धुर-दक्षिणपंथ के विरोध का अर्थ


सम्पादकीय (ड्राफ्ट), मोर्चा

उनका तर्क है कि कोई भी चीज़ स्वयं को केवल एक ही प्रकार की चीज़ के रूप में दोहरा सकती है, तथा किसी भिन्न चीज़ में परिवर्तित नहीं हो सकती। — माओ 

“विश्व इतिहास में… सभी अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएं और हस्तियां… दो बार आविर्भूत हुई हैं।… पहली बार दुखांत नाटक के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में।” मगर ये घटनाएं यथार्थ में दो बार  नहीं होतीं, बल्कि अतीत की मृतात्माएं भाषा, परंपरा, नाम, रणनाद और परिधान मुहैय्या कराती हैं जिन्हें उचित संप्रेषण के अभाव में “विश्व इतिहास की नवीन रंगभूमि को इस चिरप्रतिष्ठित वेश में और इस मंगनी की भाषा में सजाया” जाता है।  मार्क्स के अनुसार, इस “भोंडी नकल” से प्रगतिशील ताकतें भी अछूती नहीं होती। 

प्रतिक्रियावादी ताकतें स्वभावतः राष्ट्रवादी, नस्लवादी, जातिवादी अतीत के “गौरव” को पुनश्च जीती हैं, मगर अपने आप को सर्वहारा क्रांति के हिरावल मानने वाले यदि अतीत को जीने लगें तो समस्या है। अतीत की समझ जरूरी है  (यह मार्क्सवादी से अधिक कौन जानता है) मगर उनमें संदर्भ के ऐसे बिंदुओं की तलाश करने के लिए, जो हमें वर्तमान में हमारे स्थान को स्थापित करने में मदद करें, ठीक उसी तरह जिस तरह नाविकों को आकाश के तारे मदद करते हैं।  जब वर्तमान का अर्थ धूमिल हो रहा हो तो अतीत के वे बिंदु हमारे लिए तारों का काम करते हैं।  मगर आज की सामाजिक क्रांति अपना काव्य अतीत से कभी नहीं गढ़ सकती, उसे भविष्य से ही गढ़ना होगा। बेगमपुरा की नगरी अतीत में नहीं है, भविष्य में है। 

इतिहास और वर्तमान की समझदारी का रिश्ता एकतरफा नहीं होता यानी इतिहास पर आपकी पकड़ वर्तमान में आपको शातिर बना देगी, ऐसा बिल्कुल नहीं है। ज्यादा समय इतिहास के ज्ञान का बोझ आपको ऐतिहासिक रूपकों की भूलभुलैया में विलीन कर देता है, और वे मिथक का काम करते हैं। तथाकथित वस्तुनिष्ठ इतिहास के प्रचारक वर्तमान को महज उसका निष्कर्ष मानते हैं, जबकि गतिशील वर्तमान हमेशा नया इतिहास रचता है, उसमें नए बिंदुओं को तलाशता है ताकि भविष्य के रास्तों को ढूँढ़ सके। इतिहास का विकासवादी (evolutionary) दृष्टिकोण, वर्तमान की नवीनता को नहीं स्वीकारता, वह स्वरूपात्मक पुनरावृत्तियों की भाषा में उसको बांधने का प्रयास करता है। वर्तमान का हरेक नया क्षण इतिहास के पुनरावलोकन के लिए अवसर प्रदान करता है —  पुराने क्षणों को देखने और समझने के लिए नया दृष्टिकोण देता है। इसके विपरीत, नए में पुराने को खोजने की जिद्द में इतिहास के दरारों और छलाँगों को नजरअंदाज करने से हमारी राजनीति और हमारे संघर्ष निश्चित व्यवस्थापरक सीमाओं में बंधे रहते हैं, जबकि संघर्षों में हमेशा अंतर्निहित अमूर्त संभावनाएं होती है, जो संयोगों की जननी हैं जिनसे इतिहास की गति में छलांग पैदा होती हैं। 

फासीवाद के ऐतिहासिक रूपक से वर्तमान के दक्षिणपंथी उभार की समझदारी को प्रस्तुत करने में अवश्य ही मदद मिलती है, परंतु जैसा कि अलेक्जेंडर रोसेनब्लूएथ और नॉर्बर्ट वीनर ने लिखा है, “रूपक की कीमत शाश्वत सतर्कता है।” जीव-वैज्ञानिक रिचर्ड लेवॉन्टिन “द ट्रिपल हेलिक्स” में इस बात पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं —  प्रकृति के बारे में बात करते हुए हम रूपकों के उपयोग से बच नहीं सकते, लेकिन रुपक को वास्तविकता के साथ घालमेल करने का खतरा हमेशा बना रहता  है। हम दुनिया को मशीन की तरह से देखना बंद कर, मशीन ही समझ बैठते हैं। प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र से कहीं अधिक यह समाज और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्रों  में होता है। सामाजिक अवधारणाएं, खास तौर से जो मूर्त तौर पर किसी ऐतिहासिक काल, घटना इत्यादि  से जुड़ी होती हैं उनका इस्तेमाल वर्तमान के चित्रण और समझ के लिए अनिवार्य हैं, परंतु उन्हें उनकी ऐतिहासिकता से काट कर भौतिकवैज्ञानिक अवधारणाओं की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। फासीवाद की मूर्तता जो इटली और जर्मनी या फिर उस समय के अन्य धुर–दक्षिणपंथी आंदोलनों में मिलती है, उसे इन आंदोलनों या उनके समय के इतिहास से निकालकर उनका अवधारणात्मक इस्तेमाल करना खतरनाक है — क्योंकि इससे उनके खिलाफ की लड़ाई की “भोंडी नकल” का खतरा पैदा हो जाता है। 

पिछले कुछ अंकों से हम घोर दक्षिणपंथी आंदोलनों, राजनीति और सत्ताओं के उभार की जांच हेतु सामग्रियों का प्रकाशन कर रहे हैं।  इन सामग्रियों और चर्चाओं ने इतना तो साफ किया है कि उस जमाने के फासीवाद और नाजीवाद जिस रूप में सामाजिक उत्कंठाओं और कुंठाओं की उपज और अभिव्यक्तियाँ थे, आज के धुरदक्षिणपंथ भी उसी तरह आज की उत्कंठाओं और कुंठाओं की उपज और अभिव्यक्ति हैं।  उनके तौर-तरीके में भी समानता दिखती है। परन्तु विद्यमान नव-उदारवादी पूंजीवादी चरण की विशेषताएं इन राजनीतिक अभिव्यक्तियों की भूमिकाओं और कार्यकलापों को नया स्वरूप और नया अर्थ देती हैं। आज के दक्षिणपंथ को समझने में “फासीवाद” का परिभाषात्मक उपयोग खतरे से खाली नहीं है। इसका नतीजा आज की स्थिति की अतिरंजित ढंग से पेशकश ही नहीं, बल्कि हमारे वक्त की विशिष्टता और गंभीरता को कम करना भी हो जाता है। 

आज के नव–उदारवादी दौर में फासीवादी प्रवृत्तियाँ पूंजीवादी व्यवस्था के राजनीतिक -आर्थिक संघटन में समाहित हो गई है। वर्गीय और अन्य विभाजनकारी भिन्नताएं राजकीय कार्यकलापों के स्तर पर, विशेषकर पूंजीवादी लोकतंत्र के तहत छिपी रहती थीं, जहां  संप्रभुता को निर्वैयक्तिक कानूनी प्रणाली के माध्यम से काम करना होता था और जो सभी पर समान रूप से लागू होती थी। (गासपार मिकलोस तामास) जबकि इसके विपरीत, फासीवादी तानाशाही विभाजनकारी भिन्नताओं को उजागर कर उसी के आधार पर मनमानी नीतियों द्वारा संप्रभुता स्थापित करती  थी — “संप्रभु वह है जो अपवाद पर निर्णय लेता है।”

1970 के मध्य से ही लगातार पूंजीवाद के नवोदारीकरण के दौर में पूंजीवादी राजसत्ता ने फासीवादी प्रवृत्ति को इस प्रकार से आत्मसात किया है कि पूंजीवादी जनतंत्र  के तहत भी संप्रभुता का वही रूप हो गया है, जो खुले तौर पर मनमानी नीतियों द्वारा अपने विभाजनकारी चरित्र को पेश करता है — सार्विक नागरिकता के आदर्श की जगह पर नागरिकता को विशेषाधिकार और श्रेणीबद्ध बना देता है। दूसरी तरफ, आज फासीवादी भीड़ — संगठित/केंद्रित हो या असंगठित/विकेंद्रित हो दोनों ही रूपों में दैनिकता में लगातार विद्यमान रहती है। ये आज पूंजीवादी जनतंत्र के लिए खतरा नहीं है, बल्कि नवोदार पूंजीवादी जनतंत्र को पॉपुलिस्ट चरित्र देती है, और बदलती सरकारों को इसी के दायरे में काम करना होता है — विशेष प्रकार के लोकवृत्त का निर्माण करती है, जिसके तहत विचारधारात्मक रूप से भिन्न राजनीतियाँ आपस में प्रतिस्पर्धात्मक विनिमय संबंध बना पाती हैं, और एक दूसरे की पूरक बन जाती हैं।  क्या यही आज भारत की दशा नहीं हो गई है? चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें हों, चाहे वह अति-दक्षिणपंथी भाजपा नेतृत्व की सरकार हो या किसी और पार्टी के नेतृत्व की सरकारें हों, चाहे शासक पार्टी हों या विपक्ष की पार्टियां हों, सभी इस भीड़ को भीड़ रूप में ही नियोजित करने की कौशिश कर रहीं हैं, चाहे कोई सांप्रदायिक आधार पर करे, या फिर भाषाई या अन्य आधारों पर। नव-उदारवादी संदर्भ में इस उत्तर-फासीवाद के खिलाफ संघर्ष किस प्रकार से ऐतिहासिक फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के तौर-तरीकों से, जिसके लिए फासीवाद एक चिह्नित आंदोलन और राज्य था जिस पर सीधा निशाना साधा जा सकता था, लड़ा जा सकता है? 

जैसा कि बार बार कहा गया है पूंजीवादी समाज में अलगा‌व और कुंठा स्वाभाविक है, जो कि समाज में फैलते सर्वहाराकरण, असमानता, व्यक्तिकरण और प्रतिस्पर्धा का सीधा नतीजा हैं। इस समाज का  हर वर्ग इनसे प्रभावित होता है। एंगेल्स अपनी आरंभिक पुस्तक, द कन्डिशन ऑफ द वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड  (1845) में सामाजिक प्रतिस्पर्धा का बखूबी चित्र खींचते हैं:  

“प्रतिस्पर्धा आधुनिक नागरिक समाज में सभी के विरुद्ध सभी की लड़ाई की पूर्ण अभिव्यक्ति है। यह लड़ाई, जीवन के लिए, अस्तित्व के लिए, हर चीज के लिए लड़ाई, जरूरत पड़ने पर जीवन और मृत्यु की लड़ाई, केवल समाज के विभिन्न वर्गों के बीच ही नहीं, बल्कि इन वर्गों के अलग-अलग सदस्यों के बीच भी लड़ी जाती है। हरेक आदमी दूसरे के रास्ते में है, और हरेक अपने रास्ते में आने वाले सभी लोगों को बाहर निकालने और खुद को उनकी जगह पर रखने का प्रयास करता है। मजदूर आपस में उसी प्रकार लगातार प्रतिस्पर्धा में रहते हैं, जैसे कि पूंजीपति वर्ग के सदस्य।”

यह “सभी के विरुद्ध सभी की लड़ाई” व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर कुंठित आशाओं और मानसिक-भौतिक रुग्णताओं को पैदा करती है। इन कुंठित प्रवृत्तियों और रुग्णताओं को लेकर तीन तरह की राजनीति हो सकती है। एक, जो इन कुंठाओं को नियंत्रित और प्रबंधित करे ताकि वे व्यवस्था के लिए खतरा न बन जाएं, तथा प्रतिस्पर्धा को और तेज कर उसे पूंजीवाद के सामाजिक पुनरुत्पादन का जरिया बना दे; दूसरा, जो इन कुंठाओं के तह में जाए, और उसके आधार पर चोट करे; और  तीसरा, वह जो कुंठा को ही राजनीति बना ले। पहले प्रकार की राजनीति के तहत सभी बुर्जुआ राजनीतिक शक्तियां — लेफ्ट-राइट-सेंटर, उदारवादी हों या रूढ़िवादी — होतीं है,  दूसरे के तहत क्रांतिकारी अथवा परिवर्तनगामी राजनीति होती है जो व्यवस्था को ही चुनौती देती है। तीसरे में धुर-दक्षिणपंथी शक्तियाँ शामिल हैं जो कुंठितों की कुंठाओं की जैविक अभिव्यक्ति हैं — जो शिकायतों और लांछनों की भाषा में ही अभिव्यक्त होती हैं। यह बात फासीवादी या अन्य-धुरदक्षिणपंथी जन-आंदोलन  के लिए तो सही ही है, जो राजनीतिक-आर्थिक संकट के दौर में  राज्य की वैधता (legitimation) को  अन्य दक्षिणपंथ और रूढ़िवादी शक्तियों के साथ जुड़ कर पुनर्स्थापित करने की कोशिश करता है। जिस प्रकार से पूंजीवाद की राजकीय-वैधानिक व्यवस्था औसत आदमी के रूप में सभी वर्ग के व्यक्तियों को ढालता है, उसी औसत आदमी की कुंठाओं को धुरदक्षिणपंथ एकत्र कर राजनीति का रूप देता है। क्रांतिकारी शक्तियों को इसी औसतीकरण के खिलाफ वर्गीय राजनीति को सामने रखना होगा। उदारवादी औसतीकरण का पूरक है फासीवादी औसतीकरण जो पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन के संकट के दौर में सामने आता है। 

हमने मोर्चा के पिछले अंक के संपादकीय में आज के दक्षिणपंथी उभार के कुछ कारणों पर ध्यान दिया था। संक्षेप में हम बोल सकते हैं कि नवोदार पूंजीवादी प्रक्रियाओं के तहत बेशीकरण, सर्वहाराकरण और प्रतिस्पर्धा में तेजी ने न्यूनीकृत राजसत्ताओं के लिए वैधता–संकट (legitimation crisis) पैदा कर दिया है। बेशी और सर्वहाराकृत आबादी की बढ़ती तादाद की आपसी प्रतिस्पर्धा ने पूंजीवाद की प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक व्यवस्था को अनिश्चित बना दिया है।  दक्षिणपंथी जन पार्टियों का ऐतिहासिक योगदान फासीवाद की तरह ही इस आबादी को इस रूप में संगठित करना होता है कि वे पूंजी के शासन के लिए खतरा न बन सकें। परन्तु 1920 – 45 के दौर में पूंजी, उसके मूर्त स्वरूप और बाजार राष्ट्रीय सीमाओं के आधार पर अपने आप को नियोजित करते थे और इसी कारण राष्ट्रीय नीतियों और राजनीतियों के आधार पर पूंजी संचय के राजनीतिक अर्थतांत्रिक मॉडलों की तैयारी हो सकती थी। लेकिन पूंजी के बढ़ते वित्तीयकरण और भूमंडलीकरण ने राज्य की इन क्षमताओं को कमजोर कर दिया है, और व्यवस्थापरक राजनीति की भूमिका आज जन असंतोष को व्यक्तिकृत और फिर उसे संगठित कर कुंद करना है, कोई सुव्यवस्थित राजनीतिक–आर्थिक मॉडल देना नहीं है। ऐसे में राजसत्ता-केंद्रित संघर्षों से हम किस हद तक आज के दक्षिणपंथी विकृत जन आंदोलनों की मौजूदगी से निजात पा सकेंगे?

हमारा मानना है कि पुराने संघर्षों से अभी भी बहुत कुछ सिखा जा सकता है, परन्तु उनको मॉडल की तरह इस्तेमाल करना गलत होगा – हम उनकी नकल नहीं कर सकते। हमें उनके प्रासंगिक गुणों को नया स्वरूप देना होगा। संघर्ष का स्वरूप हमेशा समय और स्थान से बंधा होता है। दूसरे समय या स्थान के संघर्षों से सीखने का अर्थ उनकी पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। जिनके लिए वर्तमान महज पुनरावृत्ति है, वह अतीत की झूठी निश्चितताओं को जीना चाहते हैं। यहाँ हम संक्षेप में कुछ रणनीतिक सीख को सामने रखेंगे।  

फासीवाद के विरोध का सबसे सुगठित जन-आंदोलनकारी स्वरूप कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के व्यवहार में पैदा हुआ, जिसका आकार मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम के अनुसार संकेंद्रीय वृत्त की तरह था। “श्रम की संयुक्त ताकतें (‘संयुक्त मोर्चा’ या यूनाइटेड फ्रन्ट) लोकतंत्रवादियों और उदारवादियों के साथ एक व्यापक चुनावी और राजनीतिक गठबंधन (‘लोकप्रिय मोर्चा’ या पोपुलर फ्रन्ट) की नींव रखेगी। इसके अलावा, जैसे-जैसे जर्मनी आगे बढ़ता गया, कम्युनिस्टों ने ‘राष्ट्रीय मोर्चे’ के रूप में और भी व्यापक विस्तार की कल्पना की, जिसमें सभी लोग शामिल थे, चाहे उनकी विचारधारा और राजनीतिक मान्यताएँ कुछ भी हों, लेकिन वे फासीवाद (या शक्तियों की धुरी) को प्राथमिक खतरा मानते थे।” इतिहासकारों का मानना है, चूंकि कम्युनिस्ट सिद्धांत और व्यवहार में भी अंतरराष्ट्रवादी थे, जिस कारण से फासीवाद के विरोध में राष्ट्रवादियों और देशप्रेमियों से ज्यादा दृढ़ प्रतिज्ञ ढंग से लोगों को एकत्र कर पाते थे। हॉब्सबॉम कम्युनिस्टों की फासीवाद-विरोधी रणनीतिक सक्षमता का आधार उनके व्यवहार की संरचना में देखते हैं।  

“कम्युनिस्टों ने प्रतिरोध का रास्ता अपनाया, न केवल इसलिए कि लेनिन की ‘अग्रणी पार्टी’ की संरचना अनुशासित और निस्वार्थ कार्यकर्ताओं की एक ताकत तैयार करने के लिए बनाई गई थी, जिसका उद्देश्य कुशल कार्रवाई करना था, बल्कि इसलिए भी कि चरम स्थितियाँ, जैसे कि अवैधता, दमन और युद्ध, ठीक वही थीं जिनके लिए ‘पेशेवर क्रांतिकारियों’ के इन निकायों को बनाया गया था। वास्तव में, उन्होंने ही ‘केवल प्रतिरोध संघर्ष की संभावना को देखा था’…। इस मामले में वे जन समाजवादी पार्टियों से अलग थे, जिन्हें वैधता के अभाव में काम करना लगभग असंभव लगता था, चूंकि चुनाव, सार्वजनिक बैठकें और बाकी चीजें उनकी गतिविधियों को परिभाषित और निर्धारित करती थीं।” (एरिक हॉब्सबॉम, ‘दी एज ऑफ एक्सट्रीम्स’)

