धुर-दक्षिणपंथ के विरोध का अर्थ


सम्पादकीय (ड्राफ्ट), मोर्चा

उनका तर्क है कि कोई भी चीज़ स्वयं को केवल एक ही प्रकार की चीज़ के रूप में दोहरा सकती है, तथा किसी भिन्न चीज़ में परिवर्तित नहीं हो सकती। — माओ 

“विश्व इतिहास में… सभी अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएं और हस्तियां… दो बार आविर्भूत हुई हैं।… पहली बार दुखांत नाटक के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में।” मगर ये घटनाएं यथार्थ में दो बार  नहीं होतीं, बल्कि अतीत की मृतात्माएं भाषा, परंपरा, नाम, रणनाद और परिधान मुहैय्या कराती हैं जिन्हें उचित संप्रेषण के अभाव में “विश्व इतिहास की नवीन रंगभूमि को इस चिरप्रतिष्ठित वेश में और इस मंगनी की भाषा में सजाया” जाता है।  मार्क्स के अनुसार, इस “भोंडी नकल” से प्रगतिशील ताकतें भी अछूती नहीं होती। 

प्रतिक्रियावादी ताकतें स्वभावतः राष्ट्रवादी, नस्लवादी, जातिवादी अतीत के “गौरव” को पुनश्च जीती हैं, मगर अपने आप को सर्वहारा क्रांति के हिरावल मानने वाले यदि अतीत को जीने लगें तो समस्या है। अतीत की समझ जरूरी है  (यह मार्क्सवादी से अधिक कौन जानता है) मगर उनमें संदर्भ के ऐसे बिंदुओं की तलाश करने के लिए, जो हमें वर्तमान में हमारे स्थान को स्थापित करने में मदद करें, ठीक उसी तरह जिस तरह नाविकों को आकाश के तारे मदद करते हैं।  जब वर्तमान का अर्थ धूमिल हो रहा हो तो अतीत के वे बिंदु हमारे लिए तारों का काम करते हैं।  मगर आज की सामाजिक क्रांति अपना काव्य अतीत से कभी नहीं गढ़ सकती, उसे भविष्य से ही गढ़ना होगा। बेगमपुरा की नगरी अतीत में नहीं है, भविष्य में है। 

इतिहास और वर्तमान की समझदारी का रिश्ता एकतरफा नहीं होता यानी इतिहास पर आपकी पकड़ वर्तमान में आपको शातिर बना देगी, ऐसा बिल्कुल नहीं है। ज्यादा समय इतिहास के ज्ञान का बोझ आपको ऐतिहासिक रूपकों की भूलभुलैया में विलीन कर देता है, और वे मिथक का काम करते हैं। तथाकथित वस्तुनिष्ठ इतिहास के प्रचारक वर्तमान को महज उसका निष्कर्ष मानते हैं, जबकि गतिशील वर्तमान हमेशा नया इतिहास रचता है, उसमें नए बिंदुओं को तलाशता है ताकि भविष्य के रास्तों को ढूँढ़ सके। इतिहास का विकासवादी (evolutionary) दृष्टिकोण, वर्तमान की नवीनता को नहीं स्वीकारता, वह स्वरूपात्मक पुनरावृत्तियों की भाषा में उसको बांधने का प्रयास करता है। वर्तमान का हरेक नया क्षण इतिहास के पुनरावलोकन के लिए अवसर प्रदान करता है —  पुराने क्षणों को देखने और समझने के लिए नया दृष्टिकोण देता है। इसके विपरीत, नए में पुराने को खोजने की जिद्द में इतिहास के दरारों और छलाँगों को नजरअंदाज करने से हमारी राजनीति और हमारे संघर्ष निश्चित व्यवस्थापरक सीमाओं में बंधे रहते हैं, जबकि संघर्षों में हमेशा अंतर्निहित अमूर्त संभावनाएं होती है, जो संयोगों की जननी हैं जिनसे इतिहास की गति में छलांग पैदा होती हैं। 

फासीवाद के ऐतिहासिक रूपक से वर्तमान के दक्षिणपंथी उभार की समझदारी को प्रस्तुत करने में अवश्य ही मदद मिलती है, परंतु जैसा कि अलेक्जेंडर रोसेनब्लूएथ और नॉर्बर्ट वीनर ने लिखा है, “रूपक की कीमत शाश्वत सतर्कता है।” जीव-वैज्ञानिक रिचर्ड लेवॉन्टिन “द ट्रिपल हेलिक्स” में इस बात पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं —  प्रकृति के बारे में बात करते हुए हम रूपकों के उपयोग से बच नहीं सकते, लेकिन रुपक को वास्तविकता के साथ घालमेल करने का खतरा हमेशा बना रहता  है। हम दुनिया को मशीन की तरह से देखना बंद कर, मशीन ही समझ बैठते हैं। प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र से कहीं अधिक यह समाज और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्रों  में होता है। सामाजिक अवधारणाएं, खास तौर से जो मूर्त तौर पर किसी ऐतिहासिक काल, घटना इत्यादि  से जुड़ी होती हैं उनका इस्तेमाल वर्तमान के चित्रण और समझ के लिए अनिवार्य हैं, परंतु उन्हें उनकी ऐतिहासिकता से काट कर भौतिकवैज्ञानिक अवधारणाओं की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। फासीवाद की मूर्तता जो इटली और जर्मनी या फिर उस समय के अन्य धुर–दक्षिणपंथी आंदोलनों में मिलती है, उसे इन आंदोलनों या उनके समय के इतिहास से निकालकर उनका अवधारणात्मक इस्तेमाल करना खतरनाक है — क्योंकि इससे उनके खिलाफ की लड़ाई की “भोंडी नकल” का खतरा पैदा हो जाता है। 

पिछले कुछ अंकों से हम घोर दक्षिणपंथी आंदोलनों, राजनीति और सत्ताओं के उभार की जांच हेतु सामग्रियों का प्रकाशन कर रहे हैं।  इन सामग्रियों और चर्चाओं ने इतना तो साफ किया है कि उस जमाने के फासीवाद और नाजीवाद जिस रूप में सामाजिक उत्कंठाओं और कुंठाओं की उपज और अभिव्यक्तियाँ थे, आज के धुरदक्षिणपंथ भी उसी तरह आज की उत्कंठाओं और कुंठाओं की उपज और अभिव्यक्ति हैं।  उनके तौर-तरीके में भी समानता दिखती है। परन्तु विद्यमान नव-उदारवादी पूंजीवादी चरण की विशेषताएं इन राजनीतिक अभिव्यक्तियों की भूमिकाओं और कार्यकलापों को नया स्वरूप और नया अर्थ देती हैं। आज के दक्षिणपंथ को समझने में “फासीवाद” का परिभाषात्मक उपयोग खतरे से खाली नहीं है। इसका नतीजा आज की स्थिति की अतिरंजित ढंग से पेशकश ही नहीं, बल्कि हमारे वक्त की विशिष्टता और गंभीरता को कम करना भी हो जाता है। 

आज के नव–उदारवादी दौर में फासीवादी प्रवृत्तियाँ पूंजीवादी व्यवस्था के राजनीतिक -आर्थिक संघटन में समाहित हो गई है। वर्गीय और अन्य विभाजनकारी भिन्नताएं राजकीय कार्यकलापों के स्तर पर, विशेषकर पूंजीवादी लोकतंत्र के तहत छिपी रहती थीं, जहां  संप्रभुता को निर्वैयक्तिक कानूनी प्रणाली के माध्यम से काम करना होता था और जो सभी पर समान रूप से लागू होती थी। (गासपार मिकलोस तामास) जबकि इसके विपरीत, फासीवादी तानाशाही विभाजनकारी भिन्नताओं को उजागर कर उसी के आधार पर मनमानी नीतियों द्वारा संप्रभुता स्थापित करती  थी — “संप्रभु वह है जो अपवाद पर निर्णय लेता है।”

1970 के मध्य से ही लगातार पूंजीवाद के नवोदारीकरण के दौर में पूंजीवादी राजसत्ता ने फासीवादी प्रवृत्ति को इस प्रकार से आत्मसात किया है कि पूंजीवादी जनतंत्र  के तहत भी संप्रभुता का वही रूप हो गया है, जो खुले तौर पर मनमानी नीतियों द्वारा अपने विभाजनकारी चरित्र को पेश करता है — सार्विक नागरिकता के आदर्श की जगह पर नागरिकता को विशेषाधिकार और श्रेणीबद्ध बना देता है। दूसरी तरफ, आज फासीवादी भीड़ — संगठित/केंद्रित हो या असंगठित/विकेंद्रित हो दोनों ही रूपों में दैनिकता में लगातार विद्यमान रहती है। ये आज पूंजीवादी जनतंत्र के लिए खतरा नहीं है, बल्कि नवोदार पूंजीवादी जनतंत्र को पॉपुलिस्ट चरित्र देती है, और बदलती सरकारों को इसी के दायरे में काम करना होता है — विशेष प्रकार के लोकवृत्त का निर्माण करती है, जिसके तहत विचारधारात्मक रूप से भिन्न राजनीतियाँ आपस में प्रतिस्पर्धात्मक विनिमय संबंध बना पाती हैं, और एक दूसरे की पूरक बन जाती हैं।  क्या यही आज भारत की दशा नहीं हो गई है? चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें हों, चाहे वह अति-दक्षिणपंथी भाजपा नेतृत्व की सरकार हो या किसी और पार्टी के नेतृत्व की सरकारें हों, चाहे शासक पार्टी हों या विपक्ष की पार्टियां हों, सभी इस भीड़ को भीड़ रूप में ही नियोजित करने की कौशिश कर रहीं हैं, चाहे कोई सांप्रदायिक आधार पर करे, या फिर भाषाई या अन्य आधारों पर। नव-उदारवादी संदर्भ में इस उत्तर-फासीवाद के खिलाफ संघर्ष किस प्रकार से ऐतिहासिक फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के तौर-तरीकों से, जिसके लिए फासीवाद एक चिह्नित आंदोलन और राज्य था जिस पर सीधा निशाना साधा जा सकता था, लड़ा जा सकता है? 

