिकर्ता के रूप में अपने आप को रखे रहना चाहता है, लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ अमरीकी रणनीतिकारों और उनके ग्राहकों को अपना सपना साकार होता दिख रहा है।

शीत युद्ध की द्विध्रुवीयता के पुनर्निर्माण के लिए उनके मिथक-निर्माण को साकार करने में मदद करने के लिए उन्हें दो कारकों की आवश्यकता है— पहला, निश्चित रूप से, उन्हें उम्मीद है कि चीन रूस के साथ गठबंधन करेगा, और दूसरा है, जो अमरीका की पिछले तीन दशकों से प्रमुख चिंता रही है, यूरोपीय संघ के जर्मन नेतृत्व की तटस्थता का प्रश्न। यूक्रेन-रूस युद्ध ने इतना तो किया है कि विश्व के तमाम देशों को सैन्यीकरण के प्रति घरेलू सहमति बनाने में लालायित देशों के लिए काम आसान कर दिया है और तटस्थ देशों को मजबूर कर दिया है। भारत की मोदी सरकार की गिनती लालायितों में होगी। दूसरी ओर, यूक्रेन-रूस द्वंद्व का नतीजा यह है कि अनिच्छुक जर्मनी ने अपनी सैन्य अक्षमता का आभास करते हुए 2022 के बजट में दस हज़ार करोड़ यूरो सैन्य खर्च के लिए तय कर लिया। मैक्सिन्स वुड की बात माने तो यह अमरीका के अधिशेष साम्राज्यवाद के लिए उत्तम अवसर है। इस दौर में उसकी सैन्य क्षमता के खरीददार अनेक होंगे।

परन्तु पुरानी द्विध्रुवीयता का आधार सैन्य कींसियवाद था जो कि घरेलू अर्थतंत्र के सुनियोजित संतुलित विकास पर केंद्रित था। उसके विपरीत नई द्विध्रुवीयता का संदर्भ वित्तीय पूंजी और बाजार की स्वच्छंद और अनियत प्रकृति है जिसके आगे सारी दूरगामी संरचनात्मक स्थानीय नीतिगत योजनाएं विफल हैं और जिसने विश्व को भूमंडलीय ग्रामीण व्यवस्था में तब्दील कर दिया है जहां कभी अकेले कभी साथ मिल कर एक दूसरे की नोच-खसोट में सभी लगे हुए हैं — यही ज़ोंबी युग है जहां खून पीने की होड़ को प्रतिस्पर्धा का नाम दिया गया है। वैसे भी पूंजीवाद में “जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है” (मार्क्स) परंतु शुरुआती चरणों मे स्थान और समय में अंतराल का अर्थ था, जो कि नव-उदारवादी चरण में असीम क्षणभंगुर और संयोगात्मक होता चला जा रहा है — कैंसर मौजूद है परंतु वह तात्कालिक रूप में किस जगह और कब उभरेगा यह तय नहीं है। जॉन मैकमूर्टी ने पूंजीवाद के विद्यमान चरण को “पूंजीवाद का कैंसर चरण” नाम दिया है।

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जबतक रणक्षेत्र मध्य-एशिया, अफगानिस्तान या ग्लोबल साउथ के कोई और देश में स्थित थे तब तक इन युद्धों के पीछे मूल रूप से काम कर रही वर्चस्वकारी राजसत्ताओं की संरचनात्मक कमजोरियाँ और उत्कंठाएँ साफ नहीं दिखती थीं। यूक्रेन-रूस युद्ध ने इन सब पर से पर्दा हटा दिया। वित्तीयकृत पूंजी ने किस रूप में पूंजीवादी राजसत्ताओं और उनके बीच के संबंधों की सर्वमान्यता और स्वरूपों को अनिश्चित कर दिया है, यह आज साफ है।

आने वाले वर्षों में घटनाएं क्या मोड़ लेंगी यह बताना शायद मुश्किल है। लेकिन इतना तो साफ है कि चीन और रूस पुराने सोवियत संघ नहीं है। चीन विश्व पूंजीवाद का सबसे बड़ा विनिर्माण केंद्र ही नहीं है, वित्तीय पूंजी का भी केंद्र बनता जा रहा है, और साथ ही पूंजी के वैश्विक फैलाव का वह अहम जरिया भी है। आगे, संयुक्त राज्य अमरीका की स्थिति 1950-80 में जैसी थी वैसी नहीं है — वह न तो विश्व पूंजीवादी उत्पादन का केंद्र है, न ही डॉलर की वर्चस्वता निर्विरोध सर्वस्वीकृत है। परंतु संयुक्त राज्य अमरीका तमाम अर्थतन्त्रों के लिए, विशेषकर चीन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बाजार है। इसी कारण अमरीका के अर्थतंत्र के पोषण में सभी पूंजीवादी राष्ट्र अपना हित देखते हैं।