“श्रम की संयुक्त ताकत” के रूप में संयुक्त मोर्चा को समझना, राष्ट्रवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रवादी प्रतिबद्धता और चरम स्थितियों में काम करने योग्य सांगठनिक क्षमता — ये तीन सिद्धांत आज भी प्रतिक्रियावाद के खिलाफ संघर्ष में अहम होंगे। इन्हीं के आधार पर आज के संघर्ष  की तैयारी हो सकती है। 

प्रत्यूष चन्द्र

आज का “फासीवाद”


मोर्चा (अक्टूबर-दिसंबर, 2024), संपादकीय

  जब कोई अपनी अंगुली से किसी चीज़ की ओर इशारा करे, और मूर्ख व्यक्ति उसकी अंगुली को ही देखता रहे, तो उस व्यक्ति को पता नहीं चलेगा कि इशारे का वास्तव में क्या मतलब है। इसी तरह मूर्ख लोग शब्दों की अंगुली पर आसक्त हो जाते हैं। 

 — लंकावतार सूत्र

मसखरे! ये शब्दों का पीछा करते हैं, बिना यह सोचे कि जीवन कितना शैतानी रूप से जटिल और सूक्ष्म है, जो कि पूरी तरह से नए स्वरूपों का निर्माण करता है, जिन्हें हम केवल आंशिक रूप से “पकड़” पाते हैं। 

व्लादमीर लेनिन 

नवंबर में हुए संयुक्त राष्ट्र अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत के साथ एक बार फिर से उदारवादियों और उदारवादी वामपंथ को वैश्विक राजनीति में फासीवाद का बादल जमता नजर आने लगा है। इस उदारवाद की स्थिति हाल के वर्षों में पेंडुलम की तरह हो गई है – स्थाई पूंजीवादी संकट के सामयिक घटनाक्रमों के साथ वे झूलते रहते हैं, मगर उन्हें मुगालता है कि वे नहीं, दुनिया झूल रही है। ट्रंप, मोदी और विश्व के अन्य धुर–दक्षिणपंथियों की चुनावी हार–जीत में उन्हें फासीवाद का उदय और पतन दिखता है। इस उतार-चढ़ाव ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया है।  

फासीवाद को चिह्नित चेहरों और पार्टियों से जोड़कर देखना, और फिर पूरी राजनीतिक ऊर्जा उनके खिलाफ चुनावी जुटान करने में व्यय करना – इसने परिवर्तनगामी राजनीति के चक्के को तात्कालिकतावाद में जकड़ लिया है। तात्कालिकता में जकड़ी राजनीति प्रतिक्रियात्मक ही हो सकती है, वह विद्यमान व्यवस्था के राजनीतिक मल्लयुद्ध के नियमों में ही बंधी रहेगी।

परिवर्तनगामी राजनीति का काम तात्कालिकता की उपस्थिति में छुपी सामाजिक प्रक्रियाओं की सच्चाई को उजागर कर उसके जड़ पर वार करना होता है। परन्तु इसके लिए इतिहास में गढ़े हुए शब्दों और अवधारणाओं की तानाशाही से निकल गतिशील यथार्थ के नए क्षणों के नएपन को पहचानना होगा। ऐतिहासिक फासीवाद  और उस समय के फासीवाद–विरोध के स्वरूप की स्थानिक कालिकता को स्वीकारते हुए आज के फासीवाद को परिभाषित करना होगा और उपस्थित कार्यभार को नियोजित कर अपनाना होगा।  

इतालवी इतिहासकार एंजो त्रावेर्सो अपनी किताब द न्यू फेसेज़ ऑफ फ़ासिज़्म में कहते हैं कि 1930 के दशक के बाद विश्व में आज की तरह अतिदक्षिणपंथ का उभार कभी नहीं हुआ। ऐसे में फासीवाद की स्मृति का जगना स्वाभाविक ही है, और यह भी स्वाभाविक है कि हम उन ऐतिहासिक अनुभवों की आलोचना में उभरे अवधारणाओं या संकल्पनाओं का इस्तेमाल नए अनुभवों को व्यक्त करने के लिए करते हैं। परन्तु जैसा कि त्रावेर्सो कहते हैं ऐतिहासिक तथ्यों और भाषा के बीच तनाव रहता है। इसी तनाव से समानताओं और असमानताओं को निश्चित करती ऐतिहासिक तुलना संभव हो पाती है। जो इस तनाव को नहीं देख पाते वे सजातीयता और पुनरावृत्तियों को खोजते फिरते हैं।  वे उसकी तरह हैं जो चंद्रमा की ओर इंगित करती अंगुली के सिरे को चंद्रमा समझ बैठते हैं। त्रावेर्सो के अनुसार, फासीवाद की अवधारणा नई वास्तविकता को समझने के लिए अनुचित भी है, परंतु अपरिहार्य भी। अनुचित है ऐतिहासिक असमानताओं/विषमताओं के कारण, और अपरिहार्य है क्योंकि ऐतिहासिक फासीवाद के साथ तुलना किए बगैर नई वास्तविकता को नहीं समझा जा सकता।

ऐतिहासिक फासीवाद – आंदोलन और राजसत्ता 

यूरोप में फासीवाद और नाजीवाद को लेकर मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों की आरंभिक व्याख्याओं में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक–वैचारिक पहलू साफ तौर पर दिखते हैं। पहला पहलू है, इन आंदोलनों के वर्गीय चरित्र की व्याख्या करते हुए इनके अंदर विषम वर्गों के तत्वों की खिचड़ीनुमा एकजुटता का संज्ञान। यही एकजुटता इन आंदोलनों को व्यापक कर्कश जन-चरित्र प्रदान करती है। दूसरा, इस भीड़ को बनाए रखने के लिए सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर कातिलाना अनुष्ठानों की जरूरत होती है जो राजकीय प्रशासन का मॉडल तैयार करती है जिसे, नाजी सहयोगी महान राजनीतिक दार्शनिक कार्ल श्मिट अपवादावस्था (स्टेट ऑफ इक्सेप्शन) नाम देते हैं। यह आपातकाल की अवस्था ही है परंतु आपातकाल का प्रावधान तो संविधानों और विधानों में दिया होता है, और जिसके आह्वान के लिए उनमें दिए शर्तों को भी संतुष्ट करना होता है। परंतु श्मिट के अनुसार, “संप्रभु वह है जो अपवाद पर निर्णय लेता है।” यही अंतर है 1975 के आपातकाल की घोषणा में (जिसकी निरंकुशता कम नहीं थी, परंतु तब भी वह वैधानिक प्रक्रिया से बंधी थी) और 2016 में विमुद्रीकरण की अपवादावस्था में। 1920-30 के दशकों के यूरोप में यह अपवादावस्था नई फासीवादी राजसत्ता का स्वरूप लेती है — निरंतर अपवाद का सिद्धांत उसकी नीव है। इस राजसत्ता की वैधता का आधार फासीवादी आंदोलन द्वारा निर्मित भीड़ है, जिसका पोषण और पुनरुत्पादन राजसत्ता की आवश्यकता है । 

जर्मन कम्युनिस्ट नेता क्लारा ज़ेटकिन फासीवाद को राजनीतिक रूप से आश्रयहीनों  की शरणस्थली के रूप में देखती हैं। यह चित्रण फासीवाद को पैदा करने वाले विशेष सामाजिक परिपेक्ष की ओर इंगित करता है। पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक विघटन के दौर में जब पुरानी राजनीतिक/राजकीय लामबंदी और नियंत्रण कमजोर पड़ गई हों तथा उनके खिलाफ कोई ठोस क्रांतिकारी राजनीति भी न दिखती हो जो पूंजीवादी प्रक्रियाओं से त्रस्त वर्गों और वर्ग-तत्वों को मुक्तिगामी सामाजिकता का रास्ता दिखा सके, तो सामाजिक उदासीनता और राजनीतिक आश्रयहीनता स्वाभाविक नतीजा है। विभिन्न पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं द्वारा आम-तौर पर विखंडित (segmented) मजदूर वर्ग के कई हिस्से भी इस उदासीनता और आश्रयहीनता के शिकार होते हैं। इतालवी कम्युनिस्ट नेता और विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने संक्रमणशील दौर में इसी संक्रमणहीनता को रुग्ण लक्षणों के उत्पादक के रूप में देखा था, जिनका एकीकरण फासीवाद है। 

फासीवाद परस्पर विरोधी वर्गों के व्यक्तियों और समूहों की कुंठाओं को अभिव्यक्ति देता है। मार्क्सवादी विचारक वाल्टर बेंजामिन के अनुसार, वह जनसमूहों की मुक्ति, अधिकार पाने में नहीं, भड़ास निकालने में देखता है। फासीवाद नवीनतम सर्वहाराकृत जनसमूहों को इस प्रकार संगठित करता है कि विद्यमान संपत्ति संबंधों को किसी तरह की आंच न आ सके। “जनसमूहों के पास सम्पत्ति सम्बन्धों को बदल डालने का अधिकार है; फासीवाद सम्पत्ति की रक्षा करते हुए उन्हें अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है।”

फासीवादी जन आंदोलन के निम्नपूंजीवादी चरित्र की जब बात होती है, सर्वहाराकरण की इसी प्रक्रिया की ओर ही इशारा होता है, जिससे कुंठित लोग फासीवाद के स्वाभाविक जनाधार बनते हैं।

जब पूंजीवादी संचय की प्रक्रिया मंद हो रही थी, राजसत्ताओं का सामाजिक-राजनीतिक प्रबंधन विफल हो रहा था, संगठित मजदूर आंदोलन की पैठ मजबूत थी और ग्रामीण-शहरी इलाकों में बेशी आबादी और दरिद्रता तेजी से बढ़ रहे थे, और साथ ही सोवियत राजसत्ता स्थायित्व पा चुकी थी, तब पूंजीपतियों के विभिन्न घटकों को फासीवाद में राजनीतिक संभावना दिखने लगी। उनके लिए यही अपवादावस्था है, जब फासीवादी भीड़ का नेतृत्व उन्हें अपने हितों की सुरक्षा के लिए सटीक उम्मीदवाद नजर आने लगता है। 

वह क्लासिकीय उदारवादी पूंजीवाद के संकट का दौर था जिसकी शुरुआत 20वीं सदी के आरंभ में ही हो चुकी थी, और 1914-18 के साम्राज्यवादी युद्ध  ने उसके अंत को और करीब ला दिया। फोर्डवादी पूंजीवाद, असेंबली–लाइन उत्पादन और थोक (mass) संस्कृति के अनुसार राजसत्ता को पुनर्नियोजित करने की जरूरत थी। फोर्डवाद वह पूंजीवादी संचय की व्यवस्था है जब राजव्यवस्था आर्थिक प्रबंधन के माध्यम से —  सेवा प्रावधान, राजकोषीय नीतियां, श्रम बाजार विनियमन और आधारिक उत्पादक ढांचे मुहैया करा कर— आपूर्ति, मांग और उपभोग के पैटर्न को स्थिर करने में मदद करता है। हस्तक्षेपकारी राजसत्ताओं और सरकारों को लेकर उस दौर में वैश्विक सामाजिक स्तर पर मतैक्य बन चुका था। चाहे रूज़वेल्ट का न्यू डील हो, या सोवियत राजसत्ता हो, या फिर फासीवाद, ये सभी राजकीय हस्तक्षेप के विभिन्न मॉडल थे। परंतु फासीवाद की विशेषता जो उसे बाकी मॉडेलों से भिन्न बनाती है वह है उसकी राजनीति-विरोधी शुद्ध राजनीति — जिसे बेंजामिन राजनीति का सौंदर्यीकरण कहते हैं। फासीवाद चकाचौंध तमाशों में लोगों को इस तरह से बांधता है कि वे अपने कष्टों का निवारण उनके मौलिक कारणों के उन्मूलन में नहीं, बल्कि अंधराष्ट्रवादी शुद्धिकरण यज्ञों की क्रूर हिंसा में देखते हैं। 

नवोदारवाद — पूंजीवाद की निरंतर अपवादावस्था 

आज का धुर–दक्षिणपंथ, फासीवादी हो अथवा नहीं, नव–उदारवादी आर्थिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में फैलती अनिश्चितता और अतिव्यक्तिवादिता के बीच पहचान, भिन्नता, अन्यीकरण और सर्वोच्चता  की राजनीति को पेश करता है। पूंजी का वित्तीयकरण, लीन (मितव्ययी) उत्पादन, भूमंडलीय सप्लाई चेन, सूचनाकरण, नेटवर्क समाज इत्यादि ये प्रक्रियाएं हैं जो पूंजीवाद के उत्तर–फोर्डवादी नवोदारवाद के दौर को परिभाषित करती हैं। इन प्रक्रियाओं ने अगर एक तरफ विश्व भर के श्रमिकों को एक दूसरे से भूमंडलीय उत्पादन प्रक्रियाओं और आपूर्ति श्रृंखलाओं द्वारा जोड़ दिया है, तो दूसरी तरफ श्रमिकों की आपसी प्रतिस्पर्धा को ग्लोबल और तीव्र बना दिया है। वित्तीयकरण और सूचनाकरण ने पूंजी के पलायन को आसान बना कर उद्योगों के स्थानांतरण का खतरा सतत बना दिया है। इस खतरे ने पारंपरिक मजदूर आंदोलन को लगभग हर जगह अगर नष्ट नहीं किया हो तो निर्णायक रूप से अप्रभावी और कमजोर कर दिया है। 

बेशीकरण की प्रक्रिया लगातार तकनीकी और प्रबंधकीय बदलावों के सहारे तेज होती जा रही है। जैसा कि इतालवी मार्क्सवादी बीफ़ो बेरार्दी कहते हैं, डिजिटलीकरण के दौर में “पूंजी अब लोगों की भर्ती नहीं करती, बल्कि समय के पैकेट खरीदती है।” और हरेक पैकेट त्यजनीय और एक दुसरे से अंत:परिवर्तनीय है। अगर यह हरेक उद्योग की सच्चाई बन जाए तो संपूर्ण श्रमिक आबादी बेशी हो जाएगी। वैसे भी बेरोजगारी, अल्परोजगारी, प्रच्छन्न बेरोजगारी, खानाबदोश आबादी, अस्थायी श्रमिक इत्यादि यानी पूंजीवाद के इतिहास में श्रमिकों के जितने प्रकार की ‘प्रजातियाँ’ रही हैं जिन्हें सापेक्ष बेशी आबादी का हिस्सा माना जाता है, वहीं श्रमिकों के सबसे बड़े तबके हैं।

 नस्लवाद, सांप्रदायिकता, आप्रवासी विरोध इत्यादि इस अतिप्रतिस्पर्धात्मक माहौल में व्यक्तिकृत व बेशीकृत जनता की कुंठा को भाषा प्रदान करते हैं। वित्तीयकरण और सूचनाकरण के बढ़ते फैलाव और गहनता के नतीजतन सार्विक समतुल्यीकरण (universal equalization) की प्रक्रिया भिन्नताओं को जितना गौण करती जाती है, उतना ही सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर भिन्नताओं का आग्रह आक्रामक रूप लेता जाता है। इस स्थिति की अमानवीयता ने समाज को अलगाव, उदासीनता और प्रतिस्पर्धात्मक हिंसा के लपेट में ला दिया है। जर्मन कवि हांस माग्नुस एंजेन्सबर्गर इसी को आण्विक गृह युद्ध का नाम देते हैं। धुर-दक्षिणपंथ इसी गृहयुद्ध को नियोजित करने का काम करता है। 

दूसरी तरफ, वित्तीयकृत पूंजी की भूमंडलीय स्वच्छंदचारिता राजसत्ताओं के लिए वैधता का संकट पैदा कर रही है। वित्तीयकरण पूंजी के प्रवाह को तेज और निर्बाध करता है, वह इसको समय-स्थान में बांधने की किसी भी कोशिश को निरस्त कर देता है। वह सामाजिक जीवन और गतिविधियों को भूमंडलीय खुले बाज़ार की अनिश्चितताओं से जोड़ता है। वित्तीय पूंजी की लगातार बढ़ती गतिशीलता ने मुद्रा और कीमतों के राजकीय प्रबंधन को अप्रभावी बना दिया है। प्रबंधन का यह संकुचन समाज को उसकी आर्थिक गतिविधियों से उसके अलगाव का एहसास कराता है, जो आर्थिक ह्रास के दौर में राजसत्ता के लिए वैधता का संकट पैदा करता है।  यह संकट तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब वह पूंजीवादी संचय में यानी आर्थिक पुनरूत्पादन में बाधाएं पैदा करना शुरू कर देता है, और सामाजिक राजनीतिक रूप लेकर आर्थिक की स्वायत्तता पर सवाल उठाने लगता है।

 राजकीय आर्थिक योजनाओं का दौर चला गया है, क्योंकि पूंजीवाद का नवोदरवादी चरण निरंतर अपवादावस्था का दौर है । ज्यादातर आर्थिक नीतियां आज फौरी प्रश्नों से संबंधित होती हैं, वे संरचनात्मक सवालों से नहीं जूझतीं। उनका काम महज पूँजी निवेश को आकर्षित करना रह गया है। जब विकास और वृद्धि एक ही चीज हो गई है तब निवेशों का महज परिमाण मायने रखता है, उनकी गुणवत्ता नहीं। नतीजा, योजनाओं की जरूरत नहीं है। आजकल सट्टा बाजार के उतार चढ़ाव सरकारों की मुख्य चिंता हैं, क्योंकि इस उतार चढ़ाव को उनकी  कार्यकुशलता पर दैनिक जनमत संग्रह के रूप में देखा जाता है। 

पूंजीवाद में राजसत्ता की मजबूती इससे निर्धारित होती है कि वह पूंजीवादी प्रक्रियाओं के सामाजिक-राजनीतिक परिणामों का कितनी कुशलता से प्रबंधन करती है। ग्राम्शी के शब्दों में, यह प्रबंधन दबाव (coercion) और सहमति (consent) की द्वन्द्वात्मक एकता से संभव होता है। लेकिन नव–उदारवाद के तहत सहमति के पुराने उदारवादी राजकीय हथकंडे निरर्थक होते जाते हैं। पूंजी के सम्मुख राजसत्ता की नतमस्तकता नग्न रूप से जगजाहिर हो जाती है। इस दासता का बेशर्म प्रदर्शन इसकी संप्रभुता पर सवाल पैदा कर देता है। 

1970 के अंत से ही अलग–अलग देशों में राजसत्ताओं की संरचना में इस वैधता के संकट से निपटने के लिए वैधानिक और संस्थागत बदलाव देखे जा सकते हैं। नवोदारवाद ने जिस न्यूनतम राजसत्ता की मांग की थी वह उसके विध्वंस की घोषणा नहीं थी । वह अर्थव्यवस्था में उसके गैर-हस्तक्षेप के बारे में भी नहीं था, न ही उसे कमजोर करने के बारे में था। वह सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों से पूंजी संचय की प्रक्रियाओं की स्वायत्तता के बारे में था – मगर उन प्रभावों के बारे में नहीं जो उसके विस्तार में सहायक होते हैं। ब्रिटेन में थैचर और अमरीका में रीगन के प्रशासनों ने विकल्पहीनता के नाम पर जो बदलाव लाए, और जो नवोदारवाद का आरंभिक व्यावहारिक मॉडल बना, वह और कुछ नहीं उदारवादी मुक्त बाजार कट्टरवाद, चुनावी लोकतंत्र और नव-रूढ़ीवाद का संस्थागत समन्वय था। नव–रूढ़ीवाद नवोदारवादी परिवर्तनों के पक्ष में सहमति और सहमति की मजबूरी, दोनों ही पैदा करता है। आज राजसत्ता पर काबिज किसी भी रंग के सरकारों को इस स्थापित व्यवस्था को अपनाना होता है। 

