फालतू या बेशी आबादी – नाम में क्या रखा है


1. नाम अथवा संज्ञा और क्रिया का अभिन्न रिश्ता होता है। नाम के बगैर चीजों की भिन्नताओं और उनके रिश्तों का दर्शन असंभव है। नाम, अवधारणाएँ आदि जिनसे हमारी भाषा निर्मित होती है, हमें हमसे बाहर की दुनिया और हमारी उसमें स्थिति के प्रति हमें सजग करती हैं। वे हमें हमारी  क्रियाओं के प्रति सचेतन कर हमें सोचे-समझे ढंग से उन्हें नियोजित करने में सक्षम बनाती हैं। परंतु यही नाम और अवधारणाएँ जड़ताओं को भी जन्म देती हैं और हमारी स्वतंत्र गतिविधियों को पुनरावर्तित अनुष्ठानों में बदल देती हैं, यदि हम उनके पीछे की प्रक्रियाओं को उन्हीं नामों की सीमाओं में बद्ध मान बैठते हैं। जिस रूप में हम सामाजिक प्रक्रियाओं और उनके बीच के रिश्तों को चिह्नित अथवा नामांकित करते हैं, वह हमारे राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों को नियोजित भी कर देता है। यही अंतर है माल्थस के superfluous population अर्थात् फालतू आबादी और मार्क्स के surplus population अथवा बेशी आबादी के सिद्धांतों के बीच। दोनों ही लगभग आबादी और श्रमिक वर्ग के एक ही हिस्से को इन अवधारणाओं द्वारा चिह्नित कर रहे हैं।

2. “बेशी आबादी’ ज्यादातर लोगों के लिए महज आर्थिक अवधारणा है जिसको अकादमिक बहसों और सांख्यिकीय गणनाओं में बेरोजगारी का पर्याय मान लिया जाता है। अगर हम बेशी आबादी की अवधारणा के इतिहास में जाएं तो हमें पता चलता हैं कि यह अवधारणा पूंजीवाद के विकास  की प्रक्रिया को टुकड़े-टुकड़े में देखने के आर्थिक-विवरणात्मक दृष्टिकोण की आलोचना के अंतर्गत उभरा था। इस दृष्टिकोण के तहत मेहनतकश आबादी केवल आर्थिक संसाधन मानी जाती है,जिसकी मनुष्यता इन्सिडेन्टल है जिसको नियंत्रित करना जरूरी है, नहीं तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया को वह अवरुद्ध करेगी। पूँजी का विकास और मशीनीकरण इस आबादी के हिस्सों को फालतू बनाता जाता है और जो समाज और अर्थतन्त्र पर भार बनते जाते हैं। इन्हीं हिस्सों को प्रमुख अंग्रेजी राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस “फालतू आबादी” के रूप में चिह्नित करते थे। इस दृष्टिकोण के तहत इस आबादी की गरीबी और दयनीयता एक तरफ उसकी अपनी नैसर्गिक निष्कृष्टता की द्योतक है, तो दूसरी तरफ उसे नियंत्रित करने का साधन है। यह सोच आज भी राजसत्ताओं की जनसांख्यिकीय नीतियों को सूचित करती है, जिनके तहत पूंजीवाद और बाजार के विकास गरीबी और बदहाली के कारण नहीं नजर आते। 

3. फालतू आबादी की अवधारणा की आलोचना ने बेशी आबादी की अवधारणा को जन्म दिया। एक ही तत्व के नए नामांकरण ने उस तत्व के अंदर छुपी संभावनाओं को उजागर कर दिया — बेशी आबादी बेशीकरण का नतीजा है और बेशीकरण पूंजीवादी विकास का पर्याय है। बेशीकरण पूंजीवादी व्यवस्था की अंदरूनी प्रक्रिया है, उससे बाहर नहीं है। यह पूंजीवाद के आधार को बनाए रखने की मौलिक प्रक्रिया है। लोगों का बेशीकरण उनका बहिष्कार नही है। बल्कि वह आबादियों को पूंजीवादी केंद्र से उन्हें जोड़ने की प्रक्रिया है। बेशी के रूप में उनकी पहचान उन्हें व्यवस्था से जोड़ देती है —  बेशीकरण उनकी बाह्यता, उनकी स्वतंत्रता, उनकी व्यवस्थात्मक स्वायत्तता का हनन है। इसी बात को जोर देने के लिए  बेशी आबादी को सापेक्ष रूप से बेशी कहा गया, अर्थात वह फालतू अथवा बाहर कर दी गई आबादी नही है। अर्थात् बेशीकरण विभेदक समावेशन (differential inclusion) की प्रक्रिया है।

4. यही कारण है कि बेशी आबादी की स्वायत्तता की लड़ाई शामिल होने की लड़ाई नहीं हो सकती। शामिल होने की लड़ाई का अंतहीन गुहार उन्हें व्यवस्था से बांधे रखने का षड्यंत्र है। उन्हें “शामिल होने” की कोशिश में व्यवस्था को स्वीकार करना होता है, और अपने आप को व्यवस्था के लिए स्वीकार्य बनाना होता है। उनकी लड़ाई की यह मतात्मक (आइडियोलॉजिकल) फ्रेमिंग  ही बर्जुआ राजनीति का रणक्षेत्र तैयार करती है। अलग अलग राजनीतिक दलों का काम इस रणक्षेत्र के दायरे में उनके अनुशासन और उत्पादक संगठन के प्रतिस्पर्धात्मक फार्मूलों की पेशकश करना है। इस प्रयोजनार्थ सत्तारूढ़ और सत्ताच्युत विपक्ष एक दूसरे के पूरक हैं। 

Marx’s story: Master, Disciple and the Disintegration of Theory


Marx was a great fabulist. He could weave a story in a theory and a theory in a story. Here is one, which provides a great lesson in the critique of theoretical form. It is a story that can serve well in reminding many Marxists about what they are doing to Marx’s theory.

“With the master what is new and significant develops vigorously amid the “manure” of contradictions out of the contradictory phenomena.  The underlying contradictions themselves testify to the richness of the living foundation from which the theory itself developed.  It is different with the disciple.  His raw material is no longer reality, but the new theoretical form in which the master had sublimated it.  It is in part the theoretical disagreement of opponents of the new theory and in part the often paradoxical relationship of this theory to reality which drive him to seek to refute his opponents and explain away reality.  In doing so, he entangles himself in contradictions and with his attempt to solve these he demonstrates the beginning disintegration of the theory which he dogmatically espouses.”

क्लारा ज़ेटकिन – फासीवाद (अगस्त 1923)


मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट)

[जर्मनी की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी क्लारा ज़ेटकिन (1857-1933) ने जून 1923 में कॉमिन्टर्न की कार्यकारिणी समिति के तीसरे अभिवर्धित प्लेनम में एक  रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। यह रिपोर्ट अंग्रेजी में ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की मासिक पत्रिका, लेबर मंथली, में अगस्त 1923 में संक्षेप में छपी थी, जिसका यहाँ हम हिन्दी अनुवाद दे रहे हैं। इससे पहले नवंबर 1922 में इतालवी मार्क्सवादी अमादेओ बोर्दीगा ने भी फासीवाद पर एक रिपोर्ट कॉमिन्टर्न में पेश की थी, परंतु ज़ेटकिन की रिपोर्ट ने ही फासीवाद पर बाद  की कम्युनिस्ट समूहों की चर्चाओं के लिए प्रथम व्यवहारात्मक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण तैयार किया था।  

इस रिपोर्ट में ज़ेटकिन फासीवाद के उत्थान को पूंजीवाद के आर्थिक संकट और उसके संस्थाओं के पतन से जोड़ती हैं। मजदूर वर्ग पर बढ़ता आक्रमण और अन्य वर्गों का सर्वहाराकरण इस संकट के प्रमुख नतीजे हैं। ज़ेटकिन का मानना है कि सत्तासीन होकर समाज को पुनर्गठित कर पूंजीवाद के सामाजिक संकट का निवारण करने में सर्वहारा वर्ग की असफलता फासीवाद को जन्म देती है। पूंजीवाद के संकट से व्याकुल हो रहे विभिन्न निम्न-पूंजीवादी तबकों को आकर्षित करने की क्षमता फासीवाद को जन-चरित्र देती है। फासीवादी विचारधारा राष्ट्र और राजसत्ता को वर्गीय अंतर्विरोधों और हितों से ऊपर रख अंध-राष्ट्रवाद फैला कर सैन्यवाद और युद्धवाद के लिए माहौल तैयार करती है। पूंजीपति वर्ग  के कई महत्वपूर्ण तबके पूंजीवाद के सामान्य संकट और जनता के लगातार सर्वहाराकरण के कारण अपनी  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्वता पर खतरे से बचने के लिए फासीवाद का समर्थन और वित्तीय पोषण आरंभ कर देते हैं।   

ज़ेटकिन फासीवाद पर ओटो बावर (जो कि ऑस्ट्रीया के सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रमुख नेता और सिद्धांतकार थे) जैसे सुधारवादियों की समझ की तीव्र आलोचना करती हैं, ओटो बावर के अनुसार फासीवाद महज कम्युनिस्टों द्वारा संगठित सर्वहारा लड़ाकूपन और कानूनेतर गतिविधियों का नतीजा था। ज़ेटकिन फासीवाद के खिलाफ शोषित जनता के अपने रक्षा पहलों पर जोर देती हैं। उनके अनुसार सर्वहारा वर्गीय संयुक्त मोर्चे का निर्माण ही फासीवाद को चुनौती दे सकता है।  परंतु यह संघर्ष राजनीतिक और वैचारिक भी है इनके द्वारा श्रमिक वर्ग को मध्यम वर्गीय तबकों तक अपनी पहुँच बनानी होगी चूंकि इनके ऊपर पूंजीवादी संकट और सर्वहाराकरण का असर पड़ता है। ज़ेटकिन के अनुसार मजदूरों और किसानों की संयुक्त सरकार ही सामाजिक-आर्थिक संकट का निवारण कर फासीवाद का विनाश कर सकती है।

हमारी दृष्टि में क्लारा ज़ेटकिन की यह रिपोर्ट केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती है। जहां तक फ़ासिज़्म के खिलाफ तात्कालिक रणनीतियों का सवाल है वह तो स्थान और समय के मुताबिक तब्दील होती रहती हैं। परंतु इस रिपोर्ट में निहित  मार्क्सवादी व्याख्यात्मक अंतर्दृष्टि आज भी हमें बहुत कुछ सिखा सकती है। फासीवाद को महज सत्ता के औजार के बने बनाए रूप में न देख उसको सामाजिक प्रक्रियाओं और वर्ग सघर्षों की अवस्थाओं के अंदर से पनपता हुआ देखने की जरूरत है। आज पिछले पाँच दशकों से वैश्विक पूंजीवादी राजनीतिक अर्थतन्त्र स्थायी-संकट से ग्रस्त है। इस संकट से निज़ात पाने के लिए भूमंडलीय वित्तीयकरण की प्रक्रिया लगातार बृहत्तर और तीव्रतम होती जा रही। विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया ने आर्थिक-सामाजिक संकट को और अधिक व्यापक और तीव्र कर दिया है, यहां तक कि विश्व की तमाम राजसत्ताएँ इसके कारण निरंतर वैधता के संकट में डूबती जा रही हैं — इनकी आक्रामकता इनकी बढ़ती असंगतता और कमज़ोरियों के लक्षण हैं।  इसी संकटावस्था को सकारात्मक भाषा में नवोदरवाद भी कहते हैं। यह तथ्य इस रिपोर्ट की अंतर्दृष्टि को और महत्व दे देता है क्योंकि फासीकरण इस अवस्था में समूचे सामाजिक-राजनीतिक संरचना में गुत्थ गई है, और इसके खिलाफ संघर्ष को तात्कालिकवाद में सीमित नहीं रखा जा सकता । ]