जैसा कि बार बार कहा गया है पूंजीवादी समाज में अलगा‌व और कुंठा स्वाभाविक है, जो कि समाज में फैलते सर्वहाराकरण, असमानता, व्यक्तिकरण और प्रतिस्पर्धा का सीधा नतीजा हैं। इस समाज का  हर वर्ग इनसे प्रभावित होता है। एंगेल्स अपनी आरंभिक पुस्तक, द कन्डिशन ऑफ द वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड  (1845) में सामाजिक प्रतिस्पर्धा का बखूबी चित्र खींचते हैं:  

“प्रतिस्पर्धा आधुनिक नागरिक समाज में सभी के विरुद्ध सभी की लड़ाई की पूर्ण अभिव्यक्ति है। यह लड़ाई, जीवन के लिए, अस्तित्व के लिए, हर चीज के लिए लड़ाई, जरूरत पड़ने पर जीवन और मृत्यु की लड़ाई, केवल समाज के विभिन्न वर्गों के बीच ही नहीं, बल्कि इन वर्गों के अलग-अलग सदस्यों के बीच भी लड़ी जाती है। हरेक आदमी दूसरे के रास्ते में है, और हरेक अपने रास्ते में आने वाले सभी लोगों को बाहर निकालने और खुद को उनकी जगह पर रखने का प्रयास करता है। मजदूर आपस में उसी प्रकार लगातार प्रतिस्पर्धा में रहते हैं, जैसे कि पूंजीपति वर्ग के सदस्य।”

यह “सभी के विरुद्ध सभी की लड़ाई” व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर कुंठित आशाओं और मानसिक-भौतिक रुग्णताओं को पैदा करती है। इन कुंठित प्रवृत्तियों और रुग्णताओं को लेकर तीन तरह की राजनीति हो सकती है। एक, जो इन कुंठाओं को नियंत्रित और प्रबंधित करे ताकि वे व्यवस्था के लिए खतरा न बन जाएं, तथा प्रतिस्पर्धा को और तेज कर उसे पूंजीवाद के सामाजिक पुनरुत्पादन का जरिया बना दे; दूसरा, जो इन कुंठाओं के तह में जाए, और उसके आधार पर चोट करे; और  तीसरा, वह जो कुंठा को ही राजनीति बना ले। पहले प्रकार की राजनीति के तहत सभी बुर्जुआ राजनीतिक शक्तियां — लेफ्ट-राइट-सेंटर, उदारवादी हों या रूढ़िवादी — होतीं है,  दूसरे के तहत क्रांतिकारी अथवा परिवर्तनगामी राजनीति होती है जो व्यवस्था को ही चुनौती देती है। तीसरे में धुर-दक्षिणपंथी शक्तियाँ शामिल हैं जो कुंठितों की कुंठाओं की जैविक अभिव्यक्ति हैं — जो शिकायतों और लांछनों की भाषा में ही अभिव्यक्त होती हैं। यह बात फासीवादी या अन्य-धुरदक्षिणपंथी जन-आंदोलन  के लिए तो सही ही है, जो राजनीतिक-आर्थिक संकट के दौर में  राज्य की वैधता (legitimation) को  अन्य दक्षिणपंथ और रूढ़िवादी शक्तियों के साथ जुड़ कर पुनर्स्थापित करने की कोशिश करता है। जिस प्रकार से पूंजीवाद की राजकीय-वैधानिक व्यवस्था औसत आदमी के रूप में सभी वर्ग के व्यक्तियों को ढालता है, उसी औसत आदमी की कुंठाओं को धुरदक्षिणपंथ एकत्र कर राजनीति का रूप देता है। क्रांतिकारी शक्तियों को इसी औसतीकरण के खिलाफ वर्गीय राजनीति को सामने रखना होगा। उदारवादी औसतीकरण का पूरक है फासीवादी औसतीकरण जो पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन के संकट के दौर में सामने आता है। 

हमने मोर्चा के पिछले अंक के संपादकीय में आज के दक्षिणपंथी उभार के कुछ कारणों पर ध्यान दिया था। संक्षेप में हम बोल सकते हैं कि नवोदार पूंजीवादी प्रक्रियाओं के तहत बेशीकरण, सर्वहाराकरण और प्रतिस्पर्धा में तेजी ने न्यूनीकृत राजसत्ताओं के लिए वैधता–संकट (legitimation crisis) पैदा कर दिया है। बेशी और सर्वहाराकृत आबादी की बढ़ती तादाद की आपसी प्रतिस्पर्धा ने पूंजीवाद की प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक व्यवस्था को अनिश्चित बना दिया है।  दक्षिणपंथी जन पार्टियों का ऐतिहासिक योगदान फासीवाद की तरह ही इस आबादी को इस रूप में संगठित करना होता है कि वे पूंजी के शासन के लिए खतरा न बन सकें। परन्तु 1920 – 45 के दौर में पूंजी, उसके मूर्त स्वरूप और बाजार राष्ट्रीय सीमाओं के आधार पर अपने आप को नियोजित करते थे और इसी कारण राष्ट्रीय नीतियों और राजनीतियों के आधार पर पूंजी संचय के राजनीतिक अर्थतांत्रिक मॉडलों की तैयारी हो सकती थी। लेकिन पूंजी के बढ़ते वित्तीयकरण और भूमंडलीकरण ने राज्य की इन क्षमताओं को कमजोर कर दिया है, और व्यवस्थापरक राजनीति की भूमिका आज जन असंतोष को व्यक्तिकृत और फिर उसे संगठित कर कुंद करना है, कोई सुव्यवस्थित राजनीतिक–आर्थिक मॉडल देना नहीं है। ऐसे में राजसत्ता-केंद्रित संघर्षों से हम किस हद तक आज के दक्षिणपंथी विकृत जन आंदोलनों की मौजूदगी से निजात पा सकेंगे?

हमारा मानना है कि पुराने संघर्षों से अभी भी बहुत कुछ सिखा जा सकता है, परन्तु उनको मॉडल की तरह इस्तेमाल करना गलत होगा – हम उनकी नकल नहीं कर सकते। हमें उनके प्रासंगिक गुणों को नया स्वरूप देना होगा। संघर्ष का स्वरूप हमेशा समय और स्थान से बंधा होता है। दूसरे समय या स्थान के संघर्षों से सीखने का अर्थ उनकी पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। जिनके लिए वर्तमान महज पुनरावृत्ति है, वह अतीत की झूठी निश्चितताओं को जीना चाहते हैं। यहाँ हम संक्षेप में कुछ रणनीतिक सीख को सामने रखेंगे।  

फासीवाद के विरोध का सबसे सुगठित जन-आंदोलनकारी स्वरूप कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के व्यवहार में पैदा हुआ, जिसका आकार मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम के अनुसार संकेंद्रीय वृत्त की तरह था। “श्रम की संयुक्त ताकतें (‘संयुक्त मोर्चा’ या यूनाइटेड फ्रन्ट) लोकतंत्रवादियों और उदारवादियों के साथ एक व्यापक चुनावी और राजनीतिक गठबंधन (‘लोकप्रिय मोर्चा’ या पोपुलर फ्रन्ट) की नींव रखेगी। इसके अलावा, जैसे-जैसे जर्मनी आगे बढ़ता गया, कम्युनिस्टों ने ‘राष्ट्रीय मोर्चे’ के रूप में और भी व्यापक विस्तार की कल्पना की, जिसमें सभी लोग शामिल थे, चाहे उनकी विचारधारा और राजनीतिक मान्यताएँ कुछ भी हों, लेकिन वे फासीवाद (या शक्तियों की धुरी) को प्राथमिक खतरा मानते थे।” इतिहासकारों का मानना है, चूंकि कम्युनिस्ट सिद्धांत और व्यवहार में भी अंतरराष्ट्रवादी थे, जिस कारण से फासीवाद के विरोध में राष्ट्रवादियों और देशप्रेमियों से ज्यादा दृढ़ प्रतिज्ञ ढंग से लोगों को एकत्र कर पाते थे। हॉब्सबॉम कम्युनिस्टों की फासीवाद-विरोधी रणनीतिक सक्षमता का आधार उनके व्यवहार की संरचना में देखते हैं।  

“कम्युनिस्टों ने प्रतिरोध का रास्ता अपनाया, न केवल इसलिए कि लेनिन की ‘अग्रणी पार्टी’ की संरचना अनुशासित और निस्वार्थ कार्यकर्ताओं की एक ताकत तैयार करने के लिए बनाई गई थी, जिसका उद्देश्य कुशल कार्रवाई करना था, बल्कि इसलिए भी कि चरम स्थितियाँ, जैसे कि अवैधता, दमन और युद्ध, ठीक वही थीं जिनके लिए ‘पेशेवर क्रांतिकारियों’ के इन निकायों को बनाया गया था। वास्तव में, उन्होंने ही ‘केवल प्रतिरोध संघर्ष की संभावना को देखा था’…। इस मामले में वे जन समाजवादी पार्टियों से अलग थे, जिन्हें वैधता के अभाव में काम करना लगभग असंभव लगता था, चूंकि चुनाव, सार्वजनिक बैठकें और बाकी चीजें उनकी गतिविधियों को परिभाषित और निर्धारित करती थीं।” (एरिक हॉब्सबॉम, ‘दी एज ऑफ एक्सट्रीम्स’)

“श्रम की संयुक्त ताकत” के रूप में संयुक्त मोर्चा को समझना, राष्ट्रवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रवादी प्रतिबद्धता और चरम स्थितियों में काम करने योग्य सांगठनिक क्षमता — ये तीन सिद्धांत आज भी प्रतिक्रियावाद के खिलाफ संघर्ष में अहम होंगे। इन्हीं के आधार पर आज के संघर्ष  की तैयारी हो सकती है। 

प्रत्यूष चन्द्र

Good bye, Com Sher Singh


He was the most communist communist in his daily life, whom very few “communists” would recognise as a “communist”. For him, communism was always a real movement and never a state of affairs to be established —  it was already there in class activities of workers, which he minutely documented. His life and work could never be separated — he was what he did. Even his oft anti-theoretical stance could be interpreted as practice being one with theory. That was Sher Singh for you.

