धुर-दक्षिणपंथ के विरोध का अर्थ


सम्पादकीय (ड्राफ्ट), मोर्चा

उनका तर्क है कि कोई भी चीज़ स्वयं को केवल एक ही प्रकार की चीज़ के रूप में दोहरा सकती है, तथा किसी भिन्न चीज़ में परिवर्तित नहीं हो सकती। — माओ 

“विश्व इतिहास में… सभी अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएं और हस्तियां… दो बार आविर्भूत हुई हैं।… पहली बार दुखांत नाटक के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में।” मगर ये घटनाएं यथार्थ में दो बार  नहीं होतीं, बल्कि अतीत की मृतात्माएं भाषा, परंपरा, नाम, रणनाद और परिधान मुहैय्या कराती हैं जिन्हें उचित संप्रेषण के अभाव में “विश्व इतिहास की नवीन रंगभूमि को इस चिरप्रतिष्ठित वेश में और इस मंगनी की भाषा में सजाया” जाता है।  मार्क्स के अनुसार, इस “भोंडी नकल” से प्रगतिशील ताकतें भी अछूती नहीं होती। 

प्रतिक्रियावादी ताकतें स्वभावतः राष्ट्रवादी, नस्लवादी, जातिवादी अतीत के “गौरव” को पुनश्च जीती हैं, मगर अपने आप को सर्वहारा क्रांति के हिरावल मानने वाले यदि अतीत को जीने लगें तो समस्या है। अतीत की समझ जरूरी है  (यह मार्क्सवादी से अधिक कौन जानता है) मगर उनमें संदर्भ के ऐसे बिंदुओं की तलाश करने के लिए, जो हमें वर्तमान में हमारे स्थान को स्थापित करने में मदद करें, ठीक उसी तरह जिस तरह नाविकों को आकाश के तारे मदद करते हैं।  जब वर्तमान का अर्थ धूमिल हो रहा हो तो अतीत के वे बिंदु हमारे लिए तारों का काम करते हैं।  मगर आज की सामाजिक क्रांति अपना काव्य अतीत से कभी नहीं गढ़ सकती, उसे भविष्य से ही गढ़ना होगा। बेगमपुरा की नगरी अतीत में नहीं है, भविष्य में है। 

इतिहास और वर्तमान की समझदारी का रिश्ता एकतरफा नहीं होता यानी इतिहास पर आपकी पकड़ वर्तमान में आपको शातिर बना देगी, ऐसा बिल्कुल नहीं है। ज्यादा समय इतिहास के ज्ञान का बोझ आपको ऐतिहासिक रूपकों की भूलभुलैया में विलीन कर देता है, और वे मिथक का काम करते हैं। तथाकथित वस्तुनिष्ठ इतिहास के प्रचारक वर्तमान को महज उसका निष्कर्ष मानते हैं, जबकि गतिशील वर्तमान हमेशा नया इतिहास रचता है, उसमें नए बिंदुओं को तलाशता है ताकि भविष्य के रास्तों को ढूँढ़ सके। इतिहास का विकासवादी (evolutionary) दृष्टिकोण, वर्तमान की नवीनता को नहीं स्वीकारता, वह स्वरूपात्मक पुनरावृत्तियों की भाषा में उसको बांधने का प्रयास करता है। वर्तमान का हरेक नया क्षण इतिहास के पुनरावलोकन के लिए अवसर प्रदान करता है —  पुराने क्षणों को देखने और समझने के लिए नया दृष्टिकोण देता है। इसके विपरीत, नए में पुराने को खोजने की जिद्द में इतिहास के दरारों और छलाँगों को नजरअंदाज करने से हमारी राजनीति और हमारे संघर्ष निश्चित व्यवस्थापरक सीमाओं में बंधे रहते हैं, जबकि संघर्षों में हमेशा अंतर्निहित अमूर्त संभावनाएं होती है, जो संयोगों की जननी हैं जिनसे इतिहास की गति में छलांग पैदा होती हैं। 

फासीवाद के ऐतिहासिक रूपक से वर्तमान के दक्षिणपंथी उभार की समझदारी को प्रस्तुत करने में अवश्य ही मदद मिलती है, परंतु जैसा कि अलेक्जेंडर रोसेनब्लूएथ और नॉर्बर्ट वीनर ने लिखा है, “रूपक की कीमत शाश्वत सतर्कता है।” जीव-वैज्ञानिक रिचर्ड लेवॉन्टिन “द ट्रिपल हेलिक्स” में इस बात पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं —  प्रकृति के बारे में बात करते हुए हम रूपकों के उपयोग से बच नहीं सकते, लेकिन रुपक को वास्तविकता के साथ घालमेल करने का खतरा हमेशा बना रहता  है। हम दुनिया को मशीन की तरह से देखना बंद कर, मशीन ही समझ बैठते हैं। प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र से कहीं अधिक यह समाज और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्रों  में होता है। सामाजिक अवधारणाएं, खास तौर से जो मूर्त तौर पर किसी ऐतिहासिक काल, घटना इत्यादि  से जुड़ी होती हैं उनका इस्तेमाल वर्तमान के चित्रण और समझ के लिए अनिवार्य हैं, परंतु उन्हें उनकी ऐतिहासिकता से काट कर भौतिकवैज्ञानिक अवधारणाओं की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। फासीवाद की मूर्तता जो इटली और जर्मनी या फिर उस समय के अन्य धुर–दक्षिणपंथी आंदोलनों में मिलती है, उसे इन आंदोलनों या उनके समय के इतिहास से निकालकर उनका अवधारणात्मक इस्तेमाल करना खतरनाक है — क्योंकि इससे उनके खिलाफ की लड़ाई की “भोंडी नकल” का खतरा पैदा हो जाता है। 

