आज का “फासीवाद”


मोर्चा (अक्टूबर-दिसंबर, 2024), संपादकीय

  जब कोई अपनी अंगुली से किसी चीज़ की ओर इशारा करे, और मूर्ख व्यक्ति उसकी अंगुली को ही देखता रहे, तो उस व्यक्ति को पता नहीं चलेगा कि इशारे का वास्तव में क्या मतलब है। इसी तरह मूर्ख लोग शब्दों की अंगुली पर आसक्त हो जाते हैं। 

 — लंकावतार सूत्र

मसखरे! ये शब्दों का पीछा करते हैं, बिना यह सोचे कि जीवन कितना शैतानी रूप से जटिल और सूक्ष्म है, जो कि पूरी तरह से नए स्वरूपों का निर्माण करता है, जिन्हें हम केवल आंशिक रूप से “पकड़” पाते हैं। 

व्लादमीर लेनिन 

नवंबर में हुए संयुक्त राष्ट्र अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत के साथ एक बार फिर से उदारवादियों और उदारवादी वामपंथ को वैश्विक राजनीति में फासीवाद का बादल जमता नजर आने लगा है। इस उदारवाद की स्थिति हाल के वर्षों में पेंडुलम की तरह हो गई है – स्थाई पूंजीवादी संकट के सामयिक घटनाक्रमों के साथ वे झूलते रहते हैं, मगर उन्हें मुगालता है कि वे नहीं, दुनिया झूल रही है। ट्रंप, मोदी और विश्व के अन्य धुर–दक्षिणपंथियों की चुनावी हार–जीत में उन्हें फासीवाद का उदय और पतन दिखता है। इस उतार-चढ़ाव ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया है।  

फासीवाद को चिह्नित चेहरों और पार्टियों से जोड़कर देखना, और फिर पूरी राजनीतिक ऊर्जा उनके खिलाफ चुनावी जुटान करने में व्यय करना – इसने परिवर्तनगामी राजनीति के चक्के को तात्कालिकतावाद में जकड़ लिया है। तात्कालिकता में जकड़ी राजनीति प्रतिक्रियात्मक ही हो सकती है, वह विद्यमान व्यवस्था के राजनीतिक मल्लयुद्ध के नियमों में ही बंधी रहेगी।

परिवर्तनगामी राजनीति का काम तात्कालिकता की उपस्थिति में छुपी सामाजिक प्रक्रियाओं की सच्चाई को उजागर कर उसके जड़ पर वार करना होता है। परन्तु इसके लिए इतिहास में गढ़े हुए शब्दों और अवधारणाओं की तानाशाही से निकल गतिशील यथार्थ के नए क्षणों के नएपन को पहचानना होगा। ऐतिहासिक फासीवाद  और उस समय के फासीवाद–विरोध के स्वरूप की स्थानिक कालिकता को स्वीकारते हुए आज के फासीवाद को परिभाषित करना होगा और उपस्थित कार्यभार को नियोजित कर अपनाना होगा।  

इतालवी इतिहासकार एंजो त्रावेर्सो अपनी किताब द न्यू फेसेज़ ऑफ फ़ासिज़्म में कहते हैं कि 1930 के दशक के बाद विश्व में आज की तरह अतिदक्षिणपंथ का उभार कभी नहीं हुआ। ऐसे में फासीवाद की स्मृति का जगना स्वाभाविक ही है, और यह भी स्वाभाविक है कि हम उन ऐतिहासिक अनुभवों की आलोचना में उभरे अवधारणाओं या संकल्पनाओं का इस्तेमाल नए अनुभवों को व्यक्त करने के लिए करते हैं। परन्तु जैसा कि त्रावेर्सो कहते हैं ऐतिहासिक तथ्यों और भाषा के बीच तनाव रहता है। इसी तनाव से समानताओं और असमानताओं को निश्चित करती ऐतिहासिक तुलना संभव हो पाती है। जो इस तनाव को नहीं देख पाते वे सजातीयता और पुनरावृत्तियों को खोजते फिरते हैं।  वे उसकी तरह हैं जो चंद्रमा की ओर इंगित करती अंगुली के सिरे को चंद्रमा समझ बैठते हैं। त्रावेर्सो के अनुसार, फासीवाद की अवधारणा नई वास्तविकता को समझने के लिए अनुचित भी है, परंतु अपरिहार्य भी। अनुचित है ऐतिहासिक असमानताओं/विषमताओं के कारण, और अपरिहार्य है क्योंकि ऐतिहासिक फासीवाद के साथ तुलना किए बगैर नई वास्तविकता को नहीं समझा जा सकता।

ऐतिहासिक फासीवाद – आंदोलन और राजसत्ता 

यूरोप में फासीवाद और नाजीवाद को लेकर मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों की आरंभिक व्याख्याओं में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक–वैचारिक पहलू साफ तौर पर दिखते हैं। पहला पहलू है, इन आंदोलनों के वर्गीय चरित्र की व्याख्या करते हुए इनके अंदर विषम वर्गों के तत्वों की खिचड़ीनुमा एकजुटता का संज्ञान। यही एकजुटता इन आंदोलनों को व्यापक कर्कश जन-चरित्र प्रदान करती है। दूसरा, इस भीड़ को बनाए रखने के लिए सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर कातिलाना अनुष्ठानों की जरूरत होती है जो राजकीय प्रशासन का मॉडल तैयार करती है जिसे, नाजी सहयोगी महान राजनीतिक दार्शनिक कार्ल श्मिट अपवादावस्था (स्टेट ऑफ इक्सेप्शन) नाम देते हैं। यह आपातकाल की अवस्था ही है परंतु आपातकाल का प्रावधान तो संविधानों और विधानों में दिया होता है, और जिसके आह्वान के लिए उनमें दिए शर्तों को भी संतुष्ट करना होता है। परंतु श्मिट के अनुसार, “संप्रभु वह है जो अपवाद पर निर्णय लेता है।” यही अंतर है 1975 के आपातकाल की घोषणा में (जिसकी निरंकुशता कम नहीं थी, परंतु तब भी वह वैधानिक प्रक्रिया से बंधी थी) और 2016 में विमुद्रीकरण की अपवादावस्था में। 1920-30 के दशकों के यूरोप में यह अपवादावस्था नई फासीवादी राजसत्ता का स्वरूप लेती है — निरंतर अपवाद का सिद्धांत उसकी नीव है। इस राजसत्ता की वैधता का आधार फासीवादी आंदोलन द्वारा निर्मित भीड़ है, जिसका पोषण और पुनरुत्पादन राजसत्ता की आवश्यकता है । 

जर्मन कम्युनिस्ट नेता क्लारा ज़ेटकिन फासीवाद को राजनीतिक रूप से आश्रयहीनों  की शरणस्थली के रूप में देखती हैं। यह चित्रण फासीवाद को पैदा करने वाले विशेष सामाजिक परिपेक्ष की ओर इंगित करता है। पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक विघटन के दौर में जब पुरानी राजनीतिक/राजकीय लामबंदी और नियंत्रण कमजोर पड़ गई हों तथा उनके खिलाफ कोई ठोस क्रांतिकारी राजनीति भी न दिखती हो जो पूंजीवादी प्रक्रियाओं से त्रस्त वर्गों और वर्ग-तत्वों को मुक्तिगामी सामाजिकता का रास्ता दिखा सके, तो सामाजिक उदासीनता और राजनीतिक आश्रयहीनता स्वाभाविक नतीजा है। विभिन्न पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं द्वारा आम-तौर पर विखंडित (segmented) मजदूर वर्ग के कई हिस्से भी इस उदासीनता और आश्रयहीनता के शिकार होते हैं। इतालवी कम्युनिस्ट नेता और विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने संक्रमणशील दौर में इसी संक्रमणहीनता को रुग्ण लक्षणों के उत्पादक के रूप में देखा था, जिनका एकीकरण फासीवाद है। 