फासीवाद के रूप में, सर्वहारा वर्ग का सामना एक असाधारण खतरनाक शत्रु से होता है। फासीवाद सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध विश्व पूंजीपति वर्ग द्वारा किये गये व्यापक आक्रमण की घनीभूत अभिव्यक्ति है। इसलिए इसे उखाड़ फेंकना नितांत आवश्यक ही नहीं, बल्कि यह हर साधारण श्रमिक की रोजमर्रा की ज़िंदगी और रोजी-रोटी का सवाल भी है। इन्हीं आधारों पर समूचे सर्वहारा वर्ग को फासीवाद के खिलाफ लड़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि हम स्पष्टता और गहनता से इसकी प्रकृति का अध्ययन करें तो फासीवाद को हराना हमारे लिए बहुत आसान होगा। अब तक इस विषय पर न केवल श्रमिकों के विशाल जनसमूह के बीच, बल्कि सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी अग्रदूतों और कम्युनिस्टों के बीच भी बेहद अस्पष्ट विचार रहे हैं। अब तक फासीवाद को हंगरी में होर्थी (Horthy) के श्वेत आतंक के समकक्ष समझा गया है। हालाँकि दोनों की पद्धतियाँ समान हैं, लेकिन मूलतः वे अलग-अलग हैं। होर्थी आतंक सर्वहारा वर्ग की विजयी, अपितु अल्पकालिक, क्रांति को दबा दिए जाने के उपरांत स्थापित हुआ था, और यह पूंजीपति वर्ग के प्रतिशोध की अभिव्यक्ति थी। श्वेत आतंक का सरगना पूर्व अधिकारियों का एक छोटा सा गुट था। इसके विपरीत, वस्तुपरक रूप से देखा जाए तो फासीवाद, पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा आक्रामकता के प्रतिशोध में पूंजीपति वर्ग का बदला नहीं है, बल्कि वह रूस में शुरू हुई क्रांति को जारी रखने में विफल रहने के लिए सर्वहारा वर्ग की सजा है। फासीवादी नेताओं की कोई छोटी और विशिष्ट जाति नहीं है; वे जनसंख्या के व्यापक हिस्सों में गहराई से फैले हुए हैं।

केवल सैन्य रूप से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी हमें फासीवाद पर काबू पाना होगा। आज भी सुधारवादियों के लिए फासीवाद नग्न हिंसा — सर्वहारा वर्ग द्वारा शुरू की गई हिंसा के विरुद्ध प्रतिक्रिया — के अलावा कुछ भी नहीं है। सुधारवादियों के लिए रूसी क्रांति अदन की वाटिका में हव्वा के सेब चखने [यानि महापाप] के समान है। सुधारवादी फासीवाद को रूसी क्रांति और उसके परिणामों से जोड़ते हैं। हामबुर्ग के एकता सम्मेलन में ओटो बावर का इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं था, जब उन्होंने फासीवाद के लिए बहुत हद तक दोषी कम्युनिस्टों को ठहराया, जिन्होंने, उनके अनुसार, लगातार विभाजन से सर्वहारा वर्ग की ताकत को कमजोर कर दिया था। यह कहते हुए उन्होंने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि रूसी क्रांति के इस मनोबल गिराने वाले उदाहरण से बहुत पहले जर्मनी के स्वतंत्र [सामाजिक-जनवादियों] ने विभाजन को अंजाम दिया था। खुद के विचारों के विपरीत, बावर को हामबुर्ग में इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि फासीवाद की संगठित हिंसा का मुकाबला सर्वहारा वर्ग के रक्षा संगठनों के निर्माण से किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रत्यक्ष हिंसा के खिलाफ लोकतंत्र की कोई भी अपील काम नहीं कर सकती। अवश्य ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनका मतलब विद्रोह या आम हड़ताल जैसे हथियारों से नहीं था जिनसे हमेशा सफलता नहीं मिली है। उनका अभिप्राय जन कार्रवाई के साथ संसदीय कार्रवाई के सामंजस्य से था। ओटो बावर ने यह नहीं बताया कि इन कार्रवाइयों की प्रकृति क्या होगी, जबकि प्रश्न का मूल बिंदु यही है। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए एकमात्र हथियार जिसकी सिफारिश बावर ने की वह विश्व प्रतिक्रियावाद पर अंतर्राष्ट्रीय सूचना ब्यूरो की स्थापना थी। इस नए-पुराने इंटरनेशनल का विशिष्ट लक्षण पूंजीवादी वर्चस्व की शक्ति और स्थायित्व में उसका विश्वास और विश्व क्रांति के सबसे मजबूत कारक के रूप में सर्वहारा वर्ग के प्रति उसका अविश्वास और बुज़दिली है। उसका मानना है कि सर्वहारा पूंजीपति वर्ग की अजेय ताकत के खिलाफ संयम से काम लेने और पूंजीपति वर्ग के बाघ को छेड़ने से परहेज करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। 

वास्तव में, अपने हिंसक कृत्यों के अभियोजन में अपनी पूरी ताकत के साथ, फासीवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विघटन और क्षय की अभिव्यक्ति और बुर्जुआ राजसत्ता के भंग होने के लक्षण के अलावा और कुछ नहीं है। यही उसके आधारों में से एक है। पूंजीवाद के इस पतन के लक्षण युद्ध से पहले ही दिखाई देने लगे थे। युद्ध ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उसकी नींव समेत तहस-नहस कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप न केवल सर्वहारा वर्ग में भारी दरिद्रता आई है, बल्कि निम्न पूंजीवादी वर्ग, छोटे किसानों और बुद्धिजीवियों की भी बड़ी दुर्गति हुई है। इन सभी समूहों से वादा किया गया था कि युद्ध से उनकी भौतिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरीत —  बड़ी संख्या में पहले का मध्यम वर्ग अपनी आर्थिक सुरक्षा को पूरी तरह से खोकर सर्वहारा बन गया है। इस कतार में बड़ी संख्या में पूर्व अधिकारी भी शामिल हो गए, जो अब बेरोजगार हैं। इन्हीं तत्वों में से फासीवाद को अपने लिए पर्याप्त रंगरूट मिले। फासीवाद की ऐसी संरचना कई देशों में उसके मुखर राजशाहीवादी चरित्र का कारण है। 

फासीवाद की दूसरी जड़ सुधारवादी नेताओं के विश्वासघाती रवैये द्वारा विश्व क्रांति की गति को धीमा करने में निहित है। सुधारवादी समाजवाद के प्रति निश्चित सहानुभूति की वजह से और इस आशा में कि वह लोकतांत्रिक तर्ज पर समाज में सुधार लाएगा बड़ी संख्या में निम्न पूंजीपति वर्ग ने, यहां तक कि माध्यम वर्ग ने भी, युद्ध काल की अपनी मनोवृत्ति को त्याग दिया था। वे निराश थे। उन्हें दिख रहा है कि सुधारवादी नेता पूंजीपति वर्ग के साथ एक परोपकारी समझौते में हैं। इससे भी बुरा यह है कि इस जनता ने अब न केवल सुधारवादी नेताओं में, बल्कि समग्र रूप से समाजवाद में भी अपना विश्वास खो दिया है। समाजवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों की इस निराश भीड़ में सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा भी शामिल हो गया है – उन श्रमिकों का, जिन्होंने न केवल समाजवाद में, बल्कि अपने वर्ग में भी अपना विश्वास छोड़ दिया है। फासीवाद राजनीतिक रूप से आश्रयहीन लोगों के लिए एक प्रकार की शरणस्थली बन गया है। निष्पक्षता में यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि कम्युनिस्ट भी – रूसियों को छोड़कर – फासीवादी कतारों में इन तत्वों के पलायन के लिए कुछ हद तक दोषी हैं, क्योंकि कई बार हमारी कार्रवाइयाँ जनता को गहराई से आंदोलित करने में विफल रही हैं। समाज के विभिन्न तत्वों के बीच समर्थन प्राप्त करते समय फासीवादियों का स्पष्ट उद्देश्य, निश्चित रूप से, अपने अनुयायियों के बीच वर्ग विरोध को पाटने का प्रयास करना रहा होगा और तथाकथित आधिकारिक राज्य को इस उद्देश्य के लिए एक साधन के रूप में काम करना था। फासीवाद अब ऐसे तत्वों को गले लगाता है जो पूंजीवादी व्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक हो सकते हैं। फिर भी, अब तक इन तत्वों पर प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने लगातार विजय प्राप्त की है।

पूंजीपति वर्ग ने शुरू से ही स्थिति को स्पष्ट रूप से देख लिया था। वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करना चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों में पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व का पुनर्निर्माण पूंजीपति वर्ग द्वारा केवल सर्वहारा वर्ग के बढ़ते शोषण की कीमत पर ही किया जा सकता है। पूंजीपति वर्ग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि मृदुभाषी सुधारवादी समाजवादी सर्वहारा वर्ग पर अपनी पकड़ तेजी से खो रहे हैं, और पूंजीपति वर्ग के लिए सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हिंसा का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। लेकिन पूंजीवादी राज्यों के हिंसा के साधन विफल होने लगे हैं। इसलिए उन्हें हिंसा के नए संगठन की आवश्यकता है, और यह उन्हें फासीवाद का खिचड़ी समूह मुहैया कराता है। इस कारण से पूंजीपति वर्ग फासीवाद की सेवा में अपनी सारी ताकत लगा देता है। 

विभिन्न देशों में फासीवाद की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। फिर भी इसकी दो विशिष्टताएं सभी देशों में समान रूप से मौजूद होती हैं —  एक, क्रांतिकारी कार्यक्रम का दिखावा, जिसे चतुराई से बड़े पैमाने पर जनता के हितों और मांगों के लिए अनुकूलित किया जाता है, और दूसरी ओर, सबसे क्रूर हिंसा का प्रयोग। इसका उत्कृष्ट उदाहरण इतालवी फासीवाद है। इटली में औद्योगिक पूंजी इतनी मजबूत नहीं थी कि बर्बाद अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा कर सके। यह उम्मीद नहीं थी कि राजसत्ता उत्तरी इटली की औद्योगिक राजधानी की शक्ति और भौतिक संभावनाओं के विस्तार के लिए हस्तक्षेप करेगी। राज्य अपना सारा ध्यान कृषि पूंजी और छोटी वित्तीय पूंजी पर दे रहा था। भारी उद्योग, जिन्हें युद्ध के दौरान कृत्रिम रूप से बढ़ावा दिया गया था, युद्ध समाप्त होने पर ध्वस्त हो गए और अभूतपूर्व बेरोजगारी की लहर चल पड़ी। सैनिकों को दिए गए वादे पूरे नहीं किए जा सके। इन सभी परिस्थितियों ने अत्यंत क्रांतिकारी माहौल को जन्म दिया। इस क्रांतिकारी माहौल के परिणामस्वरूप, 1920 की गर्मियों में, कारखानों पर कब्ज़ा हो गया। उस अवसर पर क्रांति की परिपक्वता सर्वहारा वर्ग के एक छोटे से अल्पसंख्यक हिस्से के बीच पहली बार प्रकट होती हुई दिखी। इसलिए फ़ैक्टरियों पर कब्ज़ा क्रांतिकारी विकास का शुरुआती बिंदु बनने के बजाय एक ज़बरदस्त हार के साथ ख़त्म होना तय था। ट्रेड यूनियनों के सुधारवादी नेताओं ने घृणित गद्दारों की भूमिका निभाई, लेकिन साथ ही यह भी दिखा कि सर्वहारा वर्ग के पास क्रांति की ओर बढ़ने की न तो इच्छा थी और न ही शक्ति। 