पिछले कुछ अंकों से हम घोर दक्षिणपंथी आंदोलनों, राजनीति और सत्ताओं के उभार की जांच हेतु सामग्रियों का प्रकाशन कर रहे हैं।  इन सामग्रियों और चर्चाओं ने इतना तो साफ किया है कि उस जमाने के फासीवाद और नाजीवाद जिस रूप में सामाजिक उत्कंठाओं और कुंठाओं की उपज और अभिव्यक्तियाँ थे, आज के धुरदक्षिणपंथ भी उसी तरह आज की उत्कंठाओं और कुंठाओं की उपज और अभिव्यक्ति हैं।  उनके तौर-तरीके में भी समानता दिखती है। परन्तु विद्यमान नव-उदारवादी पूंजीवादी चरण की विशेषताएं इन राजनीतिक अभिव्यक्तियों की भूमिकाओं और कार्यकलापों को नया स्वरूप और नया अर्थ देती हैं। आज के दक्षिणपंथ को समझने में “फासीवाद” का परिभाषात्मक उपयोग खतरे से खाली नहीं है। इसका नतीजा आज की स्थिति की अतिरंजित ढंग से पेशकश ही नहीं, बल्कि हमारे वक्त की विशिष्टता और गंभीरता को कम करना भी हो जाता है। 

आज के नव–उदारवादी दौर में फासीवादी प्रवृत्तियाँ पूंजीवादी व्यवस्था के राजनीतिक -आर्थिक संघटन में समाहित हो गई है। वर्गीय और अन्य विभाजनकारी भिन्नताएं राजकीय कार्यकलापों के स्तर पर, विशेषकर पूंजीवादी लोकतंत्र के तहत छिपी रहती थीं, जहां  संप्रभुता को निर्वैयक्तिक कानूनी प्रणाली के माध्यम से काम करना होता था और जो सभी पर समान रूप से लागू होती थी। (गासपार मिकलोस तामास) जबकि इसके विपरीत, फासीवादी तानाशाही विभाजनकारी भिन्नताओं को उजागर कर उसी के आधार पर मनमानी नीतियों द्वारा संप्रभुता स्थापित करती  थी — “संप्रभु वह है जो अपवाद पर निर्णय लेता है।”

1970 के मध्य से ही लगातार पूंजीवाद के नवोदारीकरण के दौर में पूंजीवादी राजसत्ता ने फासीवादी प्रवृत्ति को इस प्रकार से आत्मसात किया है कि पूंजीवादी जनतंत्र  के तहत भी संप्रभुता का वही रूप हो गया है, जो खुले तौर पर मनमानी नीतियों द्वारा अपने विभाजनकारी चरित्र को पेश करता है — सार्विक नागरिकता के आदर्श की जगह पर नागरिकता को विशेषाधिकार और श्रेणीबद्ध बना देता है। दूसरी तरफ, आज फासीवादी भीड़ — संगठित/केंद्रित हो या असंगठित/विकेंद्रित हो दोनों ही रूपों में दैनिकता में लगातार विद्यमान रहती है। ये आज पूंजीवादी जनतंत्र के लिए खतरा नहीं है, बल्कि नवोदार पूंजीवादी जनतंत्र को पॉपुलिस्ट चरित्र देती है, और बदलती सरकारों को इसी के दायरे में काम करना होता है — विशेष प्रकार के लोकवृत्त का निर्माण करती है, जिसके तहत विचारधारात्मक रूप से भिन्न राजनीतियाँ आपस में प्रतिस्पर्धात्मक विनिमय संबंध बना पाती हैं, और एक दूसरे की पूरक बन जाती हैं।  क्या यही आज भारत की दशा नहीं हो गई है? चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें हों, चाहे वह अति-दक्षिणपंथी भाजपा नेतृत्व की सरकार हो या किसी और पार्टी के नेतृत्व की सरकारें हों, चाहे शासक पार्टी हों या विपक्ष की पार्टियां हों, सभी इस भीड़ को भीड़ रूप में ही नियोजित करने की कौशिश कर रहीं हैं, चाहे कोई सांप्रदायिक आधार पर करे, या फिर भाषाई या अन्य आधारों पर। नव-उदारवादी संदर्भ में इस उत्तर-फासीवाद के खिलाफ संघर्ष किस प्रकार से ऐतिहासिक फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के तौर-तरीकों से, जिसके लिए फासीवाद एक चिह्नित आंदोलन और राज्य था जिस पर सीधा निशाना साधा जा सकता था, लड़ा जा सकता है? 