नव-रूढ़ीवाद ने प्रासंगिक फासीवादी तौर–तरीके और सोच के सामान्यीकरण का काम किया है। उसने अपवर्जनात्मक (exclusionary) आप्रवासी–विरोध और अल्पसंख्यक–विरोध पर आधारित राजनीति को प्रतिस्पर्धा और अनिश्चितता से जूझ रहे व्यक्तिकृत लोगों की भीड़ को संभालने का जरिया बन दिया है। सार्वभौमिक नागरिकता की उदार अवधारणा जो तमाम पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं के आधार में विद्यमान थी, आज उसे हर जगह चुनौती मिल रही है। भारत में नागरिकता को लेकर वैधानिक बदलाव इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। याद रहे सार्वभौमिक नागरिकता का विरोध क्लासिकीय फासीवाद के जिन्गोवादी नस्लवादी राष्ट्रवाद का भी आधार था।

 आज के फासीवाद को हम पूंजीवाद के विद्यमान चरण से अलग कर के नहीं देख सकते। फासीवादी प्रवृत्तियां नवोदारवादी पूंजीवाद के दौर में न्यूनतम राजसत्ता की तानाशाही और उसके प्रति सहमति के हित में लोकवृत्त (public sphere) तैयार करने का जरिया है। इस अर्थ में आज के फासीवाद को हम नीतियों, व्यवहारों, अनुष्ठानों और वैचारिकी के तरीकों का गुच्छा या समन्वय मान सकते हैं, जो तख्तापलट का सहारा लिए बिना, चुनावी लोकतंत्र और प्रतिनिधिक सरकार के प्रमुख राजनीतिक स्वरूपों को परेशान किए बगैर, आज के वैश्विक पूंजीवाद में आसानी से अपने लिए जगह बना लेता है। वह व्यवस्था के कारण बढ़ते जनाक्रोश की ऊर्जा को व्यवस्था को मजबूत करने की क्रिया में तब्दील करता है। इसके खिलाफ एकांतिक संघर्ष बीमारी की ओर इंगित करते लक्षण के खिलाफ संघर्ष है, बीमारी के खिलाफ नहीं।   

सड़क से संसद: यूरोप से भारत तक


संपादकीय, मोर्चा पत्रिका (draft)

2022 में इटली में  जियोर्जिया मेलोनी की जीत ने चरम-दक्षिणपंथियों में आत्म-विश्वास भर दिया था।  आज छह यूरोपीय संघ के देश —  इटली, फ़िनलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी, क्रोएशिया और चेक गणराज्य —  में कट्टर दक्षिणपंथी पार्टियों की सरकारें चल रही हैं। स्वीडन में वे संसदीय ताकत के आधार पर दूसरे नंबर पर हैं, नीदरलैंड की संसद में गीर्ट विल्डर्स की चरम दक्षिणपंथी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है, और सरकार बनाने के कगार पर है। इस साल जून के महीने में हुए यूरोपीय संघ के चुनाव में पूरे यूरोप में दक्षिणपंथियों को अपार सफलता मिली है – तमाम संघीय देशों में दक्षिणपंथ की राजनीतिक पैठ मजबूत हुई है। इस चुनाव में शिकस्त के बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने हड़बड़ी में संसदीय चुनाव की घोषणा कर दी जिसमें पहली बार दक्षिणपंथी मारी ले पेन की पार्टी सर्वाधिक जनप्रिय पार्टी के रूप में उभरी है। यह बात अलग है कि गैर–दक्षिणपंथियों के विभिन्न पार्टियों ने चुनाव के दूसरे दौर में आपसी व्यावहारिक गठजोड़ द्वारा ले पेन की पार्टी को सीट के आधार पर तीसरे नंबर पर धकेल दिया है। इस तरह के पराजय की कुंठा उसकी राजनीति और व्यापक यूरोपीय समाज पर क्या असर करेगी, यह समय के साथ ही पता चलेगा। इसके अलावे नाइजेल फ़राज़ की पार्टी, रिफॉर्म यूके ने इस बार ब्रिटेन के चुनाव में पांच सीट जीता है और कुल मिलाकर 15 प्रतिशत वोट प्राप्त किया है, जोकि अभूतपूर्व है। 2019 में उसे बस 2 प्रतिशत वोट मिले थे।

हमारा मानना है कि फासीवादी और कट्टर दक्षिणपंथ की राजनीति के इस फैलाव को महज उसके अपने औपचारिक व्याकरण के आधार पर नहीं समझा जा सकता। उसके कुत्सित कारनामों का अवश्य ही विरोध होना चाहिए और फौरी तौर पर उसका प्रतिकार होना चाहिए, परंतु उस राजनीति की या कहें किसी भी राजनीति और राजनीतिक विचारधारा की सामाजिक प्रक्रियाओं से अलहदा अपनी गति नहीं होती। इन्हीं सामाजिक प्रक्रियाओं और उनमें अंतर्निहित अंतर्विरोधों, विकल्पों तथा संभावनाओं का उच्चारण ये राजनीतिक विचारधाराएं और गतिविधियां करती हैं। शायद इसी अर्थ में मार्क्स ने राजनीति, विधि, विज्ञान, कला, मजहब इत्यादि के इतिहास न होने की बात कही थी। इनका अपना इतिहास नहीं होता। फासीवाद अथवा कट्टर–दक्षिणपंथ का आंतरिक इतिहास लिखने वाले वंशावली विशेषज्ञ या फिर गोत्र का इतिहास लिखने वाले पंडों के प्रतिरूप हैं, जिनके लिए पाणिनी के “अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्”  में ही पूरा इतिहास सूत्रबद्ध है। “इतिहास की अब तक की मान्य अवधारणा कितनी हास्यास्पद है जो वास्तविक संबंधों की उपेक्षा करती है तथा अपने को राजाओं तथा राज्यों के आडंबरपूर्ण नाटकों तक सीमित रखती है।” – मार्क्स की यह बात आज भी अधिकांश राजनीतिक व्याख्याकारों और इतिहासकारों पर लागू होती है। बस आज उन राजाओं की जगह नामित पार्टियों, नेताओं और संसदीय अखाड़े में उनकी नौटंकियों ने ले ली है। 

नाज़ी–फासीवादी प्रचार के जन–आकर्षण की नींव 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में यूरोपीय स्तर पर सामाजिक क्रांति के फैलाव की संभावनाओं पर भितरघाती और राजकीय दमन के नतीजे में दिखती है। प्रथम विश्वयुद्ध से बदहाल श्रमिक जनता, बेरोजगारी, गरीबी और पूंजीवादी संचय के विनाशकारी नतीजों के खिलाफ सोवियत व वर्कर्स कौंसिल जैसे समाजवादी अनुभवों में सामाजिक-आर्थिक संबंधों को पुनर्नियोजित कर पूंजीवादी अलगाव को मिटाकर श्रम-जीवन पर स्व-नियंत्रण (तमिल कम्युनिस्ट मलयपुरम सिंगरावेलु चेट्टियार की भाषा में “श्रम स्वराज”) की संभावना को देख रहे थे। परंतु मजदूर आंदोलन में निम्न–पूंजीवादी राजकीयवादी नेतृत्व ने राजसत्ता की प्रबंधक प्रणाली के अंग बनकर इन अनुभवों के क्रांतिकारी सामान्यीकरण (revolutionary generalisation) की गुंजाइश को नष्ट कर दिया। रोज़ा लुक्सेम्बुर्ग  और कार्ल लिबनेख्त जैसे विख्यात क्रांतिकारियों और मार्क्सवादी विचारकों की हत्या इस दौर में हुई।

फासीवाद यूरोप में क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन की राख पर पनपा था। सोवियत क्रांति ने विश्वभर में शोषित जनता के अंदर जिस उम्मीद को जगाई थी, उसके दमन ने फासीवादी दक्षिणपंथ को जन्म दिया। जैसा कि जर्मनी की महान क्रांतिकारी नेता क्लारा जेटकिन ने कहा था, “फासीवाद, पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा आक्रामकता के प्रतिशोध में पूंजीपति वर्ग का बदला नहीं है, बल्कि वह रूस में शुरू हुई क्रांति को जारी रखने में विफल रहने के लिए सर्वहारा वर्ग की सजा है।” इटली के कम्युनिस्ट विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने इसी बात को और गहनता से रखा – “संकट इस तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है और नये का जन्म नहीं हो सकता; इस अंतराल में विभिन्न प्रकार के रुग्ण लक्षण प्रकट होते हैं।” सामाजिक क्रांति के दमन ने जिन रुग्ण लक्षणों को जन्म दिया उनका ही एकीकृत रूप फासीवाद था। कम्युनिस्ट इंटरनैशनल के नेता ज्यॉर्जी दिमित्रोव ने साफ शब्दों में फासीवाद के आकर्षण के स्रोतों की तरफ इंगित किया था। उनके अनुसार वह  आम जनता की “सबसे फौरी जरूरतों और मांगों को लफ्फाजी के साथ पेश करता है। वह  न सिर्फ आम जनता में गहरे पैठे हुए पूर्वाग्रहों को प्रज्वलित करता है, बल्कि आम जनता की उदात्त भावनाओं को, उनके न्याय-बोध को, और कभी-कभी तो उनकी क्रांतिकारी परंपराओं को भी, उकसाता है।” वह अपने आपको “अन्याय के शिकार राष्ट्र के हित-रक्षक” के रूप में पेश कर “आहत राष्ट्रीय भावनाओं को सहलाता है”।”

राजनीतिक आर्थिक संकटों से जूझते पूंजीवाद को अपने आप को बनाए रखने के लिए आपातकालीन उपायों की जरूरत होती है। फासीवाद सामाजिक क्रांति की ऊर्जा के विस्थापन और उसकी राष्ट्रवादी घनीभूति के रूप में 20वीं सदी में पूंजीवादी पुनरुत्थान के लिए अवसर तैयार करने में कारगर रहा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, 1929 के मंदी के नतीजतन पूंजीवादी ह्रास से निजाद पाने के लिए फासीवाद ने नई राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  स्तरों पर विकसित करने का अवसर प्रदान किया। यही संस्थाएं द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी विस्तार को पुनर्नियोजित करने की आधारभूत संरचना बनी। प्रतिस्पर्धात्मक सैन्यीकरण और सैन्य-औद्योगिक परिसरों के प्रसार द्वारा वैश्विक पूंजीवादी संचय की प्रक्रिया को बनाए रखने की सीख फासीवाद ने ही दी (दानिएल गेरीं और फ्रांज़ नोएमन्न के प्रतिष्ठित कामों को देखें)। 

आज पूंजीवाद के नवोदारवादी दौर में, वित्तीयकरण और पूँजी परिपथ के भूमंडलीकरण ने अर्थतंत्र की नीति-आधारित राजकीय प्रबन्धन व्यवस्था को लगभग निरस्त कर दिया है, जिसके कारण मांग-आधारित संघर्षों की पुरानी संस्थाओं का असर कमजोर पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में बढ़ती अनिश्चितताओं, अलगाव और अति-प्रतिस्पर्धा से ग्रस्त सर्वहाराकृत, बेशीकृत और दरिद्रीकृत “व्यक्तियों” की भीड़, चरम-दक्षिणपंथी राजनीति का स्वाभाविक ग्राहक बन जाती है। राजसत्ता का काम महज इस भीड़ को पूंजीवादी यथास्थिति के हित में प्रबंधित करना है, उसके अंदर विद्यमान वर्गीय आत्म-मुक्ति की प्रच्छन्न प्रक्रियाओं और संभावनाओं को खंडित कर कुंद करना है। यही नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र और नवोदारवाद के तहत राजसत्ता का न्यूनतमीकरण (minimisation of the state) है। और  इसी अर्थ में चरम दक्षिणपंथ का सतत योगदान होता है। आज विश्व भर में चरम–दक्षिणपंथी राजनीति का फैलाव दिखाता है कि पूंजीवादी  राजनीतिक व्यवस्था वैश्विक स्तर पर संकट में है। चरम–दक्षिणपंथ संकट का लक्षण है और साथ ही वह संकटग्रस्त निवारण है। 

यूरोप में आज जो सोच समूचे दक्षिणपंथ को (उसके रूढ़िवादी, चरम और फासीवादी रूपों को) परिभाषित करती है और एक साथ लाती है, वह है उनका तीव्र अति-राष्ट्रवादी, नस्लवादी प्रवासी-विरोध, जिसने पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजसत्ता की उदारवादी नींव को खतरे में डाल दिया है — नागरिकता के अधिकार को इनकी राजनीति लगातार विशेषाधिकार के रूप में पेश करती रही है। यह प्रवासी-विरोध विश्व पूंजीवाद के खिलाफ विरोध को कमजोर करता है। और यही बात इस राजनीति को पूंजीवाद के संकट के दौर में आकर्षक बनाती है। 

परंतु भारत के चुनाव में क्या हुआ? बात सही है कि मोदी कमजोर पड़े मगर हारे नहीं। लेकिन जब विश्व में हर जगह चरम दक्षिणपंथ की साख बढ़ रही है, तो विश्वगुरु की यह गति क्यों? क्या हुआ कि आरएसएस के प्रचारक राम माधव जो 28 अप्रैल को “भारत को वैश्विक रूढ़िवादी आंदोलन का नेतृत्व” करने की बात कह रहे थे, वो अब (13 जुलाई को) बहुवाद और भिन्नता का आदर करते हुए भारतीय और पाश्चात्य रूढ़िवादियों के बीच सहयोग ढूंढ रहे हैं? कहाँ गई विश्वगुरु की हेकड़ी?

भारतीय चुनाव – बदले–बदले मेरे सरकार नजर आते हैं!

भारत के 2024 के चुनावी नतीजे ने चुनावोत्तर संसदीय राजनीति को शायद रोचक बना दिया है। मोदी के नेतृत्व में सरकार फिर से गठित हो गई है, मगर कमजोर बहुमत के साथ। दूसरी तरफ विपक्ष की जमीन थोड़ी फैली है, और उन्हें एहसास हो रहा है कि उन्हें राजनीतिक पहचान मिल गई है। परंतु बदला क्या है? ज्यादातर गंभीर व्याख्याकारों का मानना है कि सरकार के काम के तरीके और तेवर में कोई खास बदलाव नहीं होगा – बल्कि भाजपा नेताओं के प्रतिहिंसक रवैये में बढ़ोत्तरी हो सकती है। चुनाव के बाद के पहले संसदीय सत्र में ऐसा ही देखने को मिला – एक तरफ अगर विपक्ष का आत्मविश्वास बढ़ा है, तो दूसरी तरफ भाजपाइयों की कुंठित प्रवृत्ति ने तीव्र रूप लिया है। कुछ भाजपा सांसदों ने तो अपनी कुंठा अपने इलाके के मतदाताओं पर निकालनी शुरू कर दी है। जिस रूप में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (जहां अयोध्या है) की जनता को हिन्दू-विरोधी रामद्रोही कहा जा रहा है वह भी यही दर्शाता है। बीजेपी के बंगाल के नेता शुभेन्दु अधिकारी ने तो मोदी के “सबका साथ सबका विकास” के नारे को तिलांजलि देकर “जो हमारे साथ, हम उनके साथ” का नारा लगाने की बात कही है। आर्थिक नीति के क्षेत्र में, सीपी चंद्रशेखर (24 जून फ्रंटलाईन) के अनुसार , “हालाँकि आर्थिक चिंताओं को दूर करने के लिए नई सरकार पर दबाव बढ़ रहा है, लेकिन दीर्घस्थायी राजनीतिक उद्देश्य महत्वपूर्ण नीतिगत बदलावों में बाधा बन सकते हैं।”

कई व्याख्याकार इस बार के चुनावी नतीजे को राष्ट्रीय पटल पर क्षेत्रीय शक्तियों और गठबंधन राजनीति के पुनरागमन के रूप में देखते हैं। पिछले एक दशक से चल रहे सत्ता के केंद्रीकरण पर इस चुनाव ने रोक लगा दिया है। यह सच है कि मोदी सरकार इस बार एनडीए के अन्य घटकों पर निर्भर है, और विपक्ष की मजबूती भी कांग्रेस के साथ बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के आपसी तालमेल पर निर्भर है। अवश्य ही क्षेत्रीय दलों के महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना होगा, परंतु सत्ता केंद्रीकरण की प्रवृत्ति से ये क्षेत्रीय दल भी अछूते नहीं हैं। बंगाल की ममता सरकार या आंध्रप्रदेश में नायडू सरकार का इतिहास निरंकुशता और केंद्रीकरण के मामले में भाजपा से कम नहीं रहा है। ऐसी स्थिति में मोदी सरकार के निरंकुश व्यवहार पर लगाम लगाने के लिए दलीय दांवपेच नाकाफी होगी। बैसाखी का इस्तेमाल डंडे के रूप में भी हो सकता है अथवा उसके अंदर भाले भी छुपे हो सकते हैं। या फिर किसी और के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने वाली बात भी हो सकती है। 

जहां तक भाजपा/आरएसएस के एजेंडे का सवाल है, वह किसी न किसी रूप में सामने आएगा, सरकारी स्तर पर जो ढीला प्रतीत होगा उसे सांगठनिक स्तर पर सुलझाने की कोशिश होगी। इस चुनाव के नतीजे के बाद, सरकार द्वारा ऊपर से थोपे हुए एजेंडे से बेहतर है नीचे से सर्वसम्मति पैदा की जाए, जिसके लिए आरएसएस के सांगठनिक नेटवर्क से अच्छा कुछ नही है। कुछ लोग आरएसएस प्रमुख और अन्य प्रभारियों के बयानों में मोदी और संघ के बीच फासले को देख रहे हैं – जिसमें मोदी की तुलना में संघ ज्यादा नैतिक प्रतीत होता है। इस तरह के बयान और उन पर व्याख्याएं संघी विचारधारा को सामाजिक–सांस्कृतिक स्तर पर सामान्य बनाने का काम करती हैं। इस तरह के कथित और कल्पित फासले की अफवाह संघ द्वारा अपने लिए जगह बनाने में काम करते हैं, जो संसदीय राजनीतिक दायरे में भाजपा को ही मजबूत करेगा। 

जो सीटों के आधार पर दक्षिणपंथ की सामाजिक राजनीतिक पकड़ को आँकते हैं उन्हें इस बार के चुनावी आंकड़ों को ध्यान से देखना चाहिए। योगेंद्र यादव और उनके साथियों के अनुसार (द प्रिन्ट, 11 जून) बीजेपी के वोट प्रतिशत में मामूली गिरावट आई है — ओडिशा में ऐतिहासिक जीत के साथ-साथ, केरल, पंजाब, तमिलनाडु और आंध्र में उसने बढ़िया प्रदर्शन किया है। बीजेपी ने देश के हर राज्य में दोहरे अंकों के वोट प्रतिशत पाकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी निर्विवाद उपस्थिति दर्ज की है। वे यह भी कहते हैं कि इस बार दो विभिन्न बीजेपी चुनावी मैदान में थे —  शासक बीजेपी और दावेदार बीजेपी। उनके अनुसार शासक बीजेपी को गंभीर चुनावी उलटफेर का सामना करना पड़ा, जबकि दावेदार बीजेपी का चुनावी प्रदर्शन बढ़िया रहा। इसका स्वाभाविक अर्थ है कि इस चुनाव को दावेदारों ने जीता है — यानि इस बार का चुनाव परिणाम अधिकांशतः यथास्थिति के खिलाफ था — उसका निषेधात्मक चरित्र था। संसदीय चुनाव के सीमित दायरे में सत्ता को इसी तरह से ठुकराया जा सकता है। ब्लूमबर्ग (जून 5) के पत्रकारों के अनुसार —  “मोदी के समर्थन का पतन [विशेषकर उत्तर प्रदेश में], दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक में पीछे रह गए लाखों लोगों के सामूहिक विद्रोह के समान था।” 

