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क्लारा ज़ेटकिन – फासीवाद (अगस्त 1923)


मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट)

[जर्मनी की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी क्लारा ज़ेटकिन (1857-1933) ने जून 1923 में कॉमिन्टर्न की कार्यकारिणी समिति के तीसरे अभिवर्धित प्लेनम में एक  रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। यह रिपोर्ट अंग्रेजी में ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की मासिक पत्रिका, लेबर मंथली, में अगस्त 1923 में संक्षेप में छपी थी, जिसका यहाँ हम हिन्दी अनुवाद दे रहे हैं। इससे पहले नवंबर 1922 में इतालवी मार्क्सवादी अमादेओ बोर्दीगा ने भी फासीवाद पर एक रिपोर्ट कॉमिन्टर्न में पेश की थी, परंतु ज़ेटकिन की रिपोर्ट ने ही फासीवाद पर बाद  की कम्युनिस्ट समूहों की चर्चाओं के लिए प्रथम व्यवहारात्मक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण तैयार किया था।  

इस रिपोर्ट में ज़ेटकिन फासीवाद के उत्थान को पूंजीवाद के आर्थिक संकट और उसके संस्थाओं के पतन से जोड़ती हैं। मजदूर वर्ग पर बढ़ता आक्रमण और अन्य वर्गों का सर्वहाराकरण इस संकट के प्रमुख नतीजे हैं। ज़ेटकिन का मानना है कि सत्तासीन होकर समाज को पुनर्गठित कर पूंजीवाद के सामाजिक संकट का निवारण करने में सर्वहारा वर्ग की असफलता फासीवाद को जन्म देती है। पूंजीवाद के संकट से व्याकुल हो रहे विभिन्न निम्न-पूंजीवादी तबकों को आकर्षित करने की क्षमता फासीवाद को जन-चरित्र देती है। फासीवादी विचारधारा राष्ट्र और राजसत्ता को वर्गीय अंतर्विरोधों और हितों से ऊपर रख अंध-राष्ट्रवाद फैला कर सैन्यवाद और युद्धवाद के लिए माहौल तैयार करती है। पूंजीपति वर्ग  के कई महत्वपूर्ण तबके पूंजीवाद के सामान्य संकट और जनता के लगातार सर्वहाराकरण के कारण अपनी  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्वता पर खतरे से बचने के लिए फासीवाद का समर्थन और वित्तीय पोषण आरंभ कर देते हैं।   

ज़ेटकिन फासीवाद पर ओटो बावर (जो कि ऑस्ट्रीया के सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रमुख नेता और सिद्धांतकार थे) जैसे सुधारवादियों की समझ की तीव्र आलोचना करती हैं, ओटो बावर के अनुसार फासीवाद महज कम्युनिस्टों द्वारा संगठित सर्वहारा लड़ाकूपन और कानूनेतर गतिविधियों का नतीजा था। ज़ेटकिन फासीवाद के खिलाफ शोषित जनता के अपने रक्षा पहलों पर जोर देती हैं। उनके अनुसार सर्वहारा वर्गीय संयुक्त मोर्चे का निर्माण ही फासीवाद को चुनौती दे सकता है।  परंतु यह संघर्ष राजनीतिक और वैचारिक भी है इनके द्वारा श्रमिक वर्ग को मध्यम वर्गीय तबकों तक अपनी पहुँच बनानी होगी चूंकि इनके ऊपर पूंजीवादी संकट और सर्वहाराकरण का असर पड़ता है। ज़ेटकिन के अनुसार मजदूरों और किसानों की संयुक्त सरकार ही सामाजिक-आर्थिक संकट का निवारण कर फासीवाद का विनाश कर सकती है।

हमारी दृष्टि में क्लारा ज़ेटकिन की यह रिपोर्ट केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती है। जहां तक फ़ासिज़्म के खिलाफ तात्कालिक रणनीतियों का सवाल है वह तो स्थान और समय के मुताबिक तब्दील होती रहती हैं। परंतु इस रिपोर्ट में निहित  मार्क्सवादी व्याख्यात्मक अंतर्दृष्टि आज भी हमें बहुत कुछ सिखा सकती है। फासीवाद को महज सत्ता के औजार के बने बनाए रूप में न देख उसको सामाजिक प्रक्रियाओं और वर्ग सघर्षों की अवस्थाओं के अंदर से पनपता हुआ देखने की जरूरत है। आज पिछले पाँच दशकों से वैश्विक पूंजीवादी राजनीतिक अर्थतन्त्र स्थायी-संकट से ग्रस्त है। इस संकट से निज़ात पाने के लिए भूमंडलीय वित्तीयकरण की प्रक्रिया लगातार बृहत्तर और तीव्रतम होती जा रही। विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया ने आर्थिक-सामाजिक संकट को और अधिक व्यापक और तीव्र कर दिया है, यहां तक कि विश्व की तमाम राजसत्ताएँ इसके कारण निरंतर वैधता के संकट में डूबती जा रही हैं — इनकी आक्रामकता इनकी बढ़ती असंगतता और कमज़ोरियों के लक्षण हैं।  इसी संकटावस्था को सकारात्मक भाषा में नवोदरवाद भी कहते हैं। यह तथ्य इस रिपोर्ट की अंतर्दृष्टि को और महत्व दे देता है क्योंकि फासीकरण इस अवस्था में समूचे सामाजिक-राजनीतिक संरचना में गुत्थ गई है, और इसके खिलाफ संघर्ष को तात्कालिकवाद में सीमित नहीं रखा जा सकता । ]

फासीवाद के रूप में, सर्वहारा वर्ग का सामना एक असाधारण खतरनाक शत्रु से होता है। फासीवाद सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध विश्व पूंजीपति वर्ग द्वारा किये गये व्यापक आक्रमण की घनीभूत अभिव्यक्ति है। इसलिए इसे उखाड़ फेंकना नितांत आवश्यक ही नहीं, बल्कि यह हर साधारण श्रमिक की रोजमर्रा की ज़िंदगी और रोजी-रोटी का सवाल भी है। इन्हीं आधारों पर समूचे सर्वहारा वर्ग को फासीवाद के खिलाफ लड़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि हम स्पष्टता और गहनता से इसकी प्रकृति का अध्ययन करें तो फासीवाद को हराना हमारे लिए बहुत आसान होगा। अब तक इस विषय पर न केवल श्रमिकों के विशाल जनसमूह के बीच, बल्कि सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी अग्रदूतों और कम्युनिस्टों के बीच भी बेहद अस्पष्ट विचार रहे हैं। अब तक फासीवाद को हंगरी में होर्थी (Horthy) के श्वेत आतंक के समकक्ष समझा गया है। हालाँकि दोनों की पद्धतियाँ समान हैं, लेकिन मूलतः वे अलग-अलग हैं। होर्थी आतंक सर्वहारा वर्ग की विजयी, अपितु अल्पकालिक, क्रांति को दबा दिए जाने के उपरांत स्थापित हुआ था, और यह पूंजीपति वर्ग के प्रतिशोध की अभिव्यक्ति थी। श्वेत आतंक का सरगना पूर्व अधिकारियों का एक छोटा सा गुट था। इसके विपरीत, वस्तुपरक रूप से देखा जाए तो फासीवाद, पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा आक्रामकता के प्रतिशोध में पूंजीपति वर्ग का बदला नहीं है, बल्कि वह रूस में शुरू हुई क्रांति को जारी रखने में विफल रहने के लिए सर्वहारा वर्ग की सजा है। फासीवादी नेताओं की कोई छोटी और विशिष्ट जाति नहीं है; वे जनसंख्या के व्यापक हिस्सों में गहराई से फैले हुए हैं।

केवल सैन्य रूप से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी हमें फासीवाद पर काबू पाना होगा। आज भी सुधारवादियों के लिए फासीवाद नग्न हिंसा — सर्वहारा वर्ग द्वारा शुरू की गई हिंसा के विरुद्ध प्रतिक्रिया — के अलावा कुछ भी नहीं है। सुधारवादियों के लिए रूसी क्रांति अदन की वाटिका में हव्वा के सेब चखने [यानि महापाप] के समान है। सुधारवादी फासीवाद को रूसी क्रांति और उसके परिणामों से जोड़ते हैं। हामबुर्ग के एकता सम्मेलन में ओटो बावर का इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं था, जब उन्होंने फासीवाद के लिए बहुत हद तक दोषी कम्युनिस्टों को ठहराया, जिन्होंने, उनके अनुसार, लगातार विभाजन से सर्वहारा वर्ग की ताकत को कमजोर कर दिया था। यह कहते हुए उन्होंने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि रूसी क्रांति के इस मनोबल गिराने वाले उदाहरण से बहुत पहले जर्मनी के स्वतंत्र [सामाजिक-जनवादियों] ने विभाजन को अंजाम दिया था। खुद के विचारों के विपरीत, बावर को हामबुर्ग में इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि फासीवाद की संगठित हिंसा का मुकाबला सर्वहारा वर्ग के रक्षा संगठनों के निर्माण से किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रत्यक्ष हिंसा के खिलाफ लोकतंत्र की कोई भी अपील काम नहीं कर सकती। अवश्य ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनका मतलब विद्रोह या आम हड़ताल जैसे हथियारों से नहीं था जिनसे हमेशा सफलता नहीं मिली है। उनका अभिप्राय जन कार्रवाई के साथ संसदीय कार्रवाई के सामंजस्य से था। ओटो बावर ने यह नहीं बताया कि इन कार्रवाइयों की प्रकृति क्या होगी, जबकि प्रश्न का मूल बिंदु यही है। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए एकमात्र हथियार जिसकी सिफारिश बावर ने की वह विश्व प्रतिक्रियावाद पर अंतर्राष्ट्रीय सूचना ब्यूरो की स्थापना थी। इस नए-पुराने इंटरनेशनल का विशिष्ट लक्षण पूंजीवादी वर्चस्व की शक्ति और स्थायित्व में उसका विश्वास और विश्व क्रांति के सबसे मजबूत कारक के रूप में सर्वहारा वर्ग के प्रति उसका अविश्वास और बुज़दिली है। उसका मानना है कि सर्वहारा पूंजीपति वर्ग की अजेय ताकत के खिलाफ संयम से काम लेने और पूंजीपति वर्ग के बाघ को छेड़ने से परहेज करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। 