जैसा कि बार बार कहा गया है पूंजीवादी समाज में अलगा‌व और कुंठा स्वाभाविक है, जो कि समाज में फैलते सर्वहाराकरण, असमानता, व्यक्तिकरण और प्रतिस्पर्धा का सीधा नतीजा हैं। इस समाज का  हर वर्ग इनसे प्रभावित होता है। एंगेल्स अपनी आरंभिक पुस्तक, द कन्डिशन ऑफ द वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड  (1845) में सामाजिक प्रतिस्पर्धा का बखूबी चित्र खींचते हैं:  

“प्रतिस्पर्धा आधुनिक नागरिक समाज में सभी के विरुद्ध सभी की लड़ाई की पूर्ण अभिव्यक्ति है। यह लड़ाई, जीवन के लिए, अस्तित्व के लिए, हर चीज के लिए लड़ाई, जरूरत पड़ने पर जीवन और मृत्यु की लड़ाई, केवल समाज के विभिन्न वर्गों के बीच ही नहीं, बल्कि इन वर्गों के अलग-अलग सदस्यों के बीच भी लड़ी जाती है। हरेक आदमी दूसरे के रास्ते में है, और हरेक अपने रास्ते में आने वाले सभी लोगों को बाहर निकालने और खुद को उनकी जगह पर रखने का प्रयास करता है। मजदूर आपस में उसी प्रकार लगातार प्रतिस्पर्धा में रहते हैं, जैसे कि पूंजीपति वर्ग के सदस्य।”

यह “सभी के विरुद्ध सभी की लड़ाई” व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर कुंठित आशाओं और मानसिक-भौतिक रुग्णताओं को पैदा करती है। इन कुंठित प्रवृत्तियों और रुग्णताओं को लेकर तीन तरह की राजनीति हो सकती है। एक, जो इन कुंठाओं को नियंत्रित और प्रबंधित करे ताकि वे व्यवस्था के लिए खतरा न बन जाएं, तथा प्रतिस्पर्धा को और तेज कर उसे पूंजीवाद के सामाजिक पुनरुत्पादन का जरिया बना दे; दूसरा, जो इन कुंठाओं के तह में जाए, और उसके आधार पर चोट करे; और  तीसरा, वह जो कुंठा को ही राजनीति बना ले। पहले प्रकार की राजनीति के तहत सभी बुर्जुआ राजनीतिक शक्तियां — लेफ्ट-राइट-सेंटर, उदारवादी हों या रूढ़िवादी — होतीं है,  दूसरे के तहत क्रांतिकारी अथवा परिवर्तनगामी राजनीति होती है जो व्यवस्था को ही चुनौती देती है। तीसरे में धुर-दक्षिणपंथी शक्तियाँ शामिल हैं जो कुंठितों की कुंठाओं की जैविक अभिव्यक्ति हैं — जो शिकायतों और लांछनों की भाषा में ही अभिव्यक्त होती हैं। यह बात फासीवादी या अन्य-धुरदक्षिणपंथी जन-आंदोलन  के लिए तो सही ही है, जो राजनीतिक-आर्थिक संकट के दौर में  राज्य की वैधता (legitimation) को  अन्य दक्षिणपंथ और रूढ़िवादी शक्तियों के साथ जुड़ कर पुनर्स्थापित करने की कोशिश करता है। जिस प्रकार से पूंजीवाद की राजकीय-वैधानिक व्यवस्था औसत आदमी के रूप में सभी वर्ग के व्यक्तियों को ढालता है, उसी औसत आदमी की कुंठाओं को धुरदक्षिणपंथ एकत्र कर राजनीति का रूप देता है। क्रांतिकारी शक्तियों को इसी औसतीकरण के खिलाफ वर्गीय राजनीति को सामने रखना होगा। उदारवादी औसतीकरण का पूरक है फासीवादी औसतीकरण जो पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन के संकट के दौर में सामने आता है। 

हमने मोर्चा के पिछले अंक के संपादकीय में आज के दक्षिणपंथी उभार के कुछ कारणों पर ध्यान दिया था। संक्षेप में हम बोल सकते हैं कि नवोदार पूंजीवादी प्रक्रियाओं के तहत बेशीकरण, सर्वहाराकरण और प्रतिस्पर्धा में तेजी ने न्यूनीकृत राजसत्ताओं के लिए वैधता–संकट (legitimation crisis) पैदा कर दिया है। बेशी और सर्वहाराकृत आबादी की बढ़ती तादाद की आपसी प्रतिस्पर्धा ने पूंजीवाद की प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक व्यवस्था को अनिश्चित बना दिया है।  दक्षिणपंथी जन पार्टियों का ऐतिहासिक योगदान फासीवाद की तरह ही इस आबादी को इस रूप में संगठित करना होता है कि वे पूंजी के शासन के लिए खतरा न बन सकें। परन्तु 1920 – 45 के दौर में पूंजी, उसके मूर्त स्वरूप और बाजार राष्ट्रीय सीमाओं के आधार पर अपने आप को नियोजित करते थे और इसी कारण राष्ट्रीय नीतियों और राजनीतियों के आधार पर पूंजी संचय के राजनीतिक अर्थतांत्रिक मॉडलों की तैयारी हो सकती थी। लेकिन पूंजी के बढ़ते वित्तीयकरण और भूमंडलीकरण ने राज्य की इन क्षमताओं को कमजोर कर दिया है, और व्यवस्थापरक राजनीति की भूमिका आज जन असंतोष को व्यक्तिकृत और फिर उसे संगठित कर कुंद करना है, कोई सुव्यवस्थित राजनीतिक–आर्थिक मॉडल देना नहीं है। ऐसे में राजसत्ता-केंद्रित संघर्षों से हम किस हद तक आज के दक्षिणपंथी विकृत जन आंदोलनों की मौजूदगी से निजात पा सकेंगे?

