मैंने खड़ी पहाड़ों और ऊंची चोटियों को लांघा है,
मुझे क्या इल्म होगा तराइयों की मुश्किलातों का?
पहाड़ों में बाघ के सामने से महफूज़ गुज़रा हूँ,
तराइयों में मिले इंसां और कैदखाने पहुंचा हूँ।
हो ची मिन्ह (19 मई 1890 – 2 सितंबर 1969)
मैंने खड़ी पहाड़ों और ऊंची चोटियों को लांघा है,
मुझे क्या इल्म होगा तराइयों की मुश्किलातों का?
पहाड़ों में बाघ के सामने से महफूज़ गुज़रा हूँ,
तराइयों में मिले इंसां और कैदखाने पहुंचा हूँ।
हो ची मिन्ह (19 मई 1890 – 2 सितंबर 1969)
हमारा मरना मारना महज तथ्य है
आंकड़े हैं मशीन की परीक्षा के लिए
नई तकनीक है
चेहरे पहचानने की
कोई अदृश्य मशीन उस मशीन के पीछे है
और उसके पीछे एक और मशीन
मशीनों का पूरा तंत्र है
जो अपने आप में एक यंत्र है
(अगर कुछ भी नहीं होगा
तो क्या काम होगा
हमारा
उसका)
हमारी पहचान होगी
इसका कत्ल हुआ
और उसने मारा
– नया काम और कामगार
नया सर्वहारा
समय की धूल
उड़ती बैठती
इतिहास पर
पहाड़ों की तरह
ज़िन्दगी
और ज़िन्दगी
खोती रही
बस ज़िन्दगी
कल क्या हुआ था
नींद में था
चल बसा
अब खोदते हैं
कब्र उसकी
मिल रही है
कब्र किसकी
क्रांति क्रांति हे क्रांति देवि
भक्तों के स्वर यों गूँज रहे
तुम कहाँ गई हो इन्हें छोड़
ये हर पल तुम को ढूंढ़ रहे
तुम इनकी खबर न लेती हो
तुम इनको कुछ न देती हो
लो ये दीवाने क्लांत हुए
रोते रोते सब शांत हुए
अब ऐसी हालत हो गई है
हर आहट पर ये चौंक रहे
इनकी गति अब यूँ देख-देख
सब श्वान इन्हीं पर भौंक रहे
हर छोर मोड़ पर तुम दिखती
हर देवि में तेज तुम्हारा है
जिस ओर हवा भी बहती हो
सब इनके लिए इशारा है
पता नहीं क्या होगा तब
जब देवि तुम्हारा आना हो
हर ओर तुम्हारे मंदिर हैं
किस अर्थ तुम्हारा पाना हो
सब रमे हुए हैं भक्ति में
आभास तुम्हारा इनको है
सब तुम्हें जानते तुमसे ज्यादा
चाह तुम्हारी जिनको है
कण कण में जब तुम्हीं दिखो
हर तरफ तुम्हारी ही छाया
जब देवि तुम्हीं हर ओर मिलो
क्या काम करे काया-माया
हम निकल पड़े थे वहाँ उम्मीद में कि दुनिया बदले
खड़े हैं आज भी उस छोर पर कि कारवाँ गुज़रे
इक-इक कर के दुनिया की हवा ने
उम्मीद के गुलिस्तां से
चुन लिया है गुलों की रंगीनी
हरे पत्तों से उनकी हरियाली
शोख यौवन से सारी शोखी
रह गए हैं तो बस कंटीले बिस्तर
ढंकने को है तो बस सपनों की चादर
उसने हर रूप निहार कर देखा
हर आकार फाड़ कर देखा
सपनों की बीज हर कहीं लेकिन
खोज कर खोद ले जाए नहीं मुमकिन
सपना साकार ही हो जाए तो सपना कैसा
छीन सकता है उसकी भाषा को
छू नहीं सकता उसकी आशा को
अकेलापन –
कैद झींगुर
लटकता दीवार से
जापानी कवि बाशो
अंधकार समय में क्रांतिकारी परिवर्तनगामी व्यवहार के स्वरूपों पर जर्मन कवि और नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की समझ आज भी हमारे लिए सटीक है। उनकी एक लघु कविता ये भी है:
ज्यादा न बोलो कि तुम सही हो, गुरू जी।
विद्यार्थियों को भी जानने दो उसे।
सच्चाई इतनी पेलने की ज़रूरत नहीं है:
ये उसके लिए अच्छा नहीं।
बोलते हुए तुम सुना भी करो!
आओ देखो तो
दर्दभरी दुनिया के
अस्ल फूलों को
पुराने जापानी कवि बाशो की लघु कविता
17 जून के विद्रोह के बाद
लेखक संघ के सचिव ने
स्टालिनाले में पर्चे बंटवाए
यह बताते हुए कि जनता ने
अपने प्रति सरकार का भरोसा खो दिया है
और अब केवल दोहरी कोशिशों से ही वे
उसको फिर से जीत सकती है। ऐसी स्थिति में
क्या सरकार के लिए ज्यादा आसान नहीं होगा
कि वे जनता को ही भंग कर दे
और दूसरी चुन ले?
नोट: जर्मनी के कम्युनिस्ट नाटककार, कवि और दार्शनिक ब्रेष्ट ने यह कविता पूर्वी जर्मनी के स्टालिनाले में हुए 17 जून 1953 के मजदूर विद्रोह के बाद लिखी थी।
ये दीवार आईना है
तुम्हें कुछ भी नहीं दिखता
क्योंकि तुम कुछ भी नहीं हो
तुम्हें दीवार दिखती है
क्योंकि तुम दीवार हो
अपने और अपनों के बीच
तुम्हें दीवार पर नाखूनों से जड़ा चित्र दिखता है
क्योंकि उस चित्र में तुम हो
तुम्हें अपना मतलब वहीं खोजना है
क्योंकि वही तो आईना है
और पता करना है कि चित्रकार कौन है