वास्तव में, अपने हिंसक कृत्यों के अभियोजन में अपनी पूरी ताकत के साथ, फासीवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विघटन और क्षय की अभिव्यक्ति और बुर्जुआ राजसत्ता के भंग होने के लक्षण के अलावा और कुछ नहीं है। यही उसके आधारों में से एक है। पूंजीवाद के इस पतन के लक्षण युद्ध से पहले ही दिखाई देने लगे थे। युद्ध ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उसकी नींव समेत तहस-नहस कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप न केवल सर्वहारा वर्ग में भारी दरिद्रता आई है, बल्कि निम्न पूंजीवादी वर्ग, छोटे किसानों और बुद्धिजीवियों की भी बड़ी दुर्गति हुई है। इन सभी समूहों से वादा किया गया था कि युद्ध से उनकी भौतिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरीत —  बड़ी संख्या में पहले का मध्यम वर्ग अपनी आर्थिक सुरक्षा को पूरी तरह से खोकर सर्वहारा बन गया है। इस कतार में बड़ी संख्या में पूर्व अधिकारी भी शामिल हो गए, जो अब बेरोजगार हैं। इन्हीं तत्वों में से फासीवाद को अपने लिए पर्याप्त रंगरूट मिले। फासीवाद की ऐसी संरचना कई देशों में उसके मुखर राजशाहीवादी चरित्र का कारण है। 

फासीवाद की दूसरी जड़ सुधारवादी नेताओं के विश्वासघाती रवैये द्वारा विश्व क्रांति की गति को धीमा करने में निहित है। सुधारवादी समाजवाद के प्रति निश्चित सहानुभूति की वजह से और इस आशा में कि वह लोकतांत्रिक तर्ज पर समाज में सुधार लाएगा बड़ी संख्या में निम्न पूंजीपति वर्ग ने, यहां तक कि माध्यम वर्ग ने भी, युद्ध काल की अपनी मनोवृत्ति को त्याग दिया था। वे निराश थे। उन्हें दिख रहा है कि सुधारवादी नेता पूंजीपति वर्ग के साथ एक परोपकारी समझौते में हैं। इससे भी बुरा यह है कि इस जनता ने अब न केवल सुधारवादी नेताओं में, बल्कि समग्र रूप से समाजवाद में भी अपना विश्वास खो दिया है। समाजवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों की इस निराश भीड़ में सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा भी शामिल हो गया है – उन श्रमिकों का, जिन्होंने न केवल समाजवाद में, बल्कि अपने वर्ग में भी अपना विश्वास छोड़ दिया है। फासीवाद राजनीतिक रूप से आश्रयहीन लोगों के लिए एक प्रकार की शरणस्थली बन गया है। निष्पक्षता में यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि कम्युनिस्ट भी – रूसियों को छोड़कर – फासीवादी कतारों में इन तत्वों के पलायन के लिए कुछ हद तक दोषी हैं, क्योंकि कई बार हमारी कार्रवाइयाँ जनता को गहराई से आंदोलित करने में विफल रही हैं। समाज के विभिन्न तत्वों के बीच समर्थन प्राप्त करते समय फासीवादियों का स्पष्ट उद्देश्य, निश्चित रूप से, अपने अनुयायियों के बीच वर्ग विरोध को पाटने का प्रयास करना रहा होगा और तथाकथित आधिकारिक राज्य को इस उद्देश्य के लिए एक साधन के रूप में काम करना था। फासीवाद अब ऐसे तत्वों को गले लगाता है जो पूंजीवादी व्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक हो सकते हैं। फिर भी, अब तक इन तत्वों पर प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने लगातार विजय प्राप्त की है।

पूंजीपति वर्ग ने शुरू से ही स्थिति को स्पष्ट रूप से देख लिया था। वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करना चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों में पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व का पुनर्निर्माण पूंजीपति वर्ग द्वारा केवल सर्वहारा वर्ग के बढ़ते शोषण की कीमत पर ही किया जा सकता है। पूंजीपति वर्ग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि मृदुभाषी सुधारवादी समाजवादी सर्वहारा वर्ग पर अपनी पकड़ तेजी से खो रहे हैं, और पूंजीपति वर्ग के लिए सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हिंसा का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। लेकिन पूंजीवादी राज्यों के हिंसा के साधन विफल होने लगे हैं। इसलिए उन्हें हिंसा के नए संगठन की आवश्यकता है, और यह उन्हें फासीवाद का खिचड़ी समूह मुहैया कराता है। इस कारण से पूंजीपति वर्ग फासीवाद की सेवा में अपनी सारी ताकत लगा देता है। 

विभिन्न देशों में फासीवाद की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। फिर भी इसकी दो विशिष्टताएं सभी देशों में समान रूप से मौजूद होती हैं —  एक, क्रांतिकारी कार्यक्रम का दिखावा, जिसे चतुराई से बड़े पैमाने पर जनता के हितों और मांगों के लिए अनुकूलित किया जाता है, और दूसरी ओर, सबसे क्रूर हिंसा का प्रयोग। इसका उत्कृष्ट उदाहरण इतालवी फासीवाद है। इटली में औद्योगिक पूंजी इतनी मजबूत नहीं थी कि बर्बाद अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा कर सके। यह उम्मीद नहीं थी कि राजसत्ता उत्तरी इटली की औद्योगिक राजधानी की शक्ति और भौतिक संभावनाओं के विस्तार के लिए हस्तक्षेप करेगी। राज्य अपना सारा ध्यान कृषि पूंजी और छोटी वित्तीय पूंजी पर दे रहा था। भारी उद्योग, जिन्हें युद्ध के दौरान कृत्रिम रूप से बढ़ावा दिया गया था, युद्ध समाप्त होने पर ध्वस्त हो गए और अभूतपूर्व बेरोजगारी की लहर चल पड़ी। सैनिकों को दिए गए वादे पूरे नहीं किए जा सके। इन सभी परिस्थितियों ने अत्यंत क्रांतिकारी माहौल को जन्म दिया। इस क्रांतिकारी माहौल के परिणामस्वरूप, 1920 की गर्मियों में, कारखानों पर कब्ज़ा हो गया। उस अवसर पर क्रांति की परिपक्वता सर्वहारा वर्ग के एक छोटे से अल्पसंख्यक हिस्से के बीच पहली बार प्रकट होती हुई दिखी। इसलिए फ़ैक्टरियों पर कब्ज़ा क्रांतिकारी विकास का शुरुआती बिंदु बनने के बजाय एक ज़बरदस्त हार के साथ ख़त्म होना तय था। ट्रेड यूनियनों के सुधारवादी नेताओं ने घृणित गद्दारों की भूमिका निभाई, लेकिन साथ ही यह भी दिखा कि सर्वहारा वर्ग के पास क्रांति की ओर बढ़ने की न तो इच्छा थी और न ही शक्ति। 

सुधारवादी प्रभाव के बावजूद, सर्वहारा वर्ग के बीच ऐसी ताकतें काम कर रही थीं जो पूंजीपति वर्ग के लिए असुविधाजनक हो सकती थीं। नगरपालिका चुनाव, जिसमें सामाजिक जनवादियों ने तमाम परिषदों में से एक तिहाई जीत हासिल की, पूंजीपति वर्ग के लिए खतरे का संकेत था, जिन्होंने तुरंत एक ऐसी ताकत की तलाश शुरू कर दी जो क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का मुकाबला कर सके। यह वही समय था जब मुसोलिनी के फाशीस्मो (fascismo) को कुछ महत्व प्राप्त हुआ था। फ़ैक्टरियों पर कब्जे में सर्वहारा वर्ग की हार के बाद फासीवादियों (fascisti) की संख्या 1,000 से अधिक हो गई और उसका एक बड़ा हिस्सा मुसोलिनी के संगठन में शामिल हो गया। दूसरी ओर, सर्वहारा वर्ग का विशाल जनसमूह उदासीनता की चपेट में आ गया था। फासिस्टों की पहली सफलता का कारण यह था कि उन्होंने अपनी शुरुआत क्रांतिकारी हावभाव से की थी। उनका दिखावटी उद्देश्य क्रांतिकारी युद्ध की क्रांतिकारी विजय को बरकरार रखने के लिए लड़ना था, और इस कारण से उन्होंने एक मजबूत राज्य की मांग की जो समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिरोधी हितों के खिलाफ, जिनका प्रतिनिधित्व “पुराना राज्य” करता था, जीत के इन क्रांतिकारी फलों की रक्षा करने में सक्षम होगा। इनका नारा सभी शोषकों के खिलाफ था, और इसलिए पूंजीपति वर्ग के खिलाफ भी था। उस समय फासीवाद इतना कट्टरपंथी था कि उसने जियोलित्ती को फांसी देने और इतालवी राजवंश को गद्दी से हटाने की भी मांग की। लेकिन जियोलित्ती ने सावधानीपूर्वक फासीवाद, जिसे वह कम बुरा मानता था, के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करने से परहेज किया। इन फासीवादी दावों को संतुष्ट करने के लिए उसने संसद को भंग कर दिया। उस समय मुसोलिनी अभी भी रिपब्लिकन होने का दिखावा कर रहा था, और एक साक्षात्कार में उसने घोषणा की कि फासीवादी गुट इतालवी संसद के उद्घाटन में भाग नहीं ले सकता क्योंकि वह राजशाही समारोह के साथ होना था। इन कथनों ने फासीवादी आंदोलन में संकट पैदा कर दिया, जिसे  मुसोलिनी के अनुयायियों और राजशाही संगठन के प्रतिनिधियों के विलय के बाद पार्टी के रूप में स्थापित किया गया था, और नई पार्टी की कार्यकारिणी दोनों गुटों के बराबर प्रतिनिधित्व से बनी थी। फासीवादी पार्टी ने मजदूर वर्ग को भ्रष्ट और आतंकित करने का दोधारी हथियार निर्मित किया। श्रमिक वर्ग को भ्रष्ट करने के लिए फासीवादी ट्रेड यूनियनें, तथाकथित निगम जिनमें श्रमिक और नियोक्ता एकजुट थे, बनाई गईं। मजदूर वर्ग को आतंकित करने के लिए फासीवादी पार्टी ने उग्रवादी दस्ते बनाए जो दंड देने के अभियानों से विकसित हुए थे। यहां इस बात पर फिर से जोर दिया जाना चाहिए कि आम हड़ताल के दौरान इतालवी सुधारवादियों की जबरदस्त दगाबाजी, जो इतालवी सर्वहारा वर्ग की भयानक हार का कारण बनी, ने फासीवादियों को राजसत्ता पर कब्जा करने के लिए सीधा प्रोत्साहन दिया था। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट पार्टी की गलतियों का आधार फासीवाद को बिना किसी गहन सामाजिक आधार के महज एक सैन्यवादी और आतंकवादी आंदोलन मानना था।