आज का “फासीवाद”


मोर्चा (अक्टूबर-दिसंबर, 2024), संपादकीय

  जब कोई अपनी अंगुली से किसी चीज़ की ओर इशारा करे, और मूर्ख व्यक्ति उसकी अंगुली को ही देखता रहे, तो उस व्यक्ति को पता नहीं चलेगा कि इशारे का वास्तव में क्या मतलब है। इसी तरह मूर्ख लोग शब्दों की अंगुली पर आसक्त हो जाते हैं। 

 — लंकावतार सूत्र

मसखरे! ये शब्दों का पीछा करते हैं, बिना यह सोचे कि जीवन कितना शैतानी रूप से जटिल और सूक्ष्म है, जो कि पूरी तरह से नए स्वरूपों का निर्माण करता है, जिन्हें हम केवल आंशिक रूप से “पकड़” पाते हैं। 

व्लादमीर लेनिन 

नवंबर में हुए संयुक्त राष्ट्र अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत के साथ एक बार फिर से उदारवादियों और उदारवादी वामपंथ को वैश्विक राजनीति में फासीवाद का बादल जमता नजर आने लगा है। इस उदारवाद की स्थिति हाल के वर्षों में पेंडुलम की तरह हो गई है – स्थाई पूंजीवादी संकट के सामयिक घटनाक्रमों के साथ वे झूलते रहते हैं, मगर उन्हें मुगालता है कि वे नहीं, दुनिया झूल रही है। ट्रंप, मोदी और विश्व के अन्य धुर–दक्षिणपंथियों की चुनावी हार–जीत में उन्हें फासीवाद का उदय और पतन दिखता है। इस उतार-चढ़ाव ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया है।  

फासीवाद को चिह्नित चेहरों और पार्टियों से जोड़कर देखना, और फिर पूरी राजनीतिक ऊर्जा उनके खिलाफ चुनावी जुटान करने में व्यय करना – इसने परिवर्तनगामी राजनीति के चक्के को तात्कालिकतावाद में जकड़ लिया है। तात्कालिकता में जकड़ी राजनीति प्रतिक्रियात्मक ही हो सकती है, वह विद्यमान व्यवस्था के राजनीतिक मल्लयुद्ध के नियमों में ही बंधी रहेगी।

परिवर्तनगामी राजनीति का काम तात्कालिकता की उपस्थिति में छुपी सामाजिक प्रक्रियाओं की सच्चाई को उजागर कर उसके जड़ पर वार करना होता है। परन्तु इसके लिए इतिहास में गढ़े हुए शब्दों और अवधारणाओं की तानाशाही से निकल गतिशील यथार्थ के नए क्षणों के नएपन को पहचानना होगा। ऐतिहासिक फासीवाद  और उस समय के फासीवाद–विरोध के स्वरूप की स्थानिक कालिकता को स्वीकारते हुए आज के फासीवाद को परिभाषित करना होगा और उपस्थित कार्यभार को नियोजित कर अपनाना होगा।  

इतालवी इतिहासकार एंजो त्रावेर्सो अपनी किताब द न्यू फेसेज़ ऑफ फ़ासिज़्म में कहते हैं कि 1930 के दशक के बाद विश्व में आज की तरह अतिदक्षिणपंथ का उभार कभी नहीं हुआ। ऐसे में फासीवाद की स्मृति का जगना स्वाभाविक ही है, और यह भी स्वाभाविक है कि हम उन ऐतिहासिक अनुभवों की आलोचना में उभरे अवधारणाओं या संकल्पनाओं का इस्तेमाल नए अनुभवों को व्यक्त करने के लिए करते हैं। परन्तु जैसा कि त्रावेर्सो कहते हैं ऐतिहासिक तथ्यों और भाषा के बीच तनाव रहता है। इसी तनाव से समानताओं और असमानताओं को निश्चित करती ऐतिहासिक तुलना संभव हो पाती है। जो इस तनाव को नहीं देख पाते वे सजातीयता और पुनरावृत्तियों को खोजते फिरते हैं।  वे उसकी तरह हैं जो चंद्रमा की ओर इंगित करती अंगुली के सिरे को चंद्रमा समझ बैठते हैं। त्रावेर्सो के अनुसार, फासीवाद की अवधारणा नई वास्तविकता को समझने के लिए अनुचित भी है, परंतु अपरिहार्य भी। अनुचित है ऐतिहासिक असमानताओं/विषमताओं के कारण, और अपरिहार्य है क्योंकि ऐतिहासिक फासीवाद के साथ तुलना किए बगैर नई वास्तविकता को नहीं समझा जा सकता।

ऐतिहासिक फासीवाद – आंदोलन और राजसत्ता 

यूरोप में फासीवाद और नाजीवाद को लेकर मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों की आरंभिक व्याख्याओं में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक–वैचारिक पहलू साफ तौर पर दिखते हैं। पहला पहलू है, इन आंदोलनों के वर्गीय चरित्र की व्याख्या करते हुए इनके अंदर विषम वर्गों के तत्वों की खिचड़ीनुमा एकजुटता का संज्ञान। यही एकजुटता इन आंदोलनों को व्यापक कर्कश जन-चरित्र प्रदान करती है। दूसरा, इस भीड़ को बनाए रखने के लिए सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर कातिलाना अनुष्ठानों की जरूरत होती है जो राजकीय प्रशासन का मॉडल तैयार करती है जिसे, नाजी सहयोगी महान राजनीतिक दार्शनिक कार्ल श्मिट अपवादावस्था (स्टेट ऑफ इक्सेप्शन) नाम देते हैं। यह आपातकाल की अवस्था ही है परंतु आपातकाल का प्रावधान तो संविधानों और विधानों में दिया होता है, और जिसके आह्वान के लिए उनमें दिए शर्तों को भी संतुष्ट करना होता है। परंतु श्मिट के अनुसार, “संप्रभु वह है जो अपवाद पर निर्णय लेता है।” यही अंतर है 1975 के आपातकाल की घोषणा में (जिसकी निरंकुशता कम नहीं थी, परंतु तब भी वह वैधानिक प्रक्रिया से बंधी थी) और 2016 में विमुद्रीकरण की अपवादावस्था में। 1920-30 के दशकों के यूरोप में यह अपवादावस्था नई फासीवादी राजसत्ता का स्वरूप लेती है — निरंतर अपवाद का सिद्धांत उसकी नीव है। इस राजसत्ता की वैधता का आधार फासीवादी आंदोलन द्वारा निर्मित भीड़ है, जिसका पोषण और पुनरुत्पादन राजसत्ता की आवश्यकता है । 

जर्मन कम्युनिस्ट नेता क्लारा ज़ेटकिन फासीवाद को राजनीतिक रूप से आश्रयहीनों  की शरणस्थली के रूप में देखती हैं। यह चित्रण फासीवाद को पैदा करने वाले विशेष सामाजिक परिपेक्ष की ओर इंगित करता है। पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक विघटन के दौर में जब पुरानी राजनीतिक/राजकीय लामबंदी और नियंत्रण कमजोर पड़ गई हों तथा उनके खिलाफ कोई ठोस क्रांतिकारी राजनीति भी न दिखती हो जो पूंजीवादी प्रक्रियाओं से त्रस्त वर्गों और वर्ग-तत्वों को मुक्तिगामी सामाजिकता का रास्ता दिखा सके, तो सामाजिक उदासीनता और राजनीतिक आश्रयहीनता स्वाभाविक नतीजा है। विभिन्न पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं द्वारा आम-तौर पर विखंडित (segmented) मजदूर वर्ग के कई हिस्से भी इस उदासीनता और आश्रयहीनता के शिकार होते हैं। इतालवी कम्युनिस्ट नेता और विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने संक्रमणशील दौर में इसी संक्रमणहीनता को रुग्ण लक्षणों के उत्पादक के रूप में देखा था, जिनका एकीकरण फासीवाद है। 

फासीवाद परस्पर विरोधी वर्गों के व्यक्तियों और समूहों की कुंठाओं को अभिव्यक्ति देता है। मार्क्सवादी विचारक वाल्टर बेंजामिन के अनुसार, वह जनसमूहों की मुक्ति, अधिकार पाने में नहीं, भड़ास निकालने में देखता है। फासीवाद नवीनतम सर्वहाराकृत जनसमूहों को इस प्रकार संगठित करता है कि विद्यमान संपत्ति संबंधों को किसी तरह की आंच न आ सके। “जनसमूहों के पास सम्पत्ति सम्बन्धों को बदल डालने का अधिकार है; फासीवाद सम्पत्ति की रक्षा करते हुए उन्हें अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है।”

फासीवादी जन आंदोलन के निम्नपूंजीवादी चरित्र की जब बात होती है, सर्वहाराकरण की इसी प्रक्रिया की ओर ही इशारा होता है, जिससे कुंठित लोग फासीवाद के स्वाभाविक जनाधार बनते हैं।

जब पूंजीवादी संचय की प्रक्रिया मंद हो रही थी, राजसत्ताओं का सामाजिक-राजनीतिक प्रबंधन विफल हो रहा था, संगठित मजदूर आंदोलन की पैठ मजबूत थी और ग्रामीण-शहरी इलाकों में बेशी आबादी और दरिद्रता तेजी से बढ़ रहे थे, और साथ ही सोवियत राजसत्ता स्थायित्व पा चुकी थी, तब पूंजीपतियों के विभिन्न घटकों को फासीवाद में राजनीतिक संभावना दिखने लगी। उनके लिए यही अपवादावस्था है, जब फासीवादी भीड़ का नेतृत्व उन्हें अपने हितों की सुरक्षा के लिए सटीक उम्मीदवाद नजर आने लगता है। 

वह क्लासिकीय उदारवादी पूंजीवाद के संकट का दौर था जिसकी शुरुआत 20वीं सदी के आरंभ में ही हो चुकी थी, और 1914-18 के साम्राज्यवादी युद्ध  ने उसके अंत को और करीब ला दिया। फोर्डवादी पूंजीवाद, असेंबली–लाइन उत्पादन और थोक (mass) संस्कृति के अनुसार राजसत्ता को पुनर्नियोजित करने की जरूरत थी। फोर्डवाद वह पूंजीवादी संचय की व्यवस्था है जब राजव्यवस्था आर्थिक प्रबंधन के माध्यम से —  सेवा प्रावधान, राजकोषीय नीतियां, श्रम बाजार विनियमन और आधारिक उत्पादक ढांचे मुहैया करा कर— आपूर्ति, मांग और उपभोग के पैटर्न को स्थिर करने में मदद करता है। हस्तक्षेपकारी राजसत्ताओं और सरकारों को लेकर उस दौर में वैश्विक सामाजिक स्तर पर मतैक्य बन चुका था। चाहे रूज़वेल्ट का न्यू डील हो, या सोवियत राजसत्ता हो, या फिर फासीवाद, ये सभी राजकीय हस्तक्षेप के विभिन्न मॉडल थे। परंतु फासीवाद की विशेषता जो उसे बाकी मॉडेलों से भिन्न बनाती है वह है उसकी राजनीति-विरोधी शुद्ध राजनीति — जिसे बेंजामिन राजनीति का सौंदर्यीकरण कहते हैं। फासीवाद चकाचौंध तमाशों में लोगों को इस तरह से बांधता है कि वे अपने कष्टों का निवारण उनके मौलिक कारणों के उन्मूलन में नहीं, बल्कि अंधराष्ट्रवादी शुद्धिकरण यज्ञों की क्रूर हिंसा में देखते हैं। 

