रूस-यूक्रेन युद्ध: फायदा किसका?


मोर्चा, अप्रैल 2022

ड्राफ्ट

यूक्रेन पर रूस की चढ़ाई को लेकर कोई भी सारगर्भित टिप्पणी बिना भूमंडलीय पूंजी की प्रक्रियाओं और प्रवृत्तियों को नजर में रखे नहीं की जा सकती। इस तरह की घटनाएं नेताओं के बयानों, उनके तात्कालिक चालों और हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं के आधार पर नहीं समझी जा सकतीं। देशों की, विशेषकर उनकी जो इस युद्ध में निर्णायक भूमिका अदा कर रहे हैं, राजनीतिक-आर्थिक प्रकृति को समझना अत्यंत आवश्यक है, परंतु उसके बाद भी हमें इस बात को नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि सम्पूर्ण अपने भागों के योग से बड़ा होता है। एक तरफ, पूंजी की संपूर्णता, और दूसरी तरफ, उसका विभिन्न और विरोधाभासी आर्थिक, सामाजिक और राज्य सत्ताओं के रूप में प्रसार और उनके बीच द्वंद्व — इन दोनों के बीच के संबंध को हमेशा ध्यान में रखना आवश्यक है। इसी द्वन्द्वात्मकता को हम मार्क्स-एंगेल्स द्वारा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और घटनाओं पर लिखे लेखों में तथा लेनिन की साम्राज्यवाद पर लिखी पुस्तिका में देख सकते हैं। हमारी समझ है कि यूक्रेन-रूस युद्ध की व्याख्या के लिए इसी द्वन्द्वात्मक पद्धति को हमें अपना हथियार बनाना होगा।

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अमरीका के नेतृत्व में नाटो की विस्तारकारी और एकछत्रवादी चालबाज़ी, नए शीत युद्ध का आरंभ, रूस की आक्रामकता, पुतिन की साम्राज्यिक बृहत रूसी अंधराष्ट्रवादी बयानबाजी, यूक्रेन में फासीवादी समूहों का वर्चस्वकारी उभार — ये सब हो रही घटनाओं के विभिन्न विवरण हैं, परन्तु सत्य की पहचान केवल उसके इन सतही पहलुओं की व्याख्या द्वारा नहीं हो सकती। भविष्य की संभावनाओं की पहचान और उनके परिपेक्ष में सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण और गतिविधियों के लक्षणों की पहचान जिनके अनुसार क्रांतिकारी समूहों को अपनी भूमिका को तय करना होता है, सतही उपस्थितियों के चित्रण से नहीं हो सकती।

ऐसे चित्रण के आधार पर केवल प्रतिक्रियात्मक नारेबाजी ही हो सकती है और यही देखने को आज मिल रहा है। भारतीय वामपंथ में रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर कई तरह की समझ है। कई इस युद्ध को यूक्रेनी आत्मनिर्णय के नजरिए से देखते हैं, और रूस के आक्रमण में उन्हें पुरानी दकियानूसी रूसी साम्राज्यिक नास्टैल्जिया का प्रकटीकरण दिखता है। राष्ट्रपति पुतिन के बयानों में इसके लिए भरपूर सामग्री तैयार मिलती है। दूसरी ओर वे हैं जिन्हें इस युद्ध को उकसाने में अमरीकी षड्यंत्र दिखता है। उन्हें इस युद्ध में और इससे पहले भी यूक्रेन के समाज में फासीवादी तत्वों को भड़काकर रूस को उसके ही क्षेत्र में हाशिए पर डालने के अमरीकी नेतृत्व और नाटो के प्रयास दिखाई देते हैं। इसके लिए भी अमरीकी, उसके सहयोगी देशों के नेतृत्व और यूक्रेनी नेतृत्व के बयानों में और गतिविधियों में व्यापक सामग्री तैयार मिलती है। तो कौन सही है? शायद इसी तरह के माहौल में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यूरोप के क्रांतिकारियों ने क्रांतिकारी पराजयवाद के अस्थायी रणनीति को अपनाया। परंतु यह भी तब तक केवल अटकल ही है और महज़ नारा है, जब तक हम इस युद्ध के पीछे विद्यमान राजनीतिक आर्थिक प्रक्रियाओं और प्रवृत्तियों की व्याख्या नहीं कर लेते। “वास्तविक स्थिति की जांच किए बिना, वर्ग शक्तियों का आदर्शवादी मूल्यांकन और काम में आदर्शवादी मार्गदर्शन ही हो सकता है, जिसका नतीजा या तो अवसरवाद या तख्तापलटवाद होगा”। (माओ)

राष्ट्रीय आत्मनिर्णय कोई निरपेक्ष सिद्धांत नहीं है। लेनिन की तर्ज पर हम जरूर बोल सकते हैं कि रूसी जनता के लिए यूक्रेनी राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का सवाल महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह रूसी राजसत्ता की महत्वाकांक्षाओं को चुनौती देता है। परन्तु यूक्रेनी आत्मनिर्णय को सकारात्मक रूप में पेश करने वालों को यूक्रेनी कुलीन वर्गों द्वारा दक्षिणपंथी अंधराष्ट्रवादी लामबंदी को ध्यान में रखना होगा, जो यूक्रेन की अन्य उप-राष्ट्रीयताओं की आकांक्षाओं को दबाने का जरिया है। ऐसा तो नहीं कि यूक्रेनी राष्ट्रवाद महज़ वैश्विक नवउदारवादी नव-रूढ़िवाद का हथियार है?