हाल के दशकों में भारत में उम्मीद के आधार पर शायद ही चुनाव जीते गए हैं। जनता ने किसी प्रकार की राजनीति पर विश्वास कर के उन्हें नहीं चुना है, उसने हर चुनाव में अपनी तंगी को महसूस कर, सरकारों और पार्टियों को सबक सिखाने का काम किया है। “दावेदारों” को जो फायदा हो रहा है, वह अंततः उनकी मेहनत या जनता का उनपर विश्वास से ज्यादा, जनता की आम उदासीनता और गुस्से का नतीजा है। 2014 के गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में इस गुस्से की ओर साफ इंगित किया था — राजनीतिज्ञों द्वारा लोकतंत्र में निहित “पवित्र भरोसे” (sacred trust) के तोड़े जाने के कारण “सड़क से हताशा के स्वर” सुनाई दे रहे हैं। इस पवित्र भरोसे के टूटने से मोहभंग होता है, “जिससे क्रोध भड़कता है तथा इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है : सत्ताधारी वर्ग।” 2014 में मोदी सरकार के गठन में इसी क्रोध का योगदान था। नवोदारवादी दौर में पूंजीवादी राजसत्ता के लिए एक ही काम तय है — कि इस गुस्से की ऊर्जा को वह पूँजी के हित में उत्पादक बनाए। अंधा राष्ट्रवाद, धार्मिक उन्माद और मोदी-शाह का दबंग मनमानापन कुछ हद तक इस गुस्से को बांधने में कारगर होते हैं, परंतु संकट गहरा है — राजसत्ता के पास भरोसा पैदा करने के हथकंडे कम होते जा रहे हैं।  पहचानों के आधार पर भारत की (अल्परोजगारी और बेरोजगारी से ग्रस्त) मेहनतकश जनता को लामबंध कर विभाजित और प्रतिस्पर्धा में रखने की सीमा है — वर्गीय प्रक्रियाएं भूमिगत ही सही ऐन मौकों पर रंग दिखला ही देती हैं। मोदी ने चुनाव के दौरान धनाढ्य मध्यम वर्ग और पूंजीपति वर्ग की बेचैनी को धन-पुनर्वितरण के सवाल पर जिस रूप से आम जनता पर थोपना चाहा, वह राजसत्ता के वर्गीय चरित्र को पूरी तरह से नंगा करता है।  सामूहिक विद्रोह जो हम लगातार देख रहे हैं, उसने सत्ताधारी शक्तियों और उनके पोशक वर्गों को बेचैन कर दिया है  — चाहे कोविड महामारी के दौरान लाखों मजदूरों की घर वापसी हो, जो कि भारतीय राजतंत्र की अमानवीय निरंकुशता केखिलाफ खामोश बगावत थी, या फिर 2020-21 का किसान आंदोलन जिसने मोदी सरकार के मानमानेपन की धज्जियाँ उड़ा दीं। इस प्रकार की सामूहिकता शासन व्यवस्था को सबसे बड़ी चुनौती है, और यही दक्षिणपंथ पर भी लगाम लगाने का काम करती है। हम आज फ्रांस में भी यही देख रहे हैं । 

सामूहिकता सत्ता के गलियारे की दासी नहीं है, वह निर्बाध गंगा है — वही है जो सत्ता को पैदा करती  है और अपने मौज में उसे बहा देती है। सामूहिकता से सत्ता पैदा होती है और जब बेलगाम हो सत्ता उसी के सिर पर नाचने लगती है तो फिर एक बार विद्रोह की आग की जरूरत होती है उसे भस्म करने के लिए। भारत में नवोदारवादी पूंजीवाद की आधार-संरचना के विकास में सभी राजनीतिक पार्टियों का योगदान रहा — जो उसके लक्षणों और प्रभावों का विरोध भी करते रहे, वे सत्तासीन हो या सत्ता के करीब हो या फिर उसके साथ वार्तालीन हो, नवोदारवादी प्रक्रिया के साधन बन गए। संसदीय और राजकीयवादी राजनीति द्वारा वित्तीयकृत और सूचनाकृत पूँजी पर लगाम लगाने की सोच रखने वाले कीन्सवादी राजकीयवादी विरह (nostalgia) के शिकार हैं। विश्व के अधिकांश संसदीय वामपंथ इसी विषाद में जीते हैं और सत्ता के संघर्ष में उनकी दुर्गति ही होती है — लातिन अमरीका के कई देशों के, यूनान में सीरीज़ा के अनुभव इसी ओर इंगित करते हैं। जो सामूहिक विद्रोह उन्हें सत्तासीन करती है, अंततः उसी विद्रोह को उन्हें नियंत्रित करना होता है — और यही आधार बनता है चरम-दक्षिणपंथ के फैलाव का — ब्राजील में बोल्सोनारो, अर्जेन्टीना में हावियेर मिलेइ, इत्यादि। आखिरकार, जैसा कि हेगेल ने इतिहास के दर्शनशास्त्र पर अपने व्याख्यानों में बताया था, “अनुभव और इतिहास यही सिखाता है — कि लोगों और सरकारों ने कभी भी इतिहास से कुछ नहीं सीखा है।” इस पूंजीवादी राजनीतिक चक्रव्यूह को भेदने का एक ही जरिया है — वह है इन चक्रव्यूहों के आधारभूत सामाजिक संबंधों, जो सत्ता को जनता से अलग कर उसे सत्ताधीन रखते हैं, पर क्रांतिकारी वार! 

इस्राएल/फिलिस्तीन, बेशी आबादी और पूँजी (Israel/Palestine, Surplus Population and Capital)


मोर्चा पत्रिका

  1. मध्य पूर्व का संकट साल-दर साल बना रहता है, परंतु समय के साथ उसका चरित्र और उसके गुण बदलते रहते हैं, जिनकी समझ केवल विद्यमान राजनीतिक संकटकाल को गढ़ते शक्तियों और प्रक्रियाओं के पहचान द्वारा ही संभव हो सकती है। स्थिति की निरंतर विस्फोटकता की वजह से और तात्कालिक कार्रवाइयों और नतीजों के फेर में इस बदलाव को हम समझ नहीं पाते, हम संकट को क्रूर नित्यता मान बैठते हैं। जबकि यहाँ तक कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद और क्षेत्रीय राजसत्ताओं का इस साम्राज्यवादी नेटवर्क में निवास का तथ्य नित्य होते हुए भी, पूंजीवाद की अपनी संकटपूर्ण गतिकी के कारण उस साम्राज्यवाद का चरित्र और उसके अंतर्विरोध विकसित होते रहते हैं। अरब की जनता का कभी गुप्त कभी खुला प्रतिरोध जो कभी थमा ही नहीं इस गतिकी की निरंतरता को तोड़ता रहा है और वैश्विक व क्षेत्रीय शासक वर्गों और राजसत्ताओं के लिए संकट पैदा करता रहा है। पूंजीवाद के वैश्विक राजनीतिक अर्थतन्त्र की दिशा को उसे इन जन क्रियाओं से अलग कर नहीं समझा जा सकता, और दूसरी ओर इन क्रियाओं की व्याख्या व्यवस्थापरक संदर्भ के बगैर असंभव है। पिछले दशक के अरब वसंत से लेकर वर्तमान के फिलिस्तीनी बगावत का पूंजीवादी गतिकी के साथ अभिन्न रिश्ता है।
  2. पिछले कई दशकों से मध्य पूर्व के संकट या संकटों के केंद्र में कहीं न कहीं, सरकारी-अखबारी भाषा में कहें तो, “इस्राएल-फिलिस्तीन जंग” रहा है। हालांकि यह नामांकरण पूर्णतः आइडियोलॉजिकल अथवा विशेष मत-आधारित है — वह क्षेत्रीय संघर्ष का समस्याग्रस्त फ्रेमिंग करता है। एक तरफ यह नाम पूरे संघर्ष को दो बराबर स्वायत्त देशों या राज्यों के बीच टेरिटोरीअल संघर्ष के रूप में प्रदर्शित करता है, जिसमें फिलिस्तीन अवश्य ही एक ऐसा राज्य लगता है जो अंदरूनी रूप से विभाजित है। दूसरे, इस प्रकार की परिभाषा फिलिस्तीन पर कब्जे के ऐतिहासिक-मौलिक तथ्य को पूरी तरह से नजरंदाज कर देती है। और तीसरे, नतीजे के तौर पर फिलिस्तीनी जन-प्रतिरोध महज चिह्नित संगठित शक्तियों की स्वैच्छिक कार्रवाइयाँ नजर आता है, जिन्हें बहुत आसानी से आतंकवादी घोषित किया जा सकता है।
  3. जो लोग इस्राएल-फिलिस्तीन के मसले को केवल राजकीय समझौतों, शांति और फ़िलिस्तीन की क्षेत्रीय स्वतंत्रता के सवाल के रूप में देखते हैं, वे वर्ग और पूँजी की प्रक्रियाओं से उसको काटकर राष्ट्र और मजहब के आधार पर — इस्राएल/यहूदी बनाम फिलिस्तीनी/मुस्लिम — परिभाषित करते हैं। यह समझ शांतिवादियों और फिलिस्तीन-समर्थकों को साम्राज्यवादियों और राजसत्ताओं के साथ खड़ा कर देती है जिनकी नजर में मसले का समाधान महज दो अलग-अलग राज्य हैं। परंतु इस समाधान के लिए जो क्षेत्रीय आधार हो सकता था उसे इस्रायली राजसत्ता ने दीवारों, राजमार्गों, चौकियों के निर्माण और उपनिवेशीकरण के नवीनतम उपकरणों के साथ वेस्ट बैंक और ग़ाजा पट्टी में लगातार “सेटलर्स” द्वारा ध्वस्त किया है। शायद फिलिस्तीनी-अमरीकी इतिहासकार रशीद खालिदी का यही तात्पर्य है जब वह कहते हैं कि जॉर्डन नदी और भूमध्य सागर के बीच केवल एक राज्य है, जिसकी सीमाओं के भीतर नागरिकता या गैर-नागरिकता के दो या तीन स्तर हैं।
  4. नवोदारीकरण और पूंजीवादी भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं ने इस्राएल के औपनिवेशिक तौर-तरीकों को और पाश्चात्य साम्राज्यवाद के साथ के उसके रिश्तों को नए अर्थ प्रदान किए हैं। इस्राएल की औपनिवेशिक नीतियाँ विश्व के तमाम उपनिवेशों से बिल्कुल अलग रही हैं — शुरू से ही स्वदेशी लोगों की श्रम शक्ति के शोषण पर आधारित होने के बजाय, उन नीतियों ने उनका बहिष्कार और उन्हें ख़त्म करने की कोशिश की। तब भी आँकड़े बताते हैं कि 1960 के उत्तरार्द्ध से हजारों की संख्या में फिलिस्तीनी श्रमिक कानूनी व गैर-कानूनी ढंग से इस्राएल में काम करते रहे हैं — यहाँ तक कि 1970 के दशक में फिलिस्तीनी श्रमिकों की लगभग एक तिहाई आबादी इस्राएल में काम करती थी। लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत से, “विदेशी” श्रम ने बड़े पैमाने पर फिलिस्तीनी श्रम का स्थान ले लिया है। 2023 के आँकड़े बताते हैं कि फिलिस्तीन में बेरोजगारी दर 25 प्रतिशत के आसपास है, जबकि केवल गाज़ा पट्टी में यह 46.4 प्रतिशत है। यह साबित करता है कि फिलिस्तीनी आबादी के बेशीकरण की प्रक्रिया को केवल इस्राएल के “सेटलर उपनिवेशवाद” के नतीजे के तौर पर नहीं समझा जा सकता, उससे कहीं अधिक वैश्विक पूंजीवाद की गतिशीलता कारण रही है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि फ़िलिस्तीनियों की दुर्दशा के लिए इस्राएली राज्य ज़िम्मेदार है; परंतु इस्राएली राजसत्ता और समाज की प्रवृत्तियों को वैश्विक पूंजीवाद की प्रक्रियाओं के भीतर स्थापित देखना होगा।
  5. दूसरी ओर जैसा कि इस्राएली मार्क्सवादी डैनी गुटवाइन बताते हैं कि पिछले तीन दशकों में जिन दो मुख्य प्रक्रियाओं ने इस्राएली समाज के चरित्र को आकार दिया है वह है निजीकरण और कब्जा (Occupation)। इन दोनों प्रक्रियाओं की अंतर्निहित परस्पर निर्भरता ने इस्राएली दक्षिणपंथ के राजनीतिक तर्क को सहारा दिया है और उसके आधिपत्य को बढ़ाया है। इस्राएली कल्याणकारी राज्य का पतन और कल्याण सेवाओं के निजीकरण और व्यवसायीकरण ने सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ाया है जिसका सबसे ज्यादा असर निम्न वर्गों पर पड़ा है। कल्याणकारी राज्य के इस पतन ने फिलिस्तीनी क्षेत्रों में कब्जों और उनके नतीजों को क्षतिपूर्ति के रूप में प्रोत्साहित किया है। निजीकरण ने निम्न वर्गों का राजनीतिक दक्षिणपंथ के साथ संबंध को मजबूत किया है, और कब्जे के समर्थन में सामाजिक और राजनीतिक आधार तैयार किया है।
  6. नवोदार पूंजीवाद ने इस दौर में एक तरफ यदि आबादियों की बेशीकरण की प्रक्रिया को तेज किया है, तो दूसरी तरफ इस बेशीकृत आबादी को नियोजित करने के लिए निगरानी और दमन के तरीकों और तकनीकों का अभूतपूर्व विकास किया है। इसी ने आज विश्व भर में सैन्य-औद्योगिक परिसरों (मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स) और कारागार-औद्योगिक परिसरों (प्रिज़न-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स) के स्फूर्त प्रसार को सहारा दिया है। इस्राएल/फिलिस्तीन का इलाका, समाज और वहाँ के संघर्ष विश्व पूंजीवाद के लिए बने बनाए मॉडेल ‘प्रयोगशाला’ को प्रदान करते हैं। ऑस्ट्रेलियाई-जर्मन पत्रकार एंटनी लोवेन्स्टाइन के अनुसार “इस्राएल का सैन्य औद्योगिक परिसर कब्जे वाले फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों को हथियार और निगरानी तकनीक के परीक्षण स्थल के रूप में उपयोग करता है जिसे वह दुनिया भर में तानाशाहों और लोकतंत्रों को निर्यात करता है। 50 से अधिक वर्षों से, वेस्ट बैंक और गाजा पर कब्जे ने इस्राएली राज्य को ‘दुश्मन’ आबादी, फिलिस्तीनियों को नियंत्रित करने का अमूल्य अनुभव दिया है।” भारत में मोदी सरकार इस्राएल के इसी गुण को अपनाना चाहती है।
  7. इस बार इस्राएल की अत्याधुनिक सर्विलेंस मशीनरी को फ़िलिस्तीनियों के दैनिक सर्वहाराकृत अस्तित्व की क्रूरता से निकले प्रतिरोध की आकस्मिकता और आक्रामकता ने झकझोर दिया है। अक्टूबर 7 को हमास द्वारा शरू किया गया ऑपरेशन तूफान अल-अक्सा ने इस्राएल की सैन्य सुरक्षा और खुफिया तंत्र की मुस्तैदी और उसके आत्मविश्वास को अवश्य ही हिला दिया। इस्राएल ने यहूदियों की प्रताड़ना के ऐतिहासिक तथ्य का इस्तेमाल कर जो निरंतर उत्पीड़ित होने के मिथक के आधार पर राष्ट्रवाद का निर्माण किया है, वह ऐसा चश्मा है जो वहां की जनता को अमानवीय सैन्यवादी तंत्र में बांध मध्य पूर्व और ग्लोबल साउथ में विश्व पूंजीवादी हितों के चौकीदार की भूमिका में डाल देता है। अरब और दक्षिण के देशों में इस्राएल की रक्षा के नाम पर साम्राज्यवादी गठजोड़ निरंतर हस्तक्षेप कर सकते हैं। अक्टूबर 7 की घटना ने इन सम्राज्यवादी ताकतों को भी धक्का दिया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में बनती वैश्विक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को भी अनिश्चित कर दिया है। उसने एक बार फिर वैश्विक राजकीय व्यवस्था (ग्लोबल स्टेट सिस्टम) के स्थायित्व और उसकी निश्चितता को झूठा साबित कर दिया है, जिस व्यवस्था के जरिये जमीनी प्रतिरोधों को स्थानीयता में बांध कर उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रतिस्पर्धा में मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। प्रतिरोध का दमन अथवा यंत्रीकरण प्रतिरोध के नए रूप जनते हैं, उसका नाश नहीं कर सकते। फिलिस्तीनी संघर्ष इसका गवाह है।

सच्चाई लिखने में पाँच कठिनाइयाँ 


बर्तोल्त ब्रेख्त

मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट) 

आजकल, जो कोई भी झूठ और अज्ञानता का मुकाबला करना चाहता है और सच लिखना चाहता है उसे कम से कम पांच कठिनाइयों को पार करना होगा। जब सत्य का हर जगह विरोध हो रहा हो, उसमें सत्य लिखने का साहस होना चाहिए; हालांकि सच्चाई हर जगह छिपी हुई है, उसे पहचानने का चातुर्य होना चाहिए; उसे एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल होना चाहिए; जिनके हाथ में यह प्रभावी होगा उनका चुनाव करने का विवेक होना चाहिए; और ऐसे लोगों के बीच सच्चाई फैलाने की चालाकी होनी चाहिए। ये फ़ासीवाद के तहत जीने वाले लेखकों के लिए विकट समस्याएँ हैं, लेकिन ये उन लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जो भाग गए हैं या निर्वासित हो गए हैं; वे उन देशों में काम करने वाले लेखकों के लिए भी मौजूद हैं जहां नागरिक स्वतंत्रता विद्यमान है।

1 सच लिखने का साहस

यह बात स्वाभाविक ही लगती है कि जो भी लिखता है उसे सत्य को इस अर्थ में लिखना चाहिए कि वह सत्य को न दबाए या छिपाए या जानबूझकर असत्य न लिखे। उसे बलवानों के सामने झुकना नही चाहिए और न ही कमजोरों के साथ विश्वासघात करना चाहिए। बेशक, शक्तिशाली के सामने न झुकना बहुत कठिन है, और कमजोर को धोखा देना बहुत फायदेमंद है। कब्जा करने वालों को अप्रसन्न करने का अर्थ है वंचितों में से एक हो जाना। काम के लिए भुगतान का त्याग करना काम छोड़ने के बराबर हो सकता है, और शक्तिशाली द्वारा प्रसिद्धि की पेशकश को अस्वीकार करने का मतलब हमेशा के लिए इसे अस्वीकार करना हो सकता है। यह साहस लेता है।