नवोदारवाद — पूंजीवाद की निरंतर अपवादावस्था 

आज का धुर–दक्षिणपंथ, फासीवादी हो अथवा नहीं, नव–उदारवादी आर्थिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में फैलती अनिश्चितता और अतिव्यक्तिवादिता के बीच पहचान, भिन्नता, अन्यीकरण और सर्वोच्चता  की राजनीति को पेश करता है। पूंजी का वित्तीयकरण, लीन (मितव्ययी) उत्पादन, भूमंडलीय सप्लाई चेन, सूचनाकरण, नेटवर्क समाज इत्यादि ये प्रक्रियाएं हैं जो पूंजीवाद के उत्तर–फोर्डवादी नवोदारवाद के दौर को परिभाषित करती हैं। इन प्रक्रियाओं ने अगर एक तरफ विश्व भर के श्रमिकों को एक दूसरे से भूमंडलीय उत्पादन प्रक्रियाओं और आपूर्ति श्रृंखलाओं द्वारा जोड़ दिया है, तो दूसरी तरफ श्रमिकों की आपसी प्रतिस्पर्धा को ग्लोबल और तीव्र बना दिया है। वित्तीयकरण और सूचनाकरण ने पूंजी के पलायन को आसान बना कर उद्योगों के स्थानांतरण का खतरा सतत बना दिया है। इस खतरे ने पारंपरिक मजदूर आंदोलन को लगभग हर जगह अगर नष्ट नहीं किया हो तो निर्णायक रूप से अप्रभावी और कमजोर कर दिया है। 

बेशीकरण की प्रक्रिया लगातार तकनीकी और प्रबंधकीय बदलावों के सहारे तेज होती जा रही है। जैसा कि इतालवी मार्क्सवादी बीफ़ो बेरार्दी कहते हैं, डिजिटलीकरण के दौर में “पूंजी अब लोगों की भर्ती नहीं करती, बल्कि समय के पैकेट खरीदती है।” और हरेक पैकेट त्यजनीय और एक दुसरे से अंत:परिवर्तनीय है। अगर यह हरेक उद्योग की सच्चाई बन जाए तो संपूर्ण श्रमिक आबादी बेशी हो जाएगी। वैसे भी बेरोजगारी, अल्परोजगारी, प्रच्छन्न बेरोजगारी, खानाबदोश आबादी, अस्थायी श्रमिक इत्यादि यानी पूंजीवाद के इतिहास में श्रमिकों के जितने प्रकार की ‘प्रजातियाँ’ रही हैं जिन्हें सापेक्ष बेशी आबादी का हिस्सा माना जाता है, वहीं श्रमिकों के सबसे बड़े तबके हैं।

 नस्लवाद, सांप्रदायिकता, आप्रवासी विरोध इत्यादि इस अतिप्रतिस्पर्धात्मक माहौल में व्यक्तिकृत व बेशीकृत जनता की कुंठा को भाषा प्रदान करते हैं। वित्तीयकरण और सूचनाकरण के बढ़ते फैलाव और गहनता के नतीजतन सार्विक समतुल्यीकरण (universal equalization) की प्रक्रिया भिन्नताओं को जितना गौण करती जाती है, उतना ही सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर भिन्नताओं का आग्रह आक्रामक रूप लेता जाता है। इस स्थिति की अमानवीयता ने समाज को अलगाव, उदासीनता और प्रतिस्पर्धात्मक हिंसा के लपेट में ला दिया है। जर्मन कवि हांस माग्नुस एंजेन्सबर्गर इसी को आण्विक गृह युद्ध का नाम देते हैं। धुर-दक्षिणपंथ इसी गृहयुद्ध को नियोजित करने का काम करता है। 

दूसरी तरफ, वित्तीयकृत पूंजी की भूमंडलीय स्वच्छंदचारिता राजसत्ताओं के लिए वैधता का संकट पैदा कर रही है। वित्तीयकरण पूंजी के प्रवाह को तेज और निर्बाध करता है, वह इसको समय-स्थान में बांधने की किसी भी कोशिश को निरस्त कर देता है। वह सामाजिक जीवन और गतिविधियों को भूमंडलीय खुले बाज़ार की अनिश्चितताओं से जोड़ता है। वित्तीय पूंजी की लगातार बढ़ती गतिशीलता ने मुद्रा और कीमतों के राजकीय प्रबंधन को अप्रभावी बना दिया है। प्रबंधन का यह संकुचन समाज को उसकी आर्थिक गतिविधियों से उसके अलगाव का एहसास कराता है, जो आर्थिक ह्रास के दौर में राजसत्ता के लिए वैधता का संकट पैदा करता है।  यह संकट तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब वह पूंजीवादी संचय में यानी आर्थिक पुनरूत्पादन में बाधाएं पैदा करना शुरू कर देता है, और सामाजिक राजनीतिक रूप लेकर आर्थिक की स्वायत्तता पर सवाल उठाने लगता है।

 राजकीय आर्थिक योजनाओं का दौर चला गया है, क्योंकि पूंजीवाद का नवोदरवादी चरण निरंतर अपवादावस्था का दौर है । ज्यादातर आर्थिक नीतियां आज फौरी प्रश्नों से संबंधित होती हैं, वे संरचनात्मक सवालों से नहीं जूझतीं। उनका काम महज पूँजी निवेश को आकर्षित करना रह गया है। जब विकास और वृद्धि एक ही चीज हो गई है तब निवेशों का महज परिमाण मायने रखता है, उनकी गुणवत्ता नहीं। नतीजा, योजनाओं की जरूरत नहीं है। आजकल सट्टा बाजार के उतार चढ़ाव सरकारों की मुख्य चिंता हैं, क्योंकि इस उतार चढ़ाव को उनकी  कार्यकुशलता पर दैनिक जनमत संग्रह के रूप में देखा जाता है। 

पूंजीवाद में राजसत्ता की मजबूती इससे निर्धारित होती है कि वह पूंजीवादी प्रक्रियाओं के सामाजिक-राजनीतिक परिणामों का कितनी कुशलता से प्रबंधन करती है। ग्राम्शी के शब्दों में, यह प्रबंधन दबाव (coercion) और सहमति (consent) की द्वन्द्वात्मक एकता से संभव होता है। लेकिन नव–उदारवाद के तहत सहमति के पुराने उदारवादी राजकीय हथकंडे निरर्थक होते जाते हैं। पूंजी के सम्मुख राजसत्ता की नतमस्तकता नग्न रूप से जगजाहिर हो जाती है। इस दासता का बेशर्म प्रदर्शन इसकी संप्रभुता पर सवाल पैदा कर देता है। 

1970 के अंत से ही अलग–अलग देशों में राजसत्ताओं की संरचना में इस वैधता के संकट से निपटने के लिए वैधानिक और संस्थागत बदलाव देखे जा सकते हैं। नवोदारवाद ने जिस न्यूनतम राजसत्ता की मांग की थी वह उसके विध्वंस की घोषणा नहीं थी । वह अर्थव्यवस्था में उसके गैर-हस्तक्षेप के बारे में भी नहीं था, न ही उसे कमजोर करने के बारे में था। वह सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों से पूंजी संचय की प्रक्रियाओं की स्वायत्तता के बारे में था – मगर उन प्रभावों के बारे में नहीं जो उसके विस्तार में सहायक होते हैं। ब्रिटेन में थैचर और अमरीका में रीगन के प्रशासनों ने विकल्पहीनता के नाम पर जो बदलाव लाए, और जो नवोदारवाद का आरंभिक व्यावहारिक मॉडल बना, वह और कुछ नहीं उदारवादी मुक्त बाजार कट्टरवाद, चुनावी लोकतंत्र और नव-रूढ़ीवाद का संस्थागत समन्वय था। नव–रूढ़ीवाद नवोदारवादी परिवर्तनों के पक्ष में सहमति और सहमति की मजबूरी, दोनों ही पैदा करता है। आज राजसत्ता पर काबिज किसी भी रंग के सरकारों को इस स्थापित व्यवस्था को अपनाना होता है। 

नव-रूढ़ीवाद ने प्रासंगिक फासीवादी तौर–तरीके और सोच के सामान्यीकरण का काम किया है। उसने अपवर्जनात्मक (exclusionary) आप्रवासी–विरोध और अल्पसंख्यक–विरोध पर आधारित राजनीति को प्रतिस्पर्धा और अनिश्चितता से जूझ रहे व्यक्तिकृत लोगों की भीड़ को संभालने का जरिया बन दिया है। सार्वभौमिक नागरिकता की उदार अवधारणा जो तमाम पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं के आधार में विद्यमान थी, आज उसे हर जगह चुनौती मिल रही है। भारत में नागरिकता को लेकर वैधानिक बदलाव इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। याद रहे सार्वभौमिक नागरिकता का विरोध क्लासिकीय फासीवाद के जिन्गोवादी नस्लवादी राष्ट्रवाद का भी आधार था।

 आज के फासीवाद को हम पूंजीवाद के विद्यमान चरण से अलग कर के नहीं देख सकते। फासीवादी प्रवृत्तियां नवोदारवादी पूंजीवाद के दौर में न्यूनतम राजसत्ता की तानाशाही और उसके प्रति सहमति के हित में लोकवृत्त (public sphere) तैयार करने का जरिया है। इस अर्थ में आज के फासीवाद को हम नीतियों, व्यवहारों, अनुष्ठानों और वैचारिकी के तरीकों का गुच्छा या समन्वय मान सकते हैं, जो तख्तापलट का सहारा लिए बिना, चुनावी लोकतंत्र और प्रतिनिधिक सरकार के प्रमुख राजनीतिक स्वरूपों को परेशान किए बगैर, आज के वैश्विक पूंजीवाद में आसानी से अपने लिए जगह बना लेता है। वह व्यवस्था के कारण बढ़ते जनाक्रोश की ऊर्जा को व्यवस्था को मजबूत करने की क्रिया में तब्दील करता है। इसके खिलाफ एकांतिक संघर्ष बीमारी की ओर इंगित करते लक्षण के खिलाफ संघर्ष है, बीमारी के खिलाफ नहीं।   