आगे, जो रूसी राजसत्ता के नव-साम्राज्यिक राजनीतिक अर्थशास्त्र को नजरअंदाज़ करते हैं, वे ज्यादा बड़ी गलती करते हैं। शायद वे अभी भी अपने अवचेतन में पुराने फादरलैंड की रंगीनियत को संजोए हुए हैं। वे भूल जाते हैं कि विद्यमान रूसी राजसत्ता विश्व नवउदार पूंजीवादी दौर में पैदा हुई है, जिस दौर में राजसत्ता ने विश्व भर में दमनकारी चरित्र अख्तियार कर लिया है, कल्याणकारी मुखौटे को उतार फेंका है। रूसी राजसत्ता का प्रतिक्रियावादी चरित्र वहां के पूंजीवादी वर्ग के चरित्र पर निर्भर है। रूस और अन्य पूर्वी यूरोप के देशो में (जिसमें यूक्रेन भी शामिल है) पूँजीवादीकरण की प्रक्रिया मुख्यतः भूतपूर्व राजकीय समाजवादी व्यवस्था के तहत विकसित संसाधनों पर कुलीन वर्ग को काबिज कर विश्व पूंजी के साथ उन संसाधनों का दोहन कर मुनाफे में रॉयल्टी अथवा लगान के रूप में हिस्सेदारी करना रही है। इन देशों के बीच सहयोग और प्रतिस्पर्धा का रिश्ता भी इसी पूंजीवादी चरित्र द्वारा निर्धारित है।

वर्तमान युद्ध की व्याख्या के लिए सबसे प्रमुख तथ्य जिसे हमे ध्यान रखना चाहिए वह यही है कि रूस से यूरोप सप्लाई होती ऊर्जा का बड़ा हिस्सा यूक्रेन होकर गुजरता है, और इस व्यवस्था से यूक्रेन को अच्छा खासा फायदा भी है परंतु यूक्रेन के ट्रांजिट फ़ी के कारण ऊर्जा की यूरोप सप्लाई पर लागत बढ़ जाता है। इसी कारण से बाल्टिक सागर से ऊर्जा सीधे यूरोप पहुंचाने के लिए नॉर्द स्ट्रीम पाइपलाइनों का निर्माण चल रहा है जो इस लागत को काफी कम कर देगा, परंतु ट्रांसिट फी पाते यूक्रेन समेत कई केन्द्रीय और पूर्वी यूरोपीय देश इसका विरोध कर रहे हैं। (संयुक्त राज्य अमरीका इन पाइपलाइनों के बनने को शुरुआत से ही रोकने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसका मानना है कि इससे यूरोप पर रूसी प्रभाव अत्यधिक बढ़ जाएगा। चल रहे युद्ध के कारण पहली बार नॉर्द स्ट्रीम का निर्माण रुक गया है।) इस संदर्भ में यह तथ्य भी गौर करने योग्य है कि पिछले साल 2021 में रूस ने यूक्रेन से गुजरती ऊर्जा की मात्रा में अत्यधिक कटौती कर दी जिसकी वजह से यूक्रेन की राष्ट्रीय आय पर अच्छा खासा असर पड़ा है।

यूक्रेन नाटो और युरोपियन यूनियन में शामिल होने की धमकियों का लगातार इस्तेमाल इस सप्लाई चेन और ट्रांजिट फी की राजनीति में रूस के साथ मोल-भाव करने में करता रहा है। रूस भी लगातार यूक्रेन के अंदर अपने हितों के अनुकूल शासन व्यवस्था बनाने की कोशिश में लगा रहा है। 2014 में क्रिमिया पर कब्जा करने का भी कारण यही था। यूक्रेन के रूसी उप-राष्ट्रीयताओं के अपने वास्तविक संघर्षों को रूस अपने साम्राजयिक इरादों की पूर्ति में चारे की तरह इस्तेमाल करता रहा है। रूस-विरोधी यूक्रेनी शासक वर्ग को संयुक्त राज्य अमरीका और नाटो से भरपूर सहयोग मिलता रहा है।

पर इन सब तथ्यों और आपसी राजनीति के पीछे कुछ पूंजी की भूमंडलीय संरचनात्मक और ऐतिहासिक पहलू भी काम कर रहे हैं, जिनकी संक्षेप में चर्चा आवश्यक है।

