सत्ता की रात – कुछ कविताएँ


सत्ता की रात में

हे उदारपंथियों
पहचानो
ये तुम्हीं हो
तुम्हारा ही विकृत रूप है
नशे में धुत्त
तुमने कर दिखाया
जो तुम्हें पहले कर दिखाना था
सही दिमाग़ से
बिन पगलाये
तुम इसको कर सकते थे
मगर तुम्हें हिम्मत कहाँ थी
समय ही कहाँ था
मठाधीशों में तिकड़म भिड़ाने से
तो लो सत्ता की रात में
मदहोश हो
मठाधीशों में मठाधीशी जमाने के लिए
एक नया चिलम चढ़ा कर
किया है वही जो तुम्हें करना था
मगर विकृत रूप में

आत्ममुग्ध

1
सत्ता के पौध हैं
सत्ता के गलियारे में ही खिलेंगे
माली बदल जाए पर वे न बदलेंगे
वे यहीं उगते हैं
सत्ता है तो वे हैं
पर उन्हें मुगालता है कि वे हैं तो सत्ता है

2
किसी को खुशफहमी पालने से
कौन रोक सकता है भला
प्रजा सोचती है उसका तन्त्र है
वे नहीं जानती कि वह मात्र यंत्र है

3
चाँद कहता भागा अंधेरा है
रात कहती तू मेरा है
सूर्य कहता रोशनी मेरी
अंतरिक्ष बस मुसका रहा

4
आत्ममुग्ध हैं सभी
आत्ममुक्त कुछ नहीं

दो भाई

हाथ में हथियार है
कौम की ललकार है
दिल मे धिक्कार है
साँप की फुफकार है

हाथ में हाथ है
साथियों का साथ है
सत्ता से प्यार है
उम्मीद शानदार है

तू

क्या हुआ
इतना कुछ हो गया लेकिन तू न हिला
समय को बदलते तूने देखा है
जीवनियों को मूर्ति होते पिघलते देखा है
क्या हुआ तुझको सब पता है
फिर भी तेरी धमनियों में खून ठंडा क्यों रहा

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