सुधारवादी प्रभाव के बावजूद, सर्वहारा वर्ग के बीच ऐसी ताकतें काम कर रही थीं जो पूंजीपति वर्ग के लिए असुविधाजनक हो सकती थीं। नगरपालिका चुनाव, जिसमें सामाजिक जनवादियों ने तमाम परिषदों में से एक तिहाई जीत हासिल की, पूंजीपति वर्ग के लिए खतरे का संकेत था, जिन्होंने तुरंत एक ऐसी ताकत की तलाश शुरू कर दी जो क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का मुकाबला कर सके। यह वही समय था जब मुसोलिनी के फाशीस्मो (fascismo) को कुछ महत्व प्राप्त हुआ था। फ़ैक्टरियों पर कब्जे में सर्वहारा वर्ग की हार के बाद फासीवादियों (fascisti) की संख्या 1,000 से अधिक हो गई और उसका एक बड़ा हिस्सा मुसोलिनी के संगठन में शामिल हो गया। दूसरी ओर, सर्वहारा वर्ग का विशाल जनसमूह उदासीनता की चपेट में आ गया था। फासिस्टों की पहली सफलता का कारण यह था कि उन्होंने अपनी शुरुआत क्रांतिकारी हावभाव से की थी। उनका दिखावटी उद्देश्य क्रांतिकारी युद्ध की क्रांतिकारी विजय को बरकरार रखने के लिए लड़ना था, और इस कारण से उन्होंने एक मजबूत राज्य की मांग की जो समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिरोधी हितों के खिलाफ, जिनका प्रतिनिधित्व “पुराना राज्य” करता था, जीत के इन क्रांतिकारी फलों की रक्षा करने में सक्षम होगा। इनका नारा सभी शोषकों के खिलाफ था, और इसलिए पूंजीपति वर्ग के खिलाफ भी था। उस समय फासीवाद इतना कट्टरपंथी था कि उसने जियोलित्ती को फांसी देने और इतालवी राजवंश को गद्दी से हटाने की भी मांग की। लेकिन जियोलित्ती ने सावधानीपूर्वक फासीवाद, जिसे वह कम बुरा मानता था, के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करने से परहेज किया। इन फासीवादी दावों को संतुष्ट करने के लिए उसने संसद को भंग कर दिया। उस समय मुसोलिनी अभी भी रिपब्लिकन होने का दिखावा कर रहा था, और एक साक्षात्कार में उसने घोषणा की कि फासीवादी गुट इतालवी संसद के उद्घाटन में भाग नहीं ले सकता क्योंकि वह राजशाही समारोह के साथ होना था। इन कथनों ने फासीवादी आंदोलन में संकट पैदा कर दिया, जिसे  मुसोलिनी के अनुयायियों और राजशाही संगठन के प्रतिनिधियों के विलय के बाद पार्टी के रूप में स्थापित किया गया था, और नई पार्टी की कार्यकारिणी दोनों गुटों के बराबर प्रतिनिधित्व से बनी थी। फासीवादी पार्टी ने मजदूर वर्ग को भ्रष्ट और आतंकित करने का दोधारी हथियार निर्मित किया। श्रमिक वर्ग को भ्रष्ट करने के लिए फासीवादी ट्रेड यूनियनें, तथाकथित निगम जिनमें श्रमिक और नियोक्ता एकजुट थे, बनाई गईं। मजदूर वर्ग को आतंकित करने के लिए फासीवादी पार्टी ने उग्रवादी दस्ते बनाए जो दंड देने के अभियानों से विकसित हुए थे। यहां इस बात पर फिर से जोर दिया जाना चाहिए कि आम हड़ताल के दौरान इतालवी सुधारवादियों की जबरदस्त दगाबाजी, जो इतालवी सर्वहारा वर्ग की भयानक हार का कारण बनी, ने फासीवादियों को राजसत्ता पर कब्जा करने के लिए सीधा प्रोत्साहन दिया था। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट पार्टी की गलतियों का आधार फासीवाद को बिना किसी गहन सामाजिक आधार के महज एक सैन्यवादी और आतंकवादी आंदोलन मानना था।

आइए अब देखें कि फासीवाद ने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद से अपने इच्छित क्रांतिकारी कार्यक्रम को पूरा करने के लिए, वर्ग रहित राज्य बनाने के अपने वादे को साकार करने के लिए क्या किया है। फासीवाद ने एक नए और बेहतर चुनावी कानून और महिलाओं के लिए समान मताधिकार का वादा किया। मुसोलिनी का नया मताधिकार कानून वास्तव में फासीवादी आंदोलन के पक्ष में मताधिकार कानून का निकृष्टतम अवरोधक है। इस कानून के अनुसार, सभी सीटों में से दो-तिहाई सीटें सबसे मजबूत पार्टी को दी जानी चाहिए, और अन्य सभी दलों के पास कुल मिलाकर केवल एक-तिहाई सीटें होंगी। महिलाओं का मताधिकार लगभग पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया है। वोट देने का अधिकार केवल धनी महिलाओं और तथाकथित “युद्ध-प्रतिष्ठित” महिलाओं के एक छोटे समूह को दिया गया है। आर्थिक संसद और नेशनल असेंबली के वादे का अब कोई उल्लेख नहीं होता है, न ही सीनेट के उन्मूलन का, जिसकी फासीवादियों ने इतनी गंभीरता से प्रतिज्ञा की थी।

सामाजिक क्षेत्र में की गई संकल्पों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। फासिस्टों ने अपने कार्यक्रम में आठ-घंटे कार्यदिवस की घोषणा की थी, लेकिन उनके द्वारा पेश किये गये विधेयक में इतने सारे अपवादों का प्रावधान है कि इटली में आठ घंटे कार्यदिवस नहीं होना तय है। मजदूरी की गारंटी के वादे का भी कुछ नहीं हुआ। ट्रेड यूनियनों के विनाश ने नियोक्ताओं को 20 से 30 प्रतिशत और कुछ मामलों में 50 से 60 प्रतिशत तक वेतन कटौती करने का अधिकार दे दिया है। फासीवाद ने वृद्धावस्था और विकलांग बीमा का वादा किया था। व्यवहार में, फासीवादी सरकार ने, अर्थव्यवस्था की खातिर, बजट में इस उद्देश्य के लिए अलग रखे गए 50,000,000 लीरे की तुच्छ राशि को भी हटा दिया है। श्रमिकों को कारखानों के प्रशासन में तकनीकी भागीदारी के अधिकार का वादा किया गया था। आज इटली में एक कानून है जो फ़ैक्टरी कौंसिलों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाता है। राजकीय उद्यम निजी पूंजी के हाथों में खेल रहे हैं। फासीवादी कार्यक्रम में पूंजी पर प्रगतिशील आयकर का प्रावधान था, जो कुछ हद तक पूंजीवादी स्वामित्व को कमजोर करने का काम करता। वास्तव में जो हुआ वह लेकिन इसके विपरीत था। विलासिता की वस्तुओं पर विभिन्न करों को, जैसे ऑटोमोबाइल कर, समाप्त कर दिया गया, दलील दी गई कि यह राष्ट्रीय उत्पादन को अवरुद्ध करेगा। अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि इस कारण से की गई थी कि इससे घरेलू खपत में कमी आएगी और इस प्रकार निर्यात की संभावनाओं में सुधार होगा। फासीवादी सरकार ने प्रतिभूतियों के हस्तांतरण (transfer of securities) के अनिवार्य पंजीकरण के कानून को भी निरस्त कर दिया, इस प्रकार बियरर-बांड की प्रणाली को फिर से शुरू किया और कर चोरी करने वालों के लिए दरवाजा खोल दिया। स्कूलों को पादरी वर्ग को सौंप दिया गया। राजसत्ता पर कब्जा करने से पहले, मुसोलिनी ने एक आयोग की मांग की थी जो युद्ध से हुए मुनाफे (war profits) की जांच करेगा और उसमें  से 85 प्रतिशत राज्य को सौंप दिया जाएगा। जब यह आयोग मुसोलिनी के वित्तीय सरपरस्तों, भारी उद्योगपतियों के लिए असहज हो गया, तो उसने आदेश दिया कि आयोग केवल उसे ही रिपोर्ट सौंपे, और जो कोई भी उस आयोग में घटित कोई भी बात को प्रकाशित करेगा, उसे छह महीने की कैद की सजा दी जाएगी। सैन्य मामलों में भी फासीवाद अपने वादे निभाने में विफल रहा। सेना को क्षेत्रीय रक्षा तक सीमित रखने का वादा किया गया था। वास्तव में, स्थायी सेना के लिए सेवा की अवधि आठ महीने से बढ़ाकर अठारह कर दी गई, जिसका मतलब था कि सशस्त्र बलों की संख्या 250,000 से बढ़कर 350,000 हो गई। रॉयल गार्ड्स को समाप्त कर दिया गया क्योंकि वे मुसोलिनी के लिए बहुत लोकतांत्रिक थे। दूसरी ओर, काराबेनियरी (अर्धसैनिक पुलिस फोर्स) को 65,000 से बढ़ाकर 90,000 कर दिया गया और सभी पुलिस टुकड़ियों को दोगुना कर दिया गया। फासीवादी संगठन राष्ट्रीय मिलिशिया के रूप में तब्दील हो गए, जिनकी संख्या नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अब 500,000 तक पहुंच गई है। लेकिन सामाजिक मतभेदों ने मिलिशिया में राजनीतिक विरोधाभास का बीज बो दिया है, जो अंततः फासीवाद के पतन का कारण बनेगा।

जब हम फासीवादी कार्यक्रम की तुलना उसके पालन से करते हैं तो हम आज ही इटली में फासीवाद के पूर्ण वैचारिक पतन का अनुमान लगा सकते हैं। इस वैचारिक दिवालियेपन के बाद राजनीतिक दिवालियापन अनिवार्य रूप से सामने आता है। फासीवाद उन ताकतों को एक साथ रखने में असमर्थ है जिन्होंने उसे सत्ता में आने में मदद की। कई रूपों में हितों का टकराव पहले से ही महसूस किया जा रहा है। फासीवाद पुरानी नौकरशाही को अपने अधीन बनाने में अभी तक सफल नहीं हुआ है। सेना में पुराने अधिकारियों और नये फासीवादी नेताओं के बीच भी मनमुटाव है। विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे हैं। पूरे देश में फासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। वर्ग विरोध फासिस्टों की कतारों में भी व्याप्त होना शुरू हो गया है। फासीवादी उन वादों को पूरा करने में असमर्थ हैं जो उन्होंने श्रमिकों और फासीवादी ट्रेड यूनियनों से किये थे। मज़दूरों की मज़दूरी में कटौती और बर्खास्तगी आजकल आम बात हो गई है। इसीलिए फासीवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन के खिलाफ पहला विरोध स्वयं फासीवादियों की कतार से आया था। मजदूर शीघ्र ही अपने वर्गीय हित एवं वर्गीय दायित्व पर वापस आयेंगे। हमें फासीवाद को एकजुट शक्ति के रूप में नहीं देखना चाहिए जो हमारे हमले को विफल करने में सक्षम हो। बल्कि वह ऐसा गठन है, जिसमें कई विरोधी तत्व शामिल हैं, और वह भीतर से विघटित हो जाएगा। लेकिन यह मानना ​​खतरनाक होगा कि इटली में फासीवाद के वैचारिक और राजनीतिक विघटन के तुरंत बाद सैन्य विघटन होगा। इसके विपरीत, आतंकवादी तरीकों से फासीवाद द्वारा जीवित रहने के प्रयास के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसलिए, क्रांतिकारी इतालवी श्रमिकों को आगे के गंभीर संघर्षों के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि हम विघटन की इस प्रक्रिया के महज दर्शक बन संतुष्ट रहे तो यह बहुत बड़ी विपत्ति होगी। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने उपलब्ध सभी साधनों के साथ इस प्रक्रिया को तेज करें। यह न केवल इतालवी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है, बल्कि जर्मन फासीवाद के सामने जर्मन सर्वहारा वर्ग का भी कर्तव्य है।