हमारा मानना है कि पुराने संघर्षों से अभी भी बहुत कुछ सिखा जा सकता है, परन्तु उनको मॉडल की तरह इस्तेमाल करना गलत होगा – हम उनकी नकल नहीं कर सकते। हमें उनके प्रासंगिक गुणों को नया स्वरूप देना होगा। संघर्ष का स्वरूप हमेशा समय और स्थान से बंधा होता है। दूसरे समय या स्थान के संघर्षों से सीखने का अर्थ उनकी पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। जिनके लिए वर्तमान महज पुनरावृत्ति है, वह अतीत की झूठी निश्चितताओं को जीना चाहते हैं। यहाँ हम संक्षेप में कुछ रणनीतिक सीख को सामने रखेंगे।  

फासीवाद के विरोध का सबसे सुगठित जन-आंदोलनकारी स्वरूप कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के व्यवहार में पैदा हुआ, जिसका आकार मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम के अनुसार संकेंद्रीय वृत्त की तरह था। “श्रम की संयुक्त ताकतें (‘संयुक्त मोर्चा’ या यूनाइटेड फ्रन्ट) लोकतंत्रवादियों और उदारवादियों के साथ एक व्यापक चुनावी और राजनीतिक गठबंधन (‘लोकप्रिय मोर्चा’ या पोपुलर फ्रन्ट) की नींव रखेगी। इसके अलावा, जैसे-जैसे जर्मनी आगे बढ़ता गया, कम्युनिस्टों ने ‘राष्ट्रीय मोर्चे’ के रूप में और भी व्यापक विस्तार की कल्पना की, जिसमें सभी लोग शामिल थे, चाहे उनकी विचारधारा और राजनीतिक मान्यताएँ कुछ भी हों, लेकिन वे फासीवाद (या शक्तियों की धुरी) को प्राथमिक खतरा मानते थे।” इतिहासकारों का मानना है, चूंकि कम्युनिस्ट सिद्धांत और व्यवहार में भी अंतरराष्ट्रवादी थे, जिस कारण से फासीवाद के विरोध में राष्ट्रवादियों और देशप्रेमियों से ज्यादा दृढ़ प्रतिज्ञ ढंग से लोगों को एकत्र कर पाते थे। हॉब्सबॉम कम्युनिस्टों की फासीवाद-विरोधी रणनीतिक सक्षमता का आधार उनके व्यवहार की संरचना में देखते हैं।  

“कम्युनिस्टों ने प्रतिरोध का रास्ता अपनाया, न केवल इसलिए कि लेनिन की ‘अग्रणी पार्टी’ की संरचना अनुशासित और निस्वार्थ कार्यकर्ताओं की एक ताकत तैयार करने के लिए बनाई गई थी, जिसका उद्देश्य कुशल कार्रवाई करना था, बल्कि इसलिए भी कि चरम स्थितियाँ, जैसे कि अवैधता, दमन और युद्ध, ठीक वही थीं जिनके लिए ‘पेशेवर क्रांतिकारियों’ के इन निकायों को बनाया गया था। वास्तव में, उन्होंने ही ‘केवल प्रतिरोध संघर्ष की संभावना को देखा था’…। इस मामले में वे जन समाजवादी पार्टियों से अलग थे, जिन्हें वैधता के अभाव में काम करना लगभग असंभव लगता था, चूंकि चुनाव, सार्वजनिक बैठकें और बाकी चीजें उनकी गतिविधियों को परिभाषित और निर्धारित करती थीं।” (एरिक हॉब्सबॉम, ‘दी एज ऑफ एक्सट्रीम्स’)

“श्रम की संयुक्त ताकत” के रूप में संयुक्त मोर्चा को समझना, राष्ट्रवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रवादी प्रतिबद्धता और चरम स्थितियों में काम करने योग्य सांगठनिक क्षमता — ये तीन सिद्धांत आज भी प्रतिक्रियावाद के खिलाफ संघर्ष में अहम होंगे। इन्हीं के आधार पर आज के संघर्ष  की तैयारी हो सकती है। 

प्रत्यूष चन्द्र

आज का “फासीवाद”


मोर्चा (अक्टूबर-दिसंबर, 2024), संपादकीय

  जब कोई अपनी अंगुली से किसी चीज़ की ओर इशारा करे, और मूर्ख व्यक्ति उसकी अंगुली को ही देखता रहे, तो उस व्यक्ति को पता नहीं चलेगा कि इशारे का वास्तव में क्या मतलब है। इसी तरह मूर्ख लोग शब्दों की अंगुली पर आसक्त हो जाते हैं। 

 — लंकावतार सूत्र

मसखरे! ये शब्दों का पीछा करते हैं, बिना यह सोचे कि जीवन कितना शैतानी रूप से जटिल और सूक्ष्म है, जो कि पूरी तरह से नए स्वरूपों का निर्माण करता है, जिन्हें हम केवल आंशिक रूप से “पकड़” पाते हैं। 