चरम उत्पीड़न के समय आमतौर पर ऐसे समय होते हैं जब महानता और बुलंदी के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। ऐसे समय में श्रमिकों के लिए भोजन और आश्रय जैसी निम्न और नीच बातें लिखने के लिए साहस की आवश्यकता होती है; जब बाकी हर कोई बलिदान की महत्ता के बारे में शेखी बघार रहा हो तो साहस की आवश्यकता होती है। जब किसानों पर सभी प्रकार के सम्मानों की बौछार की जाती है, तो मशीनों और अच्छे पशु चारा की बात करने में साहस की जरूरत होती है, जो उनके सम्मानजनक श्रम को हल्का कर देगा। जब हर रेडियो स्टेशन यह कह रहा हो कि ज्ञान या शिक्षा के बिना एक आदमी पढ़े-लिखे व्यक्ति से बेहतर है, तो यह पूछने का साहस चाहिए: किसके लिए बेहतर है? जब सारी बातें उत्तम और सदोष जातियों की होती हैं, तो यह पूछने के लिए साहस की आवश्यकता होती है कि क्या यह भूख और अज्ञानता और युद्ध नहीं है जो विकृतियाँ पैदा करते हैं।

और अपने बारे में, अपनी हार के बारे में सच बोलने के लिए भी साहस चाहिए। कई सताए हुए लोग अपनी गलतियों को देखने की क्षमता खो देते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि अत्याचार ही सबसे बड़ा अन्याय है। उत्पीड़क केवल इसलिए दुष्ट हैं क्योंकि वे सताते हैं; सताए हुए लोग अपनी भलाई के कारण पीड़ित होते हैं। लेकिन यह अच्छाई पिट गई, हार गई, दबा दी गई; इसलिए यह एक कमजोर अच्छाई थी, एक बुरी, असमर्थनीय, अविश्वसनीय अच्छाई। क्योंकि यह मान लेने से काम नहीं चलेगा कि अच्छाई कमजोर होनी चाहिए क्योंकि बारिश गीली होनी चाहिए। यह कहने के लिए साहस चाहिए कि अच्छे इसलिए नहीं हारे कि वे अच्छे थे, बल्कि इसलिए हारे कि वे कमजोर थे।

स्वाभाविक रूप से, असत्य के साथ संघर्ष में हमें सत्य लिखना चाहिए, और यह सत्य उदात्त और अस्पष्ट सामान्यता (generality) नहीं होनी चाहिए। जब किसी के बारे में कहा जाता है, “उसने सच बोला,” तो इसका तात्पर्य है कि कुछ लोगों ने या बहुत से लोगों ने या कम से कम एक व्यक्ति ने सत्य के विपरीत – झूठ या सामान्य – कुछ कहा, लेकिन उसने सच कहा, उसने कुछ व्यावहारिक, तथ्यात्मक कहा, निर्विवाद, बेटूक बात कही।

दुनिया के उस हिस्से में जहां अभी भी शिकायत की अनुमति है, दुनिया की दुष्टता और बर्बरता की जीत के बारे में एक सामान्य शिकायत को बुदबुदाने या मानव आत्मा की जीत सुनिश्चित होने के बारे में निर्भीक चीत्कार करने के लिए बहुत कम साहस की जरूरत होती है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो दिखावा करते हैं कि तोपों का लक्ष्य उन पर है जबकि वास्तव में वे केवल थिएटर के दूरबीनों के लक्ष्य हैं। वे दोस्तों और हानिरहित व्यक्तियों की दुनिया में अपनी सामान्यीकृत मांगों को चिल्लाते हैं। वे एक सामान्यीकृत न्याय पर जोर देते हैं जिसके लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया; वे सामान्यीकृत स्वतंत्रता की मांग करते हैं और उस लूट का हिस्सा मांगते हैं जिसका उन्होंने लंबे समय से आनंद उठाया है। वे सोचते हैं कि सत्य वही है जो सुनने में अच्छा लगता है। यदि सत्य कुछ सांख्यिकीय, शुष्क, या तथ्यात्मक हो, जिसे खोजना मुश्किल हो और उसके लिए अध्ययन की आवश्यकता हो, तो वे उसे सत्य के रूप में नहीं पहचानते; वह उन्हें नशा नहीं देता। उनके पास केवल सत्य बताने वालों का बाहरी आचरण है। उनके साथ कठिनाई यह है कि वे सत्य को नहीं जानते।

2 सत्य को पहचानने का चातुर्य

चूँकि सत्य को हर जगह दबाये जाने के कारण लिखना कठिन होता है, इसलिए अधिकांश लोग सोचते हैं कि सत्य का लिखा या न लिखा जाना महज विश्वास पर निर्भर करता है। उनका मानना है कि इसके लिए केवल साहस ही काफी है। वे दूसरी बाधा भूल जाते हैं: सत्य को खोजने की कठिनाई। यह दावा करना असंभव है कि सच्चाई आसानी से पता चल जाती है।

सबसे पहले हम यह निर्धारित करने में परेशानी का सामना करते हैं कि कौन सा सच कहने लायक है। उदाहरण के लिए, पूरी दुनिया की आंखों के सामने एक के बाद एक महान सभ्य राष्ट्र बर्बरता की गिरफ्त में आ रहे हैं। इसके अलावा, हर कोई जानता है कि सर्वाधिक खतरनाक तरीकों से छेड़ा जा रहा घरेलू युद्ध किसी भी समय एक विदेशी युद्ध में परिवर्तित हो सकता है जो हमारे महाद्वीप को खंडहरों का ढेर बना सकता है। यह, निस्संदेह, एक सच्चाई है, लेकिन अन्य भी हैं। उदाहरण के लिए, यह असत्य नहीं है कि कुर्सियों में सीटें होती हैं और बारिश नीचे की ओर गिरती है। कई कवि इस तरह की सच्चाई लिखते हैं। वे एक डूबते जहाज की दीवारों को अचल जीवन के साथ सजाने वाले चित्रकार की तरह हैं। हमारी पहली कठिनाई उन्हें परेशान नहीं करती और उनका विवेक स्पष्ट है। जो सत्ता में हैं वे उन्हें भ्रष्ट नहीं कर सकते, लेकिन न ही वे उत्पीड़ितों की कराहों से परेशान हैं; वे चित्र बनाते चले जाते हैं। उनके व्यवहार की संवेदनहीनता उनमें एक “गहरा” निराशावाद पैदा करती है जिसे वे अच्छी कीमतों पर बेचते हैं; फिर भी ऐसा निराशावाद उसके लिए अधिक उपयुक्त होगा जो इन उस्तादों और उनकी बिक्री को गौर से देखता है। साथ ही यह महसूस करना आसान नहीं है कि उनकी सच्चाई कुर्सियों या बारिश के बारे में सच्चाई है; वे आम तौर पर महत्वपूर्ण चीजों के बारे में सच्चाई की तरह लगते हैं। लेकिन करीब से जांच करने पर यह देखना संभव है कि वे बस यही कहते हैं: एक कुर्सी एक कुर्सी है; और: बारिश को गिरने से कोई नहीं रोक सकता।

वे उन सच्चाइयों की खोज नहीं करते जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। दूसरी ओर, कुछ ऐसे हैं जो केवल अति आवश्यक कार्यों से निपटते हैं, जो गरीबी को गले लगाते हैं और शासकों से नहीं डरते, और जो फिर भी सत्य को नहीं खोज पाते। इनमें ज्ञान का अभाव है। वे कुख्यात पूर्वाग्रहों के साथ, जिन्हें बीते दिनों में अक्सर सुंदर शब्दों में पिरोया जाता था, प्राचीन अंधविश्वासों से भरे हुए हैं। दुनिया उनके लिए बहुत जटिल है; वे तथ्यों को नहीं जानते; वे संबंधों को नहीं समझते। स्वभाव के अतिरिक्त, ज्ञान, जिसे प्राप्त किया जा सकता है, और विधियाँ, जो सीखी जा सकती हैं, की आवश्यकता है। उलझन और कौंधियाते परिवर्तन के इस युग में सभी लेखकों के लिए अर्थव्यवस्था और इतिहास की भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान पुस्तकों से और व्यावहारिक शिक्षा से प्राप्त किया जा सकता है, यदि यथोचित परिश्रम किया जाए। बहुत से सत्यों को सरल तरीके से खोजा जा सकता है — या कम से कम सत्यों के अंशों को, या ऐसे तथ्यों को जो सत्य की खोज की ओर ले जाते हैं। यदि कोई सत्य की खोज करना चाहता है, तो खोज की विधि होना अच्छा है, लेकिन कोई विधि के बिना भी खोज सकता है, वास्तव में, बिना खोजे भी उसे पा सकता है।  लेकिन इस बेतरतीब तरीके से शायद ही कोई सच्चाई की ऐसी प्रस्तुति हासिल हो पाएगी जिसके आधार पर लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए उसका पता जल जाए। जो लोग केवल छोटे-छोटे तथ्य दर्ज करते हैं वे इस दुनिया की चीजों को व्यवस्थित करने की स्थिति में नहीं हैं। मगर सत्य का तो प्रयोजन यही होता है, दूसरा कोई नहीं। ये लोग सच लिखने की चुनौती स्वीकारने के काबिल नहीं हैं।

यदि कोई व्यक्ति सत्य को लिखने के लिए तैयार है और उसे पहचानने में समर्थ है, तो तीन कठिनाइयाँ और रह जाती हैं।

3 सत्य को हथियार के रूप में बदलने का कौशल

सत्य को इस दृष्टि से बोलना चाहिए कि क्रिया के क्षेत्र में असर पैदा हो सके। एक उदाहरण जो हमें उस प्रकार के सत्य को दिखाता है जिससे कोई परिणाम क्या, गलत परिणाम भी नहीं निकाला जा सकता, वो है वह व्यापक धारणा जिसके अनुसार कुछ देशों में भयानक परिस्थितियाँ कायम हैं, जिसका कारण बर्बरता है। इस दृष्टि से, फासीवाद बर्बरता की एक लहर है जो प्राकृतिक आपदा के बल पर कई देशों में उतरी है।

इस दृष्टिकोण के अनुसार, फासीवाद पूंजीवाद और समाजवाद के बाद (और ऊपर) एक नई, तीसरी शक्ति है; न केवल समाजवादी आंदोलन बल्कि पूंजीवाद भी फासीवाद के हस्तक्षेप के बिना जीवित रह सकता था। बेशक, यह फासीवादी दावा है; इसे स्वीकार करना फासीवाद के प्रति समर्पण है। फासीवाद एक ऐतिहासिक चरण है जिसमें पूंजीवाद प्रवेश कर चुका है, और इस अर्थ में यह नया भी है और साथ ही पुराना भी। फासीवादी देशों में पूंजीवाद का अस्तित्व बना हुआ है, लेकिन केवल फासीवाद के रूप में; और फासीवाद का मुकाबला केवल पूंजीवाद के तौर पर, पूंजीवाद के सबसे नग्न, सबसे बेशर्म, सबसे दमनकारी और सबसे विश्वासघाती रूप के तौर पर किया जा सकता है।

लेकिन फासीवाद के बारे में कोई सच कैसे बोल सकता है, जब तक कि वह पूंजीवाद के खिलाफ बोलने को तैयार नहीं है, जो उसे पैदा करता है? ऐसे सत्य के व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?

जो लोग पूँजीवाद के विरुद्ध न होकर फ़ासीवाद के विरुद्ध हैं, जो बर्बरता से उत्पन्न बर्बरता पर विलाप करते हैं, वे उन लोगों के समान हैं जो बछड़े का वध किए बिना अपना बछड़ा खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाना तो चाहते हैं, परन्तु लहू को देखना उन्हें पसन्द नहीं। यदि मांस तौलने से पहले कसाई अपने हाथ धोता है तो वे आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं। वे संपत्ति संबंधों के खिलाफ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं; वे केवल बर्बरता के ही खिलाफ हैं। वे बर्बरता के खिलाफ आवाज उठाते हैं, और वे ऐसा उन देशों में करते हैं जहां वास्तव में वैसा ही संपत्ति संबंध प्रचलित है, लेकिन जहां कसाई मांस का वजन करने से पहले अपने हाथ धोते हैं।

बर्बर उपायों के खिलाफ आक्रोश तब तक प्रभावी रह सकता है जब तक श्रोताओं का मानना है कि ऐसे उपायों की उनके अपने देशों में कोई गुंजाइश नहीं है। कुछ देश अभी भी अपने संपत्ति संबंधों को उन तरीकों से बनाए रखने में सक्षम हैं जो अन्य देशों में उपयोग किए जाने वाले तरीकों की तुलना में कम हिंसक दिखाई देते हैं। लोकतंत्र अभी भी इन देशों में उन परिणामों को प्राप्त करने के लिए कार्य करता है जिनके लिए दूसरों में हिंसा की आवश्यकता होती है, अर्थात् उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की गारंटी देने के लिए। कारखानों, खानों और भूमि का निजी एकाधिकार हर जगह बर्बर स्थिति पैदा करता है, लेकिन कुछ जगहों पर ये स्थितियाँ तात्कालिक रूप में दृश्यमान नहीं हैं। बर्बरता तभी नजर आती है जब केवल खुली हिंसा से ही इस एकाधिकार की रक्षा की जा सकती है।

जिन्हें अभी तक, बर्बर एकाधिकार के लिए, कानून के शासन की औपचारिक गारंटी या कला, दर्शन और साहित्य जैसी सुख-सुविधाओं का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, वे देश विशेषतः उन मेहमानों को सुनने का आनंद लेते हैं जब वे अपनी मातृभूमि पर ऐसी सुख-सुविधाओं का परित्याग करने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि ये देश अपेक्षित युद्धों में इन बयानों से लाभान्वित होने की उम्मीद करते हैं। क्या हम कह सकते हैं कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है, जो, उदाहरण के लिए, जोर-शोर से जर्मनी के खिलाफ एक पुरजोर संघर्ष की मांग करते हैं “क्योंकि वह देश अब हमारे दिनों में अनिष्टता का सच्चा घर है, नरक का साथी, शैतान (antichrist) का निवास है”? बल्कि हमें यह कहना चाहिए कि ये मूर्ख और खतरनाक लोग हैं। इस बकवास से निकाला जाने वाला निष्कर्ष यही है कि चूंकि जहरीली गैस और बम दोषियों को नहीं चुनते हैं, इसलिए जर्मनी को खत्म कर देना चाहिए – पूरे देश और उसके सभी लोगों को।

विचारहीन मनुष्य, जो सत्य को नहीं जानता, अपने को सामान्यीकरणों (generalisations) में, ऊँची-ऊँची और अस्पष्ट भाषा में अभिव्यक्त करता है। वह ‘जर्मनों’ के बारे में निंदा करता है, वह दुष्टता के बारे में चिल्लाता है, और बहुत कोशिश करने के बाद भी उसका श्रोता नहीं जान पाता कि करना क्या है। क्या वह जर्मन नहीं होने का फैसला करेगा? यदि वह स्वयं अच्छा है तो क्या नरक मिट जाएगा? बर्बरता से आने वाली बर्बरता की बात भी इसी तरह की है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, बर्बरता बर्बरता से आती है, और सभ्य व्यवहार के माध्यम से समाप्त होती है, जो शिक्षा से आती है। ये सब बिल्कुल ही ऊपरी बातें हैं; ये कार्रवाई के हित में नहीं कही गईं है और वास्तव में किसी को संबोधित भी नहीं है।

इस तरह के विवरण कारणों की श्रृंखला में केवल कुछ कड़ियों की ओर इशारा करते हैं और कुछ प्रेरक बल को बेकाबू ताकतों के रूप में दर्शाते हैं । इन विवरणों में बहुत अधिक अस्पष्टता होती है, जो तबाही के कारक ताकतों को छुपाती है। मामले पर बस थोड़ा सा प्रकाश डालें, और अचानक विपत्तियों के पीछे मनुष्यों के दोष प्रकट हो जाते हैं! आखिर हम ऐसे युग में रहते हैं जहां मनुष्य की नियति मनुष्य ही है। 

फासीवाद कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है जिसे महज मानवीय “प्रकृति” के संदर्भ में समझा जा सकता है। लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के मामले में भी चित्रण के ऐसे तरीके हैं जो मनुष्यों के योग्य हैं क्योंकि वे प्रतिरोध करने की उनकी क्षमता को अपील करते हैं।

योकोहामा को नष्ट करने वाले एक बड़े भूकंप के बाद, कई अमेरिकी पत्रिकाओं ने खंडहरों का ढेर दिखाते हुए तस्वीरें प्रकाशित कीं। नीचे कैप्शन था ‘स्टील स्टूड’ (इस्पात खड़ा रहा), और वास्तव में, जिन्होंने भी, वे भी जिन्होंने पहले केवल खंडहर पर ध्यान दिया था, अब कैप्शन के कारण जब नजरें दौड़ाई तो उन्हें कई ऊंची इमारतों की बुलंदी दिखी। भूकंप के सभी संभव चित्रणों में अद्वितीय महत्व वाले वे हैं जो निर्माण इंजीनियरों के द्वारा तैयार किये गए हैं, जो जमीन के खिसकन, झटकों की तीव्रता, चढ़ती गर्मी आदि पर ध्यान देते हैं और जो भविष्य के निर्माण की ओर ले जाते हैं जो भूकंप का सामना करने के काबिल हैं। यदि कोई फासीवाद और युद्ध का, उन महान आपदाओं का जो प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं वर्णन करना चाहता है, तो उन्हें सत्य का एक व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करना चाहिए। उन्हें यह दिखाना होगा कि ये आपदाएँ संपत्ति रखने वाले वर्गों द्वारा उन श्रमिकों की विशाल संख्या को नियंत्रित करने के लिए शुरू की गई हैं जिनके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं। 

यदि बुरी परिस्थितियों के बारे में सत्य को सफलतापूर्वक लिखना है, तो उसे इस तरह लिखना होगा कि इन स्थितियों के परिहार्य कारणों को पहचाना जा सके। एक बार जब परिहार्य कारणों की पहचान हो जाती है, तो बुरी परिस्थितियों से लड़ा जा सकता है।

4 उन लोगों को चुनने का विवेक जिनके हाथों में सच्चाई प्रभावी होगी

विचारों और विवरणों के बाजार में लिखित वस्तुओं के व्यापार के सदियों पुराने रीति-रिवाजों के कारण, लेखक को लिखित पाठ के साथ क्या करना है, इस चिंता से राहत मिली; लेखक को यह विश्वास हुआ कि उसके ग्राहक या संरक्षक, बिचौलिये, उसके लेखन को सभी तक पहुँचा रहे हैं। लेखक ने सोचा: मैंने बोल दिया है और जो सुनना चाहते हैं वे मुझे सुनेंगे। सच तो यह है कि उसने बोला है और जो भुगतान करने में सक्षम हैं वे उसे सुनते हैं। उसने जो कहा वह सब ने नहीं सुना, और जिसने उसे सुना वह सब कुछ सुनना नहीं चाहता था। इस विषय पर पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है, हालाँकि यह अभी भी बहुत कम है; यहाँ मैं केवल इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि ‘किसी के लिए लिखना’ महज ‘लेखन’ में बदल गया है। लेकिन सत्य को केवल लिखा नहीं जा सकता, आपको इसे किसी व्यक्ति के लिए लिखना होगा, ऐसे व्यक्ति के लिए जो इसका उपयोग करने में सक्षम हो। सत्य को पहचानने की प्रक्रिया में लेखक और पाठक साझेदार हैं। अच्छी बातें कहने के लिए सुनने की क्षमता अच्छी होनी चाहिए और अच्छी बातें सुननी चाहिए। सत्य को हिसाब-किताब से बोलना चाहिए और हिसाब-किताब से सुनना चाहिए। और हम लेखकों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम किसे सच बताते हैं और कौन उसे हमें बताता है।