इटली के बाद जर्मनी में फासीवाद सबसे मजबूत है। युद्ध के परिणाम और क्रांति की विफलता के नतीजतन, जर्मनी की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कमजोर है, और किसी अन्य देश में क्रांति के लिए वस्तुनिष्ठ परिपक्वता और श्रमिक वर्ग की आत्मपरक तैयारी के बीच इतना बड़ा अंतर नहीं है जितना कि अभी जर्मनी में। किसी भी अन्य देश में सुधारवादी इतनी बुरी तरह असफल नहीं हुए जितना कि जर्मनी में। उनकी विफलता पुराने इंटरनेशनल में किसी भी अन्य पार्टी की विफलता से अधिक आपराधिक है, क्योंकि उन्हें ही उस देश में, जहां मजदूर वर्ग के संगठन पुराने और अन्यत्र की तुलना में  बेहतर व्यवस्थित हैं, सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए बिल्कुल अलग तरीकों से संघर्ष करना चाहिए था। 

मुझे पूरा यकीन है कि न तो शांति संधियों और न ही रूर (Ruhr) के कब्जे से जर्मनी में फासीवाद को वैसा बढ़ावा मिला है जितना कि मुसोलिनी द्वारा सत्ता हथियाने से । इससे जर्मन फासिस्ट प्रोत्साहित हुए हैं। इटली में फासीवाद का खात्मा जर्मनी में फासीवादियों का हौसला पस्त करेगा । हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए: विदेशों में फासीवाद को उखाड़ फेंकने की शर्त हर एक देश में इन देशों के सर्वहारा द्वारा फासीवाद को उखाड़ फेंकना है। हमारा दायित्व है कि हम वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर विजय प्राप्त करें। यह हम पर भारी कार्यभार थोपता है। हमें समझना होगा कि फासीवाद निराश लोगों का और उन लोगों का आंदोलन है जिनका अस्तित्व नष्ट हो गया है। इसलिए, हमें उस व्यापक जनसमूह को जीतने या बेअसर करने का प्रयास करना चाहिए जो अभी भी फासीवादी खेमे में हैं। मैं अपने इस एहसास के महत्व पर जोर देना चाहती हूं कि हमें इस जनता की आत्मा पर कब्ज़ा करने के लिए वैचारिक रूप से संघर्ष करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि वे न केवल अपने वर्तमान कष्टों से भागने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वे एक नए दर्शन के लिए लालायित हैं। हमें अपनी वर्तमान गतिविधि की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आना होगा। तीसरा इंटरनेशनल, पुराने इंटरनेशनल के विपरीत, बिना किसी भेदभाव के सभी नस्लों का इंटरनेशनल है। कम्युनिस्ट पार्टियों को न केवल शारीरिक सर्वहारा श्रमिकों का अगुआ होना चाहिए, बल्कि दिमागी श्रमिकों के हितों का ऊर्जावान रक्षक भी होना चाहिए। उन्हें समाज के उन सभी वर्गों का नेता होना चाहिए जो अपने हितों और भविष्य की अपेक्षाओं के कारण बुर्जुआ वर्चस्व के विरोध में हैं। इसलिए, मैंने  (इस साल जून में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की विस्तारित कार्यकारी समिति के एक सत्र में बोलते हुए) मजदूरों और किसानों की सरकार के लिए संघर्ष शुरू करने के लिए कॉमरेड ज़िनोविएव के प्रस्ताव का स्वागत किया। जब मैंने इसके बारे में पढ़ा तो मैं बहुत खुश हुई। यह नया नारा सभी देशों के लिए बहुत मायने रखता है। फासीवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में हम इससे दूर नहीं रह सकते। इसका अर्थ है कि छोटे किसानों की व्यापक जनता का उद्धार साम्यवाद के माध्यम से होगा। हमें अपने आप को केवल अपने राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। हमें साथ ही एक दर्शन के रूप में साम्यवाद के आदर्शों से जनता को परिचित कराना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम उन सभी तत्वों को एक नए दर्शन का मार्ग दिखाएंगे, जिन्होंने हाल के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में अपना असर खो दिया है। इसके लिए आवश्यक शर्त यह है कि, जैसे-जैसे हम इन जनता के पास पहुंचते हैं, हम संगठनात्मक रूप से, एक पार्टी के रूप में, एक मजबूती से जुड़ी हुई इकाई बन जाते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हम अवसरवादिता में फंसने और दिवालिया हो जाने का जोखिम उठाते हैं। हमें अपने काम के तरीकों को अपने नये कार्यों के अनुरूप ढालना होगा। हमें जनता से ऐसी भाषा में बात करनी चाहिए जिसे वो, हमारे विचारों पर पूर्वाग्रह के बिना, समझ सके। इस प्रकार, फासीवाद के खिलाफ संघर्ष कई नए कार्यभारों को सामने लाता है।

यह सभी पार्टियों का दायित्व है कि वे इस कार्यभार को ऊर्जावान ढंग से और अपने-अपने देश की स्थिति के अनुरूप पूरा करें। हालाँकि, हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर काबू पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। फासीवाद से उसके मुकाबले में सर्वहारा वर्ग की स्थिति वर्तमान में आत्मरक्षा की है। सर्वहारा वर्ग की इस आत्मरक्षा को उसके अस्तित्व और उसके संगठन के लिए संघर्ष का रूप लेना होगा।

सर्वहारा वर्ग के पास आत्मरक्षा का सुव्यवस्थित तंत्र होना चाहिए। जब भी फासीवाद हिंसा का प्रयोग करता है, तो उसका सामना सर्वहारा हिंसा से ही करना पड़ता है। मेरा तात्पर्य व्यक्तिगत आतंकवादी कृत्यों से नहीं, बल्कि सर्वहारा वर्ग के संगठित क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की हिंसा से है। जर्मनी ने “सर्वहारा सौ” (proletarische hundertschaften —  श्रमिक मिलिशिया) संगठित करके एक शुरुआत की है। यह संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब सर्वहारा संयुक्त मोर्चा हो। श्रमिकों को पार्टी से ऊपर उठकर इस संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा। सर्वहारा वर्ग की आत्मरक्षा सर्वहारा संयुक्त मोर्चे की स्थापना के लिए सबसे बड़े प्रोत्साहनों में से एक है। प्रत्येक श्रमिक की आत्मा में वर्ग-चेतना पैदा करके ही हम फासीवाद को सैन्य रूप से उखाड़ फेंकने के लिए भी तैयारी करने में सफल होंगे, जो इस समय नितांत आवश्यक है। यदि हम इसमें सफल होते हैं, तो हम यकीन कर सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग के खिलाफ पूंजीपति वर्ग के आम आक्रमण की सफलताओं के बावजूद, जल्द ही पूंजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ शक्ति का काम तमाम हो जाएगा। विघटन के चिन्ह, जो हमारी आंखों के सामने स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं, हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि महाकाय सर्वहारा फिर से क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल होगा, और तब पूंजीवादी दुनिया के लिए उसका आह्वान होगा: मैं शक्ति हूं, मैं संकल्प हूं, मुझमें तुम भविष्य देखते हो!

मज़हब और उसकी आलोचना: मतलब और मक़सद (Marx on the meaning of religion and its criticism)


गैर-मज़हबी आलोचना का आधार है: मनुष्य मज़हब को बनाता है, मज़हब मनुष्य को नहीं बनाता।  मज़हब, वास्तव में, उस मनुष्य की आत्म-चेतना और आत्म-सम्मान है जिसने या तो अभी तक खुद को नहीं जीता है, या खुद को फिर से खो दिया है। लेकिन मनुष्य कोई अमूर्त प्राणी नहीं है जो संसार से बाहर बैठा हुआ है। मनुष्य मनुष्य की दुनिया है —  राज्य, समाज। यह राज्य और यह समाज  मज़हब का निर्माण करते हैं, जो दुनिया की एक उलटी चेतना है, क्योंकि वे एक उलटी दुनिया हैं।  मज़हब इस संसार का सामान्य सिद्धांत है, इसका विश्वकोश है, इसका लोकप्रिय रूप में तर्क है, इसका आध्यात्मिक प्रतिष्ठा बिंदु है, इसका उत्साह है, इसका नैतिक अनुमोदन है, इसका गंभीर पूरक है, और सांत्वना और औचित्य का सार्वभौमिक आधार है। यह मानव सार का तरंगी अहसास है क्योंकि मानव सार ने कोई सच्ची वास्तविकता हासिल नहीं की है। इसलिए, मज़हब के विरुद्ध संघर्ष अप्रत्यक्ष रूप से उस दुनिया के विरुद्ध संघर्ष है जिसकी आध्यात्मिक सुगंध  मज़हब है।

मज़हबी पीड़ा, एक ही समय में, वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति और वास्तविक पीड़ा के प्रति विरोध है।  मज़हब उत्पीड़ित प्राणी की आह है, हृदयहीन संसार का हृदय है और निष्प्राण स्थितियों की आत्मा है। यह लोगों की अफ़ीम है। 

लोगों की भ्रामक खुशी के रूप में मज़हब का उन्मूलन उनकी वास्तविक खुशी की मांग है। उनसे अपनी स्थिति के बारे में भ्रम त्यागने का आह्वान करना, उनसे उस स्थिति को त्यागने का आह्वान करना है जिसमें भ्रम की आवश्यकता होती है। इसलिए, मज़हब की आलोचना, भ्रूण रूप में, आंसुओं की उस घाटी की आलोचना है जिसका आभामंडल  मज़हब है।

आलोचना ने ज़ंजीर पर लगे काल्पनिक फूलों को इसलिए नहीं तोड़ा है कि मनुष्य बिना किसी कल्पना या सांत्वना के उस ज़ंजीर को झेलता रहेगा, बल्कि इसलिए कि वह ज़ंजीर को उतार फेंकेगा और जीवित फूल को तोड़ेगा।  मज़हब की आलोचना मनुष्य का मोहभंग करती है, ताकि वह उस व्यक्ति की तरह सोचे, कार्य करे और अपनी वास्तविकता को गढ़े, जिसने अपने भ्रम को त्याग दिया है और अपनी इंद्रियों को पुनः प्राप्त कर लिया है, ताकि वह अपने स्वयं के सच्चे सूर्य के रूप में अपने चारों ओर घूम सके।  मज़हब केवल वह मायावी सूर्य है जो मनुष्य के चारों ओर तब तक घूमता रहता है जब तक वह अपने चारों ओर नहीं घूमता।

इसलिए, जब एक बार सत्य का पर-लोक लुप्त हो जाता है, तो इह-लोक की सच्चाई को स्थापित करना इतिहास का कार्य है। मानवीय आत्म-अलगाव के पवित्र रूप को एक बार बेनकाब करने के बाद उसके अपवित्र रूपों में आत्म-अलगाव को उजागर करना इतिहास की सेवा में दर्शन का तात्कालिक कार्य है। इस प्रकार, स्वर्ग की आलोचना पृथ्वी की आलोचना में बदल जाती है,  मज़हब की आलोचना कानून की आलोचना में और  मज़हबी-शास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना में बदल जाती है।

(from Karl Marx. A Contribution to the Critique of Hegel’s Philosophy of Right [1843-44])

Two versions of the Eleventh Thesis


It is perfectly true, as philosophers say, that life must be understood backwards. But they forget the other proposition, that it must be lived forwards. (Søren Kierkegaard, 1843)

The philosophers have only interpreted the world, in various ways. The point, however, is to change it. (Karl Marx, 1845)

कम्युनिज़्म का अव्याकरण (The Ungrammaticality of Communism)


इस लेख का विस्तृत पाठ जॉन होल्वे की किताब “क्रैक कैपिटलिज्म” के बंगला अनुवाद की भूमिका के लिए लिखा गया और प्रकाशित हुआ है। साथी मार्तंड प्रगल्भ के साथ लिखा वह लेख अनुगूँज के ब्लॉग पर उपलब्ध है ।