व्लादमीर लेनिन 

नवंबर में हुए संयुक्त राष्ट्र अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत के साथ एक बार फिर से उदारवादियों और उदारवादी वामपंथ को वैश्विक राजनीति में फासीवाद का बादल जमता नजर आने लगा है। इस उदारवाद की स्थिति हाल के वर्षों में पेंडुलम की तरह हो गई है – स्थाई पूंजीवादी संकट के सामयिक घटनाक्रमों के साथ वे झूलते रहते हैं, मगर उन्हें मुगालता है कि वे नहीं, दुनिया झूल रही है। ट्रंप, मोदी और विश्व के अन्य धुर–दक्षिणपंथियों की चुनावी हार–जीत में उन्हें फासीवाद का उदय और पतन दिखता है। इस उतार-चढ़ाव ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया है।  

फासीवाद को चिह्नित चेहरों और पार्टियों से जोड़कर देखना, और फिर पूरी राजनीतिक ऊर्जा उनके खिलाफ चुनावी जुटान करने में व्यय करना – इसने परिवर्तनगामी राजनीति के चक्के को तात्कालिकतावाद में जकड़ लिया है। तात्कालिकता में जकड़ी राजनीति प्रतिक्रियात्मक ही हो सकती है, वह विद्यमान व्यवस्था के राजनीतिक मल्लयुद्ध के नियमों में ही बंधी रहेगी।

परिवर्तनगामी राजनीति का काम तात्कालिकता की उपस्थिति में छुपी सामाजिक प्रक्रियाओं की सच्चाई को उजागर कर उसके जड़ पर वार करना होता है। परन्तु इसके लिए इतिहास में गढ़े हुए शब्दों और अवधारणाओं की तानाशाही से निकल गतिशील यथार्थ के नए क्षणों के नएपन को पहचानना होगा। ऐतिहासिक फासीवाद  और उस समय के फासीवाद–विरोध के स्वरूप की स्थानिक कालिकता को स्वीकारते हुए आज के फासीवाद को परिभाषित करना होगा और उपस्थित कार्यभार को नियोजित कर अपनाना होगा।  

इतालवी इतिहासकार एंजो त्रावेर्सो अपनी किताब द न्यू फेसेज़ ऑफ फ़ासिज़्म में कहते हैं कि 1930 के दशक के बाद विश्व में आज की तरह अतिदक्षिणपंथ का उभार कभी नहीं हुआ। ऐसे में फासीवाद की स्मृति का जगना स्वाभाविक ही है, और यह भी स्वाभाविक है कि हम उन ऐतिहासिक अनुभवों की आलोचना में उभरे अवधारणाओं या संकल्पनाओं का इस्तेमाल नए अनुभवों को व्यक्त करने के लिए करते हैं। परन्तु जैसा कि त्रावेर्सो कहते हैं ऐतिहासिक तथ्यों और भाषा के बीच तनाव रहता है। इसी तनाव से समानताओं और असमानताओं को निश्चित करती ऐतिहासिक तुलना संभव हो पाती है। जो इस तनाव को नहीं देख पाते वे सजातीयता और पुनरावृत्तियों को खोजते फिरते हैं।  वे उसकी तरह हैं जो चंद्रमा की ओर इंगित करती अंगुली के सिरे को चंद्रमा समझ बैठते हैं। त्रावेर्सो के अनुसार, फासीवाद की अवधारणा नई वास्तविकता को समझने के लिए अनुचित भी है, परंतु अपरिहार्य भी। अनुचित है ऐतिहासिक असमानताओं/विषमताओं के कारण, और अपरिहार्य है क्योंकि ऐतिहासिक फासीवाद के साथ तुलना किए बगैर नई वास्तविकता को नहीं समझा जा सकता।

ऐतिहासिक फासीवाद – आंदोलन और राजसत्ता 

यूरोप में फासीवाद और नाजीवाद को लेकर मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों की आरंभिक व्याख्याओं में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक–वैचारिक पहलू साफ तौर पर दिखते हैं। पहला पहलू है, इन आंदोलनों के वर्गीय चरित्र की व्याख्या करते हुए इनके अंदर विषम वर्गों के तत्वों की खिचड़ीनुमा एकजुटता का संज्ञान। यही एकजुटता इन आंदोलनों को व्यापक कर्कश जन-चरित्र प्रदान करती है। दूसरा, इस भीड़ को बनाए रखने के लिए सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर कातिलाना अनुष्ठानों की जरूरत होती है जो राजकीय प्रशासन का मॉडल तैयार करती है जिसे, नाजी सहयोगी महान राजनीतिक दार्शनिक कार्ल श्मिट अपवादावस्था (स्टेट ऑफ इक्सेप्शन) नाम देते हैं। यह आपातकाल की अवस्था ही है परंतु आपातकाल का प्रावधान तो संविधानों और विधानों में दिया होता है, और जिसके आह्वान के लिए उनमें दिए शर्तों को भी संतुष्ट करना होता है। परंतु श्मिट के अनुसार, “संप्रभु वह है जो अपवाद पर निर्णय लेता है।” यही अंतर है 1975 के आपातकाल की घोषणा में (जिसकी निरंकुशता कम नहीं थी, परंतु तब भी वह वैधानिक प्रक्रिया से बंधी थी) और 2016 में विमुद्रीकरण की अपवादावस्था में। 1920-30 के दशकों के यूरोप में यह अपवादावस्था नई फासीवादी राजसत्ता का स्वरूप लेती है — निरंतर अपवाद का सिद्धांत उसकी नीव है। इस राजसत्ता की वैधता का आधार फासीवादी आंदोलन द्वारा निर्मित भीड़ है, जिसका पोषण और पुनरुत्पादन राजसत्ता की आवश्यकता है । 