आइए अब देखें कि फासीवाद ने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद से अपने इच्छित क्रांतिकारी कार्यक्रम को पूरा करने के लिए, वर्ग रहित राज्य बनाने के अपने वादे को साकार करने के लिए क्या किया है। फासीवाद ने एक नए और बेहतर चुनावी कानून और महिलाओं के लिए समान मताधिकार का वादा किया। मुसोलिनी का नया मताधिकार कानून वास्तव में फासीवादी आंदोलन के पक्ष में मताधिकार कानून का निकृष्टतम अवरोधक है। इस कानून के अनुसार, सभी सीटों में से दो-तिहाई सीटें सबसे मजबूत पार्टी को दी जानी चाहिए, और अन्य सभी दलों के पास कुल मिलाकर केवल एक-तिहाई सीटें होंगी। महिलाओं का मताधिकार लगभग पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया है। वोट देने का अधिकार केवल धनी महिलाओं और तथाकथित “युद्ध-प्रतिष्ठित” महिलाओं के एक छोटे समूह को दिया गया है। आर्थिक संसद और नेशनल असेंबली के वादे का अब कोई उल्लेख नहीं होता है, न ही सीनेट के उन्मूलन का, जिसकी फासीवादियों ने इतनी गंभीरता से प्रतिज्ञा की थी।

सामाजिक क्षेत्र में की गई संकल्पों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। फासिस्टों ने अपने कार्यक्रम में आठ-घंटे कार्यदिवस की घोषणा की थी, लेकिन उनके द्वारा पेश किये गये विधेयक में इतने सारे अपवादों का प्रावधान है कि इटली में आठ घंटे कार्यदिवस नहीं होना तय है। मजदूरी की गारंटी के वादे का भी कुछ नहीं हुआ। ट्रेड यूनियनों के विनाश ने नियोक्ताओं को 20 से 30 प्रतिशत और कुछ मामलों में 50 से 60 प्रतिशत तक वेतन कटौती करने का अधिकार दे दिया है। फासीवाद ने वृद्धावस्था और विकलांग बीमा का वादा किया था। व्यवहार में, फासीवादी सरकार ने, अर्थव्यवस्था की खातिर, बजट में इस उद्देश्य के लिए अलग रखे गए 50,000,000 लीरे की तुच्छ राशि को भी हटा दिया है। श्रमिकों को कारखानों के प्रशासन में तकनीकी भागीदारी के अधिकार का वादा किया गया था। आज इटली में एक कानून है जो फ़ैक्टरी कौंसिलों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाता है। राजकीय उद्यम निजी पूंजी के हाथों में खेल रहे हैं। फासीवादी कार्यक्रम में पूंजी पर प्रगतिशील आयकर का प्रावधान था, जो कुछ हद तक पूंजीवादी स्वामित्व को कमजोर करने का काम करता। वास्तव में जो हुआ वह लेकिन इसके विपरीत था। विलासिता की वस्तुओं पर विभिन्न करों को, जैसे ऑटोमोबाइल कर, समाप्त कर दिया गया, दलील दी गई कि यह राष्ट्रीय उत्पादन को अवरुद्ध करेगा। अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि इस कारण से की गई थी कि इससे घरेलू खपत में कमी आएगी और इस प्रकार निर्यात की संभावनाओं में सुधार होगा। फासीवादी सरकार ने प्रतिभूतियों के हस्तांतरण (transfer of securities) के अनिवार्य पंजीकरण के कानून को भी निरस्त कर दिया, इस प्रकार बियरर-बांड की प्रणाली को फिर से शुरू किया और कर चोरी करने वालों के लिए दरवाजा खोल दिया। स्कूलों को पादरी वर्ग को सौंप दिया गया। राजसत्ता पर कब्जा करने से पहले, मुसोलिनी ने एक आयोग की मांग की थी जो युद्ध से हुए मुनाफे (war profits) की जांच करेगा और उसमें  से 85 प्रतिशत राज्य को सौंप दिया जाएगा। जब यह आयोग मुसोलिनी के वित्तीय सरपरस्तों, भारी उद्योगपतियों के लिए असहज हो गया, तो उसने आदेश दिया कि आयोग केवल उसे ही रिपोर्ट सौंपे, और जो कोई भी उस आयोग में घटित कोई भी बात को प्रकाशित करेगा, उसे छह महीने की कैद की सजा दी जाएगी। सैन्य मामलों में भी फासीवाद अपने वादे निभाने में विफल रहा। सेना को क्षेत्रीय रक्षा तक सीमित रखने का वादा किया गया था। वास्तव में, स्थायी सेना के लिए सेवा की अवधि आठ महीने से बढ़ाकर अठारह कर दी गई, जिसका मतलब था कि सशस्त्र बलों की संख्या 250,000 से बढ़कर 350,000 हो गई। रॉयल गार्ड्स को समाप्त कर दिया गया क्योंकि वे मुसोलिनी के लिए बहुत लोकतांत्रिक थे। दूसरी ओर, काराबेनियरी (अर्धसैनिक पुलिस फोर्स) को 65,000 से बढ़ाकर 90,000 कर दिया गया और सभी पुलिस टुकड़ियों को दोगुना कर दिया गया। फासीवादी संगठन राष्ट्रीय मिलिशिया के रूप में तब्दील हो गए, जिनकी संख्या नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अब 500,000 तक पहुंच गई है। लेकिन सामाजिक मतभेदों ने मिलिशिया में राजनीतिक विरोधाभास का बीज बो दिया है, जो अंततः फासीवाद के पतन का कारण बनेगा।

जब हम फासीवादी कार्यक्रम की तुलना उसके पालन से करते हैं तो हम आज ही इटली में फासीवाद के पूर्ण वैचारिक पतन का अनुमान लगा सकते हैं। इस वैचारिक दिवालियेपन के बाद राजनीतिक दिवालियापन अनिवार्य रूप से सामने आता है। फासीवाद उन ताकतों को एक साथ रखने में असमर्थ है जिन्होंने उसे सत्ता में आने में मदद की। कई रूपों में हितों का टकराव पहले से ही महसूस किया जा रहा है। फासीवाद पुरानी नौकरशाही को अपने अधीन बनाने में अभी तक सफल नहीं हुआ है। सेना में पुराने अधिकारियों और नये फासीवादी नेताओं के बीच भी मनमुटाव है। विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे हैं। पूरे देश में फासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। वर्ग विरोध फासिस्टों की कतारों में भी व्याप्त होना शुरू हो गया है। फासीवादी उन वादों को पूरा करने में असमर्थ हैं जो उन्होंने श्रमिकों और फासीवादी ट्रेड यूनियनों से किये थे। मज़दूरों की मज़दूरी में कटौती और बर्खास्तगी आजकल आम बात हो गई है। इसीलिए फासीवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन के खिलाफ पहला विरोध स्वयं फासीवादियों की कतार से आया था। मजदूर शीघ्र ही अपने वर्गीय हित एवं वर्गीय दायित्व पर वापस आयेंगे। हमें फासीवाद को एकजुट शक्ति के रूप में नहीं देखना चाहिए जो हमारे हमले को विफल करने में सक्षम हो। बल्कि वह ऐसा गठन है, जिसमें कई विरोधी तत्व शामिल हैं, और वह भीतर से विघटित हो जाएगा। लेकिन यह मानना ​​खतरनाक होगा कि इटली में फासीवाद के वैचारिक और राजनीतिक विघटन के तुरंत बाद सैन्य विघटन होगा। इसके विपरीत, आतंकवादी तरीकों से फासीवाद द्वारा जीवित रहने के प्रयास के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसलिए, क्रांतिकारी इतालवी श्रमिकों को आगे के गंभीर संघर्षों के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि हम विघटन की इस प्रक्रिया के महज दर्शक बन संतुष्ट रहे तो यह बहुत बड़ी विपत्ति होगी। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने उपलब्ध सभी साधनों के साथ इस प्रक्रिया को तेज करें। यह न केवल इतालवी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है, बल्कि जर्मन फासीवाद के सामने जर्मन सर्वहारा वर्ग का भी कर्तव्य है।

इटली के बाद जर्मनी में फासीवाद सबसे मजबूत है। युद्ध के परिणाम और क्रांति की विफलता के नतीजतन, जर्मनी की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कमजोर है, और किसी अन्य देश में क्रांति के लिए वस्तुनिष्ठ परिपक्वता और श्रमिक वर्ग की आत्मपरक तैयारी के बीच इतना बड़ा अंतर नहीं है जितना कि अभी जर्मनी में। किसी भी अन्य देश में सुधारवादी इतनी बुरी तरह असफल नहीं हुए जितना कि जर्मनी में। उनकी विफलता पुराने इंटरनेशनल में किसी भी अन्य पार्टी की विफलता से अधिक आपराधिक है, क्योंकि उन्हें ही उस देश में, जहां मजदूर वर्ग के संगठन पुराने और अन्यत्र की तुलना में  बेहतर व्यवस्थित हैं, सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए बिल्कुल अलग तरीकों से संघर्ष करना चाहिए था। 