हमें भयानक परिस्थितियों के बारे में सच्चाई उन्हें बतानी चाहिए जिनके लिए हालात सबसे खराब हैं, और हमें उनसे सच्चाई सीखनी चाहिए। हमें न केवल उन लोगों से बात करने की आवश्यकता है जिनके पास विशेष विश्वास है, बल्कि उन लोगों से भी बात करने की आवश्यकता है जो अपनी स्थिति के कारण इन विश्वासों को साझा करते हैं। और आपके श्रोता लगातार बदलते रहते हैं! यहां तक ​​कि जल्लादों से भी बात की जा सकती है, जब फांसी के लिए भुगतान आना बंद हो जाता है, या जब खतरा बहुत बढ़ जाता है। बवेरिया के किसान हर तरह की क्रांति के खिलाफ थे, लेकिन जब युद्ध बहुत लंबा चला और घर आए बेटों को उनके खेतों में जगह नहीं मिली, तो उन्हें क्रांति के लिए जीतना संभव हो गया।

लेखक के लिए सत्य का सही तान पकड़ना महत्वपूर्ण है। आमतौर पर आप एक बहुत ही कोमल, उदास स्वर सुनते हैं, ऐसे लोगों का स्वर जो एक मक्खी को भी चोट नहीं पहुँचा सकते। इसको सुनकर, अभागे और भी अभागे हो जाते हैं। जो लोग इस तरह की बातें करते हैं वे आपके दुश्मन नहीं हो सकते, लेकिन वे निश्चित रूप से सहयोगी नहीं हैं। सत्य जुझारू है; यह न केवल झूठ के खिलाफ है, बल्कि झूठ फैलाने वाले खास लोगों के खिलाफ भी है।

5 बहुतों के बीच सच्चाई फैलाने में चालाकी 

बहुत से लोग गर्व करते हैं कि उनके पास सच बोलने का साहस है, वे खुश हैं कि उन्हें इसे खोजने में सफलता मिली है, वे शायद इसे व्यावहारिक रूप देने में लगी मेहनत से थक गए हैं और बेसब्री से उन लोगों द्वारा उस सत्य को ग्रहण करने का इंतजार कर रहे हैं, जिनके हितों की वे रक्षा करते आए हैं, वे सत्य का प्रसार करते समय विशेष चालाकी का उपयोग करना आवश्यक नहीं समझते हैं। इस प्रकार उनके काम का पूरा प्रभाव अक्सर शून्य हो जाता है। हर युग में जब भी सत्य को दबाया और छिपाया गया, तो उसे फैलाने के लिए चालाकी का सहारा लेना पड़ा है। कन्फ्यूशियस ने पुराने देशभक्तिपूर्ण पंचांग को पूरा नया रूप दे दिया था। उसने बस कुछ शब्दों को ही बदला। जहां उस पंचांग में लिखा था  “हुन के शासक ने दार्शनिक वान को मरवा डाला क्योंकि उसने ऐसा और वैसा कहा था,” कन्फ्यूशियस ने “मरवा डालने” की जगह पर “हत्या” शब्द लिख दिया।  जहां पंचांग में  लिखा था अमुक अत्याचारी की हत्या हुई, वहाँ हत्या की जगह पर उसने प्राणदंड लिख दिया। इस तरह कन्फ्यूशियस ने इतिहास की एक नई व्याख्या का रास्ता खोल दिया।

हमारे समय में जो कोई भी जनता/लोक (Volk) के स्थान पर जनसंख्या और मिट्टी अथवा भूमि के स्थान पर भू-स्वामित्व कहता है, वह इस सरल कार्य द्वारा बहुत सारे झूठों से अपना समर्थन वापस ले लेता है। वह इन शब्दों से उनके सड़े हुए, रहस्यमय निहितार्थ को निष्कासित कर देता है। जनता/लोक (Volk) शब्द का तात्पर्य निश्चित एकता और विशेष सामान्य हितों से है; इसलिए इसका उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब हम बहुत से लोकसमूहों की बात कर रहे हों, क्योंकि केवल तभी समुदाय के हित की कल्पना की जा सकती है। किसी दिए गए क्षेत्र की आबादी के कई अलग-अलग और यहां तक कि विरोधी हित भी हो सकते हैं- और यह एक सच्चाई है जिसे दबाया जा रहा है। इसी प्रकार जो भी मिट्टी की बात करता है और जुताई से नाक और आंखों पर पड़ने वाले प्रभाव का सजीव वर्णन करता है, मिट्टी की गंध और रंग पर जोर देता है, वह शासकों के झूठ का समर्थन कर रहा है। मिट्टी की उर्वरता का सवाल नहीं है, न ही मिट्टी के लिए लोगों के प्यार का, न ही उनके उद्यम का; सबसे महत्वपूर्ण बात अनाज की कीमत और श्रम की कीमत है। जो लोग मिट्टी से मुनाफा निकालते हैं, वे वही लोग नहीं हैं जो इससे अनाज निकालते हैं, और सट्टा-बाजारों में मिट्टी के ढेलों की गंध नहीं आती। वहाँ तो किसी और चीज की बू है। इसके विपरीत, ‘भूस्वामित्व’ सही शब्द है; यह कम भ्रामक है।

जहां दमन मौजूद है, वहां ‘अनुशासन’ के बजाय ‘आज्ञाकारिता’ शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि शासकों के बिना भी अनुशासन संभव है और इसलिए वह आज्ञाकारिता से अधिक महान गुण है। ‘सम्मान’ शब्द से उत्तम ‘मानवीय गरिमा’ है; इसमें हमारी दृष्टि के दायरे से व्यक्ति इतनी आसानी से गायब नहीं होता। हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों के सम्मान की रक्षा के लिए चिल्लाते हुए किस तरह के बदमाश खुद को आगे बढ़ाते हैं। और कितनी उदारता से वे उन भूखे लोगों को सम्मान बांटते हैं जो उन्हें खिलाते हैं। कन्फ्यूशियस की चालाकी आज भी कारगर हो सकती है। 

कन्फ्यूशियस ने राष्ट्रीय घटनाओं के अनुचित आकलनों को उचित आकलनों से बदल दिया। थॉमस मूर ने अपने ‘यूटोपिया’ में एक ऐसे देश का वर्णन किया है जिसमें न्यायपूर्ण परिस्थितियाँ थीं। यह उस इंग्लैंड से बहुत अलग देश था जिसमें वह रहते थे, लेकिन जीवन की परिस्थितियों को छोड़कर, यह उस इंग्लैंड से बहुत मिलता जुलता था।

लेनिन  रूसी पूंजीपति वर्ग के सखालिन द्वीप के शोषण और उत्पीड़न का वर्णन करना चाहते थे, लेकिन उनके लिए जारवादी पुलिस से सावधान रहना आवश्यक था। उन्होंने रूस को जापान और सखालिन को कोरिया से बदल दिया। जापानी पूंजीपतियों के तरीकों ने सभी पाठकों को सखालिन में रूसी पूंजीपति वर्ग के तरीकों की याद दिला दी, लेकिन उनके पर्चे पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा, क्योंकि जापान और रूस दुश्मन थे। बहुत सी बातें जो जर्मनी में जर्मनी के बारे में नहीं कही जा सकतीं, ऑस्ट्रिया के बारे में कही जा सकती हैं।

ऐसे कई प्रकार की चालाकी हो सकती है जिनके द्वारा एक शंकालु राज्य को चकमा दिया जा सकता है।

वॉल्तैर ने ऑर्लियन्स की कन्या  के बारे में वीरतापूर्ण कविता लिखकर चमत्कारों पर चर्च के विश्वास को चुनौती दी। उन्होंने उस चमत्कार का वर्णन किया जो निस्संदेह घटित हुई होगी तभी तो जोन ऑफ आर्क पुरुषों की सेना, अभिजात वर्ग के दरबार और भिक्षुओं के समूह के मध्य भी कुंवारी बनी रही। अपनी शैली की भव्यता से, और कामुक कारनामों का वर्णन करके, जो शासकों के विलासितापूर्ण जीवन की विशेषता थी, वॉल्तैर ने उस धर्म का पर्दाफाश किया जिसने उनकी लंपट जीवन शैली को संभव बनाया। वॉलतेर ने अवैध तरीकों द्वारा उन तक अपने कृतियों को पहुंचाना भी संभव बनाया जिनके लिए उन्हें लिखा था। पाठकों में सत्तासीन भी थे जिन्होंने इन लेखन के प्रसार को प्रोत्साहित या सहन किया। इस प्रकार उन्होंने पुलिस को बेनकाब कर दिया, जो उनकी ओर से उनके सुखों का बचाव करते थे। और महान ल्यूक्रेटियस ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि उनके छंदों की सुंदरता एपिक्यूरियन नास्तिकता के प्रसार में सहायता करेगी।

यह बात सच ही है कि उच्च साहित्यिक स्तर संदेश को सुरक्षा प्रदान कर सकता है। हालांकि कई बार यह शक भी पैदा करता है। ऐसे में जानबूझकर इसे थोड़ा हल्का करना भी जरूरी हो सकता है। उदाहरण के लिए, जासूसी उपन्यासों की तिरस्कृत शैली में सामाजिक दुष्परिस्थितियों के विवरणों को गुप्त रूप से तस्करी कर लाया जाता है। इस तरह के विवरण एक जासूसी उपन्यास को पूरी तरह से सही ठहरा सकते हैं। महान शेक्सपियर  ने तो गैर-जरूरी कारणों से कोरिओलेनस  की माँ के भाषण को, जिसमें वो अपने शहर के खिलाफ अपने बेटे के कूच का विरोध करती है, नरम कर दिया। शेक्सपियर ने भाषण को जानबूझकर कमजोर बनाया – वो  चाहते थे कि कोरिओलेनस  अपने इरादे छोड़ दे परंतु अच्छे कारणों से अथवा भावावेश में नहीं, बल्कि आलस्य की पुरानी आदत से। 

शेक्सपियर में हमें  सीज़र के लाश के सामने ऐन्टोनी के भाषण के रूप में सत्य का चालाकी से प्रसार करने का एक मॉडेल मिलता है। ऐन्टोनी लगातार सीज़र के हत्यारे ब्रूटस को एक इज़्ज़तदार आदमी बताता है, परंतु साथ ही उसके कारनामे का विवरण देता है, और उस कारनामे का विवरण, उसे अंजाम देने वाले के बारे मे बखान से ज्यादा प्रभावशाली है। इस तरह भाषणकर्ता तथ्यों द्वारा अपने आपको परास्त होने देता है, वो उन तथ्यों को “अपने आप” से ज्यादा बलशाली बना देता है।

मिस्र का एक कवि, जो चार हजार साल पहले रहता था, ने इसी तरह की पद्धति का इस्तेमाल किया। वह तीव्र वर्ग संघर्षों का समय था। जिस वर्ग ने अब तक शासन किया था वह बहुत मुश्किल से अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी – आबादी का वह हिस्सा जिसने अब तक उसकी सेवा की थी – के खिलाफ अपना बचाव कर रहा था। कविता में एक बुद्धिमान व्यक्ति शासक के दरबार में आता है और आंतरिक शत्रु के खिलाफ संघर्ष करने का आह्वान करता है। वह निम्न वर्गों के विद्रोह से उत्पन्न अव्यवस्थाओं का एक लंबा और प्रभावशाली वर्णन प्रस्तुत करता है। यह विवरण इस प्रकार है:

स्थिति यह है: रईस शिकायतों से भरे हैं और गरीब आनंद विभोर हैं। 

हर शहर कहता है: आओ हम अपने बीच से ताक़तवरों को भगाएँ। 

स्थिति यह है: कार्यालयों को तोड़ा गया और दस्तावेजों को हटा दिया गया। गुलाम मालिक बनते जा रहे हैं।

स्थिति यह है: सम्मानित आदमी के बेटे को अब  पहचाना नहीं जाता। मालकिन का बच्चा  उसकी गुलाम का बेटा बन जाता है।

स्थिति यह है: नगरवासियों को चक्की पीसने को मजबूर कर दिया गया है। जिन्होंने कभी दिन नहीं देखा वे उजाले में चले गए हैं।

स्थिति यह है: बलिदान के आबनूस बक्से तोड़े जा रहे हैं; महंगे सेवान की लकड़ी को काटकर बिस्तर बनाया जाता है।

देख,महल एक घंटे में ढह गया है।

देख, देश के निर्धन धनी हो गए हैं।

देख, जिसके पास रोटी न थी, उसका अब खलिहान हो गया है; उसका अन्नभण्डार दूसरे की सम्पत्ति से भरा है।

देख, मनुष्य के लिये भोजन करना अच्छा है। 

देख, जिसके पास अनाज न था,अब उसके पास खलिहान हैं; जो अनाज की भीख पर जीते थे, वे अब इसे वितरित करते हैं।

देख, जिसके पास बैलों का एक जोड़ा न था, उसके पास अब झुंड हैं; जो हल खींचने के लिए  जानवर नहीं पा सका था, अब उसके पास मवेशियों के झुंड हैं।

देख, जो अपने लिये झोंपड़ी न बना सका, उसके पास अब चहरदीवारें हो गई हैं।

देख, मंत्री खलिहान में शरण लेते हैं, और जिसे मुश्किल से दीवारों के सिरहाने सोने की अनुमति दी गई थी, उसके पास अब बिस्तर है।

देख, जो अपने लिये नाव नहीं बना सकता था, उसके पास अब जहाज हैं; जब उनका मालिक जहाजों को खोजने आता है, तो वह पाता है कि वे अब उसके नहीं हैं।

देख, जिनके पास कपड़े थे, वे अब चिथड़ों में हैं, और जो अपने लिए कुछ नहीं बुनते थे, उनके पास अब उत्तम से उत्तम मलमल है। 

अमीर आदमी बिस्तर पर प्यासा तड़प रहा है, और जो कभी उससे भीख मांगता था, उसके पास अब तेज बीयर है।

देख, जिसे संगीत की कोई समझ नहीं थी, अब उसके पास वीणा है; वह जिसके लिए कोई नहीं गाता था अब संगीत की प्रशंसा करता है।

देख, जिसे गरीबी के कारण अविवाहित सोना पड़ता था, उसके पास अब स्त्रियां हैं; जो पानी में अपना चेहरा देखते थे, उनके पास अब आईना है।

देख, देश के सब से बड़े लोग बिना रोजगार के फिरते हैं। महान लोगों को कोई संदेश नहीं मिलता। वह जो कभी संदेशवाहक था, अब दूसरों को अपना संदेश ले जाने के लिए भेजता है…  

देख, पाँच लोग जिनको उनके स्वामी ने भेजा है। वे कहते हैं: अपने आप जाओ; हम पहुँच चुके हैं।

यह बिल्कुल साफ है कि यह ऐसे प्रकार की अव्यवस्था का वर्णन है जो अवश्य ही उत्पीड़ितों को बहुत ही वांछनीय प्रतीत होगा। और फिर भी कवि की मंशा को समझना मुश्किल है। वह स्पष्ट रूप से इन स्थितियों की निंदा करता है, हालांकि वह उनकी खराब निंदा करता है…

जोनाथन स्विफ्ट ने अपने एक पर्चे में सुझाव दिया कि देश को सम्पन्नता हासिल करने के लिए गरीबों के बच्चों को मसाले में डालकर मांस के रूप में बेच देना चाहिए। उन्होंने सटीक हिसाब किया जिससे साबित होता है कि आप बहुत बचत कर सकते हैं अगर उसके लिए आप किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हों । 

स्विफ्ट ने मासूमियत का नाटक किया। उन्होंने सोचने के एक ऐसे तरीके का बचाव किया, जिससे वे पुरजोर रूप में और पूरी तरह से घृणा करते थे, उन्होंने विषय के रूप में एक ऐसे प्रश्न को लिया, जो स्पष्ट रूप से ऐसे सोचने के तरीके की क्रूरता को उजागर करता है। कोई भी स्विफ्ट से अधिक चतुर हो सकता था, या किसी भी दर पर अधिक मानवीय हो सकता था – विशेष रूप से वे जो तब तक इस बात पर सोचने के लिए परेशान नहीं थे कि उनके विचारों के तार्किक निष्कर्ष क्या हो सकते थे।

विचार के लिए प्रचार, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है। इस तरह के प्रचार की बहुत जरूरत है। शोषण को बढ़ावा देने वाली शासन व्यवस्थाओं के तहत विचार को क्षुद्र माना जाता है।

जो कुछ भी उत्पीड़ितों के लिए उपयोगी है उसे क्षुद्र ही माना जाता है। पेट भरने की लगातार चिंता को क्षुद्र समझा जाता है; क्षुद्र है किसी देश के रक्षकों को दिए जाने वाले सम्मान को अस्वीकार करना जिसमें वे रक्षक भूखे रहते हैं; क्षुद्र है नेता पर संदेह करना जब उसका नेतृत्व आपदा की ओर ले जाता हो; क्षुद्र है उस काम के प्रति अनिच्छुक होना जो मजदूर को पोषण नहीं देता; क्षुद्र है बेतुकी हरकतें करने की मजबूरी के खिलाफ विद्रोह करना; क्षुद्र है ऐसे परिवार के प्रति उदासीन होना जिसे अब किसी भी तरह की चिंता से मदद नहीं मिल सकती। भूखों को लालची कह धिक्कारा जाता है, जिनको बचाने के लिए कुछ भी नही हैं उन्हें कायर कहा जाता है, जो लोग अपने उत्पीड़कों पर संदेह करते हैं उन पर अपनी ताकत पर संदेह करने का आरोप लगाया जाता है; जो लोग अपने श्रम के लिए भुगतान की मांग करते हैं उन्हें आलसी कहा जाता है। ऐसी सरकारों के तहत सामान्य रूप से सोच को नीचा समझा जाता है और उसकी बदनामी होती है। सोचना अब कहीं सिखाया नहीं जाता, और जहां कहीं उभर आता है, उसे सताया जाता है।

फिर भी, कुछ क्षेत्र हमेशा मौजूद होते हैं जिनमें सजा के डर के बिना विचार के सफल होने को देखा जा सकता है। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें तानाशाही को विचार की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, सैन्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विचार की सफलता का उल्लेख करना संभव है। अधिक कुशल संगठन द्वारा और ऊन के विकल्प के आविष्कार से ऊन की आपूर्ति को बढ़ाने जैसे मामलों में भी सोच की आवश्यकता होती है। खाद्य पदार्थों में मिलावट, युवकों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करना — ऐसी सभी बातों के संदर्भ में भी सोच आवश्यक है; और ऐसे मामलों में सोचने की प्रक्रिया का वर्णन भी किया जा सकता है। युद्ध की स्तुति यानी इस तरह के विचार के अनसोचे उद्देश्य से चालाकी से बचा जा सकता है; इस प्रकार युद्ध को सबसे अच्छे तरीके से कैसे छेड़ा जाए के प्रश्न से जो विचार निकलता है वह युद्ध के औचित्य पर प्रश्न उठा सकता है और फिर इस सवाल को भी उठाने में योगदान कर सकता है कि एक संवेदनहीन युद्ध को कैसे टाला जाए। 