जर्मन कम्युनिस्ट नेता क्लारा ज़ेटकिन फासीवाद को राजनीतिक रूप से आश्रयहीनों  की शरणस्थली के रूप में देखती हैं। यह चित्रण फासीवाद को पैदा करने वाले विशेष सामाजिक परिपेक्ष की ओर इंगित करता है। पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक विघटन के दौर में जब पुरानी राजनीतिक/राजकीय लामबंदी और नियंत्रण कमजोर पड़ गई हों तथा उनके खिलाफ कोई ठोस क्रांतिकारी राजनीति भी न दिखती हो जो पूंजीवादी प्रक्रियाओं से त्रस्त वर्गों और वर्ग-तत्वों को मुक्तिगामी सामाजिकता का रास्ता दिखा सके, तो सामाजिक उदासीनता और राजनीतिक आश्रयहीनता स्वाभाविक नतीजा है। विभिन्न पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं द्वारा आम-तौर पर विखंडित (segmented) मजदूर वर्ग के कई हिस्से भी इस उदासीनता और आश्रयहीनता के शिकार होते हैं। इतालवी कम्युनिस्ट नेता और विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने संक्रमणशील दौर में इसी संक्रमणहीनता को रुग्ण लक्षणों के उत्पादक के रूप में देखा था, जिनका एकीकरण फासीवाद है। 

फासीवाद परस्पर विरोधी वर्गों के व्यक्तियों और समूहों की कुंठाओं को अभिव्यक्ति देता है। मार्क्सवादी विचारक वाल्टर बेंजामिन के अनुसार, वह जनसमूहों की मुक्ति, अधिकार पाने में नहीं, भड़ास निकालने में देखता है। फासीवाद नवीनतम सर्वहाराकृत जनसमूहों को इस प्रकार संगठित करता है कि विद्यमान संपत्ति संबंधों को किसी तरह की आंच न आ सके। “जनसमूहों के पास सम्पत्ति सम्बन्धों को बदल डालने का अधिकार है; फासीवाद सम्पत्ति की रक्षा करते हुए उन्हें अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है।”

फासीवादी जन आंदोलन के निम्नपूंजीवादी चरित्र की जब बात होती है, सर्वहाराकरण की इसी प्रक्रिया की ओर ही इशारा होता है, जिससे कुंठित लोग फासीवाद के स्वाभाविक जनाधार बनते हैं।

जब पूंजीवादी संचय की प्रक्रिया मंद हो रही थी, राजसत्ताओं का सामाजिक-राजनीतिक प्रबंधन विफल हो रहा था, संगठित मजदूर आंदोलन की पैठ मजबूत थी और ग्रामीण-शहरी इलाकों में बेशी आबादी और दरिद्रता तेजी से बढ़ रहे थे, और साथ ही सोवियत राजसत्ता स्थायित्व पा चुकी थी, तब पूंजीपतियों के विभिन्न घटकों को फासीवाद में राजनीतिक संभावना दिखने लगी। उनके लिए यही अपवादावस्था है, जब फासीवादी भीड़ का नेतृत्व उन्हें अपने हितों की सुरक्षा के लिए सटीक उम्मीदवाद नजर आने लगता है। 

वह क्लासिकीय उदारवादी पूंजीवाद के संकट का दौर था जिसकी शुरुआत 20वीं सदी के आरंभ में ही हो चुकी थी, और 1914-18 के साम्राज्यवादी युद्ध  ने उसके अंत को और करीब ला दिया। फोर्डवादी पूंजीवाद, असेंबली–लाइन उत्पादन और थोक (mass) संस्कृति के अनुसार राजसत्ता को पुनर्नियोजित करने की जरूरत थी। फोर्डवाद वह पूंजीवादी संचय की व्यवस्था है जब राजव्यवस्था आर्थिक प्रबंधन के माध्यम से —  सेवा प्रावधान, राजकोषीय नीतियां, श्रम बाजार विनियमन और आधारिक उत्पादक ढांचे मुहैया करा कर— आपूर्ति, मांग और उपभोग के पैटर्न को स्थिर करने में मदद करता है। हस्तक्षेपकारी राजसत्ताओं और सरकारों को लेकर उस दौर में वैश्विक सामाजिक स्तर पर मतैक्य बन चुका था। चाहे रूज़वेल्ट का न्यू डील हो, या सोवियत राजसत्ता हो, या फिर फासीवाद, ये सभी राजकीय हस्तक्षेप के विभिन्न मॉडल थे। परंतु फासीवाद की विशेषता जो उसे बाकी मॉडेलों से भिन्न बनाती है वह है उसकी राजनीति-विरोधी शुद्ध राजनीति — जिसे बेंजामिन राजनीति का सौंदर्यीकरण कहते हैं। फासीवाद चकाचौंध तमाशों में लोगों को इस तरह से बांधता है कि वे अपने कष्टों का निवारण उनके मौलिक कारणों के उन्मूलन में नहीं, बल्कि अंधराष्ट्रवादी शुद्धिकरण यज्ञों की क्रूर हिंसा में देखते हैं। 