आज एक तरफ प्रगतिशील राज्यवादी धाराएँ फासीवाद से संघर्ष के नाम पर उदारवाद और कल्याणकारी संस्थाओं की पहरेदारी करने में लगी हैं, तो दूसरी तरफ व्यवस्था लगातार अपनी दरारों को छुपाने के लिए आपातकालिक उपायों पर निर्भर रह रही है। संकट को अवसर बनाने के फेर में बड़े संकट पैदा कर रही है। हम यह भी कह सकते हैं कि व्यवस्था अपने एक संकट का निवारण दूसरे संकट द्वारा ही कर पा रही है। 

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परंतु संकट आखिर क्या है? शायद इसको समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक पहलू उस मौलिक मार्क्सवादी शिक्षा पर जोर है जिसके अनुसार पूंजीवाद का आधार मानवीय गतिविधियों का सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम काल के साथ ताल-मेल होता है। सारे संकटों की जड़ हमारा बेताल होना है। तभी तो, संकट के कारण हम हैं, पूंजीपति नहीं। आर्थिक, राजनीतिक और अन्य प्रकार के प्रबंधनात्मक विकास इसी ताल-मेल को बनाए रखने के लिए होते हैं। परंतु बेताल हो जाने की और व्यवस्थाई असन्तुलन की समस्या पूंजीवाद पर हमेशा मंडराती रहती है। व्यवस्था के दीवारों की लगातार मरम्मत होने के बावजूद हमारे करने से ही छोटी बड़ी दरारें लगातार बनती और फैलती रहती हैं “जहां से मसीह प्रवेश कर सकता है” (वाल्टर बेंजामिन, ऑन द कॉन्सेप्ट ऑफ हिस्ट्री)।

पूंजीवादी सामाजिक संश्लेषण आज निरंतर खतरे में है। उसका व्याकरण आज गहरे संकट में है। इस व्याकरण के तहत क्रियाओं और कृत्यों की स्वच्छंदता और बहुआयामीता पर एक ही क्रिया, अस्ति (होना) का वर्चस्व स्थापित होता है। यही अस्तित्व अथवा सत्त्व संज्ञाओं और क्रियाओं के बीच पदक्रमात्मक सम्बन्ध पैदा करते हैं। केवल इसी रूप में पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन संभव है। परंतु ये विभिन्न प्र-क्रियाएँ संकट ले कर आती हैं। ये संज्ञाएँ तो बनाती हैं – पण्यों, द्रव्यों, इत्यादि सभी का तो राज यही हैं –  परंतु उनकी सत्ता को कभी स्थिर नहीं रहने देतीं। जैसे ही पण्यों को हम पण्यीकरण, द्रव्यों को द्रव्यीकरण समझते हैं तो हमे इन संज्ञाओं की अस्थिरता साफ दिखती है। जैसाकि अर्न्स्ट ब्लॉक ने कभी कहा था कि अस्तित्व की बंद, गतिहीन अवधारणा की तिलांजलि से ही उम्मीद का अस्ल आयाम खुलता है (अर्न्स्ट ब्लॉक, द प्रिंसिपल ऑफ होप, भाग 1)। मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिज़्म के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही कहा था। 

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“कम्युनिज़्म हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को कम्युनिज़्म का नाम देते हैं जो मौजूदा अवस्था को मिटाता है। इस आंदोलन की स्थितियां उन पूर्वाधारों से उत्पन्न होती हैं जो अभी विद्यमान हैं।” (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, द जर्मन आइडियोलॉजी)

बहुतों को कम्युनिज़्म की यह परिभाषा अधूरी लगती है, क्योंकि इसमें कम्युनिज़्म का विस्तृत रूपात्मक विवरण नहीं दिया गया है। पर हम समझते है कि इसमें सब कुछ है जिसके आधार पर ऐसे विवरण तैयार किए जा सकते हैं। परंतु विवरण तो परिभाषा नहीं है, वे केवल ऐतिहासिक स्वरूपों की कहानियां बता सकता है।

पहली बात तो यह है कि कम्युनिज़्म शब्द अपने आप में एक सूत्र है जो कि वर्गीय-विभाजित सामाजिकता के खिलाफ कम्यून अथवा वर्ग-विहीन सामूहिकता पर आधारित सामाजिकता की पेशकश करता है। पर वह कोई भविष्य में आने वाली अवस्था नहीं है, जिसे स्थापित होना अथवा करना है। वह आदर्श भी नहीं है जिसे कार्यक्रम-बद्ध कर यथार्थ को वहां तक पहुंचाना है। 

यानी कम्युनिज़्म को आना-लाना नहीं है, वह तो यहीं है। “मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में”। मौजूदा अवस्था को मिटाने के हमारे संघर्ष में, वास्तविक आंदोलन में वह मौजूद है। “खोजी होय तुरत मिलिहों, पल भर की ही तलास में।” वह तो “सब सांसों की स्वांस में” मौजूद है। (कबीरदास)

कम्युनिज़्म की स्थितियों क़े पूर्वाधार उसी अस्तित्व का हिस्सा हैं जिसका विद्यमान स्वरूप पूंजीवाद है। और शायद इसीलिए ऊपर उद्धृत कथन में कम्युनिज़्म को वास्तविक आंदोलन कहा गया है जो कि मौजूदा अवस्था को नकारता, “मिटाता” है। कम्युनिज़्म की विशिष्टता इसी में है कि “वह उत्पादन तथा संसर्ग के तमाम पूर्ववर्ती संबंधों के आधार को पलट देता है।” वह सामाजिक पूर्वाधारों को “ऐक्यबद्ध व्यक्तियों” की सत्ता के अधीन लाता है, पूंजीवादी समाज में व्यक्तिकृत व्यक्तियों की भ्रामक सामूहिकता के जगह पर वास्तविक एकता को उजागर करता है। कम्युनिज़्म मौजूद सामाजिक पूर्वाधारों को एकता के आधारों में बदल डालता है। (द जर्मन आइडियोलॉजी) वह व्यवस्थित अवस्थाओं की नकार है।

यही सतत नकार वर्ग संघर्ष की निरंतरता है। यह नकार सामाजिक संसर्ग के उन स्वरूपों के खिलाफ उत्पादक शक्तियों की बगावत है जो जीवंत मूर्त और उपयोगी श्रम को पूँजीकृत मृत श्रम के अधीनस्थ रखते हैं – जो क्रिया पर कृत की सत्ता स्थापित करते हैं। हम ज्यादा समय भूल जाते हैं कि मनुष्य और उसके पूर्ववर्ती श्रम के नतीजे ही तो उत्पादक शक्तियाँ हैं। नतीजों की स्वायत्तता, और मानवीय श्रम के अमूर्तिकरण के साथ उसका महज उन नतीजों के उपांग के रूप में सीमित हो जाना, यही पूंजीवादी सामाजिक स्वरूप की विशेषता है। और इस स्वरूप की आलोचना और नकार कम्युनिज़्म है। 

तमाम विवरणों की तरह कम्युनिज़्म का विवरण भी दिक्कालिक (स्पेसटाइम से सम्बंधित) होता है। दिक्काल के अनुसार कम्युनिज़्म अव्यक्त (अपने न होने में) रहता है अथवा व्यक्त होता है। उसी के अनुसार यह भी तय होता है कि क्या “कम्युनिज़्म मात्र स्थानीय घटना के रूप में ही जीवित रह पाता” है (परंतु “संसर्ग का प्रत्येक विस्तार स्थानीय कम्युनिज़्म को मिटा देगा”), या फिर वह “विश्व-ऐतिहासिक” पटल पर बदलती परिस्थितियों में क्रियान्वित होता है (द जर्मन आइडियोलॉजी)। इसी बदलती दिक्कालिकता के कारण कम्युनिज़्म को किसी एक प्रकार के विवरण में बांधना नामुमकिन है। जब वह कोई अवस्था है ही नहीं तो उसका स्थापित विवरण क्या होगा। 

नकार सतत क्रिया है। तभी तो मार्क्स ने कम्युनिज़्म को “कार्यवाही” और “क्रियाकलाप” के रूप में चिह्नित किया। कई मार्क्सवादी कम्युनिज़्म के इसी प्र-क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने के लिए कम्युनिजेशन शब्द का इस्तेमाल करते हैं। 

दूसरी तरफ, कम्युनिज़्म को अवस्था अथवा सामाजिक चरण मानने वाले उसको एक भिन्न सम्पूर्ण सामाजिक सत्त्व के रूप में समझते हैं जो पूंजीवाद के बाद स्थापित होगा। उनके लिए कम्युनिज़्म सामाजिक संसर्गों का भविष्यकालिक स्थापित नियोजन है। वह कितना ही कल्याणकारी क्यों न हो, उसे सामाजिक क्रियाशीलता और रचनात्मकता के मुक्त प्रवाह को नई सम्पूर्णता की पुनरुत्पादन-प्रक्रिया के वृत्तीय लूप में बांधना होगा। 

यही वजह है कि व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों में चरणवादी कम्युनिस्टों का वर्चस्व श्रमिकों के तमाम तबकों की स्वगतिविधियों पर आधारित मानवीय आत्ममुक्ति के मार्गों को उजागर नहीं होने देता और उन्हें राजकीय जड़वाद के घेरे में बांध कर (गरमपंथी) सुधारवाद की ओर मोड़ देता है। सामाजिक अलगाव, आर्थिक और राजनीतिक के पार्थक्य (the separation between the economic and the political) पर टिकी व्यवस्था को एक नया स्वरूप मिल जाता है। इस पार्थक्य से उत्पन्न राजसत्ता को नई वैधानिकता मिल जाती है। और कम्युनिज़्म भूमिगत ही रहता है। 

कम्युनिज़्म नाम नहीं है वह क्रिया है, सामाजिक एकता, सहयोग और सहकारिता की प्रक्रिया है, जबकि पूंजीवाद उस सहयोग के अलगाव, उत्पादीकरण और तकनीकीकरण पर आधारित है। इस व्यवस्था के तहत मानवीय क्रियाशीलता महज “पण्यों के विशाल संचय” का साधन हो जाती है। आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया में सामाजीकरण सतत बढ़ता जाता है परंतु उत्पादन सम्बन्ध और विनिमय प्रणाली इस सामाजिक क्रिया को कृत, पण्य, उसके स्वामित्व और उसके दाम, जो कि “किसी पण्य में मूर्त होनेवाले श्रम का द्रव्य-नाम होता है” (कार्ल मार्क्स पूंजी भाग 1), के प्रश्नों में ओझल कर देते हैं। सामाजीकरण और “मूर्तिकरण” (फेटिशाइज़ेशन) के इसी अन्तर्विरोध को वर्ग संघर्ष के रूप में एंगेल्स सूत्रबद्ध करते हैं, जब वह कहते हैं कि “सामाजीकृत उत्पादन तथा पूँजीवादी हस्तगतकरण-व्यवस्था की असंगति सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के विरोध के रूप में हुई।” (एंगेल्स, समाजवाद: काल्पनिक तथा वैज्ञानिक)

कम्युनिज़्म इस सामाजिक क्रियाशीलता के पूंजीवादी हस्तगतकरण से मुक्ति के लिए होती सतत दैनिक संघर्ष की क्रिया है। वह नामों, पण्यों और कृतों के जड़-बंधन से मुक्त होने की लड़ाई है। अगर कम्युनिज़्म सामूहिक सामाजिक प्र-क्रिया है और पूँजीवाद उस ऊर्जा का उत्पादिकरण कर उसे पण्य, द्रव्य, मूल्य और राज्य के स्वरूपों में बाँधता है, तो कम्युनिज़्म का विस्तार पूँजीवाद के अंदर, उसके विरुद्ध, और उसके आगे निकलने का संघर्ष है — उसकी नकार है। 

