फासीवाद का कम्युनिटी ट्रांसमिशन


सर्वहाराकरण की तेज होती प्रक्रिया के कारण उभरतीं दमित उत्कंठाओं को फासीवाद इस रूप में अभिव्यक्ति देकर संघटित करता है कि वे उन सामाजिक-आर्थिक और संपत्ति संबंधों के लिए खतरा न बन पाएँ जो उस प्रक्रिया और उसकी उत्कंठाओं को जन्म देते हैं । फासीवाद उन उत्कंठाओं को उनके तात्कालिक प्रतिक्रियात्मक स्तर और रूप में ही व्यक्त करने का साधन प्रदान करता है, ताकि राजनीतिकता और आर्थिकता के पार्थक्य से जो राजसत्ता पैदा होती है उसक़े पुनरुत्पादन में आम रोष के कारण रोध पैदा न हो सके। नवउदारवादी अर्थतन्त्रीय अवस्था – पूंजी के वित्तीयकरण, उत्पादन के सूचनाकरण और श्रम के अनौपचारीकरण – ने फासीवाद के इस गुण को अलग स्तर पर पहुँचा दिया है, उसको तीव्रता और व्यापकता दे दी है। अब फासीकरण (fascisation) के साधन के लिए खुली राजनीतिक तानाशाही केवल एक आपातकालिक विकल्प है। फासीवाद आज सामाजिक प्रक्रिया का रूप धारण कर पूंजीवाद की वर्तमान अवस्था की दैनिक सामाजिकता और प्रतिनिधत्ववादी औपचारिक जनतंत्र की आंतरिकता में समाहित हो गई है। और इस प्रक्रिया के चलन और संचालन के लिए अब फासीवादियों की ज़रूरत नहीं है। कोरोना के वक्त की भाषा में बोलें तो फासीवाद का आज कम्युनिटी ट्रांसमिशन हो गया है।

सन्नाटा


सन्नाटा कहाँ था
बस सन्नाटे की आहट थी
और सन्नाटा हो गया

यादों में धुआँ और आग


यह धुआँ है 
कभी आग लगी थी जंगलों में
पेड़ पशु कई ज़िंदगियाँ भस्म हुईं थीं

सरपट दौड़ते जानवरों में
एक वह भी था
जिसने पीछे मुड़ कर देखा

लपट आसमान को छूते
अपने जीभ से लपकते
जो कुछ भी सामने आया

चिंगारियाँ दूत बन विनाश के सन्देशवाहक
विस्तार देते उसके प्रचंड रूप को 
कोई भेद नहीं उसकी नज़रों में 

न छोटा न बड़ा
अपने स्पर्श से सबकुछ
एक जैसा 

समानांत सबका
असीम शक्ति
महसूस करता

बस एक ही था 
जिसने पीछे मुड़ कर देखा 
सब कुछ देखा 

वही था 
जो भागते भीड़ से अलग था
उसने पीछे मुड़ कर देखा

आग की भीषणता को
जागते देखा
फैलते देखा

छुप कर  देखा
सामने आकर देखा   
शांत होते बुझते देखा

याद है
आग से पहले का जीवन 
आग में लहराते हुए

उसके मित्रगण परिजन
और परजन  
सभी याद हैं

भागते सब एक से
कुचलते एक दूसरे को
सब याद हैं

इसी आग ने तो 
उसको आदमी बनाया
जिसने मुड़कर देखा 

अपनी याद में 
उसको जिन्न की तरह 
संजोए रखता है 

उस आग की याद 
आज तक हमारे साथ है 
हमारे अवचेतन में  

कितनी बार उस आग को
सेंकते राख हो गए
कितने ही लोग

गांव के गांव
शहर के शहर
फूंक दिए उन हाथों को 

जिन्होंने ने उसे लगाया था
फिर भी याद है
बोरसी रसोईघर और बीड़ियों में

भस्म होने का आनंद है यह
रोज़ में खोने का
कैसा आनंद है यह

मगर याद सब कुछ है  
किसी कोने में 
आज भी धू धू करता 

जुलाई 23, 2019

आज के इंकलाबी


आज के इंकलाबी
पके आम चुनते
रात के तूफ़ानी संघर्ष में थक गए
स्वतःस्फूर्त सब्ज़ आम की आलोचना
उनकी अनुभवहीनता बताते
जो लटक गए
उन्हें चुनते इंकलाबी

20 फरवरी, 2020

घटना


“नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा –
ज़िन्दगी को अखबार बनाकर पढ़ते रहना!
कोई-न-कोई तो बता ही देगा वह रास्ता
जिस पर घटनाएँ मिलती हैं”
भारतभूषण अग्रवाल