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पिछली शताब्दी के अंत में सोवियत संघ और उसके आश्रित शासनों के विघटन ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की दिशा को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। इसने वैश्विक राजनीति की पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह से ढहा दिया। यह व्यवस्था द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फासीवादी एक्सिस शासनों की हार के बाद उभरी थी। इस व्यवस्था को शीत युद्ध प्रोटोकॉल और मानदंडों द्वारा नियंत्रित किया जाता था। इस व्यवस्था के तहत विभिन्न देशों में उनके विशिष्ट और विविध प्रकार के श्रम और अन्य संसाधनों के आधार पर पूंजीवादी संबंधों को विकसित और दृढ़ करने के विभिन्न विकासीय मॉडल तैयार हुए। इसने आयुध और रक्षा उद्योगों के विशाल और व्यवस्थित विकास में भी मदद की, और वैश्विक ध्रुवीकरण के तहत तमाम देशों को गोलबंद किया। वह सैन्य कींसियवाद का युग था, जब यह समझ थी कि “सरकारी खर्च के उच्च स्तर की नीति — भले ही कभी-कभी घाटे के माध्यम से वित्तपोषित हो — अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकती है”। सैन्य खर्च का उद्देश्य भी “बेरोजगारी की दर को कम करने, मजदूरी बढ़ाने और श्रमिकों की आर्थिक सुरक्षा में योगदान देना था” (जेम्स सी. साइफर) ताकि प्रभावी मांग में बढ़ोत्तरी हो सके, आर्थिक गतिविधियों में तेजी आए और पूंजीवाद-विरोधी सामाजिक वर्गीय जन-उभार की संभावना को खत्म किया जा सके।

पूंजीवाद के तथाकथित स्वर्ण युग के 1970 में पतन के साथ, सोने-डॉलर के रिश्ते के अंत और सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के कारण, जिसने श्रम प्रणालियों के सतत असततीकरण (infinite discretisation) को और उत्पादन प्रक्रियाओं के भूमंडलीय एकीकरण को संभव बना दिया, पूंजीवाद के वित्तीयकरण की प्रक्रिया शुरू हुई जिसने आर्थिक के घेरे से राजनीतिक प्रभाव को लगातार नदारद किया, और राष्ट्रीय सत्ताओं को महज पुलिस फोर्स बन सामाजिक असंतोष को प्रबंधित और उत्पादित करने का काम सौप दिया। इस बदलाव ने धीरे-धीरे शीत युद्ध युगीन स्थायित्व को नष्ट कर दिया और राष्ट्रीय विकास के प्रतिमानों को लगातार ध्वस्त कर वैश्विक वित्तीय बाजार और एकीकरण के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया। अब पूंजी के संकटग्रस्त प्रवृत्तियों से कोई भी अर्थतंत्र अपने आप को अछूता नहीं रख पाएगा।

शीत युद्ध के अंत को जिसे बर्लिन दीवार के ढहने और पूर्वी यूरोप के देशों के विघटन से चिह्नित किया जाता है, अमरीकी नेतृत्व की जीत के रूप में देखा गया। लेकिन यह एकछत्रवादी उत्साह तुरंत ही फीका पड़ गया क्योंकि अमरीकी नेतृत्व वाले गठबंधन यानी नाटो ने अपना तात्कालिक औचित्य खो दिया। मास्त्रिख्त संधि (Maastricht Treaty) और अन्य नए क्षेत्रीय गठबंधनों के जन्म के साथ, अमरीका और डॉलर की वर्चस्वता सर्वमान्य नही रह गई। कुछ सुरक्षा विचारकों ने इस मौके को एकध्रुवीयता की असंभावना और बहुध्रुवीय दुनिया के उदय के आग़ाज़ के रूप में देखा, जिसे वे एक तरह से अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र का पर्याय मानते थे।

