इस लेख का विस्तृत पाठ जॉन होल्वे की किताब “क्रैक कैपिटलिज्म” के बंगला अनुवाद की भूमिका के लिए लिखा गया और प्रकाशित हुआ है। साथी मार्तंड प्रगल्भ के साथ लिखा वह लेख अनुगूँज के ब्लॉग पर उपलब्ध है ।
आज एक तरफ प्रगतिशील राज्यवादी धाराएँ फासीवाद से संघर्ष के नाम पर उदारवाद और कल्याणकारी संस्थाओं की पहरेदारी करने में लगी हैं, तो दूसरी तरफ व्यवस्था लगातार अपनी दरारों को छुपाने के लिए आपातकालिक उपायों पर निर्भर रह रही है। संकट को अवसर बनाने के फेर में बड़े संकट पैदा कर रही है। हम यह भी कह सकते हैं कि व्यवस्था अपने एक संकट का निवारण दूसरे संकट द्वारा ही कर पा रही है।
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परंतु संकट आखिर क्या है? शायद इसको समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक पहलू उस मौलिक मार्क्सवादी शिक्षा पर जोर है जिसके अनुसार पूंजीवाद का आधार मानवीय गतिविधियों का सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम काल के साथ ताल-मेल होता है। सारे संकटों की जड़ हमारा बेताल होना है। तभी तो, संकट के कारण हम हैं, पूंजीपति नहीं। आर्थिक, राजनीतिक और अन्य प्रकार के प्रबंधनात्मक विकास इसी ताल-मेल को बनाए रखने के लिए होते हैं। परंतु बेताल हो जाने की और व्यवस्थाई असन्तुलन की समस्या पूंजीवाद पर हमेशा मंडराती रहती है। व्यवस्था के दीवारों की लगातार मरम्मत होने के बावजूद हमारे करने से ही छोटी बड़ी दरारें लगातार बनती और फैलती रहती हैं “जहां से मसीह प्रवेश कर सकता है” (वाल्टर बेंजामिन, ऑन द कॉन्सेप्ट ऑफ हिस्ट्री)।
पूंजीवादी सामाजिक संश्लेषण आज निरंतर खतरे में है। उसका व्याकरण आज गहरे संकट में है। इस व्याकरण के तहत क्रियाओं और कृत्यों की स्वच्छंदता और बहुआयामीता पर एक ही क्रिया, अस्ति (होना) का वर्चस्व स्थापित होता है। यही अस्तित्व अथवा सत्त्व संज्ञाओं और क्रियाओं के बीच पदक्रमात्मक सम्बन्ध पैदा करते हैं। केवल इसी रूप में पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन संभव है। परंतु ये विभिन्न प्र-क्रियाएँ संकट ले कर आती हैं। ये संज्ञाएँ तो बनाती हैं – पण्यों, द्रव्यों, इत्यादि सभी का तो राज यही हैं – परंतु उनकी सत्ता को कभी स्थिर नहीं रहने देतीं। जैसे ही पण्यों को हम पण्यीकरण, द्रव्यों को द्रव्यीकरण समझते हैं तो हमे इन संज्ञाओं की अस्थिरता साफ दिखती है। जैसाकि अर्न्स्ट ब्लॉक ने कभी कहा था कि अस्तित्व की बंद, गतिहीन अवधारणा की तिलांजलि से ही उम्मीद का अस्ल आयाम खुलता है (अर्न्स्ट ब्लॉक, द प्रिंसिपल ऑफ होप, भाग 1)। मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिज़्म के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही कहा था।
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“कम्युनिज़्म हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को कम्युनिज़्म का नाम देते हैं जो मौजूदा अवस्था को मिटाता है। इस आंदोलन की स्थितियां उन पूर्वाधारों से उत्पन्न होती हैं जो अभी विद्यमान हैं।” (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, द जर्मन आइडियोलॉजी)