मुझे पूरा यकीन है कि न तो शांति संधियों और न ही रूर (Ruhr) के कब्जे से जर्मनी में फासीवाद को वैसा बढ़ावा मिला है जितना कि मुसोलिनी द्वारा सत्ता हथियाने से । इससे जर्मन फासिस्ट प्रोत्साहित हुए हैं। इटली में फासीवाद का खात्मा जर्मनी में फासीवादियों का हौसला पस्त करेगा । हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए: विदेशों में फासीवाद को उखाड़ फेंकने की शर्त हर एक देश में इन देशों के सर्वहारा द्वारा फासीवाद को उखाड़ फेंकना है। हमारा दायित्व है कि हम वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर विजय प्राप्त करें। यह हम पर भारी कार्यभार थोपता है। हमें समझना होगा कि फासीवाद निराश लोगों का और उन लोगों का आंदोलन है जिनका अस्तित्व नष्ट हो गया है। इसलिए, हमें उस व्यापक जनसमूह को जीतने या बेअसर करने का प्रयास करना चाहिए जो अभी भी फासीवादी खेमे में हैं। मैं अपने इस एहसास के महत्व पर जोर देना चाहती हूं कि हमें इस जनता की आत्मा पर कब्ज़ा करने के लिए वैचारिक रूप से संघर्ष करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि वे न केवल अपने वर्तमान कष्टों से भागने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वे एक नए दर्शन के लिए लालायित हैं। हमें अपनी वर्तमान गतिविधि की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आना होगा। तीसरा इंटरनेशनल, पुराने इंटरनेशनल के विपरीत, बिना किसी भेदभाव के सभी नस्लों का इंटरनेशनल है। कम्युनिस्ट पार्टियों को न केवल शारीरिक सर्वहारा श्रमिकों का अगुआ होना चाहिए, बल्कि दिमागी श्रमिकों के हितों का ऊर्जावान रक्षक भी होना चाहिए। उन्हें समाज के उन सभी वर्गों का नेता होना चाहिए जो अपने हितों और भविष्य की अपेक्षाओं के कारण बुर्जुआ वर्चस्व के विरोध में हैं। इसलिए, मैंने  (इस साल जून में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की विस्तारित कार्यकारी समिति के एक सत्र में बोलते हुए) मजदूरों और किसानों की सरकार के लिए संघर्ष शुरू करने के लिए कॉमरेड ज़िनोविएव के प्रस्ताव का स्वागत किया। जब मैंने इसके बारे में पढ़ा तो मैं बहुत खुश हुई। यह नया नारा सभी देशों के लिए बहुत मायने रखता है। फासीवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में हम इससे दूर नहीं रह सकते। इसका अर्थ है कि छोटे किसानों की व्यापक जनता का उद्धार साम्यवाद के माध्यम से होगा। हमें अपने आप को केवल अपने राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। हमें साथ ही एक दर्शन के रूप में साम्यवाद के आदर्शों से जनता को परिचित कराना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम उन सभी तत्वों को एक नए दर्शन का मार्ग दिखाएंगे, जिन्होंने हाल के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में अपना असर खो दिया है। इसके लिए आवश्यक शर्त यह है कि, जैसे-जैसे हम इन जनता के पास पहुंचते हैं, हम संगठनात्मक रूप से, एक पार्टी के रूप में, एक मजबूती से जुड़ी हुई इकाई बन जाते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हम अवसरवादिता में फंसने और दिवालिया हो जाने का जोखिम उठाते हैं। हमें अपने काम के तरीकों को अपने नये कार्यों के अनुरूप ढालना होगा। हमें जनता से ऐसी भाषा में बात करनी चाहिए जिसे वो, हमारे विचारों पर पूर्वाग्रह के बिना, समझ सके। इस प्रकार, फासीवाद के खिलाफ संघर्ष कई नए कार्यभारों को सामने लाता है।

यह सभी पार्टियों का दायित्व है कि वे इस कार्यभार को ऊर्जावान ढंग से और अपने-अपने देश की स्थिति के अनुरूप पूरा करें। हालाँकि, हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर काबू पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। फासीवाद से उसके मुकाबले में सर्वहारा वर्ग की स्थिति वर्तमान में आत्मरक्षा की है। सर्वहारा वर्ग की इस आत्मरक्षा को उसके अस्तित्व और उसके संगठन के लिए संघर्ष का रूप लेना होगा।

सर्वहारा वर्ग के पास आत्मरक्षा का सुव्यवस्थित तंत्र होना चाहिए। जब भी फासीवाद हिंसा का प्रयोग करता है, तो उसका सामना सर्वहारा हिंसा से ही करना पड़ता है। मेरा तात्पर्य व्यक्तिगत आतंकवादी कृत्यों से नहीं, बल्कि सर्वहारा वर्ग के संगठित क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की हिंसा से है। जर्मनी ने “सर्वहारा सौ” (proletarische hundertschaften —  श्रमिक मिलिशिया) संगठित करके एक शुरुआत की है। यह संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब सर्वहारा संयुक्त मोर्चा हो। श्रमिकों को पार्टी से ऊपर उठकर इस संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा। सर्वहारा वर्ग की आत्मरक्षा सर्वहारा संयुक्त मोर्चे की स्थापना के लिए सबसे बड़े प्रोत्साहनों में से एक है। प्रत्येक श्रमिक की आत्मा में वर्ग-चेतना पैदा करके ही हम फासीवाद को सैन्य रूप से उखाड़ फेंकने के लिए भी तैयारी करने में सफल होंगे, जो इस समय नितांत आवश्यक है। यदि हम इसमें सफल होते हैं, तो हम यकीन कर सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग के खिलाफ पूंजीपति वर्ग के आम आक्रमण की सफलताओं के बावजूद, जल्द ही पूंजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ शक्ति का काम तमाम हो जाएगा। विघटन के चिन्ह, जो हमारी आंखों के सामने स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं, हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि महाकाय सर्वहारा फिर से क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल होगा, और तब पूंजीवादी दुनिया के लिए उसका आह्वान होगा: मैं शक्ति हूं, मैं संकल्प हूं, मुझमें तुम भविष्य देखते हो!

The Civil War in Sudan and People’s Resistance (Video)


कानून और आज की व्यवस्था (Video)


श्रीलंका का संकट और “जनता अरगलय”  


“हम नहीं जानते और न ही जान सकते हैं कि संसारव्यापी आर्थिक और राजनीतिक संकट के परिणामस्वरूप सभी देशों में उड़ने वाली असंख्य चिंगारियों में से कौन सी चिंगारी आग को भड़काएगी, यानी जनता को उठा खड़ा कर देगी।” — लेनिन (1920)

I

श्रीलंका की हाल की घटनाएँ आशा और निराशा दोनों ही पैदा करती हैं — अगर एक तरफ पिछले कई महीनों से दिखती जन-क्रियाओं की दृढ़ता, निरंतरता और  बहुआयामिता को देख कर आशा पैदा होती है, तो दूसरी तरफ इन घटनाओं के तात्कालिक नतीजे निराश करते हैं। यह बात सही है कि जिस फुर्ती से आंदोलन के नतीजतन राजसत्ता के चिह्नित मोहरे अप्रैल से जुलाई के अंतराल में एक एक कर लुढ़क रहे थे — मंत्रियों की कैबिनेट,  केन्द्रीय बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री, और अंत में राष्ट्रपति गोताबया का देश से भागना और बाहर से इस्तीफा देना — उतनी ही तेजी से नए मोहरे जुलाई के मध्य से सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ते गए। श्रीलंका में जहाँ तमाम राजनीतिक आभिजात्य संकर नस्ल के हैं — यानी उनके बीच आंतरिक और आपसी प्रजनन (केवल वैचारिक नहीं) की एक मजबूत परंपरा रही है, वहाँ महान इतालवी लेखक ज्यूसेप्पे तोमासी दी लांपेदूजा के उपन्यास “इल गात्तोपार्दो” (तेंदुआ) का व्यवस्थापरक कूटनीतिक निचोड़ — Cambiare tutto perché niente cambi (सब कुछ बदलो ताकि कुछ न बदले) पूरी तरह से लागू होता है। और कई दशकों से यही होता रहा है। 

परंतु इस बार कुछ तो अलग हुआ  —  श्रीलंका में वैश्विक सत्ताओं को भी श्रीलंका के इस आभिजात्य वर्ग की क्षमता पर शक होने लगा। यही वजह थी कि अमरीकी राजदूत जुली चुँग भूतपूर्व-“क्रांतिकारी आतंकवादी” जनता विमुक्ति पेरामुन (जेवीपी) के नेतृत्व को भी एक विकल्प के रूप में पेश करने लगीं। इन पिटे हुए नेताओं से मिलकर चुँग ने कहा कि “मुझे पता है कि अतीत में बहुत सारी बयानबाजी हुई थी”, परंतु आज “मेरे लिए जेवीपी एक महत्वपूर्ण पार्टी है। उसकी मौजूदगी बढ़ रही है। आज की जनता पर उसकी पकड़ मजबूत है।” सचमुच सब कुछ बदलना पड़ता है ताकि कुछ न बदले। परंतु विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति पद पर काबिज होने और भूतपूर्व त्रात्स्कीपंथी दिनेश गुणवर्देन के प्रधानमंत्री पद को संभालने से जेवीपी की बढ़ती महत्वाकांक्षा को एक हास्यास्पद अंत मिला, और फिलहाल सब कुछ बदलने की जरूरत नहीं पड़ी।

जो श्रीलंका की घटनाओं में निश्चित यथेष्ट “क्रांतिकारी” बदलाव देखना चाहते थे उनको अवश्य ही यह नतीजा उदासीन करता है। मगर तात्कालिक  राजनीतिक बदलावों से आंदोलन की महत्ता तय नहीं होती। ऐसे बदलावों में क्रांति को ढूँढ़ने वाले यह  भूलते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति ने पूंजीवाद को पैदा नहीं किया, पूंजीवाद ने फ्रांसीसी क्रांति को जन्म दिया; या फिर, रूसी क्रांति बोलशेविकों के दिमाग की उपज नहीं थी, सोवियतों और अन्य सामाजिक सरोकारों में होते बदलावों ने रूसी क्रांति को जन्म दिया। नतीजों के आधार पर अगर जन उभारों और क्रांतियों के औचित्य को तय करेंगे तो निराशा हाथ लगनी ही है। यदि हम इन आंदोलनों को  जन-क्रिया के संघटन और अवस्थाओं के रूप में न देखकर कर्मफलहेतु समझते रहेंगे हमें ये आंदोलन विफल क्या निरर्थक भी लगेंगे — और तब तो बीसवीं सदी की महान क्रांतियों और प्रतिक्रांतियों के सौ साल को हम एक जगह पर घूमने वाले चक्र की तरह देखेंगे और हम नहीं समझ पाएंगे कि किस प्रकार सर्वहारा जन की क्रियाओं और उनके सामूहिक आत्मनिर्णय ने पूंजीवाद के तमाम अवतारों को संकटग्रस्त रखा, उनको भी जो सर्वहारा क्रांतियों में जनित सत्ता के अलगाव के मूर्तरूप थे और जिन्हें समाजवाद का नाम दिया गया था। 