कम्युनिज़्म पूँजीवादी स्वरुपों की सैद्धांतिक-व्यवहारिक आलोचना द्वारा मानवीय क्रिया को उन स्वरूपों से मुक्त कर उनका सत्य उजागर करता है। उन स्वरूपों की जड़ता को तोड़कर उन प्रक्रियाओं को सामने लाता है जिनसे वे निर्मित होते हैं। ये प्रक्रियाएँ अपने आप में अंतर्विरोध-पूर्ण होती हैं। यह अंतर्विरोध श्रम और पूँजी के बीच, मूर्त श्रम और उसके अमूर्तिकरण के बीच, जीवंत और मृत श्रम के बीच होता है। ये आंतरिक संघर्ष तमाम पूंजीवादी सत्त्वों के भावात्मक अथवा प्रक्रियात्मक स्वरूपों को सामने लाता है। जो व्यवस्था में स्थापित कर्ता, संज्ञा अथवा नामरूप हैं, उनके गुणों का ज्ञान उनके नाम से नहीं होता, उनके कर्म से भी नहीं होता, बल्कि जिन प्रक्रियाओं के द्वारा वे स्थापित होते हैं उनसे होता है। 

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लगभग ढाई हजार साल पहले शाकटायन और यास्काचार्य जैसे नैरुक्तों ने वैयाकरणों के साथ भाषा के उद्भव को लेकर बहस में, विशेषकर क्रियापद और नामपद के सम्बंध के संदर्भ में, इसी बात को अपने ढंग से रखा था। वे कहते हैं कि भावप्रधानमाख्यातम् सत्त्वप्रधानानि नामानि। तद्यत्रोभे भावप्रधाने भवत: पूर्वापरिभूतं भावमाख्यातेनाचश्टे। अर्थात, आख्यात (क्रियापद) में कृत्य प्रधान होता है, जबकि नाम या संज्ञा में कृत। गतिमान अथवा चल रहे कार्य (becoming) को यहां भाव कहा गया है, और सत्त्व का अर्थ है पूरा किया हुआ कार्य (being)। आगे, जब दोनों साथ आते हैं तब भी भाव ही प्रधान रहता है, और चल रहे कार्य में पौर्वापर्यं यानी कार्य के क्रमिक चरणों का ज्ञान होता है।

यास्काचार्य आगे यहां तक बोल देते हैं कि नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च —  अर्थात, शाकटायन और अन्य नैरुक्तों के अनुसार सभी नाम आख्यात (क्रियापद) से पैदा हुए हैं। वैयाकरणों ने इस मत का पुरजोर विरोध किया क्योंकि वह व्याकरण में अराजकता पैदा करता है, शब्दों और वाक्यों में अनियमितताओं और अर्थ के सिलसिले में अनिश्चितताओं को जन्म देता है। परंतु नैरुक्तों का जवाब निस्संदेह क्रांतिकारी था: “तुम्हारी चाहत कि सभी नाम नियमानुसार निर्मित हों और सुगम हों कभी पूर्ण नहीं होगी; हो ही सकता है उस भाषा को बोलने वालों की नासमझी अथवा सहूलियत या फिर सनक के ही कारण भाषा भ्रष्ट हो जाए, तब भी वैयाकरणों और नैरुक्तों का काम है उन भ्रष्टताओं का हिसाब करना।” (वैजनाथ काशीनाथ राजवाडे, यास्काचार्यप्रणितं निरुक्तम्, प्रथमो भाग:)

और उम्मीद भी तो यहीं है!

प्रत्यूष चंद्र 

जनवरी 2021 

Capitalism, law and surplus population – in the context of the Mundka incident


Industrial accidents are a necessary condition of the capitalist economy, that is, their possibility is an integral part of capitalist life. Their occurrence can be avoided to some extent by legal-administrative reforms and vigilance. There are limits to these reforms, however. The Mundka incident, on the one hand, exemplifies corruption and non-compliance of the law (which attracts the most attention of the well-wishers), and on the other, it is primarily a manifestation of the organic brutality of capitalist industrial life. This brutality reflects the dispensability of individuated workers in an environment of continuous surplusing.

राजनीति में “व्यावहारिक-आलोचनात्मक” दृष्टिकोण की जरूरत


IMHO नागपुर के साथियों की इजाजत से पोस्ट कर रहे हैं उनके द्वारा IMHO शिकागो कंवेंशन 2022 के लिए तैयार की गई प्रस्तुति

 १. “दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से दुनिया की केवल व्याख्या ही की है, लेकिन सवाल दुनिया को बदलने का है।“

तथाकथित वामपंथियों के बीच फायरबाख पर मार्क्स के ग्यारहवें थीसिस का खूब प्रचलन रहा है। परंतु इस गूढ़ सैद्धांतिक थीसिस को उन्होंने पूर्णतः सिद्धांत-विरोधी मतलब देकर अपनी व्यावहारिक अवसरवादिता के समर्थन में कुतर्क करने का साधन बना दिया है, जबकि यह थीसिस मूलतः व्यावहारिक-आलोचनात्मक अथवा क्रांतिकारी क्रियाशीलता को सूत्र-बद्ध करता है। यह थीसिस सिद्धांत और व्यवहार, समझ और गतिविधि के द्वन्द्वात्मक सामंजस्य की ओर इंगित करता है जिसके बगैर पूंजीवाद-विरोधी क्रांतिकारी गतिविधियों की कल्पना असंभव है। इस सामंजस्यता की कमी आज के वामपंथी आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी है जिसकी वजह से हम पूंजीवादी रिश्तों के नए नए स्वरूपों में पैदा होने के महज साधन हो गए हैं। पूंजी को लेकर व्यावहारिक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण न होने के कारण वामपंथी गतिविधियां महज पूंजीवादी विकल्पों के बाजार के ग्राहक हो गई हैं।

२. पूंजी की सत्ता ने आज बहुत ही विकराल रूप ले लिया है और परिस्थितियाँ भयानक हो गई हैं। वर्चस्वकारी शक्तियां वैश्विक और राष्ट्रीय स्तरों दोनों पर प्रतिस्पर्धा करती हुईं पूरी दुनिया को आज बारूद और विनाश की बलिवेदी तक पहुंचाने में लगी हुई हैं। व्यक्तिकरण, प्रतिस्पर्धा और अलगाव आज सामाजिकता के मौलिक मानवतावादी तत्वों को ही नष्ट करने पर उतारू हैं। यही कारण है कि मार्क्स के मौलिक व्यावहारिक-आलोचनात्मक नजरिए को एक बार फिर स्थापित कर हमारे दैनिक संघर्षों में अंतर्निहित पूंजी-विरोधी तत्वों को बारम्बार उभारते हुए साम्यवादी सामाजिकता की ओर अग्रसर होना हमारी तात्कालिक आवश्यकता हो गई है।

३. रूस-यूक्रेन युद्ध पूंजीवाद के इसी घिनौने स्वरूप का ही निष्कर्ष है। अधिवेशन के मसौदे में वाजिब ही इस युद्ध पर व्यापक और अच्छी चर्चा की गई है। हमारी समझ में इस युद्ध का उद्देश्य मूलतः सैन्य-औद्योगिक परिसर को वैश्विक आर्थिक पुनः प्रवर्तन के रणनीति के केंद्र में लाने की कोशिश है। इसमें अमरीका और रूस प्रतिद्वंद्वी के साथ-साथ सहयोगी भी है। इसके लिए विश्व पूंजीवाद के दो प्रमुख आर्थिक पावर-हाउस – चीन और जर्मनी, जो इस रणनीति के प्रति हमेशा ही उदासीन थे, की सम्मति की आवश्यकता है। रूस-यूक्रेन युद्ध बहुत हद तक ऐसा करने में कामयाब हो गया है। इसी प्रकार अमरीका अपनी वैश्विक नेतृत्व को सुरक्षित भी रख सकता है। भारत में भी इस युद्ध ने सैन्यवादी सर्वसम्मति को विकसित करने में मदद किया है। इस सिलसिले में रोजा लक्ज़ेम्बर्ग का एक कथन उद्धरणीय है — 

“जो चीज सेना की आपूर्ति को, उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक उद्देश्यों (स्कूलों, सड़कों, आदि) पर राज्य के व्यय की तुलना में, अधिक लाभदायक बनाती है, वह है सेना का निरंतर तकनीकी नवाचार और इसके खर्चों में लगातार वृद्धि।”

हम आशा करते हैं कि युद्ध के मामले पर सम्मेलन में और व्यापक चर्चा होगी।       

४. दक्षिण एशियाई देशों में आज पूंजीवादी व्यवस्था और राजसत्ता ने मानव-विरोधी, विनाशक और तानाशाह स्वरूप अख्तियार कर लिया है। अगर एक तरफ अफगानिस्तान में अमरीका-संरक्षित भ्रष्ट जनतंत्र को हटाकर तालिबान का शासन फिर से बहाल हुआ है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान में इमरान खान सरकार को हटाकर पारंपरिक दलों का गठजोड़ लौटा है जिसके पीछे अवश्यंभावी अंतर्राष्ट्रीय गठजोड़ों की राजनीति है। भारत में अति-राष्ट्रवादी सर्वसम्मति (जिसमे वामपंथ भी शामिल है) भारतीय राजसत्ता पर काबिज धुरदक्षिणपंथ नेतृत्व को वैश्विक साम्राज्यवाद के गठजोड़ में खुल के जगह बनाने में मदद कर रहा है, जो कि भारतीय उपमहाद्वीप में अपने उप-साम्राज्यवाद को पक्का करने के हिसाब से चीन के खिलाफ लगातार छोटे-मोटे दुस्साहसी कारनामों को अंजाम दे रहा है। वह अपने आप को दक्षिण एशिया में इसराएली शासन का प्रतिरूप बनाने की कोशिश कर रहा है। इस प्रक्रिया में भारतीय समाज में इस्लाम-विरोधी साम्प्रदायिकरण एक अहम हथियार है। हाँ, श्रीलंका के हाल के घटनाक्रम इस परिस्थिति में भय और उम्मीद दोनों जगा रहे हैं। भय क्योंकि वहाँ पूंजीवादी संकट ने लोगों के जीवन को पूर्णरूपेण अस्त-व्यस्त कर दिया है, मगर लोगों का संप्रदायों और राष्ट्रीयताओं के आपसी प्रतिस्पर्धाओं से आगे निकल कर व्यापक उभार उम्मीद जगाता है।         

५. यह बात सही है कि दक्षिण एशिया में अधिकांश देशों में जनतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था कायम है। परंतु इनका अनुभव पूंजीवादी जनतंत्र के जड़-स्वरूप को उद्घाटित करता है। एक तरफ वह जनतंत्र को महज कर्मकांड और अनुष्ठान में बदल देता है, तो दूसरी तरफ विकल्पों की आलोचनात्मक क्षमता को कुंद कर उन्हें व्यवस्थापरक और महज रूपात्मक बना देता है। तानाशाही और बहुसंख्यकवाद इस जनतंत्र के अंतर्गत बिना परेशानी के पनप पाते हैं। यही दक्षिण एशिया में तमाम जनतान्त्रिक राजसत्ताओं का अनुभव बताता है। पूंजीवाद के अंतर्गत जनतंत्र राजसत्ता को वैधानिकता प्रदान करने का जरिया है, उसकी अपनी कोई स्वायत्त दैनिकता नहीं होती। 