बहुतों को कम्युनिज़्म की यह परिभाषा अधूरी लगती है, क्योंकि इसमें कम्युनिज़्म का विस्तृत रूपात्मक विवरण नहीं दिया गया है। पर हम समझते है कि इसमें सब कुछ है जिसके आधार पर ऐसे विवरण तैयार किए जा सकते हैं। परंतु विवरण तो परिभाषा नहीं है, वे केवल ऐतिहासिक स्वरूपों की कहानियां बता सकता है।
पहली बात तो यह है कि कम्युनिज़्म शब्द अपने आप में एक सूत्र है जो कि वर्गीय-विभाजित सामाजिकता के खिलाफ कम्यून अथवा वर्ग-विहीन सामूहिकता पर आधारित सामाजिकता की पेशकश करता है। पर वह कोई भविष्य में आने वाली अवस्था नहीं है, जिसे स्थापित होना अथवा करना है। वह आदर्श भी नहीं है जिसे कार्यक्रम-बद्ध कर यथार्थ को वहां तक पहुंचाना है।
यानी कम्युनिज़्म को आना-लाना नहीं है, वह तो यहीं है। “मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में”। मौजूदा अवस्था को मिटाने के हमारे संघर्ष में, वास्तविक आंदोलन में वह मौजूद है। “खोजी होय तुरत मिलिहों, पल भर की ही तलास में।” वह तो “सब सांसों की स्वांस में” मौजूद है। (कबीरदास)
कम्युनिज़्म की स्थितियों क़े पूर्वाधार उसी अस्तित्व का हिस्सा हैं जिसका विद्यमान स्वरूप पूंजीवाद है। और शायद इसीलिए ऊपर उद्धृत कथन में कम्युनिज़्म को वास्तविक आंदोलन कहा गया है जो कि मौजूदा अवस्था को नकारता, “मिटाता” है। कम्युनिज़्म की विशिष्टता इसी में है कि “वह उत्पादन तथा संसर्ग के तमाम पूर्ववर्ती संबंधों के आधार को पलट देता है।” वह सामाजिक पूर्वाधारों को “ऐक्यबद्ध व्यक्तियों” की सत्ता के अधीन लाता है, पूंजीवादी समाज में व्यक्तिकृत व्यक्तियों की भ्रामक सामूहिकता के जगह पर वास्तविक एकता को उजागर करता है। कम्युनिज़्म मौजूद सामाजिक पूर्वाधारों को एकता के आधारों में बदल डालता है। (द जर्मन आइडियोलॉजी) वह व्यवस्थित अवस्थाओं की नकार है।
यही सतत नकार वर्ग संघर्ष की निरंतरता है। यह नकार सामाजिक संसर्ग के उन स्वरूपों के खिलाफ उत्पादक शक्तियों की बगावत है जो जीवंत मूर्त और उपयोगी श्रम को पूँजीकृत मृत श्रम के अधीनस्थ रखते हैं – जो क्रिया पर कृत की सत्ता स्थापित करते हैं। हम ज्यादा समय भूल जाते हैं कि मनुष्य और उसके पूर्ववर्ती श्रम के नतीजे ही तो उत्पादक शक्तियाँ हैं। नतीजों की स्वायत्तता, और मानवीय श्रम के अमूर्तिकरण के साथ उसका महज उन नतीजों के उपांग के रूप में सीमित हो जाना, यही पूंजीवादी सामाजिक स्वरूप की विशेषता है। और इस स्वरूप की आलोचना और नकार कम्युनिज़्म है।