देवों की बारात सजी


जो तुम्हारे हाथ से चला गया वो चला गया
जो अभी जा रहा है वो अभी गया नहीं

वामनों की भीड़ लगी
मोहिनी भी मस्त चली

उन्हें इंतजार है तुम्हारे खोने का
मानने का सोने का

मंत्रोच्चारणों से गूंज रहे
दिनरात मंदिरों के प्रांगण

देवों की बारात सजी
आज तुम्हारे आंगन

फालतू या बेशी आबादी – नाम में क्या रखा है


1. नाम अथवा संज्ञा और क्रिया का अभिन्न रिश्ता होता है। नाम के बगैर चीजों की भिन्नताओं और उनके रिश्तों का दर्शन असंभव है। नाम, अवधारणाएँ आदि जिनसे हमारी भाषा निर्मित होती है, हमें हमसे बाहर की दुनिया और हमारी उसमें स्थिति के प्रति हमें सजग करती हैं। वे हमें हमारी  क्रियाओं के प्रति सचेतन कर हमें सोचे-समझे ढंग से उन्हें नियोजित करने में सक्षम बनाती हैं। परंतु यही नाम और अवधारणाएँ जड़ताओं को भी जन्म देती हैं और हमारी स्वतंत्र गतिविधियों को पुनरावर्तित अनुष्ठानों में बदल देती हैं, यदि हम उनके पीछे की प्रक्रियाओं को उन्हीं नामों की सीमाओं में बद्ध मान बैठते हैं। जिस रूप में हम सामाजिक प्रक्रियाओं और उनके बीच के रिश्तों को चिह्नित अथवा नामांकित करते हैं, वह हमारे राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों को नियोजित भी कर देता है। यही अंतर है माल्थस के superfluous population अर्थात् फालतू आबादी और मार्क्स के surplus population अथवा बेशी आबादी के सिद्धांतों के बीच। दोनों ही लगभग आबादी और श्रमिक वर्ग के एक ही हिस्से को इन अवधारणाओं द्वारा चिह्नित कर रहे हैं।

2. “बेशी आबादी’ ज्यादातर लोगों के लिए महज आर्थिक अवधारणा है जिसको अकादमिक बहसों और सांख्यिकीय गणनाओं में बेरोजगारी का पर्याय मान लिया जाता है। अगर हम बेशी आबादी की अवधारणा के इतिहास में जाएं तो हमें पता चलता हैं कि यह अवधारणा पूंजीवाद के विकास  की प्रक्रिया को टुकड़े-टुकड़े में देखने के आर्थिक-विवरणात्मक दृष्टिकोण की आलोचना के अंतर्गत उभरा था। इस दृष्टिकोण के तहत मेहनतकश आबादी केवल आर्थिक संसाधन मानी जाती है,जिसकी मनुष्यता इन्सिडेन्टल है जिसको नियंत्रित करना जरूरी है, नहीं तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया को वह अवरुद्ध करेगी। पूँजी का विकास और मशीनीकरण इस आबादी के हिस्सों को फालतू बनाता जाता है और जो समाज और अर्थतन्त्र पर भार बनते जाते हैं। इन्हीं हिस्सों को प्रमुख अंग्रेजी राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस “फालतू आबादी” के रूप में चिह्नित करते थे। इस दृष्टिकोण के तहत इस आबादी की गरीबी और दयनीयता एक तरफ उसकी अपनी नैसर्गिक निष्कृष्टता की द्योतक है, तो दूसरी तरफ उसे नियंत्रित करने का साधन है। यह सोच आज भी राजसत्ताओं की जनसांख्यिकीय नीतियों को सूचित करती है, जिनके तहत पूंजीवाद और बाजार के विकास गरीबी और बदहाली के कारण नहीं नजर आते। 

3. फालतू आबादी की अवधारणा की आलोचना ने बेशी आबादी की अवधारणा को जन्म दिया। एक ही तत्व के नए नामांकरण ने उस तत्व के अंदर छुपी संभावनाओं को उजागर कर दिया — बेशी आबादी बेशीकरण का नतीजा है और बेशीकरण पूंजीवादी विकास का पर्याय है। बेशीकरण पूंजीवादी व्यवस्था की अंदरूनी प्रक्रिया है, उससे बाहर नहीं है। यह पूंजीवाद के आधार को बनाए रखने की मौलिक प्रक्रिया है। लोगों का बेशीकरण उनका बहिष्कार नही है। बल्कि वह आबादियों को पूंजीवादी केंद्र से उन्हें जोड़ने की प्रक्रिया है। बेशी के रूप में उनकी पहचान उन्हें व्यवस्था से जोड़ देती है —  बेशीकरण उनकी बाह्यता, उनकी स्वतंत्रता, उनकी व्यवस्थात्मक स्वायत्तता का हनन है। इसी बात को जोर देने के लिए  बेशी आबादी को सापेक्ष रूप से बेशी कहा गया, अर्थात वह फालतू अथवा बाहर कर दी गई आबादी नही है। अर्थात् बेशीकरण विभेदक समावेशन (differential inclusion) की प्रक्रिया है।

4. यही कारण है कि बेशी आबादी की स्वायत्तता की लड़ाई शामिल होने की लड़ाई नहीं हो सकती। शामिल होने की लड़ाई का अंतहीन गुहार उन्हें व्यवस्था से बांधे रखने का षड्यंत्र है। उन्हें “शामिल होने” की कोशिश में व्यवस्था को स्वीकार करना होता है, और अपने आप को व्यवस्था के लिए स्वीकार्य बनाना होता है। उनकी लड़ाई की यह मतात्मक (आइडियोलॉजिकल) फ्रेमिंग  ही बर्जुआ राजनीति का रणक्षेत्र तैयार करती है। अलग अलग राजनीतिक दलों का काम इस रणक्षेत्र के दायरे में उनके अनुशासन और उत्पादक संगठन के प्रतिस्पर्धात्मक फार्मूलों की पेशकश करना है। इस प्रयोजनार्थ सत्तारूढ़ और सत्ताच्युत विपक्ष एक दूसरे के पूरक हैं। 

Marx’s story: Master, Disciple and the Disintegration of Theory


Marx was a great fabulist. He could weave a story in a theory and a theory in a story. Here is one, which provides a great lesson in the critique of theoretical form. It is a story that can serve well in reminding many Marxists about what they are doing to Marx’s theory.

“With the master what is new and significant develops vigorously amid the “manure” of contradictions out of the contradictory phenomena.  The underlying contradictions themselves testify to the richness of the living foundation from which the theory itself developed.  It is different with the disciple.  His raw material is no longer reality, but the new theoretical form in which the master had sublimated it.  It is in part the theoretical disagreement of opponents of the new theory and in part the often paradoxical relationship of this theory to reality which drive him to seek to refute his opponents and explain away reality.  In doing so, he entangles himself in contradictions and with his attempt to solve these he demonstrates the beginning disintegration of the theory which he dogmatically espouses.”

सड़क से संसद: यूरोप से भारत तक


संपादकीय, मोर्चा पत्रिका (draft)

2022 में इटली में  जियोर्जिया मेलोनी की जीत ने चरम-दक्षिणपंथियों में आत्म-विश्वास भर दिया था।  आज छह यूरोपीय संघ के देश —  इटली, फ़िनलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी, क्रोएशिया और चेक गणराज्य —  में कट्टर दक्षिणपंथी पार्टियों की सरकारें चल रही हैं। स्वीडन में वे संसदीय ताकत के आधार पर दूसरे नंबर पर हैं, नीदरलैंड की संसद में गीर्ट विल्डर्स की चरम दक्षिणपंथी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है, और सरकार बनाने के कगार पर है। इस साल जून के महीने में हुए यूरोपीय संघ के चुनाव में पूरे यूरोप में दक्षिणपंथियों को अपार सफलता मिली है – तमाम संघीय देशों में दक्षिणपंथ की राजनीतिक पैठ मजबूत हुई है। इस चुनाव में शिकस्त के बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने हड़बड़ी में संसदीय चुनाव की घोषणा कर दी जिसमें पहली बार दक्षिणपंथी मारी ले पेन की पार्टी सर्वाधिक जनप्रिय पार्टी के रूप में उभरी है। यह बात अलग है कि गैर–दक्षिणपंथियों के विभिन्न पार्टियों ने चुनाव के दूसरे दौर में आपसी व्यावहारिक गठजोड़ द्वारा ले पेन की पार्टी को सीट के आधार पर तीसरे नंबर पर धकेल दिया है। इस तरह के पराजय की कुंठा उसकी राजनीति और व्यापक यूरोपीय समाज पर क्या असर करेगी, यह समय के साथ ही पता चलेगा। इसके अलावे नाइजेल फ़राज़ की पार्टी, रिफॉर्म यूके ने इस बार ब्रिटेन के चुनाव में पांच सीट जीता है और कुल मिलाकर 15 प्रतिशत वोट प्राप्त किया है, जोकि अभूतपूर्व है। 2019 में उसे बस 2 प्रतिशत वोट मिले थे।

हमारा मानना है कि फासीवादी और कट्टर दक्षिणपंथ की राजनीति के इस फैलाव को महज उसके अपने औपचारिक व्याकरण के आधार पर नहीं समझा जा सकता। उसके कुत्सित कारनामों का अवश्य ही विरोध होना चाहिए और फौरी तौर पर उसका प्रतिकार होना चाहिए, परंतु उस राजनीति की या कहें किसी भी राजनीति और राजनीतिक विचारधारा की सामाजिक प्रक्रियाओं से अलहदा अपनी गति नहीं होती। इन्हीं सामाजिक प्रक्रियाओं और उनमें अंतर्निहित अंतर्विरोधों, विकल्पों तथा संभावनाओं का उच्चारण ये राजनीतिक विचारधाराएं और गतिविधियां करती हैं। शायद इसी अर्थ में मार्क्स ने राजनीति, विधि, विज्ञान, कला, मजहब इत्यादि के इतिहास न होने की बात कही थी। इनका अपना इतिहास नहीं होता। फासीवाद अथवा कट्टर–दक्षिणपंथ का आंतरिक इतिहास लिखने वाले वंशावली विशेषज्ञ या फिर गोत्र का इतिहास लिखने वाले पंडों के प्रतिरूप हैं, जिनके लिए पाणिनी के “अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्”  में ही पूरा इतिहास सूत्रबद्ध है। “इतिहास की अब तक की मान्य अवधारणा कितनी हास्यास्पद है जो वास्तविक संबंधों की उपेक्षा करती है तथा अपने को राजाओं तथा राज्यों के आडंबरपूर्ण नाटकों तक सीमित रखती है।” – मार्क्स की यह बात आज भी अधिकांश राजनीतिक व्याख्याकारों और इतिहासकारों पर लागू होती है। बस आज उन राजाओं की जगह नामित पार्टियों, नेताओं और संसदीय अखाड़े में उनकी नौटंकियों ने ले ली है। 