दूसरी ओर, अमरीकी-परस्त सुरक्षा विचारक पुराने गठबंधन के औचित्य को साबित करने के लिए कई तरह की अटकलों का इस्तेमाल करते रहे। सोवियत संघ के विघटन के बाद कई तरह के स्थानीय और आर्थिक-हितार्थी गठबंधनों का जन्म होता दिखाई देता है, जिसमें ग्लोबल साउथ अथवा तीसरी दुनिया के वे अवसरवादी और तानाशाही देश भी शामिल हो रहे थे जो अमरीकी खेमे में रहा करते थे। ये स्थानीकरण वित्त पूंजी के भूमंडलीकरण के लिए तात्कालिक चुनौती प्रतीत होते हैं। इसी चुनौती ने शीत युद्ध के बाद भी अमरीकी नेतृत्व में भूमंडलीय पुलिसशाही को आरंभिक दिनों में जिंदा रखा — कई यूरोपीय देशों को इस युद्ध में अनमने ढंग से ही सही मगर इस गठजोड़ को जिंदा रखना पड़ा। इसी परिपेक्ष में पिछली सदी के अंत के साथ, इस वैश्विक पुलिसिंग की रणनीतियों को मजबूत करने के लिए “आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध” के रूप में तात्कालिक कामचलाऊ सैन्य विचारधारा उभरी। यह विचारधारा अत्यधिक शक्तिशाली थी क्योंकि यह किसी भी हस्तक्षेप को सही ठहरा सकती थी। यह नवउदारवादी युग के लिए काफी उपयुक्त भी थी क्योंकि यह मरीचिकानुमी, गतिशील और सर्वव्यापी वित्तीय पूंजी के फैलाव का साधन बन सकती थी। जहां-जहां राजनीतिक को आर्थिक के तहत अधीनार्थ करने की आवश्यकता है यानी जहां-जहां स्थानीय संसाधनों और अर्थतंत्रो को पूंजी के खुले दोहन में राजनीतिक और सामाजिक अड़चनें पैदा हो रही हैं वहां आतंकवाद-विरोधी मुहिम चलाई जा सकती है। इस अंतहीन युद्ध के परिवेश ने न केवल सैन्य और सैन्य प्रौद्योगिकियों पर जारी सार्वजनिक खर्च के लिए, बल्कि विशेष रूप से सुरक्षा और निगरानी के ढांचे के सामान्यीकरण और निजीकरण के लिए भी औचित्य प्रदान किया, क्योंकि वित्त की तरह आतंकवाद कोई सीमा नहीं जानता — इसलिए आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जितना विदेशी भूमि पर होता है, उतना ही (शायद अधिक ही) घरेलू सीमाओं के भीतर छेड़ा जाता है।

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इस संदर्भ में, शायद प्रासंगिक है मार्क्सवादी इतिहासकार और चिंतक एलेन मेक्सिन्स वुड की “अधिशेष साम्राज्यवाद” की थीसिस — जो नव-उदारवादी दौर में साम्राज्यवादी प्रक्रियाओं को सैन्य उद्योग में अतिसंचय की अभिव्यक्ति के रूप में देखती है। मेक्सिन्स वुड तर्क देती हैं,

“यह पहला साम्राज्यवाद है जिसमें सैन्य शक्ति न तो क्षेत्र को जीतने के लिए और न ही प्रतिद्वंद्वियों को हराने के लिए निर्मित हुई है। यह ऐसा साम्राज्यवाद है जो न तो क्षेत्रीय विस्तार चाहता है और न ही व्यापार मार्गों पर भौतिक प्रभुत्व। फिर भी इसने इस विशाल और अनुपातहीन सैन्य क्षमता का विकास किया है जिसकी अभूतपूर्व वैश्विक पहुंच है। शायद इतने बड़े सैन्य बल की आवश्यकता इसी वजह से है क्योंकि नए साम्राज्यवाद का कोई स्पष्ट और सीमित उद्देश्य नहीं है। वैश्विक अर्थव्यवस्था और इसे संचालित करने वाले विभिन्न राज्यों पर असीम वर्चस्व के लिए अंतहीन, उद्देश्य अथवा समय के मामले में, सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता होती है।”

आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध निश्चित रूप से वैश्विक पुलिस व्यवस्था के विस्तार में शानदार रूप से उत्पादक है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है दुश्मन को वास्तव में पहचानने और नियंत्रित करने में असमर्थता। यह सहयोगियों से ज्यादा नाराजगी और दुश्मन पैदा करता है, और वे कहीं से भी उभर सकते हैं। मेक्सिन्स वुड आगे कहती हैं,

“हमें बताया गया है कि सीमाओं के बिना युद्ध सीमा-विहीन विश्व की अनुक्रिया है, एक ऐसी दुनिया की जिसमें राष्ट्र-राज्य अब प्रमुख खिलाड़ी नहीं हैं और गैर-राज्य विरोधी, या ‘आतंकवादी’ एक बड़ा खतरा बन गए हैं। इस तर्क में विशिष्ट संतुलन आकर्षक है, लेकिन यह जांच में खरा नहीं उतरता। आतंकवाद का खतरा, बल-प्रयोग के किसी भी अन्य खतरे से अधिक, भारी सैन्य विरोध का प्रतिरोधक है — राज्यविहीनता के बावजूद नहीं बल्कि उसके कारण; और, वैसे भी, ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ से आतंकवादी हमलों के रुकने से ज्यादा, उनको बढ़ावा मिलने की संभावना है। गैर-राजकीय दुश्मनों का खतरा सैन्य बल के अनुपातहीन जमावड़े, जिनका कोई अभिज्ञेय लक्ष्य नहीं है, की सफाई नहीं हो सकते। इसके विपरीत, ‘अधिशेष साम्राज्यवाद’, चाहे वह कितना भी विकृत और अंततः आत्म-पराजयशील क्यों न हो, तर्कसम्मत है, परंतु केवल वैश्विक राज्य प्रणाली और उसकी विरोधाभासी गतिकी की प्रतिक्रिया के रूप में।”