फासीवाद परस्पर विरोधी वर्गों के व्यक्तियों और समूहों की कुंठाओं को अभिव्यक्ति देता है। मार्क्सवादी विचारक वाल्टर बेंजामिन के अनुसार, वह जनसमूहों की मुक्ति, अधिकार पाने में नहीं, भड़ास निकालने में देखता है। फासीवाद नवीनतम सर्वहाराकृत जनसमूहों को इस प्रकार संगठित करता है कि विद्यमान संपत्ति संबंधों को किसी तरह की आंच न आ सके। “जनसमूहों के पास सम्पत्ति सम्बन्धों को बदल डालने का अधिकार है; फासीवाद सम्पत्ति की रक्षा करते हुए उन्हें अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है।”

फासीवादी जन आंदोलन के निम्नपूंजीवादी चरित्र की जब बात होती है, सर्वहाराकरण की इसी प्रक्रिया की ओर ही इशारा होता है, जिससे कुंठित लोग फासीवाद के स्वाभाविक जनाधार बनते हैं।

जब पूंजीवादी संचय की प्रक्रिया मंद हो रही थी, राजसत्ताओं का सामाजिक-राजनीतिक प्रबंधन विफल हो रहा था, संगठित मजदूर आंदोलन की पैठ मजबूत थी और ग्रामीण-शहरी इलाकों में बेशी आबादी और दरिद्रता तेजी से बढ़ रहे थे, और साथ ही सोवियत राजसत्ता स्थायित्व पा चुकी थी, तब पूंजीपतियों के विभिन्न घटकों को फासीवाद में राजनीतिक संभावना दिखने लगी। उनके लिए यही अपवादावस्था है, जब फासीवादी भीड़ का नेतृत्व उन्हें अपने हितों की सुरक्षा के लिए सटीक उम्मीदवाद नजर आने लगता है। 

वह क्लासिकीय उदारवादी पूंजीवाद के संकट का दौर था जिसकी शुरुआत 20वीं सदी के आरंभ में ही हो चुकी थी, और 1914-18 के साम्राज्यवादी युद्ध  ने उसके अंत को और करीब ला दिया। फोर्डवादी पूंजीवाद, असेंबली–लाइन उत्पादन और थोक (mass) संस्कृति के अनुसार राजसत्ता को पुनर्नियोजित करने की जरूरत थी। फोर्डवाद वह पूंजीवादी संचय की व्यवस्था है जब राजव्यवस्था आर्थिक प्रबंधन के माध्यम से —  सेवा प्रावधान, राजकोषीय नीतियां, श्रम बाजार विनियमन और आधारिक उत्पादक ढांचे मुहैया करा कर— आपूर्ति, मांग और उपभोग के पैटर्न को स्थिर करने में मदद करता है। हस्तक्षेपकारी राजसत्ताओं और सरकारों को लेकर उस दौर में वैश्विक सामाजिक स्तर पर मतैक्य बन चुका था। चाहे रूज़वेल्ट का न्यू डील हो, या सोवियत राजसत्ता हो, या फिर फासीवाद, ये सभी राजकीय हस्तक्षेप के विभिन्न मॉडल थे। परंतु फासीवाद की विशेषता जो उसे बाकी मॉडेलों से भिन्न बनाती है वह है उसकी राजनीति-विरोधी शुद्ध राजनीति — जिसे बेंजामिन राजनीति का सौंदर्यीकरण कहते हैं। फासीवाद चकाचौंध तमाशों में लोगों को इस तरह से बांधता है कि वे अपने कष्टों का निवारण उनके मौलिक कारणों के उन्मूलन में नहीं, बल्कि अंधराष्ट्रवादी शुद्धिकरण यज्ञों की क्रूर हिंसा में देखते हैं। 

नवोदारवाद — पूंजीवाद की निरंतर अपवादावस्था 

आज का धुर–दक्षिणपंथ, फासीवादी हो अथवा नहीं, नव–उदारवादी आर्थिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में फैलती अनिश्चितता और अतिव्यक्तिवादिता के बीच पहचान, भिन्नता, अन्यीकरण और सर्वोच्चता  की राजनीति को पेश करता है। पूंजी का वित्तीयकरण, लीन (मितव्ययी) उत्पादन, भूमंडलीय सप्लाई चेन, सूचनाकरण, नेटवर्क समाज इत्यादि ये प्रक्रियाएं हैं जो पूंजीवाद के उत्तर–फोर्डवादी नवोदारवाद के दौर को परिभाषित करती हैं। इन प्रक्रियाओं ने अगर एक तरफ विश्व भर के श्रमिकों को एक दूसरे से भूमंडलीय उत्पादन प्रक्रियाओं और आपूर्ति श्रृंखलाओं द्वारा जोड़ दिया है, तो दूसरी तरफ श्रमिकों की आपसी प्रतिस्पर्धा को ग्लोबल और तीव्र बना दिया है। वित्तीयकरण और सूचनाकरण ने पूंजी के पलायन को आसान बना कर उद्योगों के स्थानांतरण का खतरा सतत बना दिया है। इस खतरे ने पारंपरिक मजदूर आंदोलन को लगभग हर जगह अगर नष्ट नहीं किया हो तो निर्णायक रूप से अप्रभावी और कमजोर कर दिया है। 

बेशीकरण की प्रक्रिया लगातार तकनीकी और प्रबंधकीय बदलावों के सहारे तेज होती जा रही है। जैसा कि इतालवी मार्क्सवादी बीफ़ो बेरार्दी कहते हैं, डिजिटलीकरण के दौर में “पूंजी अब लोगों की भर्ती नहीं करती, बल्कि समय के पैकेट खरीदती है।” और हरेक पैकेट त्यजनीय और एक दुसरे से अंत:परिवर्तनीय है। अगर यह हरेक उद्योग की सच्चाई बन जाए तो संपूर्ण श्रमिक आबादी बेशी हो जाएगी। वैसे भी बेरोजगारी, अल्परोजगारी, प्रच्छन्न बेरोजगारी, खानाबदोश आबादी, अस्थायी श्रमिक इत्यादि यानी पूंजीवाद के इतिहास में श्रमिकों के जितने प्रकार की ‘प्रजातियाँ’ रही हैं जिन्हें सापेक्ष बेशी आबादी का हिस्सा माना जाता है, वहीं श्रमिकों के सबसे बड़े तबके हैं।