श्रीलंका को लेकर तमाम व्याख्याओं में जन-संघर्ष (जनता अरगलय) को जीवन-स्तरों में गिरावट को लेकर श्रमिक वर्ग (खास तौर पर उसके मध्य-वित्तीय तबके — इन्हें ही मध्यम वर्ग आजकल कहते हैं) की प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया है। इनकी दृष्टि में जनता क्रियाशील नहीं प्रतिक्रियाशील है। वर्चस्वकारी शक्तियों के बौद्धिक सिपाही इसमें कुछ विपक्षीय दलों और राष्ट्रविरोधी तत्वों का षड्यंत्र देखते हैं तो प्रगतिशील लोग आशातीत होते हैं परंतु वांछित नतीजा न देखकर आंदोलन के अंदर राजनीति और राजनीतिज्ञों की कमी का रोना रोते हैं। श्रीलंका के संदर्भ में तो कुछ लोग इसे चीन के खिलाफ अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी खेमे की चालबाज़ी देखते हैं। इन सभी व्याख्याकारों के लिए जन-क्रिया की कोई स्वायत्तता नहीं है — व्यवस्था के व्याकरण में जनता औसत व्यक्तियों अथवा नागरिकों की भीड़ है जो केवल अपनी प्रतिक्रिया दे सकती है, कोई पहल नहीं कर सकती।  

II

पूंजीवादी संकटों को महज आर्थिक प्रबंधन की कमजोरियों और गलत नीतियों के नतीजे के तौर पर देखना तो अवश्य ही गलत है, परंतु इन संकटों की वस्तुनिष्ठता को सामाजिक व्यवहार और संघर्षों के दायरे से परे समझना शायद उससे भी बड़ी गलती है। कम से कम मार्क्सवादियों का यह वैचारिक-कार्यक्रमात्मक दायित्व है कि वे जन-संघर्षों में इस तरह की द्वैतवादी अपरिष्कृतता की आलोचना करें ताकि ये संघर्ष व्यवस्था-बद्ध वर्चस्वकारी माँगवादी राजनीति के आगे अग्रसर हो अपने ही अंदर मौजूद सामूहिक तत्वों के आधार पर नए समाज के प्रारूप पेश कर सकें। 

राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना पूंजीवाद की संरचना, राजनीतिक अर्थशास्त्रीय अवधारणाओं और उपस्थित बाह्यरूपों के तह में सामाजिक संबंधों के प्रक्रियात्मक सत्य और उनके आंतरिक अंतर्विरोधों को उजागर करती है। उसके अनुसार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संकटों को वर्गीय संबंधों — पूंजी और श्रम के अंतर्द्वंद्व — द्वारा समझने की जरूरत है। ऐसा न करने से हम मेहनतकश जनता को महज आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के भुक्तभोगी की तरह देखते रहेंगे और उनके नायकत्व के चरित्र से अनभिज्ञ हम भी उसके अलगाव के जरिया बन अधिनायकों और राजसत्ता के पूजक बने रहेंगे। यह बात सही है कि मानव-जन अपना इतिहास मनचाहे ढंग से नहीं बनाते और वे उसे अपनी मनचाही परिस्थितियों में भी नहीं बनाते, पर तब भी वे उसे स्वयं बनाते हैं।

श्रीलंका के जनता अरगलय का तात्कालिक संदर्भ एक प्रकार का आर्थिक संकट है जिसके कारण को बहुत आसानी से स्थानीय अव्यवस्थाओं पर मढ़ा जा सकता है। वैसे भी संकटों के सारे स्वरूपों को अर्थशास्त्री आमतौर पर तकनीकी चरों और अचरों के असंतुलन  के रूप में पेश करते हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार चूंकि ये संतुलन पूंजीवादी प्रक्रियाओं में स्वभावतः मौजूद होता है, असंतुलन बाह्य कारकों के हस्तक्षेप का नतीजा है। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार राजकीय व्यवस्था का मुख्य काम अपने और अन्य “बाह्य” कारकों के हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है। अन्य अर्थशास्त्रियों के लिए पूंजीवादी प्रक्रियाएँ अपने आप में असंतुलित हैं इसलिए राज्य व्यवस्था का हस्तक्षेप जरूरी है। मामला दोनों के लिए प्रबंधन का है। दोनों ही पूंजीवादी प्रक्रियाओं को स्वतःस्फूर्त मानते हैं — बस अंतर उनके नैसर्गिक संतुलनता के सवाल पर है। 

दोनों पक्षों के लिए सरकार और राजनीतिक शक्तियों की स्वायत्त सत्ता है जो मन चाहे ढंग से आर्थिक प्रबंधन कर सकती है। ये दृष्टिकोण पूंजी, आर्थिक प्रक्रियायों और यहाँ तक कि बाजार की भी जिंसीकृत समझ रखते हैं — इनको सामाजिक संबंधों के रूप में नहीं देखते। इसी कारण से वे समझ नहीं पाते कि किस प्रकार राजसत्ता, सरकार, राजनीति और आर्थिक-वैधानिक नीतियाँ इन संबंधों के गतिकी में जड़ित हैं — उनकी सापेक्ष स्वायत्तता की प्रतीति इस गतिकी के अन्तर्विरोधात्मक चरित्र का नतीजा है। इस अन्तर्विरोधात्मकता के जड़ में पूंजी-श्रम संबंध का द्वंद्ववाद है। यही अंतर्विरोध समयासमय संकट को जन्म देता है जो विभिन्न रूप ले सकता है, परंतु इतना तो साफ है कि पूंजी अथवा उसके तंत्र पूंजीवाद का संकट अंततः पूंजी-श्रम के संबंध का संकट है।

मार्क्सवाद ने पूंजीवादी संकट के विभिन्न अभिव्यक्तियों को पूंजीवादी संचय के गूढ़तम प्रक्रियाओं से जोड़ कर विभिन्न संकट सिद्धांतों की पेशकश की है। ज्यादातर मार्क्सवादी “अर्थशास्त्री” (पेशेवर और शौकिया दोनों) भी इन सिद्धांतों को महज पूंजी और पूँजीपतियों के विकास के सिद्धांत के रूप में देखते हैं जिसका वर्ग-संघर्ष से सीधा कोई वास्ता नहीं है। यदि उसमें प्रतिस्पर्धा की बात आती भी है तो उसे पूंजी की विभिन्न इकाइयों के बीच रिश्ते का पर्याय समझा जाता है। सामान्य तौर पर संकट को उत्पादन और संचरण की एकता में विच्छेद के रूप में देखा जाता है — बहस महज उत्पादन या संचरण के केन्द्रीयता को लेकर होती है। इस विच्छेद में निस्संदेह तथाकथित “उत्पादन शक्तियों” की निर्णायक भूमिका समझी जाती है, परंतु इन शक्तियों की गणना में जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, यानी मानवीय श्रम, उसे ही निष्कासित कर इन्हें टेक्नोलॉजी का पर्याय मान लिया जाता है। इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना की विशिष्टता गायब हो जाती है और उसकी अवधारणाएं जड़ता का शिकार हो जाती हैं। निष्कर्षतः मार्क्सवादियों के बीच भी पूंजीवादी संकट के तमाम सिद्धांत निवेश चरित्र और यांत्रिक ब्रेकडाउन के सिद्धांत बन जाते हैं। (बेल 1977; बेल और क्लीवर 1982) इस प्रकार पूंजीवादी संकट के मार्क्सवादी सिद्धांतों के अन्तर्सम्बन्ध और अखंडता  का संप्रत्ययात्मक (conceptual) आधार ओझल हो जाता है और ये सिद्धांत अलग-अलग, यहाँ तक कि विरोधास्पद प्रतीत होते हैं। इन सब के केंद्र में श्रम और वर्ग संघर्ष के सवाल जो इन तमाम सिद्धान्तों को बांधते थे, उनके ओझल हो जाने से पूंजीवादी संकट की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ विकेन्द्रित होकर अपनी-अपनी कहानियाँ गढ़ती हैं। 

इस तरह जो कारण है वह महज कार्य में तब्दील हो जाता है, वह कुंठित प्रतिक्रियात्मकता का द्योतक हो जाता है, और कई टुकड़ों में संगठित हो राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का मोहरा बन कर रह जाता है। अर्थशास्त्रीय मार्क्सवादियों से तो यही उम्मीद की जाती है परंतु राजनीतिक मार्क्सवादी भी पूंजी की जिंसीकृत ही नहीं व्यक्तिकृत समझ रखते हैं और उसे सामाजिक संबंध और निर्वैयक्तिक सत्ता के रूप में नहीं देख पाते। तथाकथित मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों के अनुसार पूंजी कोई वस्तु है जिस पर पूँजीपतियों का आधिपत्य है और अगर मजदूर उस पर कब्जा कर लें तो सब ठीक हो जाएगा।

जबकि मार्क्स के लिए पूंजी वह सामाजिक संबंध है जिसके तहत पूंजीपति पूंजीपति होते हैं, और मजदूर मजदूर होते हैं। पूंजीवादी संकट के विभिन्न स्वरूप इस संबंध के आंतरिक संकट की अभिव्यक्तियाँ हैं। वर्ग-संघर्ष केवल फैक्ट्री या फैक्ट्रियों के अंदर अथवा मजदूरों-पूंजीपतियों के बीच के सीधे टकराव से ही नहीं शुरू होता। वह तो आदिम संचय द्वारा श्रम को दोहरी आजादी मिलने से लेकर श्रम बाजार की धक्कम-धुक्की से होता हुआ वर्कशॉपों, फैक्ट्रियों, जमीनों, या कहें उत्पादन/श्रम संबंधों के तमाम स्वरूपों को समेटता हुआ, उपभोग की सीमाओं में घुस श्रम-शक्ति और बेशी आबादी के पुनरुत्पादन के सवाल से जूझता है। या कहें आज पूरा समाज ही सामाजिक फैक्ट्री के रूप में वर्ग संघर्ष का रणक्षेत्र है। इन तमाम सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में वर्ग-संघर्ष मौजूद है, पूंजी की समस्याएँ इन सारे क्षेत्रों में श्रम को नियंत्रित करने की हैं, और इसी में असफलताएँ संकट के विभिन्न स्वरूपों को पैदा करती हैं।