६. यह अधिवेशन एक महत्वपूर्ण दौर में हो रहा है, जब पूंजी का संकट गहरा रहा है मगर पूंजीवाद विरोधी शक्तियों की शिथिलता इस संकट को अवसर बनाने में असफल साबित हो रही है। शायद इसी प्रकार के दौर को महान इतालवी मार्क्सवादी क्रांतिकारी अंतोनियो ग्राम्शी ने इस प्रकार सूत्रबद्ध किया था –- “संकट ठीक इस तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है और नया पैदा नहीं हो सकता; इस अंतराल में कई प्रकार के रुग्ण लक्षण प्रकट होते हैं।“ रुग्ण लक्षण हर जगह विदित हैं। दक्षिण एशिया में खास तौर पर मोदी शासन और फैलती फासीकरण की प्रक्रियाएँ इसी रुग्णता की ओर इंगित कर रही हैं। मगर रुग्णता का असर आंदोलन पर भी पड़ा है –- व्यवस्था हमें हमेशा कगार पर रख अपने आंतरिक और अवसरीय विकल्पों के कोलाहल में डुबो रही है। 

७. भारत में वामपंथी आंदोलन की अक्षमता की वजह उसकी प्रतिक्रियात्मक राजनीति रही है, जिसने उसके घटकों को तात्कालिकता के दायरे में बांध दिया है। वे अस्तित्व बचाने अथवा रक्षात्मक रणनीतियों से आगे नहीं निकल पा रहे हैं, और मुख्यधारा के बुर्जुआ पार्टियों के पिछलग्गू बनते जा रहे हैं। उनके तमाम जनसंगठन आज इसी तात्कालिकवाद के शिकार हैं। इस सिलसिले में, अधिवेशन के मसौदे में भारत में 28-29 मार्च को हुई दो दिवसीय ट्रेड यूनियन हड़ताल को सफल बताना हमारी समझ में अतिशयोक्ति ही नहीं, वह साथी-लेखकों की भारत की परिस्थितियों के बारे में अनभिज्ञता को दर्शाता है। ये हड़तालें आज महज अनुष्ठान बन गई हैं, जिनका मुख्य मकसद सरकारी क्षेत्र के संस्थाओं के स्थायी कर्मचारियों (जिनकी तादाद घटती जा रही है) के अधिकारों को निजीकरण और निगमीकरण की प्रक्रिया के दौरान संरक्षित रखना। वैसे भी इन संगठनों का सरोकार भारत के श्रमिक वर्ग के 5 प्रतिशत हिस्से से अधिक नहीं है। और इस संगठित हिस्से का सबसे बड़ा अंश आज दक्षिणपंथ के ट्रेडयूनियन, भारतीय मजदूर संघ के साथ है। एक और बड़ा राष्ट्रीय यूनियन है जो कांग्रेस पार्टी से सम्बद्ध है। इससे भी महत्वपूर्ण है कि भारत में ट्रेड यूनियन का फॉर्मैट कानून द्वारा तय होता है और नव-उदारवादी दौर में वे पूरी तरह मैनिज्मन्ट और मजदूरों के बीच बिचौलिए की तरह काम करते हैं। मजदूरों के दैनिक संघर्षों के तेवर से इन यूनियनों का कोई लेना देना नहीं है। इसीलिए हमारा मानना है कि भारत में मजदूर आंदोलन और मजदूर वर्ग के वेग और तेवर को समझने के लिए हम अपने आप को ट्रेड-यूनियनों की औपचारिक गतिविधियों तक सीमित नहीं रख सकते। दक्षिण एशिया में हाल के दिनों में जितने भी लड़ाकू और श्रमिक विभाजनों को तोड़ने वाले संघर्ष रहे हैं –- चाहे बांग्लादेश में गार्मन्ट उद्योगों में “वाइल्ड कैट” हड़तालें हों, भारत में मारुति-सुजुकी मजदूरों का संघर्ष अथवा अप्रैल 2016 में बैंगलोर में महिला श्रमिकों का विद्रोह हों, या हाल में गिग-वर्कस के बीच हलचल, ये सभी इन औपचारिक यूनियनों के परिधि से बाहर रही हैं। ऐसा नहीं है कि इन संघर्षों का कोई सांगठनिक स्वरूप नहीं है, मगर वे श्रमिकों के दैनिक सरोकार में पनपती सामूहिकता का गतिमान स्वरूप हैं, उन्हे कानून द्वारा नियोजित अथवा पूर्व-गठित संगठानिक फार्मूलों में नहीं फिट किया जा सकता। जब तक भारत के वामपंथी अपने अनुभवों और बदलते औद्योगिक संबंधों के प्रति “व्यावहारिक-आलोचनात्मक” दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे वे मजदूर-वर्ग के नए संगठानिक स्वरूपों और स्व-गतिविधियों को नहीं पहचान पाएंगे, और मजदूर-वर्ग का हर जन उभार उन्हें आकस्मिक और स्वतःस्फूर्त प्रतीत होगा।   

८. अंत में, कुछ बातें “दुनिया बदलने” के सवाल पर। बहुत दिनों से विकल्पों की बातचीत राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन तक सिमट कर रह गई है। फलां पार्टी और फलां नेतृत्व के सत्ता से हटने अथवा उसमें  जमने को ही विकल्प मान लिया गया है। सामाजिक व्यवस्था —  सामाजिक प्रणाली और संबंध —  के सवाल के जगह पर राजकीय नीतियों की ही बात होती है। 90 के दशक में नव-उदारवाद के खिलाफ जो “एक और दुनिया संभव है” का नारा बुलंद हुआ था वह अंततः विकास के प्रतिस्पर्धात्मक मॉडेलों की बातचीत तक सीमित रह गया। पूंजीवादी समाज और राजसत्ता के आंतरिक लक्षणों की आलोचना के बगैर कोई नीति आधारित राजनीति पूंजी की सत्ता को चुनौती देने के जगह पर महज उसके संकट के निवारण का साधन ही हो सकती है। मार्क्स ने जब साम्यवाद को “वास्तविक आंदोलन” कहा था तो उनका तात्पर्य “व्यावहारिक-आलोचनात्मक कार्यशीलता” से था जिसके तहत पूंजीवादी यथास्थिति का निषेध होता है। इसी निषेध में समस्तरीय सामूहिक सामाजिकता के प्रारूप का जन्म और विकास होता है और वही नए सामाजिक संबंध और प्रणाली की नींव है। बीसवीं सदी में क्रांतियों की जीत और हार का चक्र साम्यवाद के “वास्तविक” आंदोलनकारी चरित्र के पुनर्स्थापन की आवश्यकता पर बल दे रहा है। ये क्रांतियाँ श्रमिक-सत्ता की सामूहिक क्रियात्मकता की ओर इंगित जरूर करती हैं, परंतु शीघ्र ही श्रम की क्रिया से सत्ता का अलगाव होता है और सोवियत राजसत्ता का जन्म होता है, जहां सोवियत — क्रांतिकारी क्रियाओं का संगठन — महज विशेषण बन कर रह जाता है। अपनी बात को हम मार्क्स के इस उद्धरण से खत्म करते हैं:

“साम्यवाद हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को साम्यवाद का नाम देते हैं जो मौजूद अवस्था को मिटाता है।”          

क्यूबा: खाई में या खटाई में?


मोर्चा, अक्टूबर 2021

1. क्यूबा के कवि सिन्तियो वितियेर ने दशकों पहले क्यूबा क्रांति के लक्ष्य को चिह्नित किया था — “nuestro desafío es construir un parlamento en una trinchera” (खाई में संसद बनाना हमारी चुनौती है)। खाई में संसद – इसके दो अर्थ होते हैं।  एक है कि संसद खाई में फंस गई, और दूसरा है कि खाई में धँसे लोगों ने अपनी संसद बनाई। क्यूबा में जब भी कुछ ऐसा होता है जो क्यूबा की राजसत्ता को चुनौती देता नजर आता है, तो क्यूबा के बाहर दो तरह की प्रतिक्रिया जन्म लेती है। क्यूबाई शासन के हितैषी इसमें बाहरी शक्तियों के षड्यन्त्र को देखते हैं और दूसरी ओर क्यूबाई  क्रांति के विरोधी इसमें अवसर देखते हैं।  दोनों ही खाई को खटाई ही समझते हैं, और मानते हैं कि क्यूबा को बाहरी साम्राज्यवादी शक्तियां खाई में ढकेल रही हैं । बस इतना ही अंतर है कि एक दुखी होता है तो दूसरा खुश होता है। यही माहौल जुलाई के महीने में देखने को मिला, जब महामारी के दौर में आज क्यूबा क्या विश्व के हर कोने मे जनता सामाजिक और आर्थिक दोनों ही दिक्कतों को झेल रही है। 

2. पिछले डेढ़ साल से कोरोना महामारी ने विश्व के सभी देशों में सामान्य जीवन अस्तव्यस्त कर रखा है। तमाम देशों की स्वास्थ्य व्यवस्थाएं तो इस महामारी के समक्ष विफल हुई ही हैं, परंतु उससे भी अधिक सामान्य आर्थिक गतिविधियों और संबंधों पर इस महामारी का दूरगामी, गहरा और घातक असर पड़ा है। मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सेवाओं का  क्रियान्वयन व्यापक स्तर पर अवरुद्ध हुआ है। जिन देशों में कल्याणकारी जनस्वास्थ्य व्यवस्थाएं मौजूद थीं वे अपने आप को जल्दी संभाल पाईं, जैसे कि चीन जहां से इस बीमारी की शुरुआत हुई, और यूरोप के कुछ देश जहां स्वास्थ्य के क्षेत्र में बाजार की घुसपैठ अपेक्षाकृत कम  है। परंतु जिन देशों में स्वास्थ्य सेवाएं मूलतः बाजार आधारित रही हैं, वहाँ महामारी की विकटता अत्यंत आक्रामक दिखी — उदाहरणार्थ, संयुक्त राज्य अमरीका (सं.रा.अ.), भारत इत्यादि। तब भी जहां तक सामान्य जीवन पर दबाव बढ़ने की बात है, कमोबेश सारे देशों में इसके नतीजतन अलग-अलग स्तर के असंतोष का जन्म हुआ है। संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प की हार और बाइडन की जीत में महामारी का कुप्रबंधन भी एक प्रमुख कारण था। 

3. पिछले साल जब सं.रा.अ. में ट्रम्प प्रशासन कोरोना के संकट से आंख मिचौनी खेल रहा था, और यूरोप और बाकी दुनिया में भी तबाही मची हुई थी, उसी दौरान बगल में  छोटा सा पड़ोसी देश क्यूबा अपनी प्रभावशाली और व्यवस्थित जनस्वास्थ्य सेवाओं के जरिए महामारी के फैलाव को तकरीबन पूरी तरह से काबू मे रखे हुए था। यह हमें याद रखना चाहिए कि मेडिकल अन्तर्राष्ट्रीयवाद की बात क्यूबा के संदर्भ में ही ज्यादातर की जाती है, और स्वास्थ्य सेवाओं का निर्यात क्यूबा के अर्थतन्त्र का एक अहम हिस्सा है। अपनी स्वास्थ्य सेवाओं के  जनोन्मुख चरित्र और उनकी मजबूती के कारण 2020 में, जब बाकी विश्व महामारी के प्रकोप से त्रस्त था, क्यूबा में कोरोना से संक्रमितों की और मृतकों की संख्याएँ अल्पतम थीं।  परंतु 2021 आते ही क्यूबा में महामारी का असर दिखने लगता है। इस साल जून से संक्रमितों की संख्या में घातीय वृद्धि हुई है। ऐसी स्थिति में प्रशासकीय व्यवस्था से अलगाव और असंतोष स्वाभाविक है। यही तथ्य  जुलाई महीने में क्यूबा में हुए विरोध प्रदर्शनों का प्रमुख तात्कालिक संदर्भ था। 

