पंख पंछियों के फैले


पंख पंछियों के फैले क्यारियों में ऐसे
क्या किसी साँप या और किसी
जानवर की करतूत है

हवा की खामोशी बताती है
वो जो भी है कहीं मौजूद है
यहीं कहीं उसका वजूद है

मगर अचानक ये शोर क्या
भोर का कलरव है
या कोई उत्सव है

किसे याद है
कि इस मिट्टी को
सब याद है

दिन में शोर हो
या रात का खामोश
दर्दनाद है

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पहाड़


साथी त्रेपन सिंह चौहान के लिए*

तुम पहाड़ हो
कठोर हो
मगर स्रोतों की शीतलता
तुम्हारी धमनियों में बहती
तुम्हारी हजार आंखों में नमी
भर जाती है
ललाट पर तेजी

हरेक की पहचान है तुम्हें
तुम्हे हर कोई अपना लेता है
तुम्हें हर कोई अपना लगता है
तुम्हारी समान दृष्टि
व्यक्तित्वों के बहुरंग को
धूप छाँव के अंतहीन खेल में बदल देती है

तुम्हारे पथरीले ऊबड़ खाबड़
शरीर पर
हर जगह की पहचान है
रोएं की तरह फैले जंगलों में
पेड़ों की कतार नहीं
नहीं है भीड़ की निर्दयी होड़
एक विचित्र संतुलन है
जीव
जीव
निर्जीव की
आन है
पहचान है

फिर भी सब समान है

*पिछले साल 2019 में जून के महीने में हम हाथीपाँव में रुके हुए थे, और बीच बीच में नीचे देहरादून आकर हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, उत्तराखंड के जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता और मेरे बहुत पुराने साथी त्रेपन सिंह चौहान के घर में दिन बिताते थे। वहीं पर त्रेपन के लिए यह कविता लिखी थी जो उन्हें अच्छी लगी थी। त्रेपन इस साल 13 अगस्त को लंबी बीमारी से लड़ते हुए 49 साल की उम्र में ही गुज़र गए।

मौसम है अभी गिरने का


नीचे कुछ और नीचे
अभी और नीचे गिरना है
दिमाग क्यों खराब करो
थमने की बात सोचकर

खुद ब खुद तल छू लोगे
और थम जाएगा गिरना
कोई पर तो नहीं लगे हैं कि
अचानक उड़ान भर लोगे

ज़रा ध्यान दो टकराओ मत
एक दूसरे को पहचानो
तुम अकेले नही होगे उस गर्त में
मौसम है अभी गिरने का

गिरते हैं सभी मगर अकेले
उठना तब भी उस गर्त से
होगा साथ मिलकर ही
कई कंधे एक दूसरे को

संभालेंगे एक दूसरे पर
अभी आनंद लो गिरने का
जतन न करो बीच में
टहनियों को पकड़ बचने का

सब देखते हैं साथ के
तुम्हारी साहसी कमज़ोरी
कहीं तो तल छू ही लोगे
बेसब्री किस बात की

और साथ साथ निकलेंगे
एक दूसरे को खींच लेंगे
अभी गिरना और बाकी है
मौसम है अभी गिरने का

कौन सुनेगा दूर की धुन को


एक ही रंग में रंग गया सब कुछ
गोरा हो या काला
राजा जो मतवाला है सो
सारा जग मतवाला

एक ही भाषा एक ही आशा
क्या कहता है अगला पासा
ताश के पत्ते बन उड़ते हैं
एक ही धुन में सब जग नासा

सब की नैया धार में उतरी
दिखता कोई नहीं किनारा
एक दिशा में सब बहते हैं
कौन चलेगा उल्टी धारा

कलुश भेद तम कौन हरेगा
सूली पर अब कौन चढ़ेगा
सब को है बस एक ही चिंता
इसका सिर गिर किसका चढ़ेगा

सब तो या चाणक्य गुरु हैं
या फिर कान्हा रथ पकड़े हैं
या हैं धनुर्धर महारथी सब
जो हर दम ही रण में खड़े हैं