नाज़ी–फासीवादी प्रचार के जन–आकर्षण की नींव 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में यूरोपीय स्तर पर सामाजिक क्रांति के फैलाव की संभावनाओं पर भितरघाती और राजकीय दमन के नतीजे में दिखती है। प्रथम विश्वयुद्ध से बदहाल श्रमिक जनता, बेरोजगारी, गरीबी और पूंजीवादी संचय के विनाशकारी नतीजों के खिलाफ सोवियत व वर्कर्स कौंसिल जैसे समाजवादी अनुभवों में सामाजिक-आर्थिक संबंधों को पुनर्नियोजित कर पूंजीवादी अलगाव को मिटाकर श्रम-जीवन पर स्व-नियंत्रण (तमिल कम्युनिस्ट मलयपुरम सिंगरावेलु चेट्टियार की भाषा में “श्रम स्वराज”) की संभावना को देख रहे थे। परंतु मजदूर आंदोलन में निम्न–पूंजीवादी राजकीयवादी नेतृत्व ने राजसत्ता की प्रबंधक प्रणाली के अंग बनकर इन अनुभवों के क्रांतिकारी सामान्यीकरण (revolutionary generalisation) की गुंजाइश को नष्ट कर दिया। रोज़ा लुक्सेम्बुर्ग  और कार्ल लिबनेख्त जैसे विख्यात क्रांतिकारियों और मार्क्सवादी विचारकों की हत्या इस दौर में हुई।

फासीवाद यूरोप में क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन की राख पर पनपा था। सोवियत क्रांति ने विश्वभर में शोषित जनता के अंदर जिस उम्मीद को जगाई थी, उसके दमन ने फासीवादी दक्षिणपंथ को जन्म दिया। जैसा कि जर्मनी की महान क्रांतिकारी नेता क्लारा जेटकिन ने कहा था, “फासीवाद, पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा आक्रामकता के प्रतिशोध में पूंजीपति वर्ग का बदला नहीं है, बल्कि वह रूस में शुरू हुई क्रांति को जारी रखने में विफल रहने के लिए सर्वहारा वर्ग की सजा है।” इटली के कम्युनिस्ट विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने इसी बात को और गहनता से रखा – “संकट इस तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है और नये का जन्म नहीं हो सकता; इस अंतराल में विभिन्न प्रकार के रुग्ण लक्षण प्रकट होते हैं।” सामाजिक क्रांति के दमन ने जिन रुग्ण लक्षणों को जन्म दिया उनका ही एकीकृत रूप फासीवाद था। कम्युनिस्ट इंटरनैशनल के नेता ज्यॉर्जी दिमित्रोव ने साफ शब्दों में फासीवाद के आकर्षण के स्रोतों की तरफ इंगित किया था। उनके अनुसार वह  आम जनता की “सबसे फौरी जरूरतों और मांगों को लफ्फाजी के साथ पेश करता है। वह  न सिर्फ आम जनता में गहरे पैठे हुए पूर्वाग्रहों को प्रज्वलित करता है, बल्कि आम जनता की उदात्त भावनाओं को, उनके न्याय-बोध को, और कभी-कभी तो उनकी क्रांतिकारी परंपराओं को भी, उकसाता है।” वह अपने आपको “अन्याय के शिकार राष्ट्र के हित-रक्षक” के रूप में पेश कर “आहत राष्ट्रीय भावनाओं को सहलाता है”।”

राजनीतिक आर्थिक संकटों से जूझते पूंजीवाद को अपने आप को बनाए रखने के लिए आपातकालीन उपायों की जरूरत होती है। फासीवाद सामाजिक क्रांति की ऊर्जा के विस्थापन और उसकी राष्ट्रवादी घनीभूति के रूप में 20वीं सदी में पूंजीवादी पुनरुत्थान के लिए अवसर तैयार करने में कारगर रहा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, 1929 के मंदी के नतीजतन पूंजीवादी ह्रास से निजाद पाने के लिए फासीवाद ने नई राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  स्तरों पर विकसित करने का अवसर प्रदान किया। यही संस्थाएं द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी विस्तार को पुनर्नियोजित करने की आधारभूत संरचना बनी। प्रतिस्पर्धात्मक सैन्यीकरण और सैन्य-औद्योगिक परिसरों के प्रसार द्वारा वैश्विक पूंजीवादी संचय की प्रक्रिया को बनाए रखने की सीख फासीवाद ने ही दी (दानिएल गेरीं और फ्रांज़ नोएमन्न के प्रतिष्ठित कामों को देखें)। 

आज पूंजीवाद के नवोदारवादी दौर में, वित्तीयकरण और पूँजी परिपथ के भूमंडलीकरण ने अर्थतंत्र की नीति-आधारित राजकीय प्रबन्धन व्यवस्था को लगभग निरस्त कर दिया है, जिसके कारण मांग-आधारित संघर्षों की पुरानी संस्थाओं का असर कमजोर पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में बढ़ती अनिश्चितताओं, अलगाव और अति-प्रतिस्पर्धा से ग्रस्त सर्वहाराकृत, बेशीकृत और दरिद्रीकृत “व्यक्तियों” की भीड़, चरम-दक्षिणपंथी राजनीति का स्वाभाविक ग्राहक बन जाती है। राजसत्ता का काम महज इस भीड़ को पूंजीवादी यथास्थिति के हित में प्रबंधित करना है, उसके अंदर विद्यमान वर्गीय आत्म-मुक्ति की प्रच्छन्न प्रक्रियाओं और संभावनाओं को खंडित कर कुंद करना है। यही नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र और नवोदारवाद के तहत राजसत्ता का न्यूनतमीकरण (minimisation of the state) है। और  इसी अर्थ में चरम दक्षिणपंथ का सतत योगदान होता है। आज विश्व भर में चरम–दक्षिणपंथी राजनीति का फैलाव दिखाता है कि पूंजीवादी  राजनीतिक व्यवस्था वैश्विक स्तर पर संकट में है। चरम–दक्षिणपंथ संकट का लक्षण है और साथ ही वह संकटग्रस्त निवारण है। 

यूरोप में आज जो सोच समूचे दक्षिणपंथ को (उसके रूढ़िवादी, चरम और फासीवादी रूपों को) परिभाषित करती है और एक साथ लाती है, वह है उनका तीव्र अति-राष्ट्रवादी, नस्लवादी प्रवासी-विरोध, जिसने पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजसत्ता की उदारवादी नींव को खतरे में डाल दिया है — नागरिकता के अधिकार को इनकी राजनीति लगातार विशेषाधिकार के रूप में पेश करती रही है। यह प्रवासी-विरोध विश्व पूंजीवाद के खिलाफ विरोध को कमजोर करता है। और यही बात इस राजनीति को पूंजीवाद के संकट के दौर में आकर्षक बनाती है। 

परंतु भारत के चुनाव में क्या हुआ? बात सही है कि मोदी कमजोर पड़े मगर हारे नहीं। लेकिन जब विश्व में हर जगह चरम दक्षिणपंथ की साख बढ़ रही है, तो विश्वगुरु की यह गति क्यों? क्या हुआ कि आरएसएस के प्रचारक राम माधव जो 28 अप्रैल को “भारत को वैश्विक रूढ़िवादी आंदोलन का नेतृत्व” करने की बात कह रहे थे, वो अब (13 जुलाई को) बहुवाद और भिन्नता का आदर करते हुए भारतीय और पाश्चात्य रूढ़िवादियों के बीच सहयोग ढूंढ रहे हैं? कहाँ गई विश्वगुरु की हेकड़ी?

भारतीय चुनाव – बदले–बदले मेरे सरकार नजर आते हैं!

भारत के 2024 के चुनावी नतीजे ने चुनावोत्तर संसदीय राजनीति को शायद रोचक बना दिया है। मोदी के नेतृत्व में सरकार फिर से गठित हो गई है, मगर कमजोर बहुमत के साथ। दूसरी तरफ विपक्ष की जमीन थोड़ी फैली है, और उन्हें एहसास हो रहा है कि उन्हें राजनीतिक पहचान मिल गई है। परंतु बदला क्या है? ज्यादातर गंभीर व्याख्याकारों का मानना है कि सरकार के काम के तरीके और तेवर में कोई खास बदलाव नहीं होगा – बल्कि भाजपा नेताओं के प्रतिहिंसक रवैये में बढ़ोत्तरी हो सकती है। चुनाव के बाद के पहले संसदीय सत्र में ऐसा ही देखने को मिला – एक तरफ अगर विपक्ष का आत्मविश्वास बढ़ा है, तो दूसरी तरफ भाजपाइयों की कुंठित प्रवृत्ति ने तीव्र रूप लिया है। कुछ भाजपा सांसदों ने तो अपनी कुंठा अपने इलाके के मतदाताओं पर निकालनी शुरू कर दी है। जिस रूप में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (जहां अयोध्या है) की जनता को हिन्दू-विरोधी रामद्रोही कहा जा रहा है वह भी यही दर्शाता है। बीजेपी के बंगाल के नेता शुभेन्दु अधिकारी ने तो मोदी के “सबका साथ सबका विकास” के नारे को तिलांजलि देकर “जो हमारे साथ, हम उनके साथ” का नारा लगाने की बात कही है। आर्थिक नीति के क्षेत्र में, सीपी चंद्रशेखर (24 जून फ्रंटलाईन) के अनुसार , “हालाँकि आर्थिक चिंताओं को दूर करने के लिए नई सरकार पर दबाव बढ़ रहा है, लेकिन दीर्घस्थायी राजनीतिक उद्देश्य महत्वपूर्ण नीतिगत बदलावों में बाधा बन सकते हैं।”

कई व्याख्याकार इस बार के चुनावी नतीजे को राष्ट्रीय पटल पर क्षेत्रीय शक्तियों और गठबंधन राजनीति के पुनरागमन के रूप में देखते हैं। पिछले एक दशक से चल रहे सत्ता के केंद्रीकरण पर इस चुनाव ने रोक लगा दिया है। यह सच है कि मोदी सरकार इस बार एनडीए के अन्य घटकों पर निर्भर है, और विपक्ष की मजबूती भी कांग्रेस के साथ बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के आपसी तालमेल पर निर्भर है। अवश्य ही क्षेत्रीय दलों के महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना होगा, परंतु सत्ता केंद्रीकरण की प्रवृत्ति से ये क्षेत्रीय दल भी अछूते नहीं हैं। बंगाल की ममता सरकार या आंध्रप्रदेश में नायडू सरकार का इतिहास निरंकुशता और केंद्रीकरण के मामले में भाजपा से कम नहीं रहा है। ऐसी स्थिति में मोदी सरकार के निरंकुश व्यवहार पर लगाम लगाने के लिए दलीय दांवपेच नाकाफी होगी। बैसाखी का इस्तेमाल डंडे के रूप में भी हो सकता है अथवा उसके अंदर भाले भी छुपे हो सकते हैं। या फिर किसी और के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने वाली बात भी हो सकती है। 