तमाम विवरणों की तरह कम्युनिज़्म का विवरण भी दिक्कालिक (स्पेसटाइम से सम्बंधित) होता है। दिक्काल के अनुसार कम्युनिज़्म अव्यक्त (अपने न होने में) रहता है अथवा व्यक्त होता है। उसी के अनुसार यह भी तय होता है कि क्या “कम्युनिज़्म मात्र स्थानीय घटना के रूप में ही जीवित रह पाता” है (परंतु “संसर्ग का प्रत्येक विस्तार स्थानीय कम्युनिज़्म को मिटा देगा”), या फिर वह “विश्व-ऐतिहासिक” पटल पर बदलती परिस्थितियों में क्रियान्वित होता है (द जर्मन आइडियोलॉजी)। इसी बदलती दिक्कालिकता के कारण कम्युनिज़्म को किसी एक प्रकार के विवरण में बांधना नामुमकिन है। जब वह कोई अवस्था है ही नहीं तो उसका स्थापित विवरण क्या होगा।
नकार सतत क्रिया है। तभी तो मार्क्स ने कम्युनिज़्म को “कार्यवाही” और “क्रियाकलाप” के रूप में चिह्नित किया। कई मार्क्सवादी कम्युनिज़्म के इसी प्र-क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने के लिए कम्युनिजेशन शब्द का इस्तेमाल करते हैं।
दूसरी तरफ, कम्युनिज़्म को अवस्था अथवा सामाजिक चरण मानने वाले उसको एक भिन्न सम्पूर्ण सामाजिक सत्त्व के रूप में समझते हैं जो पूंजीवाद के बाद स्थापित होगा। उनके लिए कम्युनिज़्म सामाजिक संसर्गों का भविष्यकालिक स्थापित नियोजन है। वह कितना ही कल्याणकारी क्यों न हो, उसे सामाजिक क्रियाशीलता और रचनात्मकता के मुक्त प्रवाह को नई सम्पूर्णता की पुनरुत्पादन-प्रक्रिया के वृत्तीय लूप में बांधना होगा।
यही वजह है कि व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों में चरणवादी कम्युनिस्टों का वर्चस्व श्रमिकों के तमाम तबकों की स्वगतिविधियों पर आधारित मानवीय आत्ममुक्ति के मार्गों को उजागर नहीं होने देता और उन्हें राजकीय जड़वाद के घेरे में बांध कर (गरमपंथी) सुधारवाद की ओर मोड़ देता है। सामाजिक अलगाव, आर्थिक और राजनीतिक के पार्थक्य (the separation between the economic and the political) पर टिकी व्यवस्था को एक नया स्वरूप मिल जाता है। इस पार्थक्य से उत्पन्न राजसत्ता को नई वैधानिकता मिल जाती है। और कम्युनिज़्म भूमिगत ही रहता है।
कम्युनिज़्म नाम नहीं है वह क्रिया है, सामाजिक एकता, सहयोग और सहकारिता की प्रक्रिया है, जबकि पूंजीवाद उस सहयोग के अलगाव, उत्पादीकरण और तकनीकीकरण पर आधारित है। इस व्यवस्था के तहत मानवीय क्रियाशीलता महज “पण्यों के विशाल संचय” का साधन हो जाती है। आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया में सामाजीकरण सतत बढ़ता जाता है परंतु उत्पादन सम्बन्ध और विनिमय प्रणाली इस सामाजिक क्रिया को कृत, पण्य, उसके स्वामित्व और उसके दाम, जो कि “किसी पण्य में मूर्त होनेवाले श्रम का द्रव्य-नाम होता है” (कार्ल मार्क्स पूंजी भाग 1), के प्रश्नों में ओझल कर देते हैं। सामाजीकरण और “मूर्तिकरण” (फेटिशाइज़ेशन) के इसी अन्तर्विरोध को वर्ग संघर्ष के रूप में एंगेल्स सूत्रबद्ध करते हैं, जब वह कहते हैं कि “सामाजीकृत उत्पादन तथा पूँजीवादी हस्तगतकरण-व्यवस्था की असंगति सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के विरोध के रूप में हुई।” (एंगेल्स, समाजवाद: काल्पनिक तथा वैज्ञानिक)
