राजनीति में “व्यावहारिक-आलोचनात्मक” दृष्टिकोण की जरूरत


IMHO नागपुर के साथियों की इजाजत से पोस्ट कर रहे हैं उनके द्वारा IMHO शिकागो कंवेंशन 2022 के लिए तैयार की गई प्रस्तुति

 १. “दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से दुनिया की केवल व्याख्या ही की है, लेकिन सवाल दुनिया को बदलने का है।“

तथाकथित वामपंथियों के बीच फायरबाख पर मार्क्स के ग्यारहवें थीसिस का खूब प्रचलन रहा है। परंतु इस गूढ़ सैद्धांतिक थीसिस को उन्होंने पूर्णतः सिद्धांत-विरोधी मतलब देकर अपनी व्यावहारिक अवसरवादिता के समर्थन में कुतर्क करने का साधन बना दिया है, जबकि यह थीसिस मूलतः व्यावहारिक-आलोचनात्मक अथवा क्रांतिकारी क्रियाशीलता को सूत्र-बद्ध करता है। यह थीसिस सिद्धांत और व्यवहार, समझ और गतिविधि के द्वन्द्वात्मक सामंजस्य की ओर इंगित करता है जिसके बगैर पूंजीवाद-विरोधी क्रांतिकारी गतिविधियों की कल्पना असंभव है। इस सामंजस्यता की कमी आज के वामपंथी आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी है जिसकी वजह से हम पूंजीवादी रिश्तों के नए नए स्वरूपों में पैदा होने के महज साधन हो गए हैं। पूंजी को लेकर व्यावहारिक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण न होने के कारण वामपंथी गतिविधियां महज पूंजीवादी विकल्पों के बाजार के ग्राहक हो गई हैं।

२. पूंजी की सत्ता ने आज बहुत ही विकराल रूप ले लिया है और परिस्थितियाँ भयानक हो गई हैं। वर्चस्वकारी शक्तियां वैश्विक और राष्ट्रीय स्तरों दोनों पर प्रतिस्पर्धा करती हुईं पूरी दुनिया को आज बारूद और विनाश की बलिवेदी तक पहुंचाने में लगी हुई हैं। व्यक्तिकरण, प्रतिस्पर्धा और अलगाव आज सामाजिकता के मौलिक मानवतावादी तत्वों को ही नष्ट करने पर उतारू हैं। यही कारण है कि मार्क्स के मौलिक व्यावहारिक-आलोचनात्मक नजरिए को एक बार फिर स्थापित कर हमारे दैनिक संघर्षों में अंतर्निहित पूंजी-विरोधी तत्वों को बारम्बार उभारते हुए साम्यवादी सामाजिकता की ओर अग्रसर होना हमारी तात्कालिक आवश्यकता हो गई है।

३. रूस-यूक्रेन युद्ध पूंजीवाद के इसी घिनौने स्वरूप का ही निष्कर्ष है। अधिवेशन के मसौदे में वाजिब ही इस युद्ध पर व्यापक और अच्छी चर्चा की गई है। हमारी समझ में इस युद्ध का उद्देश्य मूलतः सैन्य-औद्योगिक परिसर को वैश्विक आर्थिक पुनः प्रवर्तन के रणनीति के केंद्र में लाने की कोशिश है। इसमें अमरीका और रूस प्रतिद्वंद्वी के साथ-साथ सहयोगी भी है। इसके लिए विश्व पूंजीवाद के दो प्रमुख आर्थिक पावर-हाउस – चीन और जर्मनी, जो इस रणनीति के प्रति हमेशा ही उदासीन थे, की सम्मति की आवश्यकता है। रूस-यूक्रेन युद्ध बहुत हद तक ऐसा करने में कामयाब हो गया है। इसी प्रकार अमरीका अपनी वैश्विक नेतृत्व को सुरक्षित भी रख सकता है। भारत में भी इस युद्ध ने सैन्यवादी सर्वसम्मति को विकसित करने में मदद किया है। इस सिलसिले में रोजा लक्ज़ेम्बर्ग का एक कथन उद्धरणीय है — 

“जो चीज सेना की आपूर्ति को, उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक उद्देश्यों (स्कूलों, सड़कों, आदि) पर राज्य के व्यय की तुलना में, अधिक लाभदायक बनाती है, वह है सेना का निरंतर तकनीकी नवाचार और इसके खर्चों में लगातार वृद्धि।”

