कविताओं में कंकड़


कविताओं में वे भी हैं जो कहे से इतर हैं
यानी अनकही चीजें जिन्हें आप कहते नहीं
मगर उनके नहीं कहने में ही वे आ जाती हैं

हम जो कहते हैं वे तो बस बिंदु हैं
जिन्हें ध्यान रखकर दिशाओं का आकलन करते हैं

या फिर रेखाएं हैं जिनसे हम
सच्चाई की ज़मीन पाटते हैं
उसे कहने लायक बनाते हैं

या फिर ढांचे हैं जिनमें हम सच्चाई को बांधते हैं
और बताते हैं कि यही सच्चाई है और कुछ भी नहीं

मगर नहीं वे मामूली कंकड़ हैं
जिन्हें हम फेंक दें और इंतजार करें
आम के गिरने का किसी पक्षी के उड़ने का
ठहरे हुए पानी में सिहरन का
बहते हुए पानी में बहने का
पत्तों के झुरमुट से चाँद के निकलने का

सच्चाई नहीं
सच्चाई के बदलने का

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