कम्युनिज़्म इस सामाजिक क्रियाशीलता के पूंजीवादी हस्तगतकरण से मुक्ति के लिए होती सतत दैनिक संघर्ष की क्रिया है। वह नामों, पण्यों और कृतों के जड़-बंधन से मुक्त होने की लड़ाई है। अगर कम्युनिज़्म सामूहिक सामाजिक प्र-क्रिया है और पूँजीवाद उस ऊर्जा का उत्पादिकरण कर उसे पण्य, द्रव्य, मूल्य और राज्य के स्वरूपों में बाँधता है, तो कम्युनिज़्म का विस्तार पूँजीवाद के अंदर, उसके विरुद्ध, और उसके आगे निकलने का संघर्ष है — उसकी नकार है।
कम्युनिज़्म पूँजीवादी स्वरुपों की सैद्धांतिक-व्यवहारिक आलोचना द्वारा मानवीय क्रिया को उन स्वरूपों से मुक्त कर उनका सत्य उजागर करता है। उन स्वरूपों की जड़ता को तोड़कर उन प्रक्रियाओं को सामने लाता है जिनसे वे निर्मित होते हैं। ये प्रक्रियाएँ अपने आप में अंतर्विरोध-पूर्ण होती हैं। यह अंतर्विरोध श्रम और पूँजी के बीच, मूर्त श्रम और उसके अमूर्तिकरण के बीच, जीवंत और मृत श्रम के बीच होता है। ये आंतरिक संघर्ष तमाम पूंजीवादी सत्त्वों के भावात्मक अथवा प्रक्रियात्मक स्वरूपों को सामने लाता है। जो व्यवस्था में स्थापित कर्ता, संज्ञा अथवा नामरूप हैं, उनके गुणों का ज्ञान उनके नाम से नहीं होता, उनके कर्म से भी नहीं होता, बल्कि जिन प्रक्रियाओं के द्वारा वे स्थापित होते हैं उनसे होता है।
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लगभग ढाई हजार साल पहले शाकटायन और यास्काचार्य जैसे नैरुक्तों ने वैयाकरणों के साथ भाषा के उद्भव को लेकर बहस में, विशेषकर क्रियापद और नामपद के सम्बंध के संदर्भ में, इसी बात को अपने ढंग से रखा था। वे कहते हैं कि भावप्रधानमाख्यातम् सत्त्वप्रधानानि नामानि। तद्यत्रोभे भावप्रधाने भवत: पूर्वापरिभूतं भावमाख्यातेनाचश्टे। अर्थात, आख्यात (क्रियापद) में कृत्य प्रधान होता है, जबकि नाम या संज्ञा में कृत। गतिमान अथवा चल रहे कार्य (becoming) को यहां भाव कहा गया है, और सत्त्व का अर्थ है पूरा किया हुआ कार्य (being)। आगे, जब दोनों साथ आते हैं तब भी भाव ही प्रधान रहता है, और चल रहे कार्य में पौर्वापर्यं यानी कार्य के क्रमिक चरणों का ज्ञान होता है।
यास्काचार्य आगे यहां तक बोल देते हैं कि नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च — अर्थात, शाकटायन और अन्य नैरुक्तों के अनुसार सभी नाम आख्यात (क्रियापद) से पैदा हुए हैं। वैयाकरणों ने इस मत का पुरजोर विरोध किया क्योंकि वह व्याकरण में अराजकता पैदा करता है, शब्दों और वाक्यों में अनियमितताओं और अर्थ के सिलसिले में अनिश्चितताओं को जन्म देता है। परंतु नैरुक्तों का जवाब निस्संदेह क्रांतिकारी था: “तुम्हारी चाहत कि सभी नाम नियमानुसार निर्मित हों और सुगम हों कभी पूर्ण नहीं होगी; हो ही सकता है उस भाषा को बोलने वालों की नासमझी अथवा सहूलियत या फिर सनक के ही कारण भाषा भ्रष्ट हो जाए, तब भी वैयाकरणों और नैरुक्तों का काम है उन भ्रष्टताओं का हिसाब करना।” (वैजनाथ काशीनाथ राजवाडे, यास्काचार्यप्रणितं निरुक्तम्, प्रथमो भाग:)
और उम्मीद भी तो यहीं है!
प्रत्यूष चंद्र
जनवरी 2021