तुम पहाड़ हो कठोर हो मगर स्रोतों की शीतलता तुम्हारी धमनियों में बहती तुम्हारी हजार आंखों में नमी भर जाती है ललाट पर तेजी
हरेक की पहचान है तुम्हें तुम्हे हर कोई अपना लेता है तुम्हें हर कोई अपना लगता है तुम्हारी समान दृष्टि व्यक्तित्वों के बहुरंग को धूप छाँव के अंतहीन खेल में बदल देती है
तुम्हारे पथरीले ऊबड़ खाबड़ शरीर पर हर जगह की पहचान है रोएं की तरह फैले जंगलों में पेड़ों की कतार नहीं नहीं है भीड़ की निर्दयी होड़ एक विचित्र संतुलन है जीव जीव निर्जीव की आन है पहचान है
फिर भी सब समान है
*पिछले साल 2019 में जून के महीने में हम हाथीपाँव में रुके हुए थे, और बीच बीच में नीचे देहरादून आकर हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, उत्तराखंड के जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता और मेरे बहुत पुराने साथी त्रेपन सिंह चौहान के घर में दिन बिताते थे। वहीं पर त्रेपन के लिए यह कविता लिखी थी जो उन्हें अच्छी लगी थी। त्रेपन इस साल 13 अगस्त को लंबी बीमारी से लड़ते हुए 49 साल की उम्र में ही गुज़र गए।
मैंने खड़ी पहाड़ों और ऊंची चोटियों को लांघा है,
मुझे क्या इल्म होगा तराइयों की मुश्किलातों का?
पहाड़ों में बाघ के सामने से महफूज़ गुज़रा हूँ,
तराइयों में मिले इंसां और कैदखाने पहुंचा हूँ।
हम निकल पड़े थे वहाँ उम्मीद में कि दुनिया बदले
खड़े हैं आज भी उस छोर पर कि कारवाँ गुज़रे
इक-इक कर के दुनिया की हवा ने
उम्मीद के गुलिस्तां से
चुन लिया है गुलों की रंगीनी
हरे पत्तों से उनकी हरियाली
शोख यौवन से सारी शोखी
रह गए हैं तो बस कंटीले बिस्तर
ढंकने को है तो बस सपनों की चादर
उसने हर रूप निहार कर देखा
हर आकार फाड़ कर देखा
सपनों की बीज हर कहीं लेकिन
खोज कर खोद ले जाए नहीं मुमकिन
सपना साकार ही हो जाए तो सपना कैसा
छीन सकता है उसकी भाषा को
छू नहीं सकता उसकी आशा को