जहां तक भाजपा/आरएसएस के एजेंडे का सवाल है, वह किसी न किसी रूप में सामने आएगा, सरकारी स्तर पर जो ढीला प्रतीत होगा उसे सांगठनिक स्तर पर सुलझाने की कोशिश होगी। इस चुनाव के नतीजे के बाद, सरकार द्वारा ऊपर से थोपे हुए एजेंडे से बेहतर है नीचे से सर्वसम्मति पैदा की जाए, जिसके लिए आरएसएस के सांगठनिक नेटवर्क से अच्छा कुछ नही है। कुछ लोग आरएसएस प्रमुख और अन्य प्रभारियों के बयानों में मोदी और संघ के बीच फासले को देख रहे हैं – जिसमें मोदी की तुलना में संघ ज्यादा नैतिक प्रतीत होता है। इस तरह के बयान और उन पर व्याख्याएं संघी विचारधारा को सामाजिक–सांस्कृतिक स्तर पर सामान्य बनाने का काम करती हैं। इस तरह के कथित और कल्पित फासले की अफवाह संघ द्वारा अपने लिए जगह बनाने में काम करते हैं, जो संसदीय राजनीतिक दायरे में भाजपा को ही मजबूत करेगा। 

जो सीटों के आधार पर दक्षिणपंथ की सामाजिक राजनीतिक पकड़ को आँकते हैं उन्हें इस बार के चुनावी आंकड़ों को ध्यान से देखना चाहिए। योगेंद्र यादव और उनके साथियों के अनुसार (द प्रिन्ट, 11 जून) बीजेपी के वोट प्रतिशत में मामूली गिरावट आई है — ओडिशा में ऐतिहासिक जीत के साथ-साथ, केरल, पंजाब, तमिलनाडु और आंध्र में उसने बढ़िया प्रदर्शन किया है। बीजेपी ने देश के हर राज्य में दोहरे अंकों के वोट प्रतिशत पाकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी निर्विवाद उपस्थिति दर्ज की है। वे यह भी कहते हैं कि इस बार दो विभिन्न बीजेपी चुनावी मैदान में थे —  शासक बीजेपी और दावेदार बीजेपी। उनके अनुसार शासक बीजेपी को गंभीर चुनावी उलटफेर का सामना करना पड़ा, जबकि दावेदार बीजेपी का चुनावी प्रदर्शन बढ़िया रहा। इसका स्वाभाविक अर्थ है कि इस चुनाव को दावेदारों ने जीता है — यानि इस बार का चुनाव परिणाम अधिकांशतः यथास्थिति के खिलाफ था — उसका निषेधात्मक चरित्र था। संसदीय चुनाव के सीमित दायरे में सत्ता को इसी तरह से ठुकराया जा सकता है। ब्लूमबर्ग (जून 5) के पत्रकारों के अनुसार —  “मोदी के समर्थन का पतन [विशेषकर उत्तर प्रदेश में], दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक में पीछे रह गए लाखों लोगों के सामूहिक विद्रोह के समान था।” 

हाल के दशकों में भारत में उम्मीद के आधार पर शायद ही चुनाव जीते गए हैं। जनता ने किसी प्रकार की राजनीति पर विश्वास कर के उन्हें नहीं चुना है, उसने हर चुनाव में अपनी तंगी को महसूस कर, सरकारों और पार्टियों को सबक सिखाने का काम किया है। “दावेदारों” को जो फायदा हो रहा है, वह अंततः उनकी मेहनत या जनता का उनपर विश्वास से ज्यादा, जनता की आम उदासीनता और गुस्से का नतीजा है। 2014 के गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में इस गुस्से की ओर साफ इंगित किया था — राजनीतिज्ञों द्वारा लोकतंत्र में निहित “पवित्र भरोसे” (sacred trust) के तोड़े जाने के कारण “सड़क से हताशा के स्वर” सुनाई दे रहे हैं। इस पवित्र भरोसे के टूटने से मोहभंग होता है, “जिससे क्रोध भड़कता है तथा इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है : सत्ताधारी वर्ग।” 2014 में मोदी सरकार के गठन में इसी क्रोध का योगदान था। नवोदारवादी दौर में पूंजीवादी राजसत्ता के लिए एक ही काम तय है — कि इस गुस्से की ऊर्जा को वह पूँजी के हित में उत्पादक बनाए। अंधा राष्ट्रवाद, धार्मिक उन्माद और मोदी-शाह का दबंग मनमानापन कुछ हद तक इस गुस्से को बांधने में कारगर होते हैं, परंतु संकट गहरा है — राजसत्ता के पास भरोसा पैदा करने के हथकंडे कम होते जा रहे हैं।  पहचानों के आधार पर भारत की (अल्परोजगारी और बेरोजगारी से ग्रस्त) मेहनतकश जनता को लामबंध कर विभाजित और प्रतिस्पर्धा में रखने की सीमा है — वर्गीय प्रक्रियाएं भूमिगत ही सही ऐन मौकों पर रंग दिखला ही देती हैं। मोदी ने चुनाव के दौरान धनाढ्य मध्यम वर्ग और पूंजीपति वर्ग की बेचैनी को धन-पुनर्वितरण के सवाल पर जिस रूप से आम जनता पर थोपना चाहा, वह राजसत्ता के वर्गीय चरित्र को पूरी तरह से नंगा करता है।  सामूहिक विद्रोह जो हम लगातार देख रहे हैं, उसने सत्ताधारी शक्तियों और उनके पोशक वर्गों को बेचैन कर दिया है  — चाहे कोविड महामारी के दौरान लाखों मजदूरों की घर वापसी हो, जो कि भारतीय राजतंत्र की अमानवीय निरंकुशता केखिलाफ खामोश बगावत थी, या फिर 2020-21 का किसान आंदोलन जिसने मोदी सरकार के मानमानेपन की धज्जियाँ उड़ा दीं। इस प्रकार की सामूहिकता शासन व्यवस्था को सबसे बड़ी चुनौती है, और यही दक्षिणपंथ पर भी लगाम लगाने का काम करती है। हम आज फ्रांस में भी यही देख रहे हैं । 

सामूहिकता सत्ता के गलियारे की दासी नहीं है, वह निर्बाध गंगा है — वही है जो सत्ता को पैदा करती  है और अपने मौज में उसे बहा देती है। सामूहिकता से सत्ता पैदा होती है और जब बेलगाम हो सत्ता उसी के सिर पर नाचने लगती है तो फिर एक बार विद्रोह की आग की जरूरत होती है उसे भस्म करने के लिए। भारत में नवोदारवादी पूंजीवाद की आधार-संरचना के विकास में सभी राजनीतिक पार्टियों का योगदान रहा — जो उसके लक्षणों और प्रभावों का विरोध भी करते रहे, वे सत्तासीन हो या सत्ता के करीब हो या फिर उसके साथ वार्तालीन हो, नवोदारवादी प्रक्रिया के साधन बन गए। संसदीय और राजकीयवादी राजनीति द्वारा वित्तीयकृत और सूचनाकृत पूँजी पर लगाम लगाने की सोच रखने वाले कीन्सवादी राजकीयवादी विरह (nostalgia) के शिकार हैं। विश्व के अधिकांश संसदीय वामपंथ इसी विषाद में जीते हैं और सत्ता के संघर्ष में उनकी दुर्गति ही होती है — लातिन अमरीका के कई देशों के, यूनान में सीरीज़ा के अनुभव इसी ओर इंगित करते हैं। जो सामूहिक विद्रोह उन्हें सत्तासीन करती है, अंततः उसी विद्रोह को उन्हें नियंत्रित करना होता है — और यही आधार बनता है चरम-दक्षिणपंथ के फैलाव का — ब्राजील में बोल्सोनारो, अर्जेन्टीना में हावियेर मिलेइ, इत्यादि। आखिरकार, जैसा कि हेगेल ने इतिहास के दर्शनशास्त्र पर अपने व्याख्यानों में बताया था, “अनुभव और इतिहास यही सिखाता है — कि लोगों और सरकारों ने कभी भी इतिहास से कुछ नहीं सीखा है।” इस पूंजीवादी राजनीतिक चक्रव्यूह को भेदने का एक ही जरिया है — वह है इन चक्रव्यूहों के आधारभूत सामाजिक संबंधों, जो सत्ता को जनता से अलग कर उसे सत्ताधीन रखते हैं, पर क्रांतिकारी वार! 

उबलने तो दो इसे 


तुम अपनी चाय कड़क चाहते हो ना
तो इतनी जल्दी में क्यों हो
जरा उबलने तो दो
सब्र करो

समय–समय पर
चूल्हे से पतीले को हटाना
फिर चम्मच से चाय को चखना
बेकार है

रही सही गर्मी भी इसकी निकाल देते हो
अपनी बेसब्री में

बाहर कड़ाके की सर्दी है
और तुम चाहते हो कड़क चाय
तो उबलने तो दो इसे

तब तक चूल्हे के पास बैठ
ताप सेंको
अपने में कुछ गर्मी लाओ
खूब–खूब सुनो
कुछ तुम भी बतियाओ
और इंतजार करो
चाय के उबलने का

फिर देखो
चाय–चीनी
दूध–पानी
आग के कमाल को
चाय के उबाल को

Industrial Accidents, Nationalism and Working Class (Video)


इस्राएल/फिलिस्तीन, बेशी आबादी और पूँजी (Israel/Palestine, Surplus Population and Capital)