कौन सुनेगा दूर की धुन को
कौन बनेगा आज का बुनकर
कल की तैयारी करने को
कौन लाएगा रूई धुनकर

मुश्किल है जीवन की राह


मैंने खड़ी पहाड़ों और ऊंची चोटियों को लांघा है,
मुझे क्या इल्म होगा तराइयों की मुश्किलातों का?
पहाड़ों में बाघ के सामने से महफूज़ गुज़रा हूँ,
तराइयों में मिले इंसां और कैदखाने पहुंचा हूँ।

हो ची मिन्ह (19 मई 1890 – 2 सितंबर 1969)

नया सर्वहारा


हमारा मरना मारना महज तथ्य है
आंकड़े हैं मशीन की परीक्षा के लिए

नई तकनीक है
चेहरे पहचानने की
कोई अदृश्य मशीन उस मशीन के पीछे है
और उसके पीछे एक और मशीन
मशीनों का पूरा तंत्र है
जो अपने आप में एक यंत्र है

(अगर कुछ भी नहीं होगा

तो क्या काम होगा
हमारा
उसका)

हमारी पहचान होगी
इसका कत्ल हुआ
और उसने मारा
– नया काम और कामगार
नया सर्वहारा

वर्तमान का पुरातत्व


समय की धूल

उड़ती बैठती

इतिहास पर

पहाड़ों की तरह

ज़िन्दगी

और ज़िन्दगी

खोती रही

बस ज़िन्दगी

कल क्या हुआ था

नींद में था

चल बसा

अब खोदते हैं

कब्र उसकी

मिल रही है

कब्र किसकी

क्रांति और भक्त


क्रांति क्रांति हे क्रांति देवि
भक्तों के स्वर यों गूँज रहे
तुम कहाँ गई हो इन्हें छोड़
ये हर पल तुम को ढूंढ़ रहे

तुम इनकी खबर न लेती हो
तुम इनको कुछ न देती हो
लो ये दीवाने क्लांत हुए
रोते रोते सब शांत हुए

अब ऐसी हालत हो गई है
हर आहट पर ये चौंक रहे
इनकी गति अब यूँ देख-देख
सब श्वान इन्हीं पर भौंक रहे

हर छोर मोड़ पर तुम दिखती
हर देवि में तेज तुम्हारा है
जिस ओर हवा भी बहती हो
सब इनके लिए इशारा है

पता नहीं क्या होगा तब
जब देवि तुम्हारा आना हो
हर ओर तुम्हारे मंदिर हैं
किस अर्थ तुम्हारा पाना हो

सब रमे हुए हैं भक्ति में
आभास तुम्हारा इनको है
सब तुम्हें जानते तुमसे ज्यादा
चाह तुम्हारी जिनको है

कण कण में जब तुम्हीं दिखो
हर तरफ तुम्हारी ही छाया
जब देवि तुम्हीं हर ओर मिलो
क्या काम करे काया-माया

सपना


हम निकल पड़े थे वहाँ उम्मीद में कि दुनिया बदले
खड़े हैं आज भी उस छोर पर कि कारवाँ गुज़रे
इक-इक कर के दुनिया की हवा ने
उम्मीद के गुलिस्तां से
चुन लिया है गुलों की रंगीनी
हरे पत्तों से उनकी हरियाली
शोख यौवन से सारी शोखी
रह गए हैं तो बस कंटीले बिस्तर
ढंकने को है तो बस सपनों की चादर

उसने हर रूप निहार कर देखा
हर आकार फाड़ कर देखा
सपनों की बीज हर कहीं लेकिन
खोज कर खोद ले जाए नहीं मुमकिन
सपना साकार ही हो जाए तो सपना कैसा
छीन सकता है उसकी भाषा को
छू नहीं सकता उसकी आशा को

अकेलापन – बाशो


अकेलापन –
कैद झींगुर
लटकता दीवार से

जापानी कवि बाशो