4. क्यूबा के हरेक संकट में अमरीका और उसके द्वारा संरक्षित पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक हित अपने लिए अवसर देखते हैं। यही कारण है कि विश्व की  बड़ी तमाम मीडिया संस्थाएं और उनके दलाल जुलाई की घटनाओं को बढ़ाचढ़ा कर पेश कर रहे थे। उनका आकलन था कि क्यूबा की  राजनीति से फिदेल कास्त्रो और अन्य प्रारंभिक क्रांतिकारियों के हट जाने के बाद वहाँ के नेतृत्व के लिए इस तरह के संकट से निकलना मुश्किल होगा। अमरीकी तंत्र खुले तौर पर क्यूबा में सत्ता परिवर्तन के लिए लगातार माहौल गरम रखने की कोशिश करता रहा है। जब भाड़े वाले आतंकवादियों को शस्त्रों के साथ उतारने में कामयाब न रहा तो  कई सालों से वह आर्थिक बंदिशों द्वारा असंतोष और बगावत पैदा करने की कोशिश में लगा रहा है। इन प्रतिबंधों का असर संकट के दौर में और भी साफ दिखता है। आज जब क्यूबा ने अपने वैज्ञानिकों के मेहनत के बलबूते पर कोरोनावाइरस के खिलाफ कई बेहतरीन वैक्सीन तैयार कर लिए हैं, जो बच्चों के लिए भी कारगर हैं, तब अचानक वैक्सीन देने के लिए आवश्यक सिरिंज की कमी हो गई है। जुलाई के प्रदर्शनों में निहित असंतोष को प्रतिबंधों के तथ्य और उनके तात्कालिक असर से काट कर नहीं देखा जा सकता। 

5. ओबामा प्रशासन के वक्त इन बंदिशों में ढील दी गई थी क्योंकि यह माना जा रहा था कि इनसे बाजार का विकास होगा और नतीजे के तौर पर पूंजी-पक्षीय सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की संभावना बढ़ेगी। उदारवादी पूंजीवादी तबके में 2000 के दशक से ही यह समझ बनती दिखाई देती है कि लातिन-अमरीका पर आर्थिक बंदिशों और राजनीतिक हस्तक्षेपों का उल्टा असर हो रहा है और क्षेत्रीय वामपंथ मजबूत होता जा रहा है। उनका मानना है कि वांछित बदलाव के लिए मिलिट्री व खुलमखुला राजनीतिक दखलंदाजी के बजाए बाजार ज्यादा कारगर साबित हो सकता है। 

6. पिछले तीन दशकों का अनुभव ऐसा ही बताता है। इस दौरान में विश्व ने कई रंगीन (प्रति)क्रांतियों को देखा है, जिसने पुराने समाजवादी और राजकीयवादी शासनों को ढहा दिया — वे वित्त-पूंजी संचालित पूंजीवादी भूमंडलीकरण के सामने नहीं टिक पाए। उन शासनों ने एक समय राष्ट्रीय आर्थिक विकास के वैकल्पिक मॉडल के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। परंतु 1960 के दशक से कल्याणकारी पूंजीवाद के बढ़ते संकट के परिपेक्ष्य में वित्तीय पूंजी के मौन अंतःसरण ने उनके औचित्य को ही नकार दिया। अपने आप को बचाने की  होड़ में अपने अंतिम दिनों में महज सत्ताई आतंक पर वे निर्भर होते चले गए — और गठित सत्ता (constituted power) से घटक सत्ता (constituent power) अलग होती चली गई। यही 1989 से 1992 के बीच मे तथाकथित समाजवादी देशों के अन्तःस्फोटन का चरित्र था। आगे चल कर अन्य राजकीयवादी शासनों का भी यही हश्र हुआ। 

7. इन व्यवस्थाओं में जिन्होंने समय के अनुसार वित्तीय नेटवर्क में अपनी जगह बना ली, वे विश्व पूंजीवाद के लिए बाजार बनने के अलावे सस्ता अनुशासित श्रम और अन्य संसाधन मुहैया करने के साधन हो गए। उन्होंने अपने अस्तित्व को बचाने हेतु पूंजीवादी व्यवस्थाओं के साथ विकासवादी प्रतिस्पर्धा में घोर उत्पादनवाद को अपना लिया (“संचय की खातिर संचय”, “उत्पादन की खातिर उत्पादन” — मार्क्स) और अंत मे पूंजी के अंदरूनी तर्क के अंश बन गए। निष्कर्षतः, शीत युद्ध और हथियारों की प्रतिस्पर्धाई होड़ ने अपना काम कर दिखाया। ये व्यवस्थाएं कई मायने में अन्तःस्फोट के शिकार हो गए, साम्राज्यवादी शक्तियों को इन्हें आक्रमण द्वारा हटाने की जरूरत नहीं पड़ी। चीन तो पहले ही विश्व पूंजीवाद के विकास का सबसे महत्वपूर्ण इंजन बन चुका था। वियतनाम औऱ उत्तरी कोरिया में अमरीका की हार को हम सब याद करते हैं, परंतु उन जीतों के बावजूद आज वित्त-पूंजी ने वियतनाम के अर्थतन्त्र को पूर्णतः अपने शिकंजे में ले लिया है, और प्योंगयांग अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम के कारण और नव-ध्रुवीकरण की संभावनाओं के कारण जिंदा है। 

8. इस सहस्राब्दी के आते ही नए तरह का जन-प्रतिरोध पैदा होता दिखता है, और विशेषकर लातिन अमरीका में नव जनतान्त्रिक और समाजवादी लक्ष्यों को राजकीय स्वरूप देने की प्रक्रिया शुरू होती है। प्रथम दशक में वेनेजुएला, बोलीविया, अर्जेन्टीना और अन्य देशों में राजनीतिक बदलाव डॉलर के एकाधिकार को सीधी चुनौती देते हैं। उसके खिलाफ अमरीकी बंदिशें विफल होती नजर आती हैं। उलटे लातिन-अमरीका में पहली बार एक मजबूत साम्राज्यवाद-विरोधी अंतर्राष्ट्रीय तालमेल पैदा होता दिखाई देता है, जिसमें क्यूबा की राजनीतिक-वैचारिक साख साफ तौर पर बढ़ती दिखती है, और अमरीकी बंदिशों के बावजूद, उसके अर्थतन्त्र को व्यापक सहारा मिलता है। यही वजह है कि ओबामा प्रशासन को अमरीकी राजनीतिक आर्थिक डिप्लोमेसी में बदलाव लाना पड़ा, जिसके तहत वह लातिन अमरीका में फूट डालो और राज करो को ही बढ़ाते हुए दोहरी नीति अपनाता है। एक तरफ दक्षिणी अमरीकी देशों में वामपंथी शासनों के खिलाफ स्थानीय विपक्षों को खुले तौर पर वित्तीय और राजनीतिक संरक्षण देता है और दूसरी तरफ क्यूबा के साथ दोस्ताना हाथ बढ़ाते हुए आर्थिक बंदिशों में कई स्तरों पर ढील देता  है। आशा वही रही है कि क्यूबा में भी बाजार का तर्क सामाजिक और संपत्ति रिश्तों को बदलने में मदद करेगा, और अंततः राजनीतिक परिवर्तन को अंजाम देगा। 

9. 2010 के दशक में एक बार फिर लातिन अमरीका में दक्षिणपंथी और वैश्विक वित्तीय नेटवर्क के सहयोगी पार्टियों का वर्चस्व कायम होता दिखता है। इस अचानक परिवर्तन का मुख्य कारण भी यही नेटवर्क है जिसने विश्व के तमाम राज्यों को जकड़ रखा है, और राजकीयवाद के दायरे में इसके चंगुल से बचना मुश्किल है। इस बदलाव ने एक बार फिर क्यूबा की क्रांति को आत्म-रक्षात्मक रुख दे दिया था। ओबामा प्रशासन ने इस मौके का इस्तेमाल करते हुए पूंजीवादी बाजार के अंतर्गत आने को प्रेरित करता रहा। आर्थिक बंदिशों में ढील ने अवश्य ही कुछ हद तक ऐसा ही किया, और कई स्तरों पर बाजार का विस्तार हुआ है।  क्यूबा को इसी के द्वारा सांस लेने के लिए राहत भी मिली। दशकों से आवश्यक वस्तुओं के आयात-निर्यात पर सं.रा.अ. के बंदिशों का असर क्यूबा के उत्पादन और उपभोग के क्षेत्रों को प्रभावित करता रहा है। अवश्य ही इन बंदिशों का क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है, आर्थिक और राजनीतिक स्वावलंबन अत्यंत मजबूत हुआ है। तब भी ये प्रतिबंध आर्थिक विस्तार को संकुचित और उसकी गति को मद्धम करते रहे हैं, क्योंकि उस विस्तार और उसके सुदृढीकरण के लिए आवश्यक सामग्रियों की कमी को निरंतर झेलना पड़ता है। ओबामा प्रशासन द्वारा बंदिशों में ढील बड़ी राहत थी, परंतु उस राहत का पर्याप्त फायदा उठाने के लिए पूंजीवादी बाजार और वित्तीय पूंजी के संरचनात्मक दबाव से समझौता करना पड़ता है, और जिसके नतीजे हैं —  क्यूबा के राजनीतिक अर्थशास्त्र में पूंजीवादी संपत्ति और उत्पादन संबंधों को अहम जगह मिलती जा रही है, समन्वय और सहयोग पर आधारित सामाजिक संबंधों के खिलाफ मुनाफाखोरी और प्रतिस्पर्धात्मक मूल्यों का विकास हो रहा है, और प्रतिक्रांतिकारी हितों की राजनीतिक एकजुटता कायम होने की संभावना पैदा होती दिखाई दे रही है। इन्हीं नतीजों का संकेत जुलाई के प्रदर्शनों में दिखता है।

10. 2016 के बाद से ट्रम्प और अब बाइडेन प्रशासनों ने ओबामा की उदारवादी क्यूबा नीति को छोड़ पुरानी आक्रामक नीति को फिर से बहाल किया है। इस नीति में बदलाव एक बार फिर से बंदिशों में जकड़ कर क्यूबा के अंदर प्रतिक्रियावादी विपक्ष को सशक्त करने की कोशिश को दिखाता है — क्योंकि सं.रा.आ. के सत्ताधारी वर्ग को क्यूबा शासन की लोकप्रियता में कहीं कमी आती नहीं दिखती है। जुलाई के प्रदर्शनों में इस नीति का कुछ हद तक खुला क्रियान्वयन दिखता नजर आया। 

11. यह अवश्य है कि बाहरी दोस्तों और दुश्मनों दोनों को विपक्ष में केवल प्रतिक्रान्तिकारी लोग दिखते हैं जिन्हें मियामी फंड करता है, जबकि राजसत्ता के आलोचकों में सर्वाधिक क्रांति-समर्थक विपक्ष है जो आर्थिक सुधारों की आलोचना करता है जिनकी वजह से पूंजीवादी तबके सशक्त हो रहे हैं। यह क्यूबाई क्रांति की एक विशेषता की ओर इंगित करता है कि उसने क्रांति को स्थायित्व (स्टबिलिटी) के समानार्थी कभी  नहीं देखा। इस वजह से क्यूबा में यथास्थितिवाद के खिलाफ लगातार संघर्ष मौजूद रहा है। स्थायित्व के खूंटा-गाड़ संस्कृति के खिलाफ क्यूबा की क्रांति में अनित्यता के सिद्धांत का क्रांतिकारी समन्वय है। पूंजीवादी विश्व मे क्रांति की अपूर्णता और अविच्छिन्नता की अनिवार्यता को मानते ही हुए सामाजिक क्रांति की वर्चस्वता को लगातार पुनरुत्पादित किया जा सकता है। शायद आज भी क्यूबा के क्रांतिकारी “खाई में संसद” चलाने के दायित्व को गंभीरता से लेते हैं। और यही वजह है कि क्यूबा में आज भी क्रांति जिंदा है — हाँ, उसकी गति ग्राफ के उतार-चढ़ाव में बहुत हद तक बदलती अंतरराष्ट्रीय स्थिति निर्णायक भूमिका निभाती है। 

राजनीतिक विकल्प: चुनावी या आंदोलनकारी (Political Alternatives: Electoral or Movemental)