घटनाएँ होती थीं मगर अब नहीं
अब तो स्क्रीन पर फैलती सिकुड़ती
ज्यामितिक रेखाएँ हैं
और उनके पीछे अदृश्य फार्मूलें

जितनी भी खूबसूरत या
भयंकर खबरें हैं
उनके तह में यही फार्मूलें हैं
और घटती बढ़ती चर राशियाँ
यही घटनाएँ हैं
और घटनाओं की अभिव्यक्तियाँ

और परत हटाएँ
तो उनके पीछे सर्किटों का अजीब सर्कस है
जो आदमी सुलझा नहीं सकते
मगर लगातार उलझते जाते हैं

और उनके पीछे अनगिनत लोग हैं
ज़िंदा और मुर्दा अपने खोह में समाए हुए
कब्र में दफ़नाए हुए
सभी से ओझल अपने आप से ओझल
उन्हें पता है कि वे खुद क्या करते हैं
मगर अनभिज्ञ हैं
इनसे क्या करते हैं

घटनाएँ कहाँ हैं
सामने होती हुईं
या उनके होने में खोती हुईं

क्या खबर?


कोई खबर नहीं है वतन से
कि हमको आदत पड़ी है
कि हम सोते रहें और खबर मिल जाए

कि कल तक तो कोई चिंता नहीं थी
खबर भी नहीं थी
जरूरत नहीं थी

सिर पर बहुत बोझ आन पड़ा था
मुश्किल में खुद ही कल तक पड़ा था
आज अब मौका मिला है

खबर खोजते हैं
जिनके सहारे
अपनी खबर हम खुद को सुनाएँ

उत्साह


यानिस रित्सोस

जिस तरह चीज़े धीरे-धीरे खाली हो गयी हैं,
उसके पास करने को कुछ नहीं है। वह अकेला बैठता है,
अपने हाथों को देखता, नाख़ून – अजनबी लगते हैं –
बारबार अपनी ठुड्डी छूता है, कोई और ठुड्डी
लगती है, बिलकुल ही अजनबी,
इतनी नितांत और स्वभावतः अजनबी कि उसे खुद
इसके नएपन में मजा आने लगा है।

बीमारी सच बोलने की


वे हैं तो सब कुछ मुमकिन है
क्योंकि इन सब के बाद भी वे हैं
और तुम सोचते हो उनको नंगा
और अपने आपको बालक

जो कि तुम बिलकुल हो अबोध
अपने ख्यालों की दुनिया की
सच्चाई को ही सच्चाई मानते
और पनचक्की पर वार करते हो

ये बीमारी सच बोलने की
बेवकूफी है कि तुम्हें कौन सुनेगा
जो सुनते हैं वे जानते हैं
वे तुम्हीं हो अपने आपको सुनते

मगर यह सच उनका नहीं है
जिन्हें तुम सुनाना चाहते हो
बताना चाहते हो सच्चा सच
आंकड़ों में ढूंढ़ते हो जिन्हें

वे अपना सच अपनी रोज़
की थकान में गुज़ार देते हैं
तुम्हारे आँकड़े उस कशमकश
के नतीजों को मापते हैं

मशीनों से पसीनों की जूझ
व उनके गंध तक नहीं पहुँचते
जहाँ खून और तेल के मिलाप से
अजीब सा नशा फैल जाता है

होली ही होली है


गिरा है खून उस तरफ
इस तरफ रंगीनी है
घरों में मातम है
दिलों में संगीनी है
वहाँ की खून की होली
इन्हें रंगोली है

समय का पहिया है
आज ये है
तो कल वो है
आज भीड़ इनकी
तो कल उनकी
टोली है

हर रोज़ कहीं दिवाली है
जो नहीं तो फिर
होली है

२७/०९/१९

परिवर्तन: यानिस रित्सोस


यानिस रित्सोस (1909-1990) यूनान के महान क्रांतिकारी कवि थे।

जिसको तुम शांतिप्रियता या अनुशासन, दयालुता या उदासीनता कहते हो,
जिसको तुम दाँत दबाए बंद मुँह बताते हो,
जो मुँह की प्यारी चुप्पी दिखती है, दबे दाँतों को छुपाती,
वह उपयोगी हथौड़े के नीचे धातु की केवल धैर्यपूर्ण सहनशीलता है,
भयानक हथौड़े के नीचे – तुम्हारी चेतना है
कि तुम निराकारता से आकार की ओर बढ़ रहे हो।