हम आशा करते हैं कि युद्ध के मामले पर सम्मेलन में और व्यापक चर्चा होगी।       

४. दक्षिण एशियाई देशों में आज पूंजीवादी व्यवस्था और राजसत्ता ने मानव-विरोधी, विनाशक और तानाशाह स्वरूप अख्तियार कर लिया है। अगर एक तरफ अफगानिस्तान में अमरीका-संरक्षित भ्रष्ट जनतंत्र को हटाकर तालिबान का शासन फिर से बहाल हुआ है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान में इमरान खान सरकार को हटाकर पारंपरिक दलों का गठजोड़ लौटा है जिसके पीछे अवश्यंभावी अंतर्राष्ट्रीय गठजोड़ों की राजनीति है। भारत में अति-राष्ट्रवादी सर्वसम्मति (जिसमे वामपंथ भी शामिल है) भारतीय राजसत्ता पर काबिज धुरदक्षिणपंथ नेतृत्व को वैश्विक साम्राज्यवाद के गठजोड़ में खुल के जगह बनाने में मदद कर रहा है, जो कि भारतीय उपमहाद्वीप में अपने उप-साम्राज्यवाद को पक्का करने के हिसाब से चीन के खिलाफ लगातार छोटे-मोटे दुस्साहसी कारनामों को अंजाम दे रहा है। वह अपने आप को दक्षिण एशिया में इसराएली शासन का प्रतिरूप बनाने की कोशिश कर रहा है। इस प्रक्रिया में भारतीय समाज में इस्लाम-विरोधी साम्प्रदायिकरण एक अहम हथियार है। हाँ, श्रीलंका के हाल के घटनाक्रम इस परिस्थिति में भय और उम्मीद दोनों जगा रहे हैं। भय क्योंकि वहाँ पूंजीवादी संकट ने लोगों के जीवन को पूर्णरूपेण अस्त-व्यस्त कर दिया है, मगर लोगों का संप्रदायों और राष्ट्रीयताओं के आपसी प्रतिस्पर्धाओं से आगे निकल कर व्यापक उभार उम्मीद जगाता है।         

५. यह बात सही है कि दक्षिण एशिया में अधिकांश देशों में जनतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था कायम है। परंतु इनका अनुभव पूंजीवादी जनतंत्र के जड़-स्वरूप को उद्घाटित करता है। एक तरफ वह जनतंत्र को महज कर्मकांड और अनुष्ठान में बदल देता है, तो दूसरी तरफ विकल्पों की आलोचनात्मक क्षमता को कुंद कर उन्हें व्यवस्थापरक और महज रूपात्मक बना देता है। तानाशाही और बहुसंख्यकवाद इस जनतंत्र के अंतर्गत बिना परेशानी के पनप पाते हैं। यही दक्षिण एशिया में तमाम जनतान्त्रिक राजसत्ताओं का अनुभव बताता है। पूंजीवाद के अंतर्गत जनतंत्र राजसत्ता को वैधानिकता प्रदान करने का जरिया है, उसकी अपनी कोई स्वायत्त दैनिकता नहीं होती। 

६. यह अधिवेशन एक महत्वपूर्ण दौर में हो रहा है, जब पूंजी का संकट गहरा रहा है मगर पूंजीवाद विरोधी शक्तियों की शिथिलता इस संकट को अवसर बनाने में असफल साबित हो रही है। शायद इसी प्रकार के दौर को महान इतालवी मार्क्सवादी क्रांतिकारी अंतोनियो ग्राम्शी ने इस प्रकार सूत्रबद्ध किया था –- “संकट ठीक इस तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है और नया पैदा नहीं हो सकता; इस अंतराल में कई प्रकार के रुग्ण लक्षण प्रकट होते हैं।“ रुग्ण लक्षण हर जगह विदित हैं। दक्षिण एशिया में खास तौर पर मोदी शासन और फैलती फासीकरण की प्रक्रियाएँ इसी रुग्णता की ओर इंगित कर रही हैं। मगर रुग्णता का असर आंदोलन पर भी पड़ा है –- व्यवस्था हमें हमेशा कगार पर रख अपने आंतरिक और अवसरीय विकल्पों के कोलाहल में डुबो रही है। 