इसलिए, यह अंतहीन वैश्विक युद्ध कभी भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नियमन का कुशल साधन नहीं हो सका। इसके अलावा, घरेलू राजनीति पर इस वैश्विक युद्ध का प्रभाव अत्यंत विघटनकारी और अस्थिर होता है, जैसा कि अमरीकी राजनीति पर खाड़ी और अफगानिस्तान युद्धों के प्रभाव ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है। वर्तमान सदी के दूसरे दशक के दौरान अमरीका में विभिन्न सरकारें इन युद्धों से बाहर निकलने का उचित समय और रास्ता खोजने की कोशिश करती रहीं। हाल ही में अमरीका ने शर्मनाक ढंग से अफगानिस्तान से अपने आप को बाहर खींचा — अफगानिस्तान युद्ध तालिबान शासन को अपदस्थ करके शुरू हुआ और इसे पुनर्स्थापित करके समाप्त हुआ।

आतंकवाद के बहाने ने सामान्य निगरानी (surveillance) उद्योग के अंतर्गत सैन्य और आयुध उद्योग के विस्तार और एकीकरण में मदद की, जिसने सार्वजनिक/निजी विभाजन और शांति/युद्धकालीन जरूरतों के विभाजन को व्यर्थ करार दिया। इसने अस्थायी रूप से वैश्विक सैन्य-औद्योगिक परिसर पर अमरीकी आधिपत्य को जीवित रखा, लेकिन वर्तमान शताब्दी के पहले दशक में नाटो की गतिविधियों को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल किए गए ज़बरदस्त झूठ और छल ने एकछत्र अमरीकी नेतृत्व के प्रति सर्वसम्मति को खतरे में डाल दिया। आतंकवाद के खिलाफ युद्ध कभी भी वैश्विक राजनीतिक शक्तियों के आपसी गठजोड़ के लिए सुसंगत साधन प्रदान नहीं कर सका। शीत युद्ध की द्विध्रुवीयता के स्थायित्व और संतुलन की जगह लेने के लिए आज तक कोई नया समीकरण नहीं पैदा हो सका है।

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एक तरफ, पूंजीवाद के नव-उदारवादी चरण ने तमाम राजसत्ताओं को महज पुलिस-प्रशासन में तब्दील कर दिया है, परंतु उस कार्य को भी निभाने के लिए उनके बीच प्रतिस्पर्धा को अत्यधिक तेज कर दिया है। दूसरी ओर, अमरीका को यदि ग्लोबल पुलिसशाही के शीर्ष पर रहना है, तो उसे अपने ऐतिहासिक वर्चस्व को बचाना होगा, जिसके लिए आतंकवाद जैसा चेहराविहीन दुश्मन नहीं सोवियत संघ जैसे खतरे को सामने रखना होगा। मुख्यधारा के सुरक्षा विचारक और अमरीकी नेतृत्व अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रबंधन में इस संकट के बारे में जानते हैं और पिछले एक दशक से द्विध्रुवीयता के मिथक को फिर से बनाने में व्यस्त हैं — इस बार सोवियत संघ का जगह चीन को मिल रहा है। प्रारंभ में, यह केवल हॉलीवुड था जिसने इस कार्य को गंभीरता से लिया, लेकिन ट्रम्प शासन और भारत के मोदी जैसे उसके स्थायी सहयोगियों ने इसको मुख्य एजेंडा बना दिया। बाइडेन शासन डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा छोड़ी गई विरासत को बखूबी व्यवस्थित कर आगे ले जा रहा है। हालांकि, हाल तक चीनी नेतृत्व लगातार इस मिथक में पड़ने से बचता रहा है। चीन दूसरों के खेलने के लिए गैजेट्स और गिज़्मोस के आपूर्तिकर्ता के रूप में अपने आप को रखे रहना चाहता है, लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ अमरीकी रणनीतिकारों और उनके ग्राहकों को अपना सपना साकार होता दिख रहा है।

शीत युद्ध की द्विध्रुवीयता के पुनर्निर्माण के लिए उनके मिथक-निर्माण को साकार करने में मदद करने के लिए उन्हें दो कारकों की आवश्यकता है— पहला, निश्चित रूप से, उन्हें उम्मीद है कि चीन रूस के साथ गठबंधन करेगा, और दूसरा है, जो अमरीका की पिछले तीन दशकों से प्रमुख चिंता रही है, यूरोपीय संघ के जर्मन नेतृत्व की तटस्थता का प्रश्न। यूक्रेन-रूस युद्ध ने इतना तो किया है कि विश्व के तमाम देशों को सैन्यीकरण के प्रति घरेलू सहमति बनाने में लालायित देशों के लिए काम आसान कर दिया है और तटस्थ देशों को मजबूर कर दिया है। भारत की मोदी सरकार की गिनती लालायितों में होगी। दूसरी ओर, यूक्रेन-रूस द्वंद्व का नतीजा यह है कि अनिच्छुक जर्मनी ने अपनी सैन्य अक्षमता का आभास करते हुए 2022 के बजट में दस हज़ार करोड़ यूरो सैन्य खर्च के लिए तय कर लिया। मैक्सिन्स वुड की बात माने तो यह अमरीका के अधिशेष साम्राज्यवाद के लिए उत्तम अवसर है। इस दौर में उसकी सैन्य क्षमता के खरीददार अनेक होंगे।