बेशक, इन सवालों को सार्वजनिक रूप से उठाना मुश्किल है। तो क्या उस सोच का फायदा उठाना संभव नहीं है जिसे हमने प्रेरित किया है, यानी क्या हस्तक्षेप के उद्देश्य से इस सोच को आकार नहीं दिया जा सकता? अवश्य संभव है। 

हमारे समय में, आबादी के एक (बड़े) हिस्से का दूसरे (छोटे) हिस्से द्वारा दमन जारी रखने के लिए, जनता का एक निश्चित रवैया आवश्यक होता है, और यह रवैया सभी क्षेत्रों में व्याप्त होना जरूरी है। जीव विज्ञान के क्षेत्र में खोज, जैसे डार्विन की खोज, अचानक शोषण के लिए खतरा बन गया। फिर भी, कुछ समय के लिए यह केवल चर्च की ही चिंता थी, चूंकि पुलिस को अब तक कोई भनक नहीं थी। हाल के वर्षों में भौतिकविदों के शोधों ने तर्क के क्षेत्र में जो असर पैदा किया है उससे उत्पीड़न को बनाए रखने वाले कई सिद्धांतों को खतरा हो सकता है। तर्क के क्षेत्र में जटिल खोजबीन करने वाले प्रशिया राज्य के दार्शनिक हीगेल ने सर्वहारा क्रांति के श्रेष्ठ प्रतिपादकों, मार्क्स और लेनिन को बहुमूल्य विचार-पद्धतियों से लैश किया । विभिन्न विज्ञान के क्षेत्रों के विकास आपस में जुड़े हुए हैं, लेकिन समकालिक नहीं हैं, और राज्य कभी भी हर चीज पर अपनी नजर नहीं रख पाता। सत्य का अग्रिम रक्षक अपने लिए रणक्षेत्र का चयन कर सकता है जो अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष हैं। सोच के सही तरीके सीखने पर सबकुछ निर्भर है, वह सोच जो सभी चीजों और सभी प्रक्रियाओं पर प्रश्न खड़ा करता है और उनकी क्षणभंगुर और परिवर्तनशील प्रकृति की जांच करने की इच्छा रखता है।

महत्वपूर्ण परिवर्तनों से शासकों को बहुत घृणा होती है। वे चाहते हैं कि सब कुछ वैसा ही बना रहे —  यदि संभव हो तो एक हजार सालों तक। सबसे अच्छा होता यदि चाँद स्थिर रहता और सूरज अपने मार्ग पर कहीं रुक जाता! फिर कोई भूखा नहीं रहता, कोई इन शासकों का भोजन नहीं खाना चाहता। जब वे गोली चला चुके होते हैं, तो वे नहीं चाहते कि दुश्मन गोली चला सके; आखिरी निशाना उनका ही होना चाहिए। सोचने का तरीका जो अनित्य पर बल देता हो, उत्पीड़ितों को प्रोत्साहित करने का बेहतर साधन है।

इसके अलावे, यह तथ्य कि सभी चीजों में और सभी स्थितियों में विरोधात्मकता का आभास होता है और वह पनपता है, विजेताओं के खिलाफ निस्संदेह इस्तेमाल होना चाहिए। इस तरह का दृष्टिकोण (द्वंद्ववाद का, उस सिद्धांत का कि सबकुछ प्रवाहमान है) को उन विषयों की जांच में शामिल किया जा सकता है जो कुछ समय के लिए शासकों के ध्यान से बचे होते हैं। इसे जीव विज्ञान या रसायन विज्ञान में लागू किया जा सकता है। लेकिन बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किए बिना परिवार की नियति का वर्णन करने में भी इसे व्यवहार में लाया जा सकता है। लगातार बदलते रहने वाले कई कारकों पर हर चीज की निर्भरता तानाशाहों के लिए खतरनाक विचार है, और पुलिस को अपनी उंगली डालने का अवसर दिए बिना यह विचार कई रूपों में प्रकट हो सकता है। किसी व्यक्ति द्वारा किसी तंबाकू विक्रेता की दुकान खोलने में शामिल सभी परिस्थितियों और प्रक्रियाओं का पूरा ब्यौरा तानाशाही के लिए एक भारी झटका हो सकता है। जो कोई भी इस पर थोड़ा भी विचार करेगा वह जल्द ही देखेगा कि ऐसा क्यों है। जनता को दुर्गति की ओर ले जाने वाली सरकारों को दुर्गति के दौरान सरकार के बारे में सोचे जाने से बचना चाहिए। ऐसी सरकारें नियति के बारे में बहुत बातें करती हैं। यह नियति है, वे नहीं, जो आपदाओं के लिए दोषी हैं। जो कोई भी आपदा के कारणों की जांच करता है, उसे सरकार के दोष के बारे में सोचने से बहुत पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। लेकिन नियति के बारे में इस सारी बकवास का सामान्य तौर पर विरोध करना संभव है; यह दिखाया जा सकता है कि मनुष्य का भाग्य मनुष्यों का ही कार्य है।

यह बात और भी तरीकों से की जा सकती है। उदाहरण के लिए, किसी खेत की कहानी बताई जा सकती है – जैसे आइसलैंड के किसी खेत की कहानी। पूरा गांव इस खेत को अभिशप्त मानता है। किसी किसान की पत्नी  ने कुएं में छलांग लगा दी; किसी किसान ने फांसी लगा ली। एक दिन किसान के बेटे और एक लड़की की शादी होती है और दहेज में कुछ खेत मिलते हैं। लगता है अभिशाप हट गया। घटनाओं के इस सुखद क्रम को लेकर गाँव एकमत नहीं है। कुछ इसका श्रेय किसान के युवा बेटे के सुहाने स्वभाव को देते हैं, बाकी नए खेतों को श्रेय देते हैं जो युवा पत्नी अपने साथ लाई थी और जिससे खेती व्यवहार्य बन गई।

लेकिन प्राकृतिक छटा का चित्रण करने वाली कविता में भी कुछ हासिल किया जा सकता है, यानी जब मनुष्य द्वारा बनाई गई चीजों को प्रकृति में शामिल कर लिया जाए ।

सत्य के प्रसार के लिए चालाकी जरूरी है।

सारांश

हमारे समय का महान सत्य (जिसे केवल पहचान लेना ही पर्याप्त नहीं है, लेकिन यदि इसे न पहचाना जाए तो कोई अन्य महत्वपूर्ण सत्य नहीं खोजा जा सकता) वह सत्य यह है कि हमारा महाद्वीप बर्बरता में डूब रहा है क्योंकि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व हिंसा द्वारा बनाए रखा जा रहा है। ऐसे साहसपूर्ण लेखन का क्या फायदा जो साबित करता है कि हम ऐसी स्थिति में डूब रहे हैं जो बर्बरता की है (जो सच है) परंतु यह नहीं स्पष्ट करता कि हम उस स्थिति में क्यों डूब रहे हैं? हमें कहना होगा कि यातनाएं इसलिए दी जा रहीं हैं क्योंकि स्वामित्व को बचाना है। बेशक, यदि हम ऐसा कहते हैं तो हम कई दोस्तों को खो देंगे जो यातनाओं के खिलाफ हैं क्योंकि उनका मानना है कि यातनाओं के बिना स्वामित्व को बनाए रखा जा सकता है (जो असत्य है)।

हमें अपने देश की बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई बतानी चाहिए ताकि वे उपाय किए जाएं जो उन्हें समाप्त कर दे यानी जो संपत्ति के संबंधों को बदल दे।

इसके अलावा, हमें यह सच्चाई उन लोगों को बतानी चाहिए जो मौजूदा संपत्ति संबंधों से सबसे अधिक पीड़ित हैं और जो इन्हें बदलने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं, यानी श्रमिकों को और जिन्हें हम उनके सहयोगी बनने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, क्योंकि वे भी उत्पादन के साधनों के मालिक नहीं हैं, भले ही वे मुनाफे में हिस्सेदारी करते हों।

और पाँचवा, हमें चालाकी का इस्तेमाल करना होगा।

और इन सभी पांच कठिनाइयों का हल हमें एक ही साथ निकालना होगा, क्योंकि हम बर्बर परिस्थितियों के बारे में सच्चाई की खोज उनसे पीड़ित लोगों के बारे में सोचे बगैर नहीं कर सकते; और कायरता के हर निशान को लगातार झाड़ते हुए, हमें सही परिस्थितियों का जायजा लेना होगा उन लोगों को ध्यान में रखते हुए जो इस ज्ञान का इस्तेमाल करने में सक्षम हैं; हमे यह भी सोचना होगा इस ज्ञान को किस तरीके से दें ताकि उनके हाथ में यह हथियार की तरह हो और साथ ही साथ इतनी चालाकी से दें कि दुश्मन को पता न चले और वह रोक न सके। 

एक लेखक से यही अपेक्षा की जाती है, जब उसे सच लिखने के लिए कहा जाता है।

(जर्मन मूल और विभिन्न अंग्रेजी अनुवादों की मदद से अनूदित)

राजनीतिक विकल्प: चुनावी या आंदोलनकारी (Political Alternatives: Electoral or Movemental)


राजा का डर – पास्कल


महान फ्रांसीसी दार्शनिक और गणितज्ञ ब्लेज़ पास्कल की पुस्तक पौंसे (Pensees) के एक अनुच्छेद का अनुवाद

राजाओं को आदतन सिपाहियों, नगाड़ों, अफसरों और अन्य चीजों के साथ देखा जाता है जिनसे आदर और डर की भावनाएँ जागृत होती हैं – इस तथ्य का नतीजा यह होता है कि जब कभी-कभी वे अकेले और बिना किसी के साथ पाए जाते हैं, तो उनकी मुखाकृति ही काफी होती है प्रजा में आदर और भय पैदा करने के लिए, क्योंकि हम उनके व्यक्तित्व और परिचारक-वर्ग, जिसके साथ वे साधारणतया जोड़ कर देखे जाते हैं, के बीच मानसिक अंतर नहीं करते। और संसार जो नहीं जानता है कि यह आदत का असर है सोचता है कि यह किसी प्राकृतिक शक्ति से प्राप्त है, तभी तो इस तरह की कहावतें मिलती हैं – “उसके चेहरे पर ही दैविकता की छाप है”।

भेड़िया, भेड़िया: नव-उदारवादी राजतंत्र और उदारवादी वामपंथ


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“भेड़िया आया, भेड़िया आया” वाली कहानी याद कीजिए। वह एक बच्चे की कहानी है जो ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया” का झूठमूठ शोर मचाकर गाँववासियों को इतना तंग करता है कि जब सचमुच भेड़िये आते हैं तो उसको बचाने कोई नहीं आता। पर वह बच्चा गाँववालों से शायद ज्यादा समझदार था। उसे भेड़िए के आने की संभावना का पता था, वो तो बाकियों की तैयारी की परीक्षा ले रहा था, और बता रहा था कि कुछ करो कि भेड़िए के आने की संभावना ही न रहे। आज देखिए, हर जगह ड्रिल होते हैं, युद्ध की तैयारी, आग से बचने की तैयारी, भूकंप के वक्त आप क्या करेंगे उसके लिए तैयारी — इन सब के लिए ड्रिल होते हैं। शायद वह बच्चा अपने समय से आगे था, और यही उसका दोष था।

हम लोगों की स्थिति कुछ गाँववालों की तरह हो गयी है। असल मे हमारी कहानी उनसे भी ज्यादा हास्यास्पद है और दुखांत भी। भेड़िए के आने का डर तो पूंजीवाद में लगातार रहता है, हमें उसके लिए हमेशा सतर्क रहना चाहिए और तैयारी करनी चाहिए — इस तैयारी में भेड़िए के अवतरित होने की संभावना का भी नाश शामिल है। परंतु जो बच्चे पहले “भेड़िया, भेड़िया” चिल्लाते थे, उन्हें बचकाना बोलकर इतना शर्मसार किया जाता था कि उन्होंने भेड़िया देखना ही बंद कर दिया और प्रौढ़ हो गए। या फिर छिपे भेड़ियों ने उन्हें निगल लिया।

हमने आज के लिए अपने आप को कभी तैयार ही नही किया। आज जब भेड़िये छुट्टा घूम रहे हैं और सड़कों पर उन्ही का राज है तो अब हम हैं जो “भेड़िया, भेड़िया” चिल्लाने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। भेड़िए भी शातिर हो गए हैं — वे चोगा पहन कर घूमते हैं, ताकि हम चिल्लाएँ नहीं। कभी कभी तो ऐसा हो जाता है कि हम जब “भेड़िया, भेड़िया” चिल्लाने लगते हैं तो कई भेड़िए भी हमारे साथ चिल्लाने लगते हैं — अक्सर देखा गया है कि हमारे बच्चे भी ये सब देखकर “भेड़िया भेड़िया” की जगह मोगली की तरह हू-हूआने लगे हैं।

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शायद हालात इतने बुरे नहीं हैं। देखिए हम आप कितना व्यवस्था को गलिया रहे हैं, कुछ हुआ तो नहीं। जहाँ बुरी है स्थिति वहाँ इतना आप कर सकते हैं? ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, पूछिए कश्मीरियों से। हममें से कुछ नामदारों को अब ईनामदार बना रही है व्यवस्था, इससे ज्यादा क्या हो रहा है? हमारे लिए नया नेतृत्व और नई राजनीतिक भाषाएँ तैयार हो रही हैं।

अब प्रशांत भूषण के मामले में ही देखिए, उनके पक्ष में तो अटॉर्नी जनरल भी खड़े हैं यानी सत्ता पक्ष भी खड़ा है। अगर आप ध्यान दें तो सत्ता पक्ष बारंबार न्यायालय की अभिजात्य स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न उठाता है। हमारी सारी दलीलें जो आज हम दे रहे हैं उसका इस्तेमाल सत्तापक्ष न्यायपालिका की अभिजात्य स्वायत्तता के खिलाफ मतैक्य विकसित करने में कर रहा है।

हम न्यायपालिका की अभिजात्यता यानी अपने आप को आलोचना से ऊपर मानने की उसकी प्रवृत्ति के खिलाफ बोल रहे हैं, पर हम उसकी पूर्ण स्वायत्तता को बचाना चाहते हैं। हमारा मानना है कि न्यायपालिका सत्तापक्ष के हित में काम कर रही है, और उसके आलोचकों को हतोत्साहित कर रही है। जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए।

दूसरी तरफ, सत्तापक्ष भी न्यायपालिका की अभिजात्यता पर प्रश्न चिह्न उठाता है ताकि न्यायपालिका अपने आपको शासन की तात्कालिक और गतिमान आवश्यकताओं के दायरे में सीमित रखे। इसीलिए न्यायाधीशों की बहाली का अधिकार सत्तापक्ष अपने हाथ मे रखना चाहता है। हम जो माहौल तैयार कर रहे हैं उसका इस्तेमाल सत्तापक्ष न्यायपालिका की स्वायत्तता को सापेक्ष अथवा सीमित करने में करेगा।

न्यायिक अभिजात्यता न्यायिक स्वायत्तता का नतीजा है। पर यह स्वायत्तता पूंजीवादी राजसत्ता की संरचना से पैदा होती है। वर्ग विभाजित समाज की वह देन है जिसके तहत सामाजिक अनुबंध और शांति बनाए रखने के लिए स्वायत्त संस्थाओं की ज़रूरत होती है। परंतु आज नव-उदारवाद के दौर में पूंजीवादी राजसत्ताओं को इस तरह के अनुबंध और शांति बनाए रखने के लिए लगातार विधि-विधान में बदलाव की ज़रूरत पड़ रही है, जिसमें सांस्थानिक स्वायत्तता पूर्ण क्या सापेक्ष भी बनाए रखने में दिक्कत हो रही है।

यह राजसत्ता के निरंतर संकट का दौर है — ऐसा नहीं है कि वह शांति और स्वायत्तता बनाए नहीं रखना चाहती, परंतु उसके लिए स्थायित्व चाहिए। भूमंडलीय पूंजीवादी विकास की धारा राष्ट्रीय स्तर पर स्थायित्व बरकरार रहने नहीं दे रही है। जब सहमति नहीं तो राजसत्ता का आदिमाधार प्रपीड़न काम आता है। और हमारे देश में यही हो रहा है। सत्ताएँ ऐसी सरकारें ला रही हैं जो संकटग्रस्त माहौल में जागती उत्कंठाओं को लामबंध कर उनकी व्यवस्था-विरोधी प्रवृत्ति को कुंद कर व्यवस्थापरक बना दे। आज हमारे साथ भी ऐसा ही हो रहा है — हम व्यवस्था के भूत के संरक्षक हो गए हैं।

सत्ता पक्ष हमारी विडंबना को जानता है — नहीं बोलने में भी नुक़सान है, बोलने में भी नुक़सान है। क्योंकि बोलने के दायरे में ही आज विपक्षवादी राजनीति सिमट गई है — समस्या वहां है। यथास्थिति के तहत समाधान खोजने की यह विडंबना है। हमारी पूरी राजनीति मतचर्चा में सिमट जाती है, संरचनात्मक प्रश्नों पर व्यवहार की गुंजाइश नहीं रहती।

व्यवस्था विपक्ष अथवा वामपंथ को खत्म नहीं कर रही, उन्हें उपयोगी बना रही है। खत्म होने का डर हमें व्यवस्थापरक रूप में उपयोगी बनाता है क्योंकि उस डर के अलग-अलग दर के मुताबिक हम सामाजिक उत्कंठाओं के विभिन्न स्तरों को तात्कालिक अभिव्यक्ति देकर तुष्ट कर देते हैं। अलग-अलग ब्रांड के पक्ष और विपक्ष का व्यस्थापरक उपयोग यही है। नरम से गरम तक, सभी को इस प्रक्रिया में रोज़गार मिलता है — कोई खाली हाथ नहीं रहता। राजनीति का नव-उदारीकरण है ये।

हाँ, ये ज़रूर है कि अब अगर व्यवस्था सचमुच मारने पर उतरेगी तो हम इतने नंगे हो चुके हैं कि कोई खोह नही मिलेगा छुपने को — और ये सब हमारी तथाकथित “सक्रियता” से हुआ है। ये है व्यवस्था का कमाल, जिसका हम भंडाफोड़ करने चले थे।

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कहाँ पर क्या, कितना बोलना है, अभिव्यक्ति की संरचना बिल्कुल घालमेल हो गई है — आलाप, विलाप, संलाप सब कर्कश एकालाप हो गए हैं। तात्कालिक अभिव्यक्ति और प्रसारण की सुविधा ने हमारे अंदर हमारी राजनीतिक सामाजिक उपस्थिति का स्फीत भाव (inflated sense) पैदा कर दिया है — जिसका पैमाना फ्रेंड लिस्ट, इमोजी और अंगूठे की गिनती से तय होता है।

प्रसिद्ध मीडिया दार्शनिक मार्शल मैक्लुहान ने संदेश पर मीडिया की संरचना के असर को समझ कर ही दो तरह से मीडिया को परिभाषित किया था — “मीडिया इज़ मेसेज” (मीडिया संदेश है) और “मीडिया इज़ मसाज” (मीडिया मालिश है)। यही परिभाषाएँ सोशल मीडिया के लिए भी सटीक हैं। जिस तरह की प्रतिक्रियात्मकता और भाषा की एकरूपता सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर दिखती है, और जिस तरह से वे हमारे अंदर उपस्थिति की स्फीत भावना जागृत करती है उसके लिए यह बिल्कुल ही सही है — सोशल मीडिया सामाजिक मालिश है। इसके हमाम में हम सब नंगे हैं और एक दूसरे की मालिश में लगे हैं। ध्यान रहे, मालिश में केवल सहलाना नहीं होता, चोट भी लगती है।

हालांकि प्रतिक्रिया प्राकृतिक नियम है, और प्राकृतिक स्थायित्व के लिए यह ज़रूरी है, समाज और राजनीति में तात्कालिक (इमीडिएट) प्रतिक्रिया यथास्थिति बनाए रखने का साधन मात्र है — व्यवस्थापरक अथवा वर्चस्वीय राजनीतिक क्रिया की वह पूरक है। वह विपक्षीय राजनीति की सीमा दिखाती है।

शायद मार्क्स क्रांतिकारियों को “ओल्ड मोल” (प्राचीन छछूंदर) इसीलिए कहते थे — जो व्यवस्था के अंतर्विरोधों को तीव्र करता हुआ, उसकी नींव को ही खोखला कर देता है, वह सतही तात्कालिकता की क्षणभंगुरता में बहता नहीं है। उसके स्पेक्टेकल की चकाचौंध में अपने आप को बेनकाब नहीं करता है। और यह काम “तात्कालिक” प्रतिनिधत्ववादियों की “खुली” राजनीति से बिल्कुल भिन्न है। इनकी राजनीति तात्कालिकता में शोषितों की व्यवस्था-विरोधी ऊर्जा को तीन-तेरह करने का साधन मात्र बन जाती है। इस अर्थ में प्रतिक्रयात्मक राजनीति को प्रतिक्रियावादी बनने में देर नही लगती और इसी रूप में वह व्यवस्थापरक क्रिया की पूरक है, वह उसी में जड़ित रहती है।

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आंतोनियो ग्राम्शी के मुताबिक बुद्धिजीवी दो प्रकार के होते हैं। उनके अनुसार जैविक बुद्धिजीवियों और पारंपरिक बुद्धिजीवियों में अंतर होता है। जैविक बुद्धिजीवी किसी न किसी सामाजिक वर्ग से सीधे और मूलतः सचेतन तौर पर जुड़े होते हैं। पारंपरिक बुद्धिजीवी, वर्गीय समाज के उत्पाद होते हुए भी अपने आप को वर्गो और उनके आपसी संघर्षों से परे और ऊपर मानते हैं।

हम “सार्वजनिक बुद्धिजीवियों” को ग्राम्शी के इस पारिभाषिक विभेद में कहां रखेंगे?