 नस्लवाद, सांप्रदायिकता, आप्रवासी विरोध इत्यादि इस अतिप्रतिस्पर्धात्मक माहौल में व्यक्तिकृत व बेशीकृत जनता की कुंठा को भाषा प्रदान करते हैं। वित्तीयकरण और सूचनाकरण के बढ़ते फैलाव और गहनता के नतीजतन सार्विक समतुल्यीकरण (universal equalization) की प्रक्रिया भिन्नताओं को जितना गौण करती जाती है, उतना ही सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर भिन्नताओं का आग्रह आक्रामक रूप लेता जाता है। इस स्थिति की अमानवीयता ने समाज को अलगाव, उदासीनता और प्रतिस्पर्धात्मक हिंसा के लपेट में ला दिया है। जर्मन कवि हांस माग्नुस एंजेन्सबर्गर इसी को आण्विक गृह युद्ध का नाम देते हैं। धुर-दक्षिणपंथ इसी गृहयुद्ध को नियोजित करने का काम करता है। 

दूसरी तरफ, वित्तीयकृत पूंजी की भूमंडलीय स्वच्छंदचारिता राजसत्ताओं के लिए वैधता का संकट पैदा कर रही है। वित्तीयकरण पूंजी के प्रवाह को तेज और निर्बाध करता है, वह इसको समय-स्थान में बांधने की किसी भी कोशिश को निरस्त कर देता है। वह सामाजिक जीवन और गतिविधियों को भूमंडलीय खुले बाज़ार की अनिश्चितताओं से जोड़ता है। वित्तीय पूंजी की लगातार बढ़ती गतिशीलता ने मुद्रा और कीमतों के राजकीय प्रबंधन को अप्रभावी बना दिया है। प्रबंधन का यह संकुचन समाज को उसकी आर्थिक गतिविधियों से उसके अलगाव का एहसास कराता है, जो आर्थिक ह्रास के दौर में राजसत्ता के लिए वैधता का संकट पैदा करता है।  यह संकट तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब वह पूंजीवादी संचय में यानी आर्थिक पुनरूत्पादन में बाधाएं पैदा करना शुरू कर देता है, और सामाजिक राजनीतिक रूप लेकर आर्थिक की स्वायत्तता पर सवाल उठाने लगता है।

 राजकीय आर्थिक योजनाओं का दौर चला गया है, क्योंकि पूंजीवाद का नवोदरवादी चरण निरंतर अपवादावस्था का दौर है । ज्यादातर आर्थिक नीतियां आज फौरी प्रश्नों से संबंधित होती हैं, वे संरचनात्मक सवालों से नहीं जूझतीं। उनका काम महज पूँजी निवेश को आकर्षित करना रह गया है। जब विकास और वृद्धि एक ही चीज हो गई है तब निवेशों का महज परिमाण मायने रखता है, उनकी गुणवत्ता नहीं। नतीजा, योजनाओं की जरूरत नहीं है। आजकल सट्टा बाजार के उतार चढ़ाव सरकारों की मुख्य चिंता हैं, क्योंकि इस उतार चढ़ाव को उनकी  कार्यकुशलता पर दैनिक जनमत संग्रह के रूप में देखा जाता है। 

पूंजीवाद में राजसत्ता की मजबूती इससे निर्धारित होती है कि वह पूंजीवादी प्रक्रियाओं के सामाजिक-राजनीतिक परिणामों का कितनी कुशलता से प्रबंधन करती है। ग्राम्शी के शब्दों में, यह प्रबंधन दबाव (coercion) और सहमति (consent) की द्वन्द्वात्मक एकता से संभव होता है। लेकिन नव–उदारवाद के तहत सहमति के पुराने उदारवादी राजकीय हथकंडे निरर्थक होते जाते हैं। पूंजी के सम्मुख राजसत्ता की नतमस्तकता नग्न रूप से जगजाहिर हो जाती है। इस दासता का बेशर्म प्रदर्शन इसकी संप्रभुता पर सवाल पैदा कर देता है। 

1970 के अंत से ही अलग–अलग देशों में राजसत्ताओं की संरचना में इस वैधता के संकट से निपटने के लिए वैधानिक और संस्थागत बदलाव देखे जा सकते हैं। नवोदारवाद ने जिस न्यूनतम राजसत्ता की मांग की थी वह उसके विध्वंस की घोषणा नहीं थी । वह अर्थव्यवस्था में उसके गैर-हस्तक्षेप के बारे में भी नहीं था, न ही उसे कमजोर करने के बारे में था। वह सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों से पूंजी संचय की प्रक्रियाओं की स्वायत्तता के बारे में था – मगर उन प्रभावों के बारे में नहीं जो उसके विस्तार में सहायक होते हैं। ब्रिटेन में थैचर और अमरीका में रीगन के प्रशासनों ने विकल्पहीनता के नाम पर जो बदलाव लाए, और जो नवोदारवाद का आरंभिक व्यावहारिक मॉडल बना, वह और कुछ नहीं उदारवादी मुक्त बाजार कट्टरवाद, चुनावी लोकतंत्र और नव-रूढ़ीवाद का संस्थागत समन्वय था। नव–रूढ़ीवाद नवोदारवादी परिवर्तनों के पक्ष में सहमति और सहमति की मजबूरी, दोनों ही पैदा करता है। आज राजसत्ता पर काबिज किसी भी रंग के सरकारों को इस स्थापित व्यवस्था को अपनाना होता है। 

नव-रूढ़ीवाद ने प्रासंगिक फासीवादी तौर–तरीके और सोच के सामान्यीकरण का काम किया है। उसने अपवर्जनात्मक (exclusionary) आप्रवासी–विरोध और अल्पसंख्यक–विरोध पर आधारित राजनीति को प्रतिस्पर्धा और अनिश्चितता से जूझ रहे व्यक्तिकृत लोगों की भीड़ को संभालने का जरिया बन दिया है। सार्वभौमिक नागरिकता की उदार अवधारणा जो तमाम पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं के आधार में विद्यमान थी, आज उसे हर जगह चुनौती मिल रही है। भारत में नागरिकता को लेकर वैधानिक बदलाव इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। याद रहे सार्वभौमिक नागरिकता का विरोध क्लासिकीय फासीवाद के जिन्गोवादी नस्लवादी राष्ट्रवाद का भी आधार था।

 आज के फासीवाद को हम पूंजीवाद के विद्यमान चरण से अलग कर के नहीं देख सकते। फासीवादी प्रवृत्तियां नवोदारवादी पूंजीवाद के दौर में न्यूनतम राजसत्ता की तानाशाही और उसके प्रति सहमति के हित में लोकवृत्त (public sphere) तैयार करने का जरिया है। इस अर्थ में आज के फासीवाद को हम नीतियों, व्यवहारों, अनुष्ठानों और वैचारिकी के तरीकों का गुच्छा या समन्वय मान सकते हैं, जो तख्तापलट का सहारा लिए बिना, चुनावी लोकतंत्र और प्रतिनिधिक सरकार के प्रमुख राजनीतिक स्वरूपों को परेशान किए बगैर, आज के वैश्विक पूंजीवाद में आसानी से अपने लिए जगह बना लेता है। वह व्यवस्था के कारण बढ़ते जनाक्रोश की ऊर्जा को व्यवस्था को मजबूत करने की क्रिया में तब्दील करता है। इसके खिलाफ एकांतिक संघर्ष बीमारी की ओर इंगित करते लक्षण के खिलाफ संघर्ष है, बीमारी के खिलाफ नहीं।   

क्लारा ज़ेटकिन – फासीवाद (अगस्त 1923)


मोर्चा पत्रिका के लिए अनूदित (ड्राफ्ट)