परन्तु पुरानी द्विध्रुवीयता का आधार सैन्य कींसियवाद था जो कि घरेलू अर्थतंत्र के सुनियोजित संतुलित विकास पर केंद्रित था। उसके विपरीत नई द्विध्रुवीयता का संदर्भ वित्तीय पूंजी और बाजार की स्वच्छंद और अनियत प्रकृति है जिसके आगे सारी दूरगामी संरचनात्मक स्थानीय नीतिगत योजनाएं विफल हैं और जिसने विश्व को भूमंडलीय ग्रामीण व्यवस्था में तब्दील कर दिया है जहां कभी अकेले कभी साथ मिल कर एक दूसरे की नोच-खसोट में सभी लगे हुए हैं — यही ज़ोंबी युग है जहां खून पीने की होड़ को प्रतिस्पर्धा का नाम दिया गया है। वैसे भी पूंजीवाद में “जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है” (मार्क्स) परंतु शुरुआती चरणों मे स्थान और समय में अंतराल का अर्थ था, जो कि नव-उदारवादी चरण में असीम क्षणभंगुर और संयोगात्मक होता चला जा रहा है — कैंसर मौजूद है परंतु वह तात्कालिक रूप में किस जगह और कब उभरेगा यह तय नहीं है। जॉन मैकमूर्टी ने पूंजीवाद के विद्यमान चरण को “पूंजीवाद का कैंसर चरण” नाम दिया है।

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जबतक रणक्षेत्र मध्य-एशिया, अफगानिस्तान या ग्लोबल साउथ के कोई और देश में स्थित थे तब तक इन युद्धों के पीछे मूल रूप से काम कर रही वर्चस्वकारी राजसत्ताओं की संरचनात्मक कमजोरियाँ और उत्कंठाएँ साफ नहीं दिखती थीं। यूक्रेन-रूस युद्ध ने इन सब पर से पर्दा हटा दिया। वित्तीयकृत पूंजी ने किस रूप में पूंजीवादी राजसत्ताओं और उनके बीच के संबंधों की सर्वमान्यता और स्वरूपों को अनिश्चित कर दिया है, यह आज साफ है।

आने वाले वर्षों में घटनाएं क्या मोड़ लेंगी यह बताना शायद मुश्किल है। लेकिन इतना तो साफ है कि चीन और रूस पुराने सोवियत संघ नहीं है। चीन विश्व पूंजीवाद का सबसे बड़ा विनिर्माण केंद्र ही नहीं है, वित्तीय पूंजी का भी केंद्र बनता जा रहा है, और साथ ही पूंजी के वैश्विक फैलाव का वह अहम जरिया भी है। आगे, संयुक्त राज्य अमरीका की स्थिति 1950-80 में जैसी थी वैसी नहीं है — वह न तो विश्व पूंजीवादी उत्पादन का केंद्र है, न ही डॉलर की वर्चस्वता निर्विरोध सर्वस्वीकृत है। परंतु संयुक्त राज्य अमरीका तमाम अर्थतन्त्रों के लिए, विशेषकर चीन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बाजार है। इसी कारण अमरीका के अर्थतंत्र के पोषण में सभी पूंजीवादी राष्ट्र अपना हित देखते हैं।

इसके अलावे, यूक्रेन-रूस युद्ध के नतीजे के तौर पर कई लोग नव-शीत युद्ध की परिकल्पना करते हुए हथियारों के होड़ की फिर से शुरुआत की संभावना को देखते हैं। क्या यह कभी रुका था? अगर हम इस युद्ध में अमरीका और रूस के बीच प्रतिस्पर्धा को देख रहे हैं तो यह हमें समझना चाहिए कि वैश्विक सैन्य-औद्योगिक परिसर के फैलाव में मुख्य प्रतिस्पर्धक होने के कारण रूस और अमरीका दोनों सहयोगी भी हैं। संयुक्त रूप से, अमरीका और रूस का हथियारों के वैश्विक निर्यात में 57% हिस्सा है। इस मामले में यह युद्ध दोनों ही देशों के हित में है।