III

अंतर्राष्ट्रीय कर्ज के संकट को लेकर अर्थशास्त्रीय अटकलें कर्ज की तह में छुपे सामाजिक-राजनीतिक तत्वों को सामने नहीं आने देतीं। 1982 के मेक्सिको संकट से लेकर आज तक कई प्रकार के कर्ज संकट हमारे सामने आए हैं। ये कर्ज मुख्यतः सरकारी और बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा दिए जाते हैं, परंतु हाल के वर्षों में निजी संस्थानों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है। ये कर्ज साधारणतः आधारिक संरचना और बाजार के विकास के नाम पर  लिया जाता है, परंतु ये मासूम लगने वाले कारक सामाजिक-भौगोलिक दिक्काल का कायापलट कर स्थानीय सामाजिकता को पूरी तरह से झकझोर देते हैं। इनका काम उन सामाजिक संबंधों और क्रियाओं को इस प्रकार पुनर्संयोजित करना है ताकि नई स्थितियों के विकास में वे बाधक न हों और उनके अधीन रह वे उत्पादक बन सकें। मार्क्सवादी भाषा में यही आदिम संचय की प्रक्रिया है जो संसाधन को आबादी के नियंत्रण से और आबादी के श्रम को पुराने सामाजिक संबंधों से आजाद करती है, ताकि वे पूंजीवादी संचय और बाजार के विकास के आधार बन सकें। 

इसके अलावे कर्ज की वे शर्तें हैं जिन्हे संरचनात्मक अनुकूलन कार्यक्रम अथवा संरचनात्मक सुधार कहते हैं और जिनके तहत स्थानीय अर्थव्यवस्था, संस्थाओं और सामाजिक संबंधों को वैश्विक पूंजी संचय की जरूरतों के अनुकूल विकसित करने की कोशिश होती है। निजीकरण, श्रम बाजार का युक्तिकरण, मौद्रिकरण का विस्तार, मितव्ययिता इत्यादि ऐसे औजार हैं जो स्थानीय श्रमिकों की आबादी को लाचार बना उन्हें इन जरूरतों के अनुसार अनुशासित करने की कोशिश करते हैं। पूंजी के स्थानीय प्रशासक उधार ली गई धनराशि का उपयोग मुख्यतः एक तरफ अगर स्थानीय औद्योगिकीकरण के साथ-साथ इसकी सभी परिचर लागतों को वित्तपोषित करने के लिए करते हैं जिसमें ठोस निवेश के लिए बुनियादी ढांचे पर खर्च शामिल है, तो दूसरी तरफ स्थानीय संघर्षों के जवाब में, विशेष रूप से, मजदूर वर्ग पर सैन्य/पुलिसिया नियंत्रण स्थापित करने के लिए करते हैं। (क्लीवर 1989; बेल और क्लीवर 1982)

यदि हम अंतर्राष्ट्रीय कर्ज के अर्थशास्त्रीय दलीलों और उसके शर्तों के औपचारिक व्याकरण को बिना इन व्यावहारिक पक्षों को ध्यान में रख पढ़ेंगे तो पूंजीवाद द्वारा फैलाए वैचारिक मायाजाल में फँस हम वर्ग-संघर्ष के बहुरूपिए पक्ष से अनभिज्ञ ही रहेंगे। सर्वहारा के खिलाफ पूंजी के विशिष्ट हमले को हम सर्वहाराकरण के खिलाफ सर्वहारा होती आबादी के संघर्ष के विभिन्न स्तरों को समझे बिना कभी नहीं ग्रहण कर सकते। कर्ज का संकट इसी वर्ग संघर्ष का नतीजा है — जिसे पूंजी के हित में जीतने के लिए सरकारों को और कर्ज लेना पड़ता है। 

यह बहुस्तरीय वर्ग संघर्ष सामाजिकता के विभिन्न दायरे की विशिष्ट भाषा को लिए होते हैं, उन्हें एक स्वरूप में बांधना नामुमकिन ही नहीं प्रतिक्रियावादी भी है, क्योंकि वह मजदूर वर्ग की अपनी अभिव्यक्तियों का दमन है जो कि अंततः पूंजी को ही सुरक्षित करता है। कहीं पर यह संघर्ष अगर औद्योगिक संघर्षो के रूप में मिलते हैं तो कहीं राष्ट्रीयताओं और अस्मिताओं की भाषा में ये मौजूद रहते हैं। मार्क्स की “क्रांतिकारी सामान्यीकरण” की अवधारणा इन संघर्षो की स्व-अभिव्यक्तियों में पूंजी विरोधी क्रांतिकारी सूत्र को पहचानना है।

IV

श्रीलंका की कर्ज की जरूरत को और आज के उसके कर्ज संकट को उसके पीछे काम कर रही सामाजिक प्रक्रियाओं और संघर्षों को पहचाने बगैर समझा नहीं जा सकता। इस पुस्तिका में हमारे साथियों ने इस संदर्भ को समझने के लिए जरूरी तथ्यों को बखूबी पेश किया है। इसलिए मैं बस दो तथ्यों को यहाँ गिनूंगा। पहला कि श्रीलंका की राजसत्ता लातिन-अमरिका में पिनोचेत की दमनकारी सरकार के बाद दूसरी थी जिसने वाशिंगटन कंसेंसस के नवोदारवादी मुहिम को जगह दी। दूसरा, आज से पहले श्रीलंका सोलह बार आईएमएफ के आर्थिक स्थायीकरण कार्यक्रमों को कार्यान्वित कर चुका है। उसके बाद भी वैश्विक और स्थानीय पूंजीवादी सत्ताएँ श्रीलंकाई जनता और संसाधनों को अपने गिरफ्त में नहीं कर पाई हैं। गृह युद्ध में जीत और सिंहली राष्ट्रवाद के  सशक्तिकरण ने श्रीलंकाई राजसत्ता को जो वैधानिकता प्रदान की थी वह पूरी तरह से श्रीलंका की जनता ने मटियामेट कर दिया। वर्ग संघर्ष की भाषा वह कुंजी है जो हमें श्रीलंका में कर्ज की राजनीति, गृह युद्ध, अस्मिताओं/राष्ट्रीयताओं के खूनी संघर्ष और आज के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट को एक दूसरे से बांध के समझने में मदद करती है।

अंत में कुछ घरेलू बातें।

कुछेक संगठनों को छोड़कर हिंदुस्तानी वामपंथियों में श्रीलंका की घटनाओं को लेकर आम अलगाव बहुत ही निराशाजनक है, जबकि हिंदुस्तानी राजसत्ता और शासक वर्ग ने लगातार अपने हित को साधने में और विश्व-पूंजीवाद के क्षेत्रीय नायकत्व के नाते हस्तक्षेप करने में कोई कसर नही छोड़ा। हालांकि दक्षिण एशिया में नेपाल के लोकतंत्र आंदोलन के बाद श्रींलंका का जनता अरगलय पहला ऐसा जन उभार है  जिसने शासन-व्यवस्था और क्षेत्रीय संतुलन को संकट में डाल दिया, मगर दोनों आंदोलनों में अंतर काफी साफ है। जहां एक तरफ नेपाली आंदोलन का लक्ष्य, उसका राजनीतिक स्वरूप और नेतृत्व साफ दिखता था, तो दूसरी तरफ श्रीलंका के जनता अरगलय में न कोई निश्चित लक्ष्य है, न कोई निश्चित राजनीतिक स्वरूप है और ना ही कोई निश्चित नेतृत्व है।  निश्चित्तता प्रतिक्रियाओं के दायरे को भी निश्चित करती है — आंदोलन के विरोधियों और समर्थकों दोनों की प्रतिक्रियाओं को व्याकृत करती है। इसी कारण से भारत की विभिन्न राजनीतिक शक्तियाँ अपनी-अपनी राजनीति के अनुसार नेपाल की राजनीति के साथ जुड़ती रहीं है, उस पर टिप्पणी देती रहीं और असर भी डालती रही हैं। परंतु इस निश्चितता का आडम्बर उसके पीछे की अनिश्चित संभावनाओं की अपारता को नापने नहीं देता जबकि इसी अनिश्चितता में क्रांतिकारी परिवर्तन की गुंजाइश होती है। निश्चितता के दायरे में  राजनीति केवल निश्चित संभावनाओं का इंतज़ार है, उसमें आशा की कोई गुंजाइश नहीं होती — जो होना है उसकी आशा नहीं की जाती, उसका इंतजार होता है।

श्रीलंका को लेकर हिंदुस्तानी वामपंथ की उदासीनता और निष्क्रियता के पीछे एक कारण तो अवश्य ही प्रत्यक्ष रूप से श्रीलंका के आंदोलन में  “राजनीति की कमी” और अनिश्चितता थी। परंतु यह पर्याप्त या मुख्य कारण नहीं है। इसका सबसे प्रमुख कारण भारतीय वामपंथ का निम्न-पूंजीवादी राष्ट्रवादी विचलन है जो उसे भारतीय राजसत्ता और क्षेत्रीय पूंजीवादी प्रक्रियाओं में भारत की वर्चस्वकारी भूमिका की सटीक अंतर्राष्ट्रीयवादी आलोचना करने से रोकता है। जो धाराएँ आज भी भारत में “पूंजीवादी-जनवादी” कर्तव्यों को क्रांति द्वारा पूरा करने की बात करती हैं उनके लिए भारतीय पूंजीवाद और उसकी राजसत्ता का विश्व साम्राज्यवादी नेटवर्क के अंतर्गत एक वर्चस्वकारी शक्ति होने की बात कैसे स्वीकार होगी? वे छुटपुट धाराएँ भी जो भारत में समाजवादी क्रांति का सपना देखती हैं, वे भी पेड़ गिनने में लगी रहती हैं, जंगल की संश्लिष्ट समझ विकसित नहीं कर पातीं। (वे बहुत मायने में भारतीय राजनीतिक अर्थतंत्र की विश्लेषणात्मक स्तर पर सटीक और विस्तृत आलोचना पेश करती हैं, परंतु पूंजीवादी संरचना की संश्लिष्टता अथवा समग्रता को ग्रहण करने में चूक जाती हैं)। इसीलिए, भारतीय पूंजीवाद और राजसत्ता की (उप)साम्राज्यवादी रणनीतियाँ, पड़ोसी और अन्य देशों में भारत के दाँव-पेंच, जिनका निश्चित आर्थिक चरित्र है — ये सब इनके कूपमंडूक चिंतन प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं। और यही कूपमंडूकता हमें हमारे घर के दरवाजे पर हो रहे संघर्षो से सीख और प्रेरणा लेने से रोकती है।