मुझे लगता है कि भारत और विश्व मे बुद्धिजीवियों के लिए जो आज संकट पैदा हुआ है वह उनकी स्वच्छंदता के विरोधाभासी गुण से पैदा हुआ संकट है। यह संकट बुद्धिजीवियो की वाचाल सार्वजनिकता और वर्गोपरि भ्रम का है। सार्वजनिक बुद्धि की यह स्वच्छंदता पूंजीवाद में राजसत्ता के वर्गीय आधार से उसकी भ्रामक सापेक्ष स्वायत्तता की देन है। सार्वजनिक बुद्धि का स्वच्छंद बाज़ार पूंजीवाद की आरंभिक राजनीतिक आत्मा — “स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा” — को वैचारिक स्तर पर संजोता है, जिससे कि पूंजी का वैचारिक वर्चस्व बना रहे और उसके असली अर्थ को पैजामा पहनाया जा सके।

पूंजीवाद की नवउदारवादी अवस्था मे पत्रकारिता और प्रकाशन के उद्योग की मदद से सार्वजनिक बुद्धि की स्वच्छन्दता का गहन बाजार पनपता है। परंतु नतीजा यह है कि इस अवस्था के संकट में सब से पहले इन्हीं सार्वजनिक बुद्धिजीवियों पर गाज़ गिरती है — उन्हें अपना वर्गीय आधार तय करना होता है। उनकी सार्वजनिकता और वाचालता उन्हें तानाशाही सत्ता के लिए आसान निशाना बना देती हैं। सत्ता उनकी इस दुर्दशा का इस्तेमाल प्रतिरोध के स्वरों को दबाने के लिए और व्यवस्था की शक्तियों को बटोर कर उसे सुदृढ़ करने के लिए करती है। सार्वजनिक बुद्धिजीवी जवाबी वर्चस्वकारी वर्गीय जैविकता को उभरने से रोकते हैं। बड़े नामों के बचाव में जो वामपंथ और उदारवाद का गठजोड़ पैदा होता है वो “सबाल्टर्न” शक्तियों की रणनीतिक निरंतरता और सुगढ़ता के लिए दिक्कतें पैदा करता है।

फासीवाद का कम्युनिटी ट्रांसमिशन


सर्वहाराकरण की तेज होती प्रक्रिया के कारण उभरतीं दमित उत्कंठाओं को फासीवाद इस रूप में अभिव्यक्ति देकर संघटित करता है कि वे उन सामाजिक-आर्थिक और संपत्ति संबंधों के लिए खतरा न बन पाएँ जो उस प्रक्रिया और उसकी उत्कंठाओं को जन्म देते हैं । फासीवाद उन उत्कंठाओं को उनके तात्कालिक प्रतिक्रियात्मक स्तर और रूप में ही व्यक्त करने का साधन प्रदान करता है, ताकि राजनीतिकता और आर्थिकता के पार्थक्य से जो राजसत्ता पैदा होती है उसक़े पुनरुत्पादन में आम रोष के कारण रोध पैदा न हो सके। नवउदारवादी अर्थतन्त्रीय अवस्था – पूंजी के वित्तीयकरण, उत्पादन के सूचनाकरण और श्रम के अनौपचारीकरण – ने फासीवाद के इस गुण को अलग स्तर पर पहुँचा दिया है, उसको तीव्रता और व्यापकता दे दी है। अब फासीकरण (fascisation) के साधन के लिए खुली राजनीतिक तानाशाही केवल एक आपातकालिक विकल्प है। फासीवाद आज सामाजिक प्रक्रिया का रूप धारण कर पूंजीवाद की वर्तमान अवस्था की दैनिक सामाजिकता और प्रतिनिधत्ववादी औपचारिक जनतंत्र की आंतरिकता में समाहित हो गई है। और इस प्रक्रिया के चलन और संचालन के लिए अब फासीवादियों की ज़रूरत नहीं है। कोरोना के वक्त की भाषा में बोलें तो फासीवाद का आज कम्युनिटी ट्रांसमिशन हो गया है।

Capitalism and Social Justice: The Floyd Protests in the US


In 1968, when Europe was witnessing student revolts, Italian Marxist filmmaker, novelist and poet Pier Paolo Pasolini wrote a poem addressing students, where he unabashedly told them,

When yesterday at Valle Giulia you fought 
with policemen, 
I sympathized with the policemen! 

He went on to explain that these boys in the police came from poor families and were dehumanised by the system — 

…Worst of all, naturally, 
is the psychological state to which they are reduced 
(for roughly sixty dollars a month); 
with a smile no longer, 
with friends in the world no longer, 
separated, 
excluded (in an exclusion which is without equal); 
humiliated by the loss of the qualities of men
for those of policemen (being hated generates hatred). 

Pasolini tauntingly challenged the students,

We obviously agree against the police as institution. 
But get mad at the Legal System and you will see! [1]

The Defunding of Police: What does it signify?

In the context of the ongoing movement against police violence in the US, the proposal for defunding and disbanding the police force has gained a wide currency. It has enthused many towards a more libertarian future. Its influence has also reached the learned sections of the left and liberal circles in India. As in 1968 and some years after it, today once again we see a confluence between those who stress on the virtues of a lean state and those demanding social justice, trying to give meanings or definite agenda to the movement —binding it to concrete demands. As David Harvey has shown, the intellectual force and initial consensus for neoliberalism were derived from such confluence.[2] However, neither in the case of the 1968 upsurge nor today can one reduce a whole movement to these vocal agencies who are there to negotiate with the system — in the case of the Floyd protests, to bring in police reforms and the Democrats to commit for them, while blaming Trump for everything. 

It is interesting to see the complementarity of Trump and his right-wing bandwagon, on the one hand, and the left-liberals, on the other. The former sees the conspiracy of anarchists, communists and anti-capitalism everywhere, destroying American values and institutions; therefore, they stress on violent incidents that have happened during the upsurge. The liberals and left see in the protests the assertion of American values rescuing  institutions from their takeover by conservative and even fascist elements. They downplay violence and sometimes even blame rightwingers for infiltration. Hence, in both discourses American values and basic institutions remain sacrosanct.

Even the apparently radical suggestion to defund and even disband the police is perhaps not very drastic. With the growing numbers of private security agencies and the localised community-level management of their engagement, the state run formal police force is increasingly becoming obsolete. Two prominent journalists-cum-business experts, while writing in Business Insider, applauded police-free Capitol Hill Autonomous Zone (CHAZ) and found Trump’s accusation that such zones are  anarchistic to be unwarranted and “a wrong response”. They go on to say,

“Whether you believe in the Black Lives Matter cause or not, you should want this test to continue. If the Floyd protests have shown us anything, it’s that America needs new models for law enforcement, regulation, and community organising. CHAZ is one tiny demonstration. We can think of tons of experiments worth trying: no-armed-police zones, no-police-car zones, an-officer-on-every-corner zones… Let’s try ‘em all. May there be 1,000 more CHAZzes!”[3, emphasis mine] 

Disbanding the police force is a wonderful idea, but what does it mean to implement this idea in an unequal system? Isn’t policing an intrinsic need of such a system? Is this system itself being questioned, or is it just an anger against a particular “alienated” form of policing? Empowering people without destroying the internal hierarchy in a community will only allow those on top to accumulate more power. Disbanding police in this scenario will force the community to internalise policing, and the powerful will play the judge. Power always clings to the powerful, who in turn are only personifications of power. That is why you see no significant outrage at such “radical” proposals in the US, except from the supporters of Trump, and Fox News. But what we see most of the time, if not always, depends on the perspective that we take, which in turn is dependent on our location relative to various socio-cultural (superstructural) asperities that break open whenever there is a heightening of structural stress energy in capitalist class relations.  Hence, the relevant question would be whether the Floyd Protests are merely about different demands that are being posed, or whether something more is happening in the American society that we need to understand.

Capitalism is ever ready to recompose itself according to the crisis that a social movement poses. Reducing a movement to its immediate demands is one of the main ways that contribute to this recomposition. The demands are crucial to organise the movement, but reducing the latter to the literality of the former is not just ludicrous, but a serious reduction that reifies demands and is a  result of commodity fetishism — of reducing social relations to thingness, which helps in capitalist reproduction not just in ideology, but also materially. It is through this reduction that the legitimation of a capitalist state, as the chief arbitrator of the system, is derived. But a movement is definitely more than its demands, it is about social relations. What is happening in the US is not simply a reaction to an incident, rather it is the eventalisation of that incident exposing the ab-normalcy of those relations.       

The Political Economy of Policing and the Floyd Protests

It seems corporate America has found “a public relations windfall” in the Floyd protests. Many delivery-based firms, like Amazon, Instacart, GrubHub among others, who have been crucial agencies of commodity circulation during the ongoing pandemic, were engulfed in labour conflicts. They found a respite in the protests, as “corporate anti-racism is the perfect egress from these labor conflicts. Black lives matter to the front office, as long as they don’t demand a living wage, personal protective equipment and quality health care.”[4] However, these spectacular protests could not be reduced to militant black liberal demands of Black Lives Matter, foremostly because the problems of policing themselves could not be understood simply from the perspective of race. 

Racial disparity is an important description of inequalities that characterise the American society. The statistical significance of this phenomenon can hardly be overstated in describing police violence and incarceration in the US.  However, it is not self-explanatory, it is linked to the deeper political economic processes. 

“What the pattern in those states with high rates of police killings suggests is what might have been the focal point of critical discussion of police violence all along, that it is the product of an approach to policing that emerges from an imperative to contain and suppress the pockets of economically marginal and sub-employed working class populations produced by revanchist capitalism.“[5, emphasis mine]

In the Marxist framework, “the uncertainty and irregularity of employment, the constant return and long duration of gluts of labour are all symptoms of a relative surplus population.”[6] The growing number of marginalised sub-employed segments of the working class are what constitute today the relative surplus population and its various types: Floating, Latent, Stagnant and “the sphere of pauperism…the hospital of the active labour-army and the dead weight of the industrial reserve army.”[7] This ever growing population must be harnessed for capitalist accumulation, to obtain cheap labour and to cheapen existing labour. Yet it is a dangerous disruptive force when not engaged productively in an immediate manner. The increase in police violence is perhaps evidence of an increased self-activity of this population.  A proper regime of incarceration and policing is needed to contain, suppress and productivise its energy. 

In fact, Ruth Gilmore in her book, Golden Gulag, shows “how resolutions of surplus land, capital, labor, and state capacity congealed into prisons.” The “phenomenal growth of California’s state prison system since 1982” can be understood as a part of the resolution to the crisis of the golden age of American capitalism, which was characterised by overaccumulation wanting radical measures like “developing new relationships and new or renovated institutions out of what already exists.” [8] Since the late 1990s, Gilmore along with Angela Davis and others has been involved in the organising efforts against what they call, the Prison-Industrial Complex.[9] 

With regard to the Floyd Protests too, it has been observed that among the masses that have emerged on the streets, there are those who have suffered because of the pandemic and being sheltered-in-place “without adequate sustained federal relief.” Therefore, these protests are also a consequence of “mass layoffs, food pantries hard pressed to keep up with unprecedented need, and broad anxiety among many Americans about their bleak employment prospects in the near future.” This can be grasped only if the widespread looting is not rejected, but explained. 

Unlike the ghetto rebellions of yesteryears, the composition of the looters today is multiracial and intergenerational, targeting downtowns and central shopping districts. These are “the most dispossessed of all races and ethnicities who are the most likely to be routinely surveilled, harassed, arrested, convicted, incarcerated and condemned as failures, the collateral damage of the American dream.”[10] The law-preserving and law-constituting forces can understand only the language of demands, and the surplus-ed do not demand, but act.

Beyond Neoliberal Social Justice 

The hegemonic tendency in the American anti-racist movement today “accepts the premise of neoliberal social justice”. It has emerged as “the left wing of neoliberalism  [whose] sole metric of social justice is opposition to disparity in the distribution of goods and bads in the society, an ideal that naturalizes the outcomes of capitalist market forces so long as they are equitable along racial (and other identitarian) lines.”[11] This provides a crucial clue to understand not just the limits of the movements for representation, recognition and redistribution, but also the compatibility of social justice with neoliberalism. This can help in making sense of why in some countries, like India, policies and laws towards ensuring social justice frequently accompanied the aggressive implementation of neoliberal economic reforms. 

The history of capitalism shows that it includes through differentiation and segmentation, constituting the unevenness of its social geography, which is a crucial factor in the dynamics of capitalist accumulation. It is this differential inclusion that structures the extension and intensification of division of labour, facilitating the circulation of commodities and capital and ensuring the transfer of value. This aspect of capitalist development manifests itself in real identitarian inequalities, insecurities, anxieties and politics at diverse levels of social structures. Social differentiation, obviously, in effect preempts or defers the emergence of class-against-capital that threatens not just law and order, but the very system that they conserve. Simplistically put, identities are all about horizontal divisions and vertical (re)integration. This engenders a perspective that does not allow various segments to think beyond redistributive economics and the politics of representation and recognition. So all social conflicts become just problems of management, engineering, and of statistics. Hence, tweaking specific variables is what needs to be done. Blaming individuals  or even specific institutions for what is an endemic problem of the system is the best way to salvage the system. This is how today, as Pasolini would put, people everywhere (differentially, but definitely) “belong to a ‘totality’ (the ‘semantic fields’ on which they express themselves through both linguistic and nonlinguistic communication).” This is how “bourgeois entropy” is reached, when “the bourgeoisie is becoming the human condition. Those who are born into this entropy cannot in any way, metaphysically, be outside of it. It’s over.”[12] But, is it so?  

Can we deny the experience of racism and, for that matter, of any enclosed segment of class? Aren’t such experiences crucial to the politics of class? While it is true that racism cannot be understood in its own terms, and all problems faced by black proletarians cannot be reduced to racism, can we deny that class always appears through such specific geo-cultural forms of social relations? The sedimental reality of all these forms is, of course, the dynamics of class relations and struggle, but these dynamics can only be captured in the experience of these forms. The struggle against segmentation is not to wish it away. Any unity based on such ideological wishing away of inter-segmental conflicts will be external and an imposition. 

An identity assertion becomes revolutionary when it is a ground for negating the very logic of differentiation and segmentation that sustains capitalist accumulation through competition and hierarchy. Then, the assertion is not for identitarian accommodation, but against the logic of identification—to envisage a non-identity against and beyond all identities. The positive assertion of identities, on the other hand, is for accommodation within power and accumulation of power —this is what social justice means within the logic of capital. However, any assertion of oppressed identities always contains the possibility of the release of an anti-identitarian subject, the class of proletarians, that goes against racism, casteism and other segmentations to destroy the stability of the very system of classification and gradation of labourers that sustains capitalism. It is this subject that can be traced in the incidents of looting and arson in the Floyd protests. Since they serve no means, they are ignored by those who don’t decry them.

Note: My special thanks to Arvind, Lalan, Nilotpal, Paresh, Prakash, Pritha and Satyabrat for innumerable discussions on the article. 

References

[1] Il PCI ai Giovani (The PCI to the Young), in Pier Paolo Pasolini. 1972 [2005]. Heretical Empiricism. Tr. Ben Lawton & Louise K. Barnett, New Academia Publishing, pp 150-158.

[2] David Harvey. 2005. A Brief History of Neoliberalism. Oxford University Press. (Chapter 2, ‘The Construction of Consent’).

[3] David Plotz & Henry Blodget. 2020. ‘We need more experiments like Seattle’s police-free’, Business Insider (June 13, 2020). Accessed on June 15, 2020.

[4] Cedric Johnson. 2020. ‘The Triumph of Black Lives Matter and Neoliberal Redemption’, nonsite.org (Posted June 9, 2020). Accessed on June 15, 2020.

[5] Adolph Reed, Jr. 2016. ‘How Racial Disparity Does Not Help Make Sense of Patterns of Police Violence’, nonsite.org (Reposted June 9, 2020). Accessed on June 15, 2020. 

[6] Karl Marx. 1976. Capital. Volume 1, (Trans. Ben Fowkes). London: Pelican Books, p. 866.

[7] Ibid, p. 797.

[8] Ruth Wilson Gilmore. 2007. Golden Gulag: Prisons, Surplus, Crisis and Opposition in Globalizing California. University of California Press, p. 28.

[9] Critical Resistance Publications Collective, ed. 2000. Critical Resistance to the Prison-Industrial Complex. Special Issue of Social Justice 27(3). 

[10]Johnson, op. cit.

[11] Reed, op. cit.

[12] Pasolini, op. cit., p. 156.