इस युद्ध के मामले में भारत और अन्य देशों की तटस्थता को देखकर कुछ विद्वानों को गुटनिरपेक्ष आंदोलन की याद आने लगी है और उसके पुनरागमन की संभावना भी दिखने लगी है। इस मोह का इस्तेमाल कर मोदी सरकार और विश्व की अन्य अवसरवादी सरकारें सैन्य खर्चों की बढ़ोत्तरी के प्रति घरेलू सर्वसम्मति तैयार कर रहीं है। शायद वे इसमें आर्थिक मंदी से उबरने का जरिया देख रहीं हैं। रोजा लुक्सेमबुर्ग ने कभी कहा था — “जो चीज सेना की आपूर्ति को, उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक उद्देश्यों (स्कूलों, सड़कों, आदि) पर राज्य के व्यय की तुलना में, अधिक लाभदायक बनाती है, वह है सेना का निरंतर तकनीकी नवाचार और इसके खर्चों में लगातार वृद्धि।”

मोदी सरकार शुरुआत से ही भारत में सैन्य-औद्योगिक परिसर के विकास पर जोर दे रही है। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के नाम पर उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया स्थापित हो चुकी है। रक्षा औद्योगिक कॉरिडोरों का निर्माण किया जा रहा है। विदेशी निवेश को खुला निमंत्रण दिया जा चुका है, और कंपनियों का आगमन शुरू हो चुका है। यही कंपनियां है जो पहले देश के खिलाफ दूसरे देश को, और दूसरे के खिलाफ पहले देश को हथियार सप्लाई करती हैं। इस संदर्भ में हम लेनिन की बात को उद्धृत कर इस लेख को यहीं पर विराम देंगे —

“हथियारों को एक राष्ट्रीय मामला, देशभक्ति का मामला समझा जाता है; यह माना जाता है कि हर कोई उनके बारे में अधिकतम गोपनीयता बनाए रखेगा। लेकिन जहाज निर्माण कारखाने, तोपें, डाइनेमाइट और लघु शस्त्र बनाने के कारखाने अंतरराष्ट्रीय उद्यम हैं, जिनमें विभिन्न देशों के पूंजीपति विभिन्न देशों की जनता को धोखा देने और मुड़ने के लिए और इटली के खिलाफ ब्रिटेन के लिए और ब्रिटेन के खिलाफ इटली के लिए समानरूप से जहाज और तोपें बनाने के लिए मिलकर काम करते हैं।”

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Class Struggle, Development and Revolutionary Politics


1. What happened in China? Isn’t it capitalism that is being nurtured by the ‘Maoist’ party in China?

The course of development is determined by class struggle (at least the Chinese communists were emphatic about it, when they said that this class struggle goes on in their own ranks as well). The Chinese economy where it stands today too is not a result of any linear development; without deliberating on contradictions of the development process that revolutionary movements trigger, we generally tend to impute successes/failures of the revolutions or movements to the subjective choices of the leadership – their goodness and badness.

2. What is happening in Nepal? The Nepali Maoists are quite vocal about their aim to nurture capitalism in their country.

Even in the case of Nepal, we should try to understand the Maoists, by grounding their politics in the wider political economic processes which limit their ‘dream’ of an uninterrupted revolution, of ‘bypassing capitalism’. Their problem is at least partly our patriotism – like the anti-patriotic Zimmerwald Conference we should first of all decry and call for the defeat of the Indian state and capitalists who virtually hold half of the Nepali economy to ransom; then only can we see a proper anti-capitalist revolution emerging in landlocked Nepal. We should just go through news reports of the past five years, how threats from Indian capital and state (which Indians, including the leftists, generally understand as an expression of big brotherliness, rather than that of imperialism, because we ignore the economic basis of India-Nepal relationship) have regulated the Maoists’ radical initiatives.

3. What is the development strategy of the Maoists in India? Don’t they profess to compensate for lack of capitalism?

About our Maoists, I believe, our so-called movement people are waiting for their failure to be the proof of their wrong ideology, strategy, tactics or even ignorance about the development process. But that is not the way for the revolutionaries – they have to understand every struggle caught up in the particularisation of class struggle in various localities, first by affirming it to be part of the same movement. What will be the development strategy ultimately is determined by the articulation between various local (particular) struggles, and the class hegemony that directs that articulation.

4. How have non-Marxist socialists in India faired on this count?

The socialist movement (here I include many communist organisations too) in India today – because of their populist political base and vision (‘populism’ in a definite theoretical sense) is caught up in the cartesian binaries of big vs small, agriculture vs industry, village vs city, india vs bharat etc etc, in which the hierarchised composition – internal differentiation – of the preferred half (the ‘small’ or the agrarian community etc) are simply wished away, ultimately for the benefit of the well-to-do within this ‘small’/agrarian community (in practical terms increasing their bargaining power). (A parallel example in the urban areas could be the trade unionists protecting sectional interests or labour aristocracies by not taking account of labour segmentation). We have seen how socialists in rural areas have been reactive to any talk of class differentiation, and independent labour mobilisation, since they tend to divide, not unite the rural community.

5. But don’t you think every movement has to have a central focus that can broaden its base? A peasant movement will be homogeneous in this regard.