७. भारत में वामपंथी आंदोलन की अक्षमता की वजह उसकी प्रतिक्रियात्मक राजनीति रही है, जिसने उसके घटकों को तात्कालिकता के दायरे में बांध दिया है। वे अस्तित्व बचाने अथवा रक्षात्मक रणनीतियों से आगे नहीं निकल पा रहे हैं, और मुख्यधारा के बुर्जुआ पार्टियों के पिछलग्गू बनते जा रहे हैं। उनके तमाम जनसंगठन आज इसी तात्कालिकवाद के शिकार हैं। इस सिलसिले में, अधिवेशन के मसौदे में भारत में 28-29 मार्च को हुई दो दिवसीय ट्रेड यूनियन हड़ताल को सफल बताना हमारी समझ में अतिशयोक्ति ही नहीं, वह साथी-लेखकों की भारत की परिस्थितियों के बारे में अनभिज्ञता को दर्शाता है। ये हड़तालें आज महज अनुष्ठान बन गई हैं, जिनका मुख्य मकसद सरकारी क्षेत्र के संस्थाओं के स्थायी कर्मचारियों (जिनकी तादाद घटती जा रही है) के अधिकारों को निजीकरण और निगमीकरण की प्रक्रिया के दौरान संरक्षित रखना। वैसे भी इन संगठनों का सरोकार भारत के श्रमिक वर्ग के 5 प्रतिशत हिस्से से अधिक नहीं है। और इस संगठित हिस्से का सबसे बड़ा अंश आज दक्षिणपंथ के ट्रेडयूनियन, भारतीय मजदूर संघ के साथ है। एक और बड़ा राष्ट्रीय यूनियन है जो कांग्रेस पार्टी से सम्बद्ध है। इससे भी महत्वपूर्ण है कि भारत में ट्रेड यूनियन का फॉर्मैट कानून द्वारा तय होता है और नव-उदारवादी दौर में वे पूरी तरह मैनिज्मन्ट और मजदूरों के बीच बिचौलिए की तरह काम करते हैं। मजदूरों के दैनिक संघर्षों के तेवर से इन यूनियनों का कोई लेना देना नहीं है। इसीलिए हमारा मानना है कि भारत में मजदूर आंदोलन और मजदूर वर्ग के वेग और तेवर को समझने के लिए हम अपने आप को ट्रेड-यूनियनों की औपचारिक गतिविधियों तक सीमित नहीं रख सकते। दक्षिण एशिया में हाल के दिनों में जितने भी लड़ाकू और श्रमिक विभाजनों को तोड़ने वाले संघर्ष रहे हैं –- चाहे बांग्लादेश में गार्मन्ट उद्योगों में “वाइल्ड कैट” हड़तालें हों, भारत में मारुति-सुजुकी मजदूरों का संघर्ष अथवा अप्रैल 2016 में बैंगलोर में महिला श्रमिकों का विद्रोह हों, या हाल में गिग-वर्कस के बीच हलचल, ये सभी इन औपचारिक यूनियनों के परिधि से बाहर रही हैं। ऐसा नहीं है कि इन संघर्षों का कोई सांगठनिक स्वरूप नहीं है, मगर वे श्रमिकों के दैनिक सरोकार में पनपती सामूहिकता का गतिमान स्वरूप हैं, उन्हे कानून द्वारा नियोजित अथवा पूर्व-गठित संगठानिक फार्मूलों में नहीं फिट किया जा सकता। जब तक भारत के वामपंथी अपने अनुभवों और बदलते औद्योगिक संबंधों के प्रति “व्यावहारिक-आलोचनात्मक” दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे वे मजदूर-वर्ग के नए संगठानिक स्वरूपों और स्व-गतिविधियों को नहीं पहचान पाएंगे, और मजदूर-वर्ग का हर जन उभार उन्हें आकस्मिक और स्वतःस्फूर्त प्रतीत होगा।   

८. अंत में, कुछ बातें “दुनिया बदलने” के सवाल पर। बहुत दिनों से विकल्पों की बातचीत राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन तक सिमट कर रह गई है। फलां पार्टी और फलां नेतृत्व के सत्ता से हटने अथवा उसमें  जमने को ही विकल्प मान लिया गया है। सामाजिक व्यवस्था —  सामाजिक प्रणाली और संबंध —  के सवाल के जगह पर राजकीय नीतियों की ही बात होती है। 90 के दशक में नव-उदारवाद के खिलाफ जो “एक और दुनिया संभव है” का नारा बुलंद हुआ था वह अंततः विकास के प्रतिस्पर्धात्मक मॉडेलों की बातचीत तक सीमित रह गया। पूंजीवादी समाज और राजसत्ता के आंतरिक लक्षणों की आलोचना के बगैर कोई नीति आधारित राजनीति पूंजी की सत्ता को चुनौती देने के जगह पर महज उसके संकट के निवारण का साधन ही हो सकती है। मार्क्स ने जब साम्यवाद को “वास्तविक आंदोलन” कहा था तो उनका तात्पर्य “व्यावहारिक-आलोचनात्मक कार्यशीलता” से था जिसके तहत पूंजीवादी यथास्थिति का निषेध होता है। इसी निषेध में समस्तरीय सामूहिक सामाजिकता के प्रारूप का जन्म और विकास होता है और वही नए सामाजिक संबंध और प्रणाली की नींव है। बीसवीं सदी में क्रांतियों की जीत और हार का चक्र साम्यवाद के “वास्तविक” आंदोलनकारी चरित्र के पुनर्स्थापन की आवश्यकता पर बल दे रहा है। ये क्रांतियाँ श्रमिक-सत्ता की सामूहिक क्रियात्मकता की ओर इंगित जरूर करती हैं, परंतु शीघ्र ही श्रम की क्रिया से सत्ता का अलगाव होता है और सोवियत राजसत्ता का जन्म होता है, जहां सोवियत — क्रांतिकारी क्रियाओं का संगठन — महज विशेषण बन कर रह जाता है। अपनी बात को हम मार्क्स के इस उद्धरण से खत्म करते हैं:

“साम्यवाद हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को साम्यवाद का नाम देते हैं जो मौजूद अवस्था को मिटाता है।”          

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