इसके अलावे, यूक्रेन-रूस युद्ध के नतीजे के तौर पर कई लोग नव-शीत युद्ध की परिकल्पना करते हुए हथियारों के होड़ की फिर से शुरुआत की संभावना को देखते हैं। क्या यह कभी रुका था? अगर हम इस युद्ध में अमरीका और रूस के बीच प्रतिस्पर्धा को देख रहे हैं तो यह हमें समझना चाहिए कि वैश्विक सैन्य-औद्योगिक परिसर के फैलाव में मुख्य प्रतिस्पर्धक होने के कारण रूस और अमरीका दोनों सहयोगी भी हैं। संयुक्त रूप से, अमरीका और रूस का हथियारों के वैश्विक निर्यात में 57% हिस्सा है। इस मामले में यह युद्ध दोनों ही देशों के हित में है।

इस युद्ध के मामले में भारत और अन्य देशों की तटस्थता को देखकर कुछ विद्वानों को गुटनिरपेक्ष आंदोलन की याद आने लगी है और उसके पुनरागमन की संभावना भी दिखने लगी है। इस मोह का इस्तेमाल कर मोदी सरकार और विश्व की अन्य अवसरवादी सरकारें सैन्य खर्चों की बढ़ोत्तरी के प्रति घरेलू सर्वसम्मति तैयार कर रहीं है। शायद वे इसमें आर्थिक मंदी से उबरने का जरिया देख रहीं हैं। रोजा लुक्सेमबुर्ग ने कभी कहा था — “जो चीज सेना की आपूर्ति को, उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक उद्देश्यों (स्कूलों, सड़कों, आदि) पर राज्य के व्यय की तुलना में, अधिक लाभदायक बनाती है, वह है सेना का निरंतर तकनीकी नवाचार और इसके खर्चों में लगातार वृद्धि।”

मोदी सरकार शुरुआत से ही भारत में सैन्य-औद्योगिक परिसर के विकास पर जोर दे रही है। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के नाम पर उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया स्थापित हो चुकी है। रक्षा औद्योगिक कॉरिडोरों का निर्माण किया जा रहा है। विदेशी निवेश को खुला निमंत्रण दिया जा चुका है, और कंपनियों का आगमन शुरू हो चुका है। यही कंपनियां है जो पहले देश के खिलाफ दूसरे देश को, और दूसरे के खिलाफ पहले देश को हथियार सप्लाई करती हैं। इस संदर्भ में हम लेनिन की बात को उद्धृत कर इस लेख को यहीं पर विराम देंगे —

“हथियारों को एक राष्ट्रीय मामला, देशभक्ति का मामला समझा जाता है; यह माना जाता है कि हर कोई उनके बारे में अधिकतम गोपनीयता बनाए रखेगा। लेकिन जहाज निर्माण कारखाने, तोपें, डाइनेमाइट और लघु शस्त्र बनाने के कारखाने अंतरराष्ट्रीय उद्यम हैं, जिनमें विभिन्न देशों के पूंजीपति विभिन्न देशों की जनता को धोखा देने और मुड़ने के लिए और इटली के खिलाफ ब्रिटेन के लिए और ब्रिटेन के खिलाफ इटली के लिए समानरूप से जहाज और तोपें बनाने के लिए मिलकर काम करते हैं।”

Brahma against Brahmanism — Ambedkar’s Battle over the History of Ideas


The right-wing in its endeavour to keep the opposition in the loop of reactivity that it has created to secure its hegemony has started deploying even Ambedkar frequently. Its favourite rumour is of course about the fact that Ambedkar chose to convert to an Indic religion rather than Islam and Christianity, glossing over another fact that he didn’t choose Sikhism (though after much pondering). Of course, his main concern behind not choosing Islam and Christianity was to continue the struggle of the Shudras on the very socio-ideological turf on which the caste system originated. Conversion to Islam or Christianity would have externalised him and his supporters from the day-to-day struggle for the abolition of the caste system that is anchored in the Hindu community. As Sikhism had already internalised the caste hierarchy prevalent in the Hindu society, a conversion to Sikhism would not have changed anything. In the end, for Ambedkar, it was the marginality of Buddhism and its ambiguous integration into the Hindu culture, along with its rationalist foundation that made Buddhism attractive for the Dalit conversion. As Gail Omvedt, rightly says,

“Buddhism could not even offer the limited resources of community support that Sikhism could, but it was also a religion that Ambedkar could shape on his own, could mould to suit what he felt to be the spiritual and moral needs of Dalits. Sikhism already had its set religious hierarchy, to which Ambedkar – however strong and determined a leader – would have been subordinate.”

Ambedkar converted to Buddhism because he didn’t want any distraction from the focus on the caste question and to get embroiled in other kinds of hegemonic conflicts involving the leadership of other religious identities. Buddhism was a vacant space to fit in and rebuild, yet it opened up a different level of resources for the anti-caste movement —  it allows the oppressed and the exploited to reclaim and reinterpret the whole legacy of the politico-ideological struggle against the caste system throughout the written history of India. By reinvigorating this legacy, the present struggle against caste builds a new perspective on Indian history —  towards the ideological, political, and social struggles of Indian people. The recognition and reclamation of these struggles in Indian history is an important ideological task that Ambedkar considered very crucial. 