पता नहीं लेनिन (1920) की निम्नलिखित बात का इस भूमिका में कही बातों से पाठकों को कोई सीधा रिश्ता दिखता है या नहीं, परंतु मेरी समझ में वामपंथी रूपवाद जिसको तोड़ने में हिन्दुस्तानी वामपंथियों को बहुत समय लग रहा है, और जो उन्हें नए संघर्षों को उन संघर्षों के अपने रूप में अपनाने से रोकता है, उसको यह उद्धरण चुनौती देता है:       

“सबसे अधिक प्रगतिशील वर्ग की अच्छी से अच्छी पार्टियाँ और अधिक से अधिक वर्ग -सजग हिरावल जिस बात की कल्पना कर सकते हैं, इतिहास आम तौर पर, और क्रांतियों का इतिहास खास तौर पर, उससे कहीं अधिक सामग्री-समृद्ध,अधिक विविध, अधिक अनेकरूपीय, अधिक सजीव और प्रतिभा-सम्पन्न होता है। यह बात समझ में आनी चाहिए, क्योंकि अच्छे से अच्छे हिरावल भी केवल हजारों आदमियों की वर्ग-चेतना, निश्चय, उत्साह और कल्पना को ही व्यक्त कर सकते है, जब कि क्रांतियाँ वर्गों के तीव्रतम संघर्ष से प्रेरित करोड़ों आदमियों की वर्ग-चेतना, निश्चय, उत्साह और कल्पना से ओतप्रोत सभी मानव क्षमताओं के विशेष उभार और उठान की घड़ी में होती हैं। इससे दो महत्वपूर्ण अमली नतीजे निकलते हैं: पहला, यह कि क्रांतिकारी वर्ग को अपना काम पूरा करने के लिए, बिना किसी अपवाद के सामाजिक गतिविधि के सभी रूपों में, सभी पहलुओं में पारंगत होना चाहिए (इस विषय में जो कुछ वह राजसत्ता पर अधिकार करने के पहले पूरा नहीं कर पाता, उसे सत्ता पर अधिकार करने के बाद — कभी-कभी बड़े जोखिम उठाते हुए और बड़े खतरों के साथ — पूरा करना पड़ता है); दूसरा, यह कि क्रांतिकारी वर्ग को बहुत ही जल्दी के साथ और बड़े अप्रत्याशित ढंग से एक रूप को छोड़कर दूसरा रूप अपनाने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए।”

और वैसे भी, बाबा वाक्यं प्रमाणम्!!!

संदर्भ सूची:

हैरी क्लीवर (1989), “Close the IMF, Abolish Debt and End Development: a Class Analysis of the International Debt Crisis,” Capital & Class (39), Winter 1989

पीटर बेल (1977), “Marxist Theory, Class Struggle and the Crisis of Capitalism” in Jesse Schwartz (ed.), The Subtle Anatomy of Capitalism. Santa Monica: Goodyear

पीटर बेल और हैरी क्लीवर (1982),” Marx’s Theory of Crisis as a Theory of Class Struggle,” Research in Political Economy (Vol. 5) 

व्लादिमीर लेनिन (1920),  वामपंथी कम्युनिज्म – एक बचकाना मर्ज

Capitalism, law and surplus population – in the context of the Mundka incident


Industrial accidents are a necessary condition of the capitalist economy, that is, their possibility is an integral part of capitalist life. Their occurrence can be avoided to some extent by legal-administrative reforms and vigilance. There are limits to these reforms, however. The Mundka incident, on the one hand, exemplifies corruption and non-compliance of the law (which attracts the most attention of the well-wishers), and on the other, it is primarily a manifestation of the organic brutality of capitalist industrial life. This brutality reflects the dispensability of individuated workers in an environment of continuous surplusing.

A Note on Premchand and the Proletarian Context


“अब तो शहरों में मजदूरों की मांग है, रुपया रोज खाने को मिलता है, रहने को पक्का घर अलग। अब हम जनिंदारों का धौंस क्यों सहें, क्यों भर पेट खाने को तरसें? —  प्रेमाश्रम (Premashram)

While Premchand’s stories have numerous references to proletarian life, they generally portray a realist sad picture of a rickshaw-puller, of workers and the cesspool of urban life. However, a careful reading of Premashram shows how the presence of wage labour gave peasants of Awadh a context to act transcending the fatalism of rural life. 

The greatness of a fiction writer depends on her awareness of those aspects of reality which are essential to produce its fictionalised model and, of course, on her ability to connect them sensitively to generate such a model, which is then incubated to develop a full-scale narrative. It is not any “scientific knowledge” of the reality, but its sensitive awareness, which helps her uncover and/or discover those irrational and rational socio-psychological aspects, which non-fiction cannot even imagine to reach. 

It is important to remember that reality is not simply the real, i.e., what is, but what is not too, the unreal, the imaginary that stays with us as possibilities — again not just as actual possibilities, but also as remote and abstract possibilities, constituting the horizons of our imagination. Fictions work at the level of those horizons.

Premchand’s Premashram demonstrates his awareness of the rural reality of Awadh and of the constitutive conflicts.  He is able to capture the passive revolution that was changing the rural setting, and emergent class consciousness and solidarity among the rural poor grounded in their everyday class experience and conflicts.

The novel is able to provide us an insight into the antinomies of Indian nationalism too — we have characters representing patriarchal humanism of the rentier class, incipient calculative rural bourgeois landlord interests, enlightened bourgeois utopians, diverse levels of indigenous bureaucratic class, proletarianising peasantry, all feeding into the constitution of this nationalism.

The global context of  socialist movements, the Russian revolution and productive-technological evolution too become important elements in the novel as a constant background and through their discursive contributions. Many critics have of course mentioned this. 

But an element of the contemporary reality which in my view is very crucial to grasp the novel and Premchand’s astuteness has generally been ignored or has not been identified. It is the fact of rural-urban migration and wage labour which in this novel at least exists not as a sign of distress, but as an opportunity and freedom for the rural poor. Migration and wage labour are escape routes that allow the rural poor enough confidence especially among the youth to engage in open conflict with rural oppressors. 

It is not to say that Premchand considers wage labour to be an opportunity for a better life (in many of his stories he has shown the plight of migrants and wage labour). However, he is definitely aware, at least in Premashram, that the rural poor’s militancy is derived to a large extent from the proletarian context.

राजनीतिक विकल्प: चुनावी या आंदोलनकारी (Political Alternatives: Electoral or Movemental)


India Unlocked: World’s “Biggest Lockdown” and Workers’ Long March


“… never torment a creature for sport,
for it might be loaded.” – Ernst Bloch

At times, states compete to showcase merchandise and relative productive capacities. Other times, many of these states sell misery to gain access to economic packages, charities and loans. Today is the time when they compete to show off their capacity to impose the most efficient lockdown on their citizenry. Of course, the priority is to make this imposition consensual, because that would showcase the self-discipline of the national workforce. But if that doesn’t work, then the dosages of coercion are streamlined to measure the states’ disciplining capacity. The Narendra Modi government’s chest-thumping claim to run the “world’s biggest lockdown” was to showcase the realisation of the neoliberal ideal of a “strong state” in India — the carrots-and-sticks hidden behind the quinine-and-quarantine lockdown. 

The Story of India’s Lockdown

With the absence of any coherent public health system, in the nationalist war against the “Chinese virus”, India has been relying on the dedicated medical workforce of much maligned public hospitals fending the virus without sufficient protection and supplies. Of course, popular pseudoscience is also there, factoring in a hot summer and the cumulative impact of other vaccines etc, along with the placebo effects of the homeopathic recipes. 

Even with regard to the so-called practice of “social distancing” and its generalisation through the lockdown, much was left to the play of the complex and sinister traditional divisions — such as caste and communal divides among others — within the Indian society. One can speculate that this factor might have played a role in the slow expansion of the pandemic in India. 

However, it goes to the credit of supposedly the most vulnerable in India who called the Indian state’s bluff, making its rhetoric of a successful and strong lockdown evaporate into thin air. The migrant’s faint cry to be allowed to go back home became a collective roar, and a long march in defiance of the strictures and coercive forces ensued.

We are witness to a process of how the vulnerabilities of the weakest become their strength; how their weak actions lead to a legitimation crisis of the state (and also at many times capitalist crisis in general). It is not very difficult to see how existential defiance of India’s migrants and the working class in general unravelled the neat choreography of the lockdown, making it meaningless. The exodus of internal migrants (India’s “biggest intangible assets” and “India’s real economic dynamo: a silent force“) and the anticipated volatility in the labour market have made capital jittery. 

The Narendra Modi government, with President Trump’s encouragement, was already planning to catch companies flying away from China. The labour laws were being derailed to clear the way. But nobody heard the plates shifting — the lockdown just couldn’t lock the workers in! Their footlooseness, which was the biggest asset, has become a great liability now.

The Liberal Politics of Victimhood and Representation

The tremors were felt everywhere. The state was trying to control the damage desperately by providing buses, rations, and identifying potential stars in children, cycling hundreds of miles carrying their parents. On the other hand, the sensitive gentry could see the faces of orphans whose parents died in an accident while cycling 750 kilometres back home, or see blood splattered on the railway tracks.  

In a recent article in The Indian Express, one of the most sensible political scientists in India, Suhas Palshikar, expressed the angst of the majority of the self-acclaimed politically conscious people on the side of left and liberals. He lamented “the incongruous image of the politicians and the political party” — they talk of the people but “betray an instinctive choice of ‘law and order’ and a techno-bureaucratic idea of governance”. It seems they are “on a holiday” and abstaining from politics. At the time when the central government is “caught in the trap of regulation and denial,” and “beset with uncontrollably delusional self-belief”, the opposition forces should have taken the initiative to  “come up with a robust alternative route to governance” (of course, Kerala is already showing the way!). 

According to Palshikar, there should be “a political response to the pandemic,” for which “resumption of democratic contestation is a must”, since “politics alone can be survival therapy for democracy.” He advises the Congress and its leadership to ask the party workers “to hit the roads, talk with suffering workers, walk with them”, only then they would “realise that taking a stand also means mixing with the people.” 