[जर्मनी की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी क्लारा ज़ेटकिन (1857-1933) ने जून 1923 में कॉमिन्टर्न की कार्यकारिणी समिति के तीसरे अभिवर्धित प्लेनम में एक  रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। यह रिपोर्ट अंग्रेजी में ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की मासिक पत्रिका, लेबर मंथली, में अगस्त 1923 में संक्षेप में छपी थी, जिसका यहाँ हम हिन्दी अनुवाद दे रहे हैं। इससे पहले नवंबर 1922 में इतालवी मार्क्सवादी अमादेओ बोर्दीगा ने भी फासीवाद पर एक रिपोर्ट कॉमिन्टर्न में पेश की थी, परंतु ज़ेटकिन की रिपोर्ट ने ही फासीवाद पर बाद  की कम्युनिस्ट समूहों की चर्चाओं के लिए प्रथम व्यवहारात्मक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण तैयार किया था।  

इस रिपोर्ट में ज़ेटकिन फासीवाद के उत्थान को पूंजीवाद के आर्थिक संकट और उसके संस्थाओं के पतन से जोड़ती हैं। मजदूर वर्ग पर बढ़ता आक्रमण और अन्य वर्गों का सर्वहाराकरण इस संकट के प्रमुख नतीजे हैं। ज़ेटकिन का मानना है कि सत्तासीन होकर समाज को पुनर्गठित कर पूंजीवाद के सामाजिक संकट का निवारण करने में सर्वहारा वर्ग की असफलता फासीवाद को जन्म देती है। पूंजीवाद के संकट से व्याकुल हो रहे विभिन्न निम्न-पूंजीवादी तबकों को आकर्षित करने की क्षमता फासीवाद को जन-चरित्र देती है। फासीवादी विचारधारा राष्ट्र और राजसत्ता को वर्गीय अंतर्विरोधों और हितों से ऊपर रख अंध-राष्ट्रवाद फैला कर सैन्यवाद और युद्धवाद के लिए माहौल तैयार करती है। पूंजीपति वर्ग  के कई महत्वपूर्ण तबके पूंजीवाद के सामान्य संकट और जनता के लगातार सर्वहाराकरण के कारण अपनी  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्वता पर खतरे से बचने के लिए फासीवाद का समर्थन और वित्तीय पोषण आरंभ कर देते हैं।   

ज़ेटकिन फासीवाद पर ओटो बावर (जो कि ऑस्ट्रीया के सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रमुख नेता और सिद्धांतकार थे) जैसे सुधारवादियों की समझ की तीव्र आलोचना करती हैं, ओटो बावर के अनुसार फासीवाद महज कम्युनिस्टों द्वारा संगठित सर्वहारा लड़ाकूपन और कानूनेतर गतिविधियों का नतीजा था। ज़ेटकिन फासीवाद के खिलाफ शोषित जनता के अपने रक्षा पहलों पर जोर देती हैं। उनके अनुसार सर्वहारा वर्गीय संयुक्त मोर्चे का निर्माण ही फासीवाद को चुनौती दे सकता है।  परंतु यह संघर्ष राजनीतिक और वैचारिक भी है इनके द्वारा श्रमिक वर्ग को मध्यम वर्गीय तबकों तक अपनी पहुँच बनानी होगी चूंकि इनके ऊपर पूंजीवादी संकट और सर्वहाराकरण का असर पड़ता है। ज़ेटकिन के अनुसार मजदूरों और किसानों की संयुक्त सरकार ही सामाजिक-आर्थिक संकट का निवारण कर फासीवाद का विनाश कर सकती है।

हमारी दृष्टि में क्लारा ज़ेटकिन की यह रिपोर्ट केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती है। जहां तक फ़ासिज़्म के खिलाफ तात्कालिक रणनीतियों का सवाल है वह तो स्थान और समय के मुताबिक तब्दील होती रहती हैं। परंतु इस रिपोर्ट में निहित  मार्क्सवादी व्याख्यात्मक अंतर्दृष्टि आज भी हमें बहुत कुछ सिखा सकती है। फासीवाद को महज सत्ता के औजार के बने बनाए रूप में न देख उसको सामाजिक प्रक्रियाओं और वर्ग सघर्षों की अवस्थाओं के अंदर से पनपता हुआ देखने की जरूरत है। आज पिछले पाँच दशकों से वैश्विक पूंजीवादी राजनीतिक अर्थतन्त्र स्थायी-संकट से ग्रस्त है। इस संकट से निज़ात पाने के लिए भूमंडलीय वित्तीयकरण की प्रक्रिया लगातार बृहत्तर और तीव्रतम होती जा रही। विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया ने आर्थिक-सामाजिक संकट को और अधिक व्यापक और तीव्र कर दिया है, यहां तक कि विश्व की तमाम राजसत्ताएँ इसके कारण निरंतर वैधता के संकट में डूबती जा रही हैं — इनकी आक्रामकता इनकी बढ़ती असंगतता और कमज़ोरियों के लक्षण हैं।  इसी संकटावस्था को सकारात्मक भाषा में नवोदरवाद भी कहते हैं। यह तथ्य इस रिपोर्ट की अंतर्दृष्टि को और महत्व दे देता है क्योंकि फासीकरण इस अवस्था में समूचे सामाजिक-राजनीतिक संरचना में गुत्थ गई है, और इसके खिलाफ संघर्ष को तात्कालिकवाद में सीमित नहीं रखा जा सकता । ]

फासीवाद के रूप में, सर्वहारा वर्ग का सामना एक असाधारण खतरनाक शत्रु से होता है। फासीवाद सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध विश्व पूंजीपति वर्ग द्वारा किये गये व्यापक आक्रमण की घनीभूत अभिव्यक्ति है। इसलिए इसे उखाड़ फेंकना नितांत आवश्यक ही नहीं, बल्कि यह हर साधारण श्रमिक की रोजमर्रा की ज़िंदगी और रोजी-रोटी का सवाल भी है। इन्हीं आधारों पर समूचे सर्वहारा वर्ग को फासीवाद के खिलाफ लड़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि हम स्पष्टता और गहनता से इसकी प्रकृति का अध्ययन करें तो फासीवाद को हराना हमारे लिए बहुत आसान होगा। अब तक इस विषय पर न केवल श्रमिकों के विशाल जनसमूह के बीच, बल्कि सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी अग्रदूतों और कम्युनिस्टों के बीच भी बेहद अस्पष्ट विचार रहे हैं। अब तक फासीवाद को हंगरी में होर्थी (Horthy) के श्वेत आतंक के समकक्ष समझा गया है। हालाँकि दोनों की पद्धतियाँ समान हैं, लेकिन मूलतः वे अलग-अलग हैं। होर्थी आतंक सर्वहारा वर्ग की विजयी, अपितु अल्पकालिक, क्रांति को दबा दिए जाने के उपरांत स्थापित हुआ था, और यह पूंजीपति वर्ग के प्रतिशोध की अभिव्यक्ति थी। श्वेत आतंक का सरगना पूर्व अधिकारियों का एक छोटा सा गुट था। इसके विपरीत, वस्तुपरक रूप से देखा जाए तो फासीवाद, पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा आक्रामकता के प्रतिशोध में पूंजीपति वर्ग का बदला नहीं है, बल्कि वह रूस में शुरू हुई क्रांति को जारी रखने में विफल रहने के लिए सर्वहारा वर्ग की सजा है। फासीवादी नेताओं की कोई छोटी और विशिष्ट जाति नहीं है; वे जनसंख्या के व्यापक हिस्सों में गहराई से फैले हुए हैं।