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While describing one of the riddles of Hinduism, Ambedkar says something which could have become a weapon in the struggle for reinterpreting and reclaiming the philosophical legacy of India from its conventionalised appropriation by the right-wing forces. Unfortunately, because of the ineptitude of the liberal elements of the status quo and the demoralised self of the left, the same words are being mobilised to appropriate Ambedkar for Hindutva. 

Ambedkar in his Riddle No. 22, discusses the characteristics of democracy, beyond electoral fetishism. According to him, democracy cannot even be reduced to a mere form of government. For him, “it is a form of the organization of society.” In fact, good government to a large extent “depends upon the mental and moral disposition of its subjects…. Democracy is more than a political machine. It is even more than a social system. It is an attitude of mind or a philosophy of life.”

Ambedkar considers equality and liberty as “the deepest concern of democracy,” yet he considers their equation with democracy not correct. The most crucial element that defines democracy is what sustains even equality and liberty. It is not “the law of the state” that sustains them, but fraternity, fellow-feeling. The better expression for this, according to him, is MAITRI — compassionate companionship. “If in democracy, liberty does not destroy equality and equality does not destroy liberty, it is because at the basis of both there is fraternity.”

Thus, Ambedkar asks the crucial question that forms the basis of one of the riddles of Hinduism. “Why did democracy not grow in India?” As the roots of the fraternity are found in the ethical and social life of the community, which for Ambedkar is organised in religion, it is the lack of fraternity in the Hindu religion that doesn’t allow democracy to grow in India. 

But this leads Ambedkar to a further investigation, which is very crucial for us today, as it provides a perspective to rewrite the history of ideas in India. He says that the absence of fraternity in Hinduism does not mean “that the doctrine of fraternity was unknown to the Hindu religious and philosophic thought.” In fact,

“The Hindu religious and philosophic thought gave rise to an idea which had greater potentialities for producing social democracy than the idea of fraternity. It is the doctrine of Brahmaism.”

Had anybody other than Ambedkar written this, one could imagine the response from the “politically correct” community. Remember the reaction to EMS Namboodiripad’s innocent remarks in 1990 on the significance of Advaita Vedanta and Shankaracharya from his comrades!

Coming back to the text, Ambedkar here differentiates between Brahmaism, Vedanta, and Brahmanism. “Although they are correlated they stand for three different and distinct ideologies.”

The essence of Brahmaism is coded in the mahavakyas which identify Brahma with me, you, and everybody. Vedanta accepts the mahavakyas but views the world as unreal or maya [thus making the principle of Brahma socially impotent]. And, Brahmanism brought in its defence of chaturvarna, infallibility of the Vedas, and sacrifices to gods as the only way to salvation, perhaps to complement Vedanta’s unconcern for reality. 

Ambedkar defends Brahmaism against those who consider it a piece of impudence. Even aham brahmasmi is not an arrogant statement, but “an assertion of one’s own worth” – a remedy against the inferiority complex from which humanity suffers today. Further, this vakya should be read along with tattvamasi – which allows each individual to know himself to be as good as everybody. “Democracy demands that each individual shall have every opportunity for realizing his worth.” And, Brahmaism provides a philosophical ground for this aspect of democracy.

For Ambedkar, the unknowability of Brahma too is of no significance. More important are the social implications of the theory of Brahma — that everybody is a part of the same cosmic principle. This provides a solid foundation for democracy — “If all persons are parts of Brahma then all are equal and all must enjoy the same liberty, which is what democracy means.”

According to Ambedkar, the Christian principle of us being children of God is a very weak foundation for democracy. He says,

“That is why democracy is so shaky wherever it made to rest on such a foundation. But to recognize and realize that you and I are parts of the same cosmic principle leaves room for no other theory of associated life except democracy. It does not merely preach democracy. It makes democracy an obligation of one and all.”

But then what happened to Brahmaism, “why did it fail to produce a new society”? Of course, it was due to the Hindu social system and its defence in the shape of the alliance between Vedanta and Brahmanism, best epitomised in the persona and “the teaching of the Great Shankaracharya.” Ambedkar says,

“For it was this Shankaracharya who taught that there is Brahma and this Brahma is real and that it pervades all and at the same time upheld all the inequities of Brahmanic society. Only a lunatic could be happy with being the propounder of two such contradictions. Truly as the Brahman is like a cow, he can eat anything and everything as the cow does and remain a Brahman.”

Beyond the symbolic burning of Manusmriti, Ambedkar’s agenda was to reclaim the philosophy of Brahma as a principle for social organisation. Once Hegel remarked that the history of philosophy would be better if less deserts and merits are accorded to particular individuals — “the more it deals with thought as free, with the universal character of man as man, the more this thought, which is devoid of special characteristic, is itself shown to be the producing subject.” (Hegel, Lectures on the History of Philosophy) What Ambedkar proposes here is to free the concept of Brahma, which has the potential of founding a solid social bond of Maitri, necessary to achieve equality and liberty, and build a vibrant social democracy, from the Brahman who is like a cow…

(Ambedkar’s quotes are from Riddles in Hinduism: An Exposition to Enlighten the Masses, The Annotated Critical Selection, Navayana, Delhi, pp. 166-179)