गैर-मज़हबी आलोचना का आधार है: मनुष्य मज़हब को बनाता है, मज़हब मनुष्य को नहीं बनाता। मज़हब, वास्तव में, उस मनुष्य की आत्म-चेतना और आत्म-सम्मान है जिसने या तो अभी तक खुद को नहीं जीता है, या खुद को फिर से खो दिया है। लेकिन मनुष्य कोई अमूर्त प्राणी नहीं है जो संसार से बाहर बैठा हुआ है। मनुष्य मनुष्य की दुनिया है — राज्य, समाज। यह राज्य और यह समाज मज़हब का निर्माण करते हैं, जो दुनिया की एक उलटी चेतना है, क्योंकि वे एक उलटी दुनिया हैं। मज़हब इस संसार का सामान्य सिद्धांत है, इसका विश्वकोश है, इसका लोकप्रिय रूप में तर्क है, इसका आध्यात्मिक प्रतिष्ठा बिंदु है, इसका उत्साह है, इसका नैतिक अनुमोदन है, इसका गंभीर पूरक है, और सांत्वना और औचित्य का सार्वभौमिक आधार है। यह मानव सार का तरंगी अहसास है क्योंकि मानव सार ने कोई सच्ची वास्तविकता हासिल नहीं की है। इसलिए, मज़हब के विरुद्ध संघर्ष अप्रत्यक्ष रूप से उस दुनिया के विरुद्ध संघर्ष है जिसकी आध्यात्मिक सुगंध मज़हब है।
मज़हबी पीड़ा, एक ही समय में, वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति और वास्तविक पीड़ा के प्रति विरोध है। मज़हब उत्पीड़ित प्राणी की आह है, हृदयहीन संसार का हृदय है और निष्प्राण स्थितियों की आत्मा है। यह लोगों की अफ़ीम है।
लोगों की भ्रामक खुशी के रूप में मज़हब का उन्मूलन उनकी वास्तविक खुशी की मांग है। उनसे अपनी स्थिति के बारे में भ्रम त्यागने का आह्वान करना, उनसे उस स्थिति को त्यागने का आह्वान करना है जिसमें भ्रम की आवश्यकता होती है। इसलिए, मज़हब की आलोचना, भ्रूण रूप में, आंसुओं की उस घाटी की आलोचना है जिसका आभामंडल मज़हब है।
आलोचना ने ज़ंजीर पर लगे काल्पनिक फूलों को इसलिए नहीं तोड़ा है कि मनुष्य बिना किसी कल्पना या सांत्वना के उस ज़ंजीर को झेलता रहेगा, बल्कि इसलिए कि वह ज़ंजीर को उतार फेंकेगा और जीवित फूल को तोड़ेगा। मज़हब की आलोचना मनुष्य का मोहभंग करती है, ताकि वह उस व्यक्ति की तरह सोचे, कार्य करे और अपनी वास्तविकता को गढ़े, जिसने अपने भ्रम को त्याग दिया है और अपनी इंद्रियों को पुनः प्राप्त कर लिया है, ताकि वह अपने स्वयं के सच्चे सूर्य के रूप में अपने चारों ओर घूम सके। मज़हब केवल वह मायावी सूर्य है जो मनुष्य के चारों ओर तब तक घूमता रहता है जब तक वह अपने चारों ओर नहीं घूमता।
इसलिए, जब एक बार सत्य का पर-लोक लुप्त हो जाता है, तो इह-लोक की सच्चाई को स्थापित करना इतिहास का कार्य है। मानवीय आत्म-अलगाव के पवित्र रूप को एक बार बेनकाब करने के बाद उसके अपवित्र रूपों में आत्म-अलगाव को उजागर करना इतिहास की सेवा में दर्शन का तात्कालिक कार्य है। इस प्रकार, स्वर्ग की आलोचना पृथ्वी की आलोचना में बदल जाती है, मज़हब की आलोचना कानून की आलोचना में और मज़हबी-शास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना में बदल जाती है।
(from Karl Marx. A Contribution to the Critique of Hegel’s Philosophy of Right [1843-44])