मोर्चा पत्रिका

  1. मध्य पूर्व का संकट साल-दर साल बना रहता है, परंतु समय के साथ उसका चरित्र और उसके गुण बदलते रहते हैं, जिनकी समझ केवल विद्यमान राजनीतिक संकटकाल को गढ़ते शक्तियों और प्रक्रियाओं के पहचान द्वारा ही संभव हो सकती है। स्थिति की निरंतर विस्फोटकता की वजह से और तात्कालिक कार्रवाइयों और नतीजों के फेर में इस बदलाव को हम समझ नहीं पाते, हम संकट को क्रूर नित्यता मान बैठते हैं। जबकि यहाँ तक कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद और क्षेत्रीय राजसत्ताओं का इस साम्राज्यवादी नेटवर्क में निवास का तथ्य नित्य होते हुए भी, पूंजीवाद की अपनी संकटपूर्ण गतिकी के कारण उस साम्राज्यवाद का चरित्र और उसके अंतर्विरोध विकसित होते रहते हैं। अरब की जनता का कभी गुप्त कभी खुला प्रतिरोध जो कभी थमा ही नहीं इस गतिकी की निरंतरता को तोड़ता रहा है और वैश्विक व क्षेत्रीय शासक वर्गों और राजसत्ताओं के लिए संकट पैदा करता रहा है। पूंजीवाद के वैश्विक राजनीतिक अर्थतन्त्र की दिशा को उसे इन जन क्रियाओं से अलग कर नहीं समझा जा सकता, और दूसरी ओर इन क्रियाओं की व्याख्या व्यवस्थापरक संदर्भ के बगैर असंभव है। पिछले दशक के अरब वसंत से लेकर वर्तमान के फिलिस्तीनी बगावत का पूंजीवादी गतिकी के साथ अभिन्न रिश्ता है।
  2. पिछले कई दशकों से मध्य पूर्व के संकट या संकटों के केंद्र में कहीं न कहीं, सरकारी-अखबारी भाषा में कहें तो, “इस्राएल-फिलिस्तीन जंग” रहा है। हालांकि यह नामांकरण पूर्णतः आइडियोलॉजिकल अथवा विशेष मत-आधारित है — वह क्षेत्रीय संघर्ष का समस्याग्रस्त फ्रेमिंग करता है। एक तरफ यह नाम पूरे संघर्ष को दो बराबर स्वायत्त देशों या राज्यों के बीच टेरिटोरीअल संघर्ष के रूप में प्रदर्शित करता है, जिसमें फिलिस्तीन अवश्य ही एक ऐसा राज्य लगता है जो अंदरूनी रूप से विभाजित है। दूसरे, इस प्रकार की परिभाषा फिलिस्तीन पर कब्जे के ऐतिहासिक-मौलिक तथ्य को पूरी तरह से नजरंदाज कर देती है। और तीसरे, नतीजे के तौर पर फिलिस्तीनी जन-प्रतिरोध महज चिह्नित संगठित शक्तियों की स्वैच्छिक कार्रवाइयाँ नजर आता है, जिन्हें बहुत आसानी से आतंकवादी घोषित किया जा सकता है।
  3. जो लोग इस्राएल-फिलिस्तीन के मसले को केवल राजकीय समझौतों, शांति और फ़िलिस्तीन की क्षेत्रीय स्वतंत्रता के सवाल के रूप में देखते हैं, वे वर्ग और पूँजी की प्रक्रियाओं से उसको काटकर राष्ट्र और मजहब के आधार पर — इस्राएल/यहूदी बनाम फिलिस्तीनी/मुस्लिम — परिभाषित करते हैं। यह समझ शांतिवादियों और फिलिस्तीन-समर्थकों को साम्राज्यवादियों और राजसत्ताओं के साथ खड़ा कर देती है जिनकी नजर में मसले का समाधान महज दो अलग-अलग राज्य हैं। परंतु इस समाधान के लिए जो क्षेत्रीय आधार हो सकता था उसे इस्रायली राजसत्ता ने दीवारों, राजमार्गों, चौकियों के निर्माण और उपनिवेशीकरण के नवीनतम उपकरणों के साथ वेस्ट बैंक और ग़ाजा पट्टी में लगातार “सेटलर्स” द्वारा ध्वस्त किया है। शायद फिलिस्तीनी-अमरीकी इतिहासकार रशीद खालिदी का यही तात्पर्य है जब वह कहते हैं कि जॉर्डन नदी और भूमध्य सागर के बीच केवल एक राज्य है, जिसकी सीमाओं के भीतर नागरिकता या गैर-नागरिकता के दो या तीन स्तर हैं।
  4. नवोदारीकरण और पूंजीवादी भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं ने इस्राएल के औपनिवेशिक तौर-तरीकों को और पाश्चात्य साम्राज्यवाद के साथ के उसके रिश्तों को नए अर्थ प्रदान किए हैं। इस्राएल की औपनिवेशिक नीतियाँ विश्व के तमाम उपनिवेशों से बिल्कुल अलग रही हैं — शुरू से ही स्वदेशी लोगों की श्रम शक्ति के शोषण पर आधारित होने के बजाय, उन नीतियों ने उनका बहिष्कार और उन्हें ख़त्म करने की कोशिश की। तब भी आँकड़े बताते हैं कि 1960 के उत्तरार्द्ध से हजारों की संख्या में फिलिस्तीनी श्रमिक कानूनी व गैर-कानूनी ढंग से इस्राएल में काम करते रहे हैं — यहाँ तक कि 1970 के दशक में फिलिस्तीनी श्रमिकों की लगभग एक तिहाई आबादी इस्राएल में काम करती थी। लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत से, “विदेशी” श्रम ने बड़े पैमाने पर फिलिस्तीनी श्रम का स्थान ले लिया है। 2023 के आँकड़े बताते हैं कि फिलिस्तीन में बेरोजगारी दर 25 प्रतिशत के आसपास है, जबकि केवल गाज़ा पट्टी में यह 46.4 प्रतिशत है। यह साबित करता है कि फिलिस्तीनी आबादी के बेशीकरण की प्रक्रिया को केवल इस्राएल के “सेटलर उपनिवेशवाद” के नतीजे के तौर पर नहीं समझा जा सकता, उससे कहीं अधिक वैश्विक पूंजीवाद की गतिशीलता कारण रही है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि फ़िलिस्तीनियों की दुर्दशा के लिए इस्राएली राज्य ज़िम्मेदार है; परंतु इस्राएली राजसत्ता और समाज की प्रवृत्तियों को वैश्विक पूंजीवाद की प्रक्रियाओं के भीतर स्थापित देखना होगा।
  5. दूसरी ओर जैसा कि इस्राएली मार्क्सवादी डैनी गुटवाइन बताते हैं कि पिछले तीन दशकों में जिन दो मुख्य प्रक्रियाओं ने इस्राएली समाज के चरित्र को आकार दिया है वह है निजीकरण और कब्जा (Occupation)। इन दोनों प्रक्रियाओं की अंतर्निहित परस्पर निर्भरता ने इस्राएली दक्षिणपंथ के राजनीतिक तर्क को सहारा दिया है और उसके आधिपत्य को बढ़ाया है। इस्राएली कल्याणकारी राज्य का पतन और कल्याण सेवाओं के निजीकरण और व्यवसायीकरण ने सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ाया है जिसका सबसे ज्यादा असर निम्न वर्गों पर पड़ा है। कल्याणकारी राज्य के इस पतन ने फिलिस्तीनी क्षेत्रों में कब्जों और उनके नतीजों को क्षतिपूर्ति के रूप में प्रोत्साहित किया है। निजीकरण ने निम्न वर्गों का राजनीतिक दक्षिणपंथ के साथ संबंध को मजबूत किया है, और कब्जे के समर्थन में सामाजिक और राजनीतिक आधार तैयार किया है।
  6. नवोदार पूंजीवाद ने इस दौर में एक तरफ यदि आबादियों की बेशीकरण की प्रक्रिया को तेज किया है, तो दूसरी तरफ इस बेशीकृत आबादी को नियोजित करने के लिए निगरानी और दमन के तरीकों और तकनीकों का अभूतपूर्व विकास किया है। इसी ने आज विश्व भर में सैन्य-औद्योगिक परिसरों (मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स) और कारागार-औद्योगिक परिसरों (प्रिज़न-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स) के स्फूर्त प्रसार को सहारा दिया है। इस्राएल/फिलिस्तीन का इलाका, समाज और वहाँ के संघर्ष विश्व पूंजीवाद के लिए बने बनाए मॉडेल ‘प्रयोगशाला’ को प्रदान करते हैं। ऑस्ट्रेलियाई-जर्मन पत्रकार एंटनी लोवेन्स्टाइन के अनुसार “इस्राएल का सैन्य औद्योगिक परिसर कब्जे वाले फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों को हथियार और निगरानी तकनीक के परीक्षण स्थल के रूप में उपयोग करता है जिसे वह दुनिया भर में तानाशाहों और लोकतंत्रों को निर्यात करता है। 50 से अधिक वर्षों से, वेस्ट बैंक और गाजा पर कब्जे ने इस्राएली राज्य को ‘दुश्मन’ आबादी, फिलिस्तीनियों को नियंत्रित करने का अमूल्य अनुभव दिया है।” भारत में मोदी सरकार इस्राएल के इसी गुण को अपनाना चाहती है।
  7. इस बार इस्राएल की अत्याधुनिक सर्विलेंस मशीनरी को फ़िलिस्तीनियों के दैनिक सर्वहाराकृत अस्तित्व की क्रूरता से निकले प्रतिरोध की आकस्मिकता और आक्रामकता ने झकझोर दिया है। अक्टूबर 7 को हमास द्वारा शरू किया गया ऑपरेशन तूफान अल-अक्सा ने इस्राएल की सैन्य सुरक्षा और खुफिया तंत्र की मुस्तैदी और उसके आत्मविश्वास को अवश्य ही हिला दिया। इस्राएल ने यहूदियों की प्रताड़ना के ऐतिहासिक तथ्य का इस्तेमाल कर जो निरंतर उत्पीड़ित होने के मिथक के आधार पर राष्ट्रवाद का निर्माण किया है, वह ऐसा चश्मा है जो वहां की जनता को अमानवीय सैन्यवादी तंत्र में बांध मध्य पूर्व और ग्लोबल साउथ में विश्व पूंजीवादी हितों के चौकीदार की भूमिका में डाल देता है। अरब और दक्षिण के देशों में इस्राएल की रक्षा के नाम पर साम्राज्यवादी गठजोड़ निरंतर हस्तक्षेप कर सकते हैं। अक्टूबर 7 की घटना ने इन सम्राज्यवादी ताकतों को भी धक्का दिया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में बनती वैश्विक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को भी अनिश्चित कर दिया है। उसने एक बार फिर वैश्विक राजकीय व्यवस्था (ग्लोबल स्टेट सिस्टम) के स्थायित्व और उसकी निश्चितता को झूठा साबित कर दिया है, जिस व्यवस्था के जरिये जमीनी प्रतिरोधों को स्थानीयता में बांध कर उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रतिस्पर्धा में मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। प्रतिरोध का दमन अथवा यंत्रीकरण प्रतिरोध के नए रूप जनते हैं, उसका नाश नहीं कर सकते। फिलिस्तीनी संघर्ष इसका गवाह है।