Palshikar’s plea for the “resumption of democratic contestation” may seem inspiring at the time when there are so many people who are left uncared-for during the pandemic. It might motivate the opposition to see a political opportunity here, and the government too might see their pragmatic mistakes. But there are many assumptions on the basis of which such a plea is made. It seems Palshikar and, with him, most liberals and leftists in India assume that there is never a democratic agency of those who are surplused by the system, as there is no political agency beyond the legitimate state apparatuses — institutional and ideological. 

With the WHO’s recognition of Covid-19 as a pandemic, the governments did what they are always good at when they are forced into action, i.e, to reach out for coercive measures. In the absence of vaccination and any understanding of the infecting germ, these measures take the form of imposing ancient “tribal traditions” of prevention (as J.D. Bernal used to call them) —social distancing, isolation and quarantine. But the liberal conscience, represented by Palshikar and others, demands an official opposition which will act as a corrective to this coercion. 

The Real Opposition beyond Spectacular Politics

What happened instead is something, which, though, is not very uncanny in history, but, generally, goes unseen and unrecognised. It is accounted only in a retrospective reading of the people’s history. It happens beyond the spectacle of formal politics, which doesn’t have any category to capture this phenomenon in its positive grammar, except as a subaltern that never speaks. 

The wails of pain, agony and anger of India’s internal migrants and workers in general have shattered the adamantine chains of the lockdown. The lockdown was never successful except in the ritualites of the already cocooned little bourgeois within everyone (meaning, everyone individually or as an aggregate of individuals). We found the appropriate nuclear environment of safety and discipline, and sang the “Middle Class Blues”: 

“The streets are empty. 
The deals are closed. 
The sirens are silent. 
All that will pass.” (Hans Magnus Enzensberger) 

Among the working masses, the lockdown as a generalisation of “social distancing”  was anyway meaningless, and its imposition amounted to an outrage. They felt what they are —surplus-ed and other-ed

There are talks about the consolidation of the state and the rise of authoritarianism, but it is seldom recognised that this is a result of the exposed weakness of the state, its inability to regulate workers’ self activities and, especially, the panic and fear that they instill among other classes. Those who see these workers only as victims, which they are in the legitimate framework of political economy, are unable to see the organic resistance of the workers to the systemic regulation. 

What argumentative liberals and online radicals couldn’t achieve was accomplished by the synergistic effects of the “weapons of the weak”. In fact, they are still waiting for the powers who imposed the lockdown to end it, so that, once again, they are able to lead these victims of the system back to the normal systemic cycle —some want them to fulfil their duties, and some, mainly those who are on the side of the left, would want them to struggle for their rights. What an irony!

There is nothing to celebrate here, but everything to understand — in order to imagine a new politics organically grounded in the everydayness of working class resistance.

The Game of Pursuit, Or the Chowkidar-Chor Narrative


अत्तुं वाञ्छति शांभवो गणपतेराखुं क्षुधार्तः फणी
तं च क्रौंचरिपो: शिखी गिरिसुतासिंहोऽपि नागाशनम्।
इत्थं यत्र परिग्रहस्य घटना शंभोरपि स्याद्गृहे
तत्रान्यस्य कथं न भावि जगतो यस्मात्स्वरूपं हि तत्॥

“The snake on the body of Siva, oppressed with hunger, wishes to eat Ganapati’s mouse; him (the snake) Kartikeya’s peacock wishes to devour; while Parvati’s lion (her vehicle) desires to make a meal of the elephant (mouthed Ganapati-mistaken for an elephant): when such is the constitution of Siva’s household even, how can such a state of things be not found in the rest of the world, since such is but the nature of the world?”

Thus Panchatantra takes the game of pursuit as “the nature of the world” and teaches the strategies and tactics to survive and win in the fields of commerce, state affairs and everyday life. If that was true of the ancient centuries of Indian history, what can we say of our own conjuncture. Our daily lives are proof of this, and so is our politics. But Panchatantra’s time had a solace that the plans or evil intentions did not often succeed, and hence the world continued to exist:

सर्पाणां च खलानां च परद्रव्यापहारिणाम् ।
अभिप्राया न सिध्यन्ति तेनेदं वर्तते जगत् ॥

But today there is no escape. We are all chowkidars (security guards), and, therefore, are chors (thieves) – of course, relatively.

I

Games People Play

The chowkidar-chor narrative is an opportunistic discursive instrument to impress upon the public to garner votes. But why does it have an appeal? Because, it is the folklore (katha) of our times, an articulation of our prevailing common sense, as Gramsci would put. It is so organic that it can be called infantile. Why not, even a child finds a voice in this dialectical narrative. Isn’t it the same game of chor-police that children play, where every child knows that the chor and the police are floating signifiers?

This narrative resonates with the psyche of our times. And thus, instead of simply condemning it we must take it as a symptom of the sickness that afflicts our social body or more correctly, a sign of its (un)healthiness. It is only by accessing the materiality of our social body through a critical understanding of such narratives, that we can access the healthy sections of our social body whose nourishment is our only hope. In other words, this narrative is a key to unlock “the healthy nucleus that exists in ‘common sense’”(Gramsci). Its analysis and critical retelling can trigger a much wanted alienation effect in this hyper-immediate responsive world by providing space-time to objectively understand ourselves – the nature of our world. Only thus can emerge the good sense, and the critical sense. It can be a parable for meditations and to develop mediations to grasp the material element of immediate consciousness and spontaneous philosophies of our times.

The lore reveals the stark nature of the neoliberal conjuncture – a near universal feeling of being hunted, and a universal aspiration of becoming a hunter. This game of pursuit-evasion is at the heart of the political and cultural milieu of our conjuncture. Everybody tries to put herself in a position of the pursuer but must evade other pursuers-evaders. “When such is the constitution of Siva’s household even, how can such a state of things be not found in the rest of the world, since such is but the nature of the world?” She can make sense of her existential crisis through such narratives, and learn to live with it. But then, even to transcend this crisis, its understanding is needed, for which what is the better beginning than these narratives themselves – the expressions of this crisis.

More than any institution and organization, it is this narrative that captures and productivises the anxieties of the (post)modern man. An institution lacks the plasticity that an empty narrative or metaphor like this has. The latter can homogenise all experiences by providing them a minimal, but universal form – it adjusts itself to any situation, while an institution must chisel the experiences to fit them.

II

The Neoliberal State

As a parable, the chowkidar-chor narrative further reveals in a condensed form two sequential and defining characteristics of the (post) modern state that has emerged throughout the globe – especially with the recent right-wing assertions. Firstly, it reveals the nature of the neoliberal state in its bare form – the state’s reduction to chowkidari. And, secondly, its gradual disembodiment and dispersal. Besides the chowkidar (an agent of the state) everybody is a potential chor. Thus, everybody seeks to become a chowkidar. Hence, the agency of the state expands. The state universalizes itself by dissolving itself into every individual. We are the state unto ourselves and others.

So, capital attains the dissolution of the state, while communists are still fighting over statist or anti-statist paths. However, this dissolution is attained by universalization of the state. You will never be able to pinpoint the presence of the state, but it is always present in every nook and corner of our being. It is present through our anxieties and alertness, and their institutionalisation. A globally extended and internally-intended lean (re)produced state is a post-fordist state based on self-and-peer surveillance.

Following Michael Taussig (The Magic of the State, 1997), we can perhaps assert that the state’s presence expands with its disembodiment. The spirit of the state, freed from any particular form, potentially can possess every form. That’s the Magic of the State in the age of Finance and Information. The state, as a node of capitalist accumulation and regulation, seeps into every societal relationship universally equalising them. They all find their universal articulation in the minimalist relationship of the hunter and the hunted, of the chowkidar and the chor.

III

Internal Relations

न विना पार्थिवो भृत्यैर्न भृत्याः पार्थिवं विना ।
तेषां च व्यवहारोऽयं परस्परनिबन्धनः ॥
अरैः सन्धार्यते नाभिर्नाभौ चाराः प्रतिष्ठिताः ।
स्वामिसेवकयोरेवं वृत्तिचक्रं प्रवर्तते ॥

According to our ancient wisdom, certain relationships are like that of a nave and spokes in a wheel. अरैः सन्धार्यते नाभिर्नाभौ चाराः प्रतिष्ठिताः. “The nave is supported by the spokes and the spokes are planted into the nave.” The nave and the spokes are mutually dependent. This dependence is not external, but तेषां च व्यवहारोऽयं परस्परनिबन्धनम्॥. They are in the relationship of mutual constitutivity. Panchatantra thus explains the nature of the master-slave dialectic. Similar is the relationship between a chowkidar (security guard) and a chor (thief), they constitute one another. Both identities are meaningful only in their relationship. So a chowkidar is himself only in relation to a chor, and a chor in relation to a chowkidar. Hence, the chowkidar must have a chor to pose himself as a chowkidar.

Even if the wheel of relationship turns, which frequently does, the only change will be that the chor will slide to the spokes and become a chowkidar, and the chowkidar will try to cling to the nave and become a chor. Moreover, as the wheel runs infinitely faster in the age of information and as the time-span for completing a cycle becomes smaller, who knows better than our head chowkidar, the chowkidar and the chor become identical.

IV

Chinese Wisdom

The positive opposition in the cycle is caught up in its grammar and its continuity. It can never transcend the binary from within the narrative. The criticism must destroy the enclosures of the narrative freeing the flow of the negative from the chains of positive productivism. The circularity of power can be ruptured only by first recognising its foundation. The great Chinese sage, Lao Tsu provides a hint:

Thirty spokes will converge
In the hub of a wheel;
But the use of the cart
Will depend on the part
Of the hub that is void.

It is in the emptiness and void of the hub that the reason for the nave, spokes and the wheel is found.

With a wall all around
A clay bowl is molded;
But the use of the bowl
Will depend on the part
Of the bowl that is void.

It is only in that void that the rationale for the existence of a clay bowl resides.

Cut out windows and doors
In the house as you build;
But the use of the house
Will depend on the space
In the walls that is void.

It is the space enclosed by windows, doors and concrete walls that gives meaning to enclosures.

So advantage is had
From whatever is there;
But usefulness rises
From whatever is not.

It is this “whatever is not” that must be grasped to unravel the closed circularity of power, which seeks to absorb the negative therein, to positivise and productivise it, enclose it within the dualism of closed circularity.

[Note: Texts and Translations from Panchatantra have been taken from MR Kale (1912), Pancatantra of Visnusarman, Delhi: MLBD. (Reprint 2015) There are variations both in original texts and interpretations in various published versions of Panchatantra, but the narratival tenor and ideas are more-or-less same.]