केवल सैन्य रूप से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी हमें फासीवाद पर काबू पाना होगा। आज भी सुधारवादियों के लिए फासीवाद नग्न हिंसा — सर्वहारा वर्ग द्वारा शुरू की गई हिंसा के विरुद्ध प्रतिक्रिया — के अलावा कुछ भी नहीं है। सुधारवादियों के लिए रूसी क्रांति अदन की वाटिका में हव्वा के सेब चखने [यानि महापाप] के समान है। सुधारवादी फासीवाद को रूसी क्रांति और उसके परिणामों से जोड़ते हैं। हामबुर्ग के एकता सम्मेलन में ओटो बावर का इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं था, जब उन्होंने फासीवाद के लिए बहुत हद तक दोषी कम्युनिस्टों को ठहराया, जिन्होंने, उनके अनुसार, लगातार विभाजन से सर्वहारा वर्ग की ताकत को कमजोर कर दिया था। यह कहते हुए उन्होंने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि रूसी क्रांति के इस मनोबल गिराने वाले उदाहरण से बहुत पहले जर्मनी के स्वतंत्र [सामाजिक-जनवादियों] ने विभाजन को अंजाम दिया था। खुद के विचारों के विपरीत, बावर को हामबुर्ग में इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि फासीवाद की संगठित हिंसा का मुकाबला सर्वहारा वर्ग के रक्षा संगठनों के निर्माण से किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रत्यक्ष हिंसा के खिलाफ लोकतंत्र की कोई भी अपील काम नहीं कर सकती। अवश्य ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनका मतलब विद्रोह या आम हड़ताल जैसे हथियारों से नहीं था जिनसे हमेशा सफलता नहीं मिली है। उनका अभिप्राय जन कार्रवाई के साथ संसदीय कार्रवाई के सामंजस्य से था। ओटो बावर ने यह नहीं बताया कि इन कार्रवाइयों की प्रकृति क्या होगी, जबकि प्रश्न का मूल बिंदु यही है। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए एकमात्र हथियार जिसकी सिफारिश बावर ने की वह विश्व प्रतिक्रियावाद पर अंतर्राष्ट्रीय सूचना ब्यूरो की स्थापना थी। इस नए-पुराने इंटरनेशनल का विशिष्ट लक्षण पूंजीवादी वर्चस्व की शक्ति और स्थायित्व में उसका विश्वास और विश्व क्रांति के सबसे मजबूत कारक के रूप में सर्वहारा वर्ग के प्रति उसका अविश्वास और बुज़दिली है। उसका मानना है कि सर्वहारा पूंजीपति वर्ग की अजेय ताकत के खिलाफ संयम से काम लेने और पूंजीपति वर्ग के बाघ को छेड़ने से परहेज करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। 

वास्तव में, अपने हिंसक कृत्यों के अभियोजन में अपनी पूरी ताकत के साथ, फासीवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विघटन और क्षय की अभिव्यक्ति और बुर्जुआ राजसत्ता के भंग होने के लक्षण के अलावा और कुछ नहीं है। यही उसके आधारों में से एक है। पूंजीवाद के इस पतन के लक्षण युद्ध से पहले ही दिखाई देने लगे थे। युद्ध ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उसकी नींव समेत तहस-नहस कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप न केवल सर्वहारा वर्ग में भारी दरिद्रता आई है, बल्कि निम्न पूंजीवादी वर्ग, छोटे किसानों और बुद्धिजीवियों की भी बड़ी दुर्गति हुई है। इन सभी समूहों से वादा किया गया था कि युद्ध से उनकी भौतिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरीत —  बड़ी संख्या में पहले का मध्यम वर्ग अपनी आर्थिक सुरक्षा को पूरी तरह से खोकर सर्वहारा बन गया है। इस कतार में बड़ी संख्या में पूर्व अधिकारी भी शामिल हो गए, जो अब बेरोजगार हैं। इन्हीं तत्वों में से फासीवाद को अपने लिए पर्याप्त रंगरूट मिले। फासीवाद की ऐसी संरचना कई देशों में उसके मुखर राजशाहीवादी चरित्र का कारण है। 

फासीवाद की दूसरी जड़ सुधारवादी नेताओं के विश्वासघाती रवैये द्वारा विश्व क्रांति की गति को धीमा करने में निहित है। सुधारवादी समाजवाद के प्रति निश्चित सहानुभूति की वजह से और इस आशा में कि वह लोकतांत्रिक तर्ज पर समाज में सुधार लाएगा बड़ी संख्या में निम्न पूंजीपति वर्ग ने, यहां तक कि माध्यम वर्ग ने भी, युद्ध काल की अपनी मनोवृत्ति को त्याग दिया था। वे निराश थे। उन्हें दिख रहा है कि सुधारवादी नेता पूंजीपति वर्ग के साथ एक परोपकारी समझौते में हैं। इससे भी बुरा यह है कि इस जनता ने अब न केवल सुधारवादी नेताओं में, बल्कि समग्र रूप से समाजवाद में भी अपना विश्वास खो दिया है। समाजवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों की इस निराश भीड़ में सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा भी शामिल हो गया है – उन श्रमिकों का, जिन्होंने न केवल समाजवाद में, बल्कि अपने वर्ग में भी अपना विश्वास छोड़ दिया है। फासीवाद राजनीतिक रूप से आश्रयहीन लोगों के लिए एक प्रकार की शरणस्थली बन गया है। निष्पक्षता में यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि कम्युनिस्ट भी – रूसियों को छोड़कर – फासीवादी कतारों में इन तत्वों के पलायन के लिए कुछ हद तक दोषी हैं, क्योंकि कई बार हमारी कार्रवाइयाँ जनता को गहराई से आंदोलित करने में विफल रही हैं। समाज के विभिन्न तत्वों के बीच समर्थन प्राप्त करते समय फासीवादियों का स्पष्ट उद्देश्य, निश्चित रूप से, अपने अनुयायियों के बीच वर्ग विरोध को पाटने का प्रयास करना रहा होगा और तथाकथित आधिकारिक राज्य को इस उद्देश्य के लिए एक साधन के रूप में काम करना था। फासीवाद अब ऐसे तत्वों को गले लगाता है जो पूंजीवादी व्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक हो सकते हैं। फिर भी, अब तक इन तत्वों पर प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने लगातार विजय प्राप्त की है।

पूंजीपति वर्ग ने शुरू से ही स्थिति को स्पष्ट रूप से देख लिया था। वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करना चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों में पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व का पुनर्निर्माण पूंजीपति वर्ग द्वारा केवल सर्वहारा वर्ग के बढ़ते शोषण की कीमत पर ही किया जा सकता है। पूंजीपति वर्ग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि मृदुभाषी सुधारवादी समाजवादी सर्वहारा वर्ग पर अपनी पकड़ तेजी से खो रहे हैं, और पूंजीपति वर्ग के लिए सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हिंसा का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। लेकिन पूंजीवादी राज्यों के हिंसा के साधन विफल होने लगे हैं। इसलिए उन्हें हिंसा के नए संगठन की आवश्यकता है, और यह उन्हें फासीवाद का खिचड़ी समूह मुहैया कराता है। इस कारण से पूंजीपति वर्ग फासीवाद की सेवा में अपनी सारी ताकत लगा देता है। 

विभिन्न देशों में फासीवाद की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। फिर भी इसकी दो विशिष्टताएं सभी देशों में समान रूप से मौजूद होती हैं —  एक, क्रांतिकारी कार्यक्रम का दिखावा, जिसे चतुराई से बड़े पैमाने पर जनता के हितों और मांगों के लिए अनुकूलित किया जाता है, और दूसरी ओर, सबसे क्रूर हिंसा का प्रयोग। इसका उत्कृष्ट उदाहरण इतालवी फासीवाद है। इटली में औद्योगिक पूंजी इतनी मजबूत नहीं थी कि बर्बाद अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा कर सके। यह उम्मीद नहीं थी कि राजसत्ता उत्तरी इटली की औद्योगिक राजधानी की शक्ति और भौतिक संभावनाओं के विस्तार के लिए हस्तक्षेप करेगी। राज्य अपना सारा ध्यान कृषि पूंजी और छोटी वित्तीय पूंजी पर दे रहा था। भारी उद्योग, जिन्हें युद्ध के दौरान कृत्रिम रूप से बढ़ावा दिया गया था, युद्ध समाप्त होने पर ध्वस्त हो गए और अभूतपूर्व बेरोजगारी की लहर चल पड़ी। सैनिकों को दिए गए वादे पूरे नहीं किए जा सके। इन सभी परिस्थितियों ने अत्यंत क्रांतिकारी माहौल को जन्म दिया। इस क्रांतिकारी माहौल के परिणामस्वरूप, 1920 की गर्मियों में, कारखानों पर कब्ज़ा हो गया। उस अवसर पर क्रांति की परिपक्वता सर्वहारा वर्ग के एक छोटे से अल्पसंख्यक हिस्से के बीच पहली बार प्रकट होती हुई दिखी। इसलिए फ़ैक्टरियों पर कब्ज़ा क्रांतिकारी विकास का शुरुआती बिंदु बनने के बजाय एक ज़बरदस्त हार के साथ ख़त्म होना तय था। ट्रेड यूनियनों के सुधारवादी नेताओं ने घृणित गद्दारों की भूमिका निभाई, लेकिन साथ ही यह भी दिखा कि सर्वहारा वर्ग के पास क्रांति की ओर बढ़ने की न तो इच्छा थी और न ही शक्ति। 

सुधारवादी प्रभाव के बावजूद, सर्वहारा वर्ग के बीच ऐसी ताकतें काम कर रही थीं जो पूंजीपति वर्ग के लिए असुविधाजनक हो सकती थीं। नगरपालिका चुनाव, जिसमें सामाजिक जनवादियों ने तमाम परिषदों में से एक तिहाई जीत हासिल की, पूंजीपति वर्ग के लिए खतरे का संकेत था, जिन्होंने तुरंत एक ऐसी ताकत की तलाश शुरू कर दी जो क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का मुकाबला कर सके। यह वही समय था जब मुसोलिनी के फाशीस्मो (fascismo) को कुछ महत्व प्राप्त हुआ था। फ़ैक्टरियों पर कब्जे में सर्वहारा वर्ग की हार के बाद फासीवादियों (fascisti) की संख्या 1,000 से अधिक हो गई और उसका एक बड़ा हिस्सा मुसोलिनी के संगठन में शामिल हो गया। दूसरी ओर, सर्वहारा वर्ग का विशाल जनसमूह उदासीनता की चपेट में आ गया था। फासिस्टों की पहली सफलता का कारण यह था कि उन्होंने अपनी शुरुआत क्रांतिकारी हावभाव से की थी। उनका दिखावटी उद्देश्य क्रांतिकारी युद्ध की क्रांतिकारी विजय को बरकरार रखने के लिए लड़ना था, और इस कारण से उन्होंने एक मजबूत राज्य की मांग की जो समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिरोधी हितों के खिलाफ, जिनका प्रतिनिधित्व “पुराना राज्य” करता था, जीत के इन क्रांतिकारी फलों की रक्षा करने में सक्षम होगा। इनका नारा सभी शोषकों के खिलाफ था, और इसलिए पूंजीपति वर्ग के खिलाफ भी था। उस समय फासीवाद इतना कट्टरपंथी था कि उसने जियोलित्ती को फांसी देने और इतालवी राजवंश को गद्दी से हटाने की भी मांग की। लेकिन जियोलित्ती ने सावधानीपूर्वक फासीवाद, जिसे वह कम बुरा मानता था, के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करने से परहेज किया। इन फासीवादी दावों को संतुष्ट करने के लिए उसने संसद को भंग कर दिया। उस समय मुसोलिनी अभी भी रिपब्लिकन होने का दिखावा कर रहा था, और एक साक्षात्कार में उसने घोषणा की कि फासीवादी गुट इतालवी संसद के उद्घाटन में भाग नहीं ले सकता क्योंकि वह राजशाही समारोह के साथ होना था। इन कथनों ने फासीवादी आंदोलन में संकट पैदा कर दिया, जिसे  मुसोलिनी के अनुयायियों और राजशाही संगठन के प्रतिनिधियों के विलय के बाद पार्टी के रूप में स्थापित किया गया था, और नई पार्टी की कार्यकारिणी दोनों गुटों के बराबर प्रतिनिधित्व से बनी थी। फासीवादी पार्टी ने मजदूर वर्ग को भ्रष्ट और आतंकित करने का दोधारी हथियार निर्मित किया। श्रमिक वर्ग को भ्रष्ट करने के लिए फासीवादी ट्रेड यूनियनें, तथाकथित निगम जिनमें श्रमिक और नियोक्ता एकजुट थे, बनाई गईं। मजदूर वर्ग को आतंकित करने के लिए फासीवादी पार्टी ने उग्रवादी दस्ते बनाए जो दंड देने के अभियानों से विकसित हुए थे। यहां इस बात पर फिर से जोर दिया जाना चाहिए कि आम हड़ताल के दौरान इतालवी सुधारवादियों की जबरदस्त दगाबाजी, जो इतालवी सर्वहारा वर्ग की भयानक हार का कारण बनी, ने फासीवादियों को राजसत्ता पर कब्जा करने के लिए सीधा प्रोत्साहन दिया था। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट पार्टी की गलतियों का आधार फासीवाद को बिना किसी गहन सामाजिक आधार के महज एक सैन्यवादी और आतंकवादी आंदोलन मानना था।

आइए अब देखें कि फासीवाद ने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद से अपने इच्छित क्रांतिकारी कार्यक्रम को पूरा करने के लिए, वर्ग रहित राज्य बनाने के अपने वादे को साकार करने के लिए क्या किया है। फासीवाद ने एक नए और बेहतर चुनावी कानून और महिलाओं के लिए समान मताधिकार का वादा किया। मुसोलिनी का नया मताधिकार कानून वास्तव में फासीवादी आंदोलन के पक्ष में मताधिकार कानून का निकृष्टतम अवरोधक है। इस कानून के अनुसार, सभी सीटों में से दो-तिहाई सीटें सबसे मजबूत पार्टी को दी जानी चाहिए, और अन्य सभी दलों के पास कुल मिलाकर केवल एक-तिहाई सीटें होंगी। महिलाओं का मताधिकार लगभग पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया है। वोट देने का अधिकार केवल धनी महिलाओं और तथाकथित “युद्ध-प्रतिष्ठित” महिलाओं के एक छोटे समूह को दिया गया है। आर्थिक संसद और नेशनल असेंबली के वादे का अब कोई उल्लेख नहीं होता है, न ही सीनेट के उन्मूलन का, जिसकी फासीवादियों ने इतनी गंभीरता से प्रतिज्ञा की थी।

सामाजिक क्षेत्र में की गई संकल्पों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। फासिस्टों ने अपने कार्यक्रम में आठ-घंटे कार्यदिवस की घोषणा की थी, लेकिन उनके द्वारा पेश किये गये विधेयक में इतने सारे अपवादों का प्रावधान है कि इटली में आठ घंटे कार्यदिवस नहीं होना तय है। मजदूरी की गारंटी के वादे का भी कुछ नहीं हुआ। ट्रेड यूनियनों के विनाश ने नियोक्ताओं को 20 से 30 प्रतिशत और कुछ मामलों में 50 से 60 प्रतिशत तक वेतन कटौती करने का अधिकार दे दिया है। फासीवाद ने वृद्धावस्था और विकलांग बीमा का वादा किया था। व्यवहार में, फासीवादी सरकार ने, अर्थव्यवस्था की खातिर, बजट में इस उद्देश्य के लिए अलग रखे गए 50,000,000 लीरे की तुच्छ राशि को भी हटा दिया है। श्रमिकों को कारखानों के प्रशासन में तकनीकी भागीदारी के अधिकार का वादा किया गया था। आज इटली में एक कानून है जो फ़ैक्टरी कौंसिलों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाता है। राजकीय उद्यम निजी पूंजी के हाथों में खेल रहे हैं। फासीवादी कार्यक्रम में पूंजी पर प्रगतिशील आयकर का प्रावधान था, जो कुछ हद तक पूंजीवादी स्वामित्व को कमजोर करने का काम करता। वास्तव में जो हुआ वह लेकिन इसके विपरीत था। विलासिता की वस्तुओं पर विभिन्न करों को, जैसे ऑटोमोबाइल कर, समाप्त कर दिया गया, दलील दी गई कि यह राष्ट्रीय उत्पादन को अवरुद्ध करेगा। अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि इस कारण से की गई थी कि इससे घरेलू खपत में कमी आएगी और इस प्रकार निर्यात की संभावनाओं में सुधार होगा। फासीवादी सरकार ने प्रतिभूतियों के हस्तांतरण (transfer of securities) के अनिवार्य पंजीकरण के कानून को भी निरस्त कर दिया, इस प्रकार बियरर-बांड की प्रणाली को फिर से शुरू किया और कर चोरी करने वालों के लिए दरवाजा खोल दिया। स्कूलों को पादरी वर्ग को सौंप दिया गया। राजसत्ता पर कब्जा करने से पहले, मुसोलिनी ने एक आयोग की मांग की थी जो युद्ध से हुए मुनाफे (war profits) की जांच करेगा और उसमें  से 85 प्रतिशत राज्य को सौंप दिया जाएगा। जब यह आयोग मुसोलिनी के वित्तीय सरपरस्तों, भारी उद्योगपतियों के लिए असहज हो गया, तो उसने आदेश दिया कि आयोग केवल उसे ही रिपोर्ट सौंपे, और जो कोई भी उस आयोग में घटित कोई भी बात को प्रकाशित करेगा, उसे छह महीने की कैद की सजा दी जाएगी। सैन्य मामलों में भी फासीवाद अपने वादे निभाने में विफल रहा। सेना को क्षेत्रीय रक्षा तक सीमित रखने का वादा किया गया था। वास्तव में, स्थायी सेना के लिए सेवा की अवधि आठ महीने से बढ़ाकर अठारह कर दी गई, जिसका मतलब था कि सशस्त्र बलों की संख्या 250,000 से बढ़कर 350,000 हो गई। रॉयल गार्ड्स को समाप्त कर दिया गया क्योंकि वे मुसोलिनी के लिए बहुत लोकतांत्रिक थे। दूसरी ओर, काराबेनियरी (अर्धसैनिक पुलिस फोर्स) को 65,000 से बढ़ाकर 90,000 कर दिया गया और सभी पुलिस टुकड़ियों को दोगुना कर दिया गया। फासीवादी संगठन राष्ट्रीय मिलिशिया के रूप में तब्दील हो गए, जिनकी संख्या नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अब 500,000 तक पहुंच गई है। लेकिन सामाजिक मतभेदों ने मिलिशिया में राजनीतिक विरोधाभास का बीज बो दिया है, जो अंततः फासीवाद के पतन का कारण बनेगा।

जब हम फासीवादी कार्यक्रम की तुलना उसके पालन से करते हैं तो हम आज ही इटली में फासीवाद के पूर्ण वैचारिक पतन का अनुमान लगा सकते हैं। इस वैचारिक दिवालियेपन के बाद राजनीतिक दिवालियापन अनिवार्य रूप से सामने आता है। फासीवाद उन ताकतों को एक साथ रखने में असमर्थ है जिन्होंने उसे सत्ता में आने में मदद की। कई रूपों में हितों का टकराव पहले से ही महसूस किया जा रहा है। फासीवाद पुरानी नौकरशाही को अपने अधीन बनाने में अभी तक सफल नहीं हुआ है। सेना में पुराने अधिकारियों और नये फासीवादी नेताओं के बीच भी मनमुटाव है। विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे हैं। पूरे देश में फासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। वर्ग विरोध फासिस्टों की कतारों में भी व्याप्त होना शुरू हो गया है। फासीवादी उन वादों को पूरा करने में असमर्थ हैं जो उन्होंने श्रमिकों और फासीवादी ट्रेड यूनियनों से किये थे। मज़दूरों की मज़दूरी में कटौती और बर्खास्तगी आजकल आम बात हो गई है। इसीलिए फासीवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन के खिलाफ पहला विरोध स्वयं फासीवादियों की कतार से आया था। मजदूर शीघ्र ही अपने वर्गीय हित एवं वर्गीय दायित्व पर वापस आयेंगे। हमें फासीवाद को एकजुट शक्ति के रूप में नहीं देखना चाहिए जो हमारे हमले को विफल करने में सक्षम हो। बल्कि वह ऐसा गठन है, जिसमें कई विरोधी तत्व शामिल हैं, और वह भीतर से विघटित हो जाएगा। लेकिन यह मानना ​​खतरनाक होगा कि इटली में फासीवाद के वैचारिक और राजनीतिक विघटन के तुरंत बाद सैन्य विघटन होगा। इसके विपरीत, आतंकवादी तरीकों से फासीवाद द्वारा जीवित रहने के प्रयास के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसलिए, क्रांतिकारी इतालवी श्रमिकों को आगे के गंभीर संघर्षों के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि हम विघटन की इस प्रक्रिया के महज दर्शक बन संतुष्ट रहे तो यह बहुत बड़ी विपत्ति होगी। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने उपलब्ध सभी साधनों के साथ इस प्रक्रिया को तेज करें। यह न केवल इतालवी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है, बल्कि जर्मन फासीवाद के सामने जर्मन सर्वहारा वर्ग का भी कर्तव्य है।