I think within the peasant movement, even before Independence, there were a few socialists who were quite clear about the complexity of the peasant question – how differentiation within peasantry determined the trajectory of even seemingly “homogenized” peasant struggles: to name some of them, Swami Sahajanand Saraswati (see his “Maharudra ka Mahatandav”) and Indulal Yagnik/Dinkar Mehta (in Gujarat) who understood the task of re-envisaging the rural struggles around rural labourers (which include those sections of the “landed” peasantry who simply reproduce their labour-power by engaging in farming). For a historical review of this aspect please read Jan Breman’s “Labour Bondage in West India”. The recent overstress on peasant homogeneity is phenomenon which is related with a definite rise of the kulak lobby (I am using this term in a purely objective sense).

6. At least the socialists have a clear vision about alternative development.

Yes, the socialists have a clearer vision about development alternatives, but much of that has to do with their dualistic conceptualisation; they can remain happy with utopian anti-capitalism, by choosing one pole in the binary. The problem with communists is that they try to develop a labour standpoint – and labour-capital relationship does not constitute a cartesian contradiction, they are opposites in a dialectical contradiction – “capital is labour”/”labour is capital”, as Braverman said, “working class is the animate part of capital”. The development strategy is constituted through this continuous contradiction, through a generalisation or a political systematisation of the alternatives emerging in the daily experiences of the working class. The question here is to go beyond capitalism, to overcome capital as accumulated labour dominating the living labour – to overcome the subsumption/ alienation/ accumulation of various forms of labour by capital (capitalism expands not just by wiping away the “vestigial” forms of production and exploitation, but also by resignifying them). We cannot have a predetermined development strategy in this struggle, except that which will sharpen the class struggle.

7. But class struggle between capital and labour too leaves aside many other conflicts.

Not exactly. The issue before us perhaps is to understand how ‘other’ struggles (struggle between classes, not just labor and capital but other classes also; struggle within classes; struggles against the State, caste and gender struggles) are related to capital-labour conflicts. Why cannot they be seen as particularisations of capital-labour conflict? Labour does not mean just wage labour. Labour-capital relationship resignify the whole stratification of the society, even castes and gender are posed as specifications of that relationship:

a) Ambedkar can be helpful in understanding the caste system in this regard, when he talked about caste as not just a division of labour, but a division of labourers. In this framework, anti-casteism becomes a working class struggle to create unity among labourers.

b) An Italian-American activist-scholar, Silvia Federici has succinctly put:
“If it is true that in capitalist society sexual identity became the carrier of specific work-functions, then gender should not be considered a purely cultural reality, but should be treated as a specification of class relations…In capitalist society “femininity” has been constituted as a work-function, masking the production of the work force under the cover of a biological destiny. If this is true then “women’s” history is “class history”.

8. So are you against community level struggles, as communities are generally composed of diverse class interests?

A “Community” is not simply an aggregation of horizontal interests; it arises out of an articulation (which includes hidden and open conflicts) between various levels of interests. Its critical edge is determined by the nature of interests that dominate that articulation. We are not even hostile towards the idea of rural community, but the point is to see how it is internally constituted, and which class interest dominates it.

(I thank comrades, interacting with whom I wrote much of the text.)

“When Nepal finds its voice”


ET has published a good editorial on the changing tenor of Indo-Nepal relationship:

Fortunes have a propensity to swiftly change sides. And what seems to be the given order of things can swiftly come to be transformed. Witness the heartburn in India when news emerged that the new Nepali Prime Minister, Pushpa Kamal Dahal, was headed to Beijing instead of paying obeisance to New Delhi first.

If there’s one thing we haven’t yet gotten used to in our neighbourhood, it’s the sudden and complete transformation within Nepal. We were quite happy while we could treat Nepal like a province, a wee bit like a colony, and while their leaders would first and foremost be careful about our big brotherly concerns.

It was quite all right as long as the image of ordinary Nepalis only meant thinking of a pliable servant at home. Things were just fine as long as we could head up there without any restriction and virtually run the economy. Until the Maoists came along.

It is as if Nepal has discovered a new identity, an ability to stand up and speak for itself. After dumping the monarchy, which again irked us as the kings were quite part of our own royal families, the new Nepal now seems like it wants to talk on equal terms.

This could be a painful process, since as old habits die hard. And then, we were quite used to, say, a certain degree of extra attention. Now, when a Nepalese official ‘reassures’ us that India should not worry about the Nepali PM’s China visit since his nation will now pursue a policy of ‘equidistance’ with its two neighbours, it doesn’t cause much assurance.

Indeed, there’s a certain galling element to the whole notion of not being preferentially treated. And this could well reflect in ‘new’ issues being talked about when officials of the two nations meet. Already, Nepal is speaking of tricky issues like the thousands of Bhutanese refugees in its territory. What it will be like when it comes to stomach-churning things like water-sharing can only be surmised. Sigh! But for the good old days.