नवोदारवाद — पूंजीवाद की निरंतर अपवादावस्था 

आज का धुर–दक्षिणपंथ, फासीवादी हो अथवा नहीं, नव–उदारवादी आर्थिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में फैलती अनिश्चितता और अतिव्यक्तिवादिता के बीच पहचान, भिन्नता, अन्यीकरण और सर्वोच्चता  की राजनीति को पेश करता है। पूंजी का वित्तीयकरण, लीन (मितव्ययी) उत्पादन, भूमंडलीय सप्लाई चेन, सूचनाकरण, नेटवर्क समाज इत्यादि ये प्रक्रियाएं हैं जो पूंजीवाद के उत्तर–फोर्डवादी नवोदारवाद के दौर को परिभाषित करती हैं। इन प्रक्रियाओं ने अगर एक तरफ विश्व भर के श्रमिकों को एक दूसरे से भूमंडलीय उत्पादन प्रक्रियाओं और आपूर्ति श्रृंखलाओं द्वारा जोड़ दिया है, तो दूसरी तरफ श्रमिकों की आपसी प्रतिस्पर्धा को ग्लोबल और तीव्र बना दिया है। वित्तीयकरण और सूचनाकरण ने पूंजी के पलायन को आसान बना कर उद्योगों के स्थानांतरण का खतरा सतत बना दिया है। इस खतरे ने पारंपरिक मजदूर आंदोलन को लगभग हर जगह अगर नष्ट नहीं किया हो तो निर्णायक रूप से अप्रभावी और कमजोर कर दिया है। 

बेशीकरण की प्रक्रिया लगातार तकनीकी और प्रबंधकीय बदलावों के सहारे तेज होती जा रही है। जैसा कि इतालवी मार्क्सवादी बीफ़ो बेरार्दी कहते हैं, डिजिटलीकरण के दौर में “पूंजी अब लोगों की भर्ती नहीं करती, बल्कि समय के पैकेट खरीदती है।” और हरेक पैकेट त्यजनीय और एक दुसरे से अंत:परिवर्तनीय है। अगर यह हरेक उद्योग की सच्चाई बन जाए तो संपूर्ण श्रमिक आबादी बेशी हो जाएगी। वैसे भी बेरोजगारी, अल्परोजगारी, प्रच्छन्न बेरोजगारी, खानाबदोश आबादी, अस्थायी श्रमिक इत्यादि यानी पूंजीवाद के इतिहास में श्रमिकों के जितने प्रकार की ‘प्रजातियाँ’ रही हैं जिन्हें सापेक्ष बेशी आबादी का हिस्सा माना जाता है, वहीं श्रमिकों के सबसे बड़े तबके हैं।

 नस्लवाद, सांप्रदायिकता, आप्रवासी विरोध इत्यादि इस अतिप्रतिस्पर्धात्मक माहौल में व्यक्तिकृत व बेशीकृत जनता की कुंठा को भाषा प्रदान करते हैं। वित्तीयकरण और सूचनाकरण के बढ़ते फैलाव और गहनता के नतीजतन सार्विक समतुल्यीकरण (universal equalization) की प्रक्रिया भिन्नताओं को जितना गौण करती जाती है, उतना ही सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर भिन्नताओं का आग्रह आक्रामक रूप लेता जाता है। इस स्थिति की अमानवीयता ने समाज को अलगाव, उदासीनता और प्रतिस्पर्धात्मक हिंसा के लपेट में ला दिया है। जर्मन कवि हांस माग्नुस एंजेन्सबर्गर इसी को आण्विक गृह युद्ध का नाम देते हैं। धुर-दक्षिणपंथ इसी गृहयुद्ध को नियोजित करने का काम करता है। 

दूसरी तरफ, वित्तीयकृत पूंजी की भूमंडलीय स्वच्छंदचारिता राजसत्ताओं के लिए वैधता का संकट पैदा कर रही है। वित्तीयकरण पूंजी के प्रवाह को तेज और निर्बाध करता है, वह इसको समय-स्थान में बांधने की किसी भी कोशिश को निरस्त कर देता है। वह सामाजिक जीवन और गतिविधियों को भूमंडलीय खुले बाज़ार की अनिश्चितताओं से जोड़ता है। वित्तीय पूंजी की लगातार बढ़ती गतिशीलता ने मुद्रा और कीमतों के राजकीय प्रबंधन को अप्रभावी बना दिया है। प्रबंधन का यह संकुचन समाज को उसकी आर्थिक गतिविधियों से उसके अलगाव का एहसास कराता है, जो आर्थिक ह्रास के दौर में राजसत्ता के लिए वैधता का संकट पैदा करता है।  यह संकट तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब वह पूंजीवादी संचय में यानी आर्थिक पुनरूत्पादन में बाधाएं पैदा करना शुरू कर देता है, और सामाजिक राजनीतिक रूप लेकर आर्थिक की स्वायत्तता पर सवाल उठाने लगता है।

 राजकीय आर्थिक योजनाओं का दौर चला गया है, क्योंकि पूंजीवाद का नवोदरवादी चरण निरंतर अपवादावस्था का दौर है । ज्यादातर आर्थिक नीतियां आज फौरी प्रश्नों से संबंधित होती हैं, वे संरचनात्मक सवालों से नहीं जूझतीं। उनका काम महज पूँजी निवेश को आकर्षित करना रह गया है। जब विकास और वृद्धि एक ही चीज हो गई है तब निवेशों का महज परिमाण मायने रखता है, उनकी गुणवत्ता नहीं। नतीजा, योजनाओं की जरूरत नहीं है। आजकल सट्टा बाजार के उतार चढ़ाव सरकारों की मुख्य चिंता हैं, क्योंकि इस उतार चढ़ाव को उनकी  कार्यकुशलता पर दैनिक जनमत संग्रह के रूप में देखा जाता है। 

पूंजीवाद में राजसत्ता की मजबूती इससे निर्धारित होती है कि वह पूंजीवादी प्रक्रियाओं के सामाजिक-राजनीतिक परिणामों का कितनी कुशलता से प्रबंधन करती है। ग्राम्शी के शब्दों में, यह प्रबंधन दबाव (coercion) और सहमति (consent) की द्वन्द्वात्मक एकता से संभव होता है। लेकिन नव–उदारवाद के तहत सहमति के पुराने उदारवादी राजकीय हथकंडे निरर्थक होते जाते हैं। पूंजी के सम्मुख राजसत्ता की नतमस्तकता नग्न रूप से जगजाहिर हो जाती है। इस दासता का बेशर्म प्रदर्शन इसकी संप्रभुता पर सवाल पैदा कर देता है। 

1970 के अंत से ही अलग–अलग देशों में राजसत्ताओं की संरचना में इस वैधता के संकट से निपटने के लिए वैधानिक और संस्थागत बदलाव देखे जा सकते हैं। नवोदारवाद ने जिस न्यूनतम राजसत्ता की मांग की थी वह उसके विध्वंस की घोषणा नहीं थी । वह अर्थव्यवस्था में उसके गैर-हस्तक्षेप के बारे में भी नहीं था, न ही उसे कमजोर करने के बारे में था। वह सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों से पूंजी संचय की प्रक्रियाओं की स्वायत्तता के बारे में था – मगर उन प्रभावों के बारे में नहीं जो उसके विस्तार में सहायक होते हैं। ब्रिटेन में थैचर और अमरीका में रीगन के प्रशासनों ने विकल्पहीनता के नाम पर जो बदलाव लाए, और जो नवोदारवाद का आरंभिक व्यावहारिक मॉडल बना, वह और कुछ नहीं उदारवादी मुक्त बाजार कट्टरवाद, चुनावी लोकतंत्र और नव-रूढ़ीवाद का संस्थागत समन्वय था। नव–रूढ़ीवाद नवोदारवादी परिवर्तनों के पक्ष में सहमति और सहमति की मजबूरी, दोनों ही पैदा करता है। आज राजसत्ता पर काबिज किसी भी रंग के सरकारों को इस स्थापित व्यवस्था को अपनाना होता है। 

नव-रूढ़ीवाद ने प्रासंगिक फासीवादी तौर–तरीके और सोच के सामान्यीकरण का काम किया है। उसने अपवर्जनात्मक (exclusionary) आप्रवासी–विरोध और अल्पसंख्यक–विरोध पर आधारित राजनीति को प्रतिस्पर्धा और अनिश्चितता से जूझ रहे व्यक्तिकृत लोगों की भीड़ को संभालने का जरिया बन दिया है। सार्वभौमिक नागरिकता की उदार अवधारणा जो तमाम पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं के आधार में विद्यमान थी, आज उसे हर जगह चुनौती मिल रही है। भारत में नागरिकता को लेकर वैधानिक बदलाव इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। याद रहे सार्वभौमिक नागरिकता का विरोध क्लासिकीय फासीवाद के जिन्गोवादी नस्लवादी राष्ट्रवाद का भी आधार था।

 आज के फासीवाद को हम पूंजीवाद के विद्यमान चरण से अलग कर के नहीं देख सकते। फासीवादी प्रवृत्तियां नवोदारवादी पूंजीवाद के दौर में न्यूनतम राजसत्ता की तानाशाही और उसके प्रति सहमति के हित में लोकवृत्त (public sphere) तैयार करने का जरिया है। इस अर्थ में आज के फासीवाद को हम नीतियों, व्यवहारों, अनुष्ठानों और वैचारिकी के तरीकों का गुच्छा या समन्वय मान सकते हैं, जो तख्तापलट का सहारा लिए बिना, चुनावी लोकतंत्र और प्रतिनिधिक सरकार के प्रमुख राजनीतिक स्वरूपों को परेशान किए बगैर, आज के वैश्विक पूंजीवाद में आसानी से अपने लिए जगह बना लेता है। वह व्यवस्था के कारण बढ़ते जनाक्रोश की ऊर्जा को व्यवस्था को मजबूत करने की क्रिया में तब्दील करता है। इसके खिलाफ एकांतिक संघर्ष बीमारी की ओर इंगित करते लक्षण के खिलाफ संघर्ष है, बीमारी के खिलाफ नहीं।