1. नाम अथवा संज्ञा और क्रिया का अभिन्न रिश्ता होता है। नाम के बगैर चीजों की भिन्नताओं और उनके रिश्तों का दर्शन असंभव है। नाम, अवधारणाएँ आदि जिनसे हमारी भाषा निर्मित होती है, हमें हमसे बाहर की दुनिया और हमारी उसमें स्थिति के प्रति हमें सजग करती हैं। वे हमें हमारी क्रियाओं के प्रति सचेतन कर हमें सोचे-समझे ढंग से उन्हें नियोजित करने में सक्षम बनाती हैं। परंतु यही नाम और अवधारणाएँ जड़ताओं को भी जन्म देती हैं और हमारी स्वतंत्र गतिविधियों को पुनरावर्तित अनुष्ठानों में बदल देती हैं, यदि हम उनके पीछे की प्रक्रियाओं को उन्हीं नामों की सीमाओं में बद्ध मान बैठते हैं। जिस रूप में हम सामाजिक प्रक्रियाओं और उनके बीच के रिश्तों को चिह्नित अथवा नामांकित करते हैं, वह हमारे राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों को नियोजित भी कर देता है। यही अंतर है माल्थस के superfluous population अर्थात् फालतू आबादी और मार्क्स के surplus population अथवा बेशी आबादी के सिद्धांतों के बीच। दोनों ही लगभग आबादी और श्रमिक वर्ग के एक ही हिस्से को इन अवधारणाओं द्वारा चिह्नित कर रहे हैं।
2. “बेशी आबादी’ ज्यादातर लोगों के लिए महज आर्थिक अवधारणा है जिसको अकादमिक बहसों और सांख्यिकीय गणनाओं में बेरोजगारी का पर्याय मान लिया जाता है। अगर हम बेशी आबादी की अवधारणा के इतिहास में जाएं तो हमें पता चलता हैं कि यह अवधारणा पूंजीवाद के विकास की प्रक्रिया को टुकड़े-टुकड़े में देखने के आर्थिक-विवरणात्मक दृष्टिकोण की आलोचना के अंतर्गत उभरा था। इस दृष्टिकोण के तहत मेहनतकश आबादी केवल आर्थिक संसाधन मानी जाती है,जिसकी मनुष्यता इन्सिडेन्टल है जिसको नियंत्रित करना जरूरी है, नहीं तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया को वह अवरुद्ध करेगी। पूँजी का विकास और मशीनीकरण इस आबादी के हिस्सों को फालतू बनाता जाता है और जो समाज और अर्थतन्त्र पर भार बनते जाते हैं। इन्हीं हिस्सों को प्रमुख अंग्रेजी राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस “फालतू आबादी” के रूप में चिह्नित करते थे। इस दृष्टिकोण के तहत इस आबादी की गरीबी और दयनीयता एक तरफ उसकी अपनी नैसर्गिक निष्कृष्टता की द्योतक है, तो दूसरी तरफ उसे नियंत्रित करने का साधन है। यह सोच आज भी राजसत्ताओं की जनसांख्यिकीय नीतियों को सूचित करती है, जिनके तहत पूंजीवाद और बाजार के विकास गरीबी और बदहाली के कारण नहीं नजर आते।
3. फालतू आबादी की अवधारणा की आलोचना ने बेशी आबादी की अवधारणा को जन्म दिया। एक ही तत्व के नए नामांकरण ने उस तत्व के अंदर छुपी संभावनाओं को उजागर कर दिया — बेशी आबादी बेशीकरण का नतीजा है और बेशीकरण पूंजीवादी विकास का पर्याय है। बेशीकरण पूंजीवादी व्यवस्था की अंदरूनी प्रक्रिया है, उससे बाहर नहीं है। यह पूंजीवाद के आधार को बनाए रखने की मौलिक प्रक्रिया है। लोगों का बेशीकरण उनका बहिष्कार नही है। बल्कि वह आबादियों को पूंजीवादी केंद्र से उन्हें जोड़ने की प्रक्रिया है। बेशी के रूप में उनकी पहचान उन्हें व्यवस्था से जोड़ देती है — बेशीकरण उनकी बाह्यता, उनकी स्वतंत्रता, उनकी व्यवस्थात्मक स्वायत्तता का हनन है। इसी बात को जोर देने के लिए बेशी आबादी को सापेक्ष रूप से बेशी कहा गया, अर्थात वह फालतू अथवा बाहर कर दी गई आबादी नही है। अर्थात् बेशीकरण विभेदक समावेशन (differential inclusion) की प्रक्रिया है।
4. यही कारण है कि बेशी आबादी की स्वायत्तता की लड़ाई शामिल होने की लड़ाई नहीं हो सकती। शामिल होने की लड़ाई का अंतहीन गुहार उन्हें व्यवस्था से बांधे रखने का षड्यंत्र है। उन्हें “शामिल होने” की कोशिश में व्यवस्था को स्वीकार करना होता है, और अपने आप को व्यवस्था के लिए स्वीकार्य बनाना होता है। उनकी लड़ाई की यह मतात्मक (आइडियोलॉजिकल) फ्रेमिंग ही बर्जुआ राजनीति का रणक्षेत्र तैयार करती है। अलग अलग राजनीतिक दलों का काम इस रणक्षेत्र के दायरे में उनके अनुशासन और उत्पादक संगठन के प्रतिस्पर्धात्मक फार्मूलों की पेशकश करना है। इस प्रयोजनार्थ सत्तारूढ़ और सत्ताच्युत विपक्ष एक दूसरे के पूरक हैं।