इटली के बाद जर्मनी में फासीवाद सबसे मजबूत है। युद्ध के परिणाम और क्रांति की विफलता के नतीजतन, जर्मनी की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कमजोर है, और किसी अन्य देश में क्रांति के लिए वस्तुनिष्ठ परिपक्वता और श्रमिक वर्ग की आत्मपरक तैयारी के बीच इतना बड़ा अंतर नहीं है जितना कि अभी जर्मनी में। किसी भी अन्य देश में सुधारवादी इतनी बुरी तरह असफल नहीं हुए जितना कि जर्मनी में। उनकी विफलता पुराने इंटरनेशनल में किसी भी अन्य पार्टी की विफलता से अधिक आपराधिक है, क्योंकि उन्हें ही उस देश में, जहां मजदूर वर्ग के संगठन पुराने और अन्यत्र की तुलना में  बेहतर व्यवस्थित हैं, सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए बिल्कुल अलग तरीकों से संघर्ष करना चाहिए था। 

मुझे पूरा यकीन है कि न तो शांति संधियों और न ही रूर (Ruhr) के कब्जे से जर्मनी में फासीवाद को वैसा बढ़ावा मिला है जितना कि मुसोलिनी द्वारा सत्ता हथियाने से । इससे जर्मन फासिस्ट प्रोत्साहित हुए हैं। इटली में फासीवाद का खात्मा जर्मनी में फासीवादियों का हौसला पस्त करेगा । हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए: विदेशों में फासीवाद को उखाड़ फेंकने की शर्त हर एक देश में इन देशों के सर्वहारा द्वारा फासीवाद को उखाड़ फेंकना है। हमारा दायित्व है कि हम वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर विजय प्राप्त करें। यह हम पर भारी कार्यभार थोपता है। हमें समझना होगा कि फासीवाद निराश लोगों का और उन लोगों का आंदोलन है जिनका अस्तित्व नष्ट हो गया है। इसलिए, हमें उस व्यापक जनसमूह को जीतने या बेअसर करने का प्रयास करना चाहिए जो अभी भी फासीवादी खेमे में हैं। मैं अपने इस एहसास के महत्व पर जोर देना चाहती हूं कि हमें इस जनता की आत्मा पर कब्ज़ा करने के लिए वैचारिक रूप से संघर्ष करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि वे न केवल अपने वर्तमान कष्टों से भागने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वे एक नए दर्शन के लिए लालायित हैं। हमें अपनी वर्तमान गतिविधि की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आना होगा। तीसरा इंटरनेशनल, पुराने इंटरनेशनल के विपरीत, बिना किसी भेदभाव के सभी नस्लों का इंटरनेशनल है। कम्युनिस्ट पार्टियों को न केवल शारीरिक सर्वहारा श्रमिकों का अगुआ होना चाहिए, बल्कि दिमागी श्रमिकों के हितों का ऊर्जावान रक्षक भी होना चाहिए। उन्हें समाज के उन सभी वर्गों का नेता होना चाहिए जो अपने हितों और भविष्य की अपेक्षाओं के कारण बुर्जुआ वर्चस्व के विरोध में हैं। इसलिए, मैंने  (इस साल जून में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की विस्तारित कार्यकारी समिति के एक सत्र में बोलते हुए) मजदूरों और किसानों की सरकार के लिए संघर्ष शुरू करने के लिए कॉमरेड ज़िनोविएव के प्रस्ताव का स्वागत किया। जब मैंने इसके बारे में पढ़ा तो मैं बहुत खुश हुई। यह नया नारा सभी देशों के लिए बहुत मायने रखता है। फासीवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में हम इससे दूर नहीं रह सकते। इसका अर्थ है कि छोटे किसानों की व्यापक जनता का उद्धार साम्यवाद के माध्यम से होगा। हमें अपने आप को केवल अपने राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। हमें साथ ही एक दर्शन के रूप में साम्यवाद के आदर्शों से जनता को परिचित कराना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम उन सभी तत्वों को एक नए दर्शन का मार्ग दिखाएंगे, जिन्होंने हाल के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में अपना असर खो दिया है। इसके लिए आवश्यक शर्त यह है कि, जैसे-जैसे हम इन जनता के पास पहुंचते हैं, हम संगठनात्मक रूप से, एक पार्टी के रूप में, एक मजबूती से जुड़ी हुई इकाई बन जाते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हम अवसरवादिता में फंसने और दिवालिया हो जाने का जोखिम उठाते हैं। हमें अपने काम के तरीकों को अपने नये कार्यों के अनुरूप ढालना होगा। हमें जनता से ऐसी भाषा में बात करनी चाहिए जिसे वो, हमारे विचारों पर पूर्वाग्रह के बिना, समझ सके। इस प्रकार, फासीवाद के खिलाफ संघर्ष कई नए कार्यभारों को सामने लाता है।

यह सभी पार्टियों का दायित्व है कि वे इस कार्यभार को ऊर्जावान ढंग से और अपने-अपने देश की स्थिति के अनुरूप पूरा करें। हालाँकि, हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वैचारिक और राजनीतिक रूप से फासीवाद पर काबू पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। फासीवाद से उसके मुकाबले में सर्वहारा वर्ग की स्थिति वर्तमान में आत्मरक्षा की है। सर्वहारा वर्ग की इस आत्मरक्षा को उसके अस्तित्व और उसके संगठन के लिए संघर्ष का रूप लेना होगा।

सर्वहारा वर्ग के पास आत्मरक्षा का सुव्यवस्थित तंत्र होना चाहिए। जब भी फासीवाद हिंसा का प्रयोग करता है, तो उसका सामना सर्वहारा हिंसा से ही करना पड़ता है। मेरा तात्पर्य व्यक्तिगत आतंकवादी कृत्यों से नहीं, बल्कि सर्वहारा वर्ग के संगठित क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की हिंसा से है। जर्मनी ने “सर्वहारा सौ” (proletarische hundertschaften —  श्रमिक मिलिशिया) संगठित करके एक शुरुआत की है। यह संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब सर्वहारा संयुक्त मोर्चा हो। श्रमिकों को पार्टी से ऊपर उठकर इस संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा। सर्वहारा वर्ग की आत्मरक्षा सर्वहारा संयुक्त मोर्चे की स्थापना के लिए सबसे बड़े प्रोत्साहनों में से एक है। प्रत्येक श्रमिक की आत्मा में वर्ग-चेतना पैदा करके ही हम फासीवाद को सैन्य रूप से उखाड़ फेंकने के लिए भी तैयारी करने में सफल होंगे, जो इस समय नितांत आवश्यक है। यदि हम इसमें सफल होते हैं, तो हम यकीन कर सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग के खिलाफ पूंजीपति वर्ग के आम आक्रमण की सफलताओं के बावजूद, जल्द ही पूंजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ शक्ति का काम तमाम हो जाएगा। विघटन के चिन्ह, जो हमारी आंखों के सामने स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं, हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि महाकाय सर्वहारा फिर से क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल होगा, और तब पूंजीवादी दुनिया के लिए उसका आह्वान होगा: मैं शक्ति हूं, मैं संकल्प हूं, मुझमें